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बुधवार, 25 जनवरी 2017

संदर्भ सहित व्याख्या

नाटक उस वक्त पास होता है जब रसिक समाज उसे पसंद कर लेता है। बारात का नाटक उस वक्त होता है जब राह चलते आदमी उसे पसंद कर लेते हैं। दयानाथ का भी नाटक पास हो गया।

प्रसंग :- प्रस्तुत गद्यांश हमारे पाठ्य पुस्तक गबन उपन्यास से लिया गया है। इसके लेखक प्रेमचन्द जी है। इस प्रसंग में प्रेमचन्द ने दिखाया है कि कैसे मध्यमवर्गीय परिवार लोगों में बाहर वाले क्या कहेंगे इसकी चिन्ता सताती रहती है। शादी-ब्याह जैसे मौके पर यदि कोई कमि रह जाए तो जैसे उनके लिए संकट की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। रमानाथ की शादी जालपा से तय हो चुकी है और अब बारात को ढंग से सजाकर न ले जाने का भय रमानाथ और दयानाथ दोनों से ही आय से अधिक खर्च करवा लेता है जिसका उन्हें बाद में फल भुगतना पड़ता है।

व्याख्या:- प्रस्तुत गद्यांश में प्रेमचन्द ने उस समय का वर्णन किया है जब रमानाथ का विवाह जालपा से तय हो जाता है। टीके में एक हजार की रकम समधी से पाकर-मितव्ययी तथा आर्दशवादी दयानाथ अपने आदर्शों पर टिक नहीं पाते और अपनी आय से अधिक व्यय कर देते हैं। वह भी मध्यवर्गीय-कुसंस्कार से जकड़े हुए, पात्र हैं जिनका विश्वास होता है कि नाटक की सफलता सहृदयों द्वारा उसके पसंद किये जाने में निहित होती है। नाटक की उत्कृष्टता की परख चाार-पाँच घंटों में होती है। पर बारात की उत्कृष्टता या निकृष्टता का पारखी मार्ग चलती भीड़ होती है जिसे वास्तविकता से नहीं वरन् बाह्य चमक-दमक से ही मतलब होता है। जितने मिनटों में बारात के संग-संग चलने वाला तमाशा, आतिशबाजी, भीड़ आदि जनता द्वारा पसंद किए जाते हैं तो बाराती अपने को धन्य मानते हैं अन्यथा उनके सारे करे-कराये पर पानी फिर जाता है।

विशेष :- प्रस्तुत संदर्भ में लेखक ने दुःसंस्कार-ग्रस्त मध्यवर्ग पर तीखा व्यंग्य किया है।

बुधवार, 18 जनवरी 2017

गबन की आधुनिक प्रासंगिकता


            प्रेमचन्द द्वारा रचित ग़बन उपन्यास में, भारतीय मध्यमवर्ग का यथार्थ चित्रण हुआ है। इस उपन्यास में उसकी सारी कमजोरियों के साथ-साथ उसकी खूबियाँ भी दिखायी देती है। उपन्यास में जितने भी मुख्य पात्र है सभी मध्यमवर्ग से ताल्लुक रखते है। कुछ अमीर तथा अफसरशाह पात्र भी है जो कथानक के अन्त में आकर उसे रोचक मोड़ देते हुए अन्त तक ले जाते है। इस उपन्यास में प्रेमचन्द ने शहरी जीवन को विशेषकर तत्कालीन भारत में उभरते मध्यमवर्ग के जीवन को जिस रूप में वर्णित किया है और आज के भारतीय मध्यमवर्ग में काफी कुछ समानताएँ देखने को मिलती है।कथानक की शुरूआत कुछ ऐसे होती है कि मुंशी दीनदयाल अपनी पुत्री जालपा को बचपन से ही खिलौनो की जगह कोई-न-कोई आभूषण लाकर देते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि जालपा इसी से प्रसन्न होगी बाकी सब चीजें व्यर्थ थी। जालपा आभूषणों से ही खेल-खेल कर बड़ी होती है। एक दिन दीनदयाल जालपा की माँ मानकी के लिए चन्द्रहार लेकर आते हैं तो जालपा को वह हार बहुत भा जाता है। वह भी उसी हार के लिए अपने पिता से कहती है तो उसके पिता जल्द लाने का वादा करते हैं परन्तु वह नहीं मानती। तब उसकी माँ कहती है कि ऐसा चन्द्रहार उसकी जब शादी होगी तब उसके ससुराल से आएगा। बाल मन इसी कल्पना को सच मानकर बहल जाता है। जालपा धीरे-धीरे बड़ी हो जाती है और आख़िरकार वह दिन भी आता है जब उसका विवाह दयानाथ के बेटे रमानाथ से तय हो जाती है। जालपा ससुराल वालों की कल्पना करती है कि वे लोग उसके माता-पिता से भी अधिक प्रेम करेंगे, विशेषकर उसे चन्द्रहार बनवाकर देंगे। परन्तु नियती में कुछ और लिखा होता है। दयानाथ एक अलग किस्म के व्यक्ति थे। कचहरी में नौकरी करने के बावजूद भी वह रिश्वत के खिलाफ थे। किसी प्रकार 50 रूपये की मासिक आय से अपने परिवार का पेट पालते थे। वही उनका बेटा रमानाथ कॉलेज में दो महिने पढ़ने के बाद पढ़ाई छोड़ देता है। वह आधुनिक रंग-ढंग में डूबा हुआ नौजवान था। सैर-सपाटे, ताश इत्यादि, माँ तथा छोटे भाईयों पर रौब जमाना, दोस्तों की बदौलत शौक पूरा करना उसका काम था। जालपा से विवाह तय हो जाने पर वह अपने दोस्तों और जालपा के गाँव वालों पर प्रभाव डालना चाहता है परन्तु उसके पिता इस बात से साफ इन्कार कर देते है। फिर भी रमानाथ के जोर देने पर धूमधाम से बारात निकाली जाती है। उधर जालपा को ससुराल से चढ़ावे में चन्द्रहार आने की आशा थी जो पूरी नहीं होती है। विवाह के बाद रमानाथ जालपा पर अपने अमीर होने तथा हर प्रकार से सुखी-सम्पन्न होने को झूठ के ताने-बाने को बुनता है। वही दयानाथ पर विवाह में अनुशंगिक खर्चों के कारण कई सारे कर्ज चढ़ जाता है जिसे वह जालपा के गहनों द्वारा चुकाने की सोचते है।  जब जालपा के गहने इसी वजह से गायब हो जाते है तो जालपा शोक में डूब जाती है। वह सोचती रहती है कि जब ये लोग इतने धनी है तो क्यों  नहीं उसके गहने वापस बनवा देते है। जबकि परिवार की हालत कुछ और थी। रमानाथ जालपा से बहुत प्रेम करता था इसलिए वह जालपा के सामने सत्य को छुपाता फिरता था। अंत में रमानाथ नौकरी करके जालपा को गहने बनवा देने की सोचता है और अपने एक परिचित रमेश बाबू की मदद से म्यूनिसिपल बोर्ड में नौकरी कर लेता है। इसके बाद भी रमानाथ झूठ को नहीं छोड़ता, बल्कि वह अपने झूठ में और अधिक फंसता जाता है। वह अपनी आय अधिक बताता है। वह सर्राफ से उधार लेकर जालपा के लिए गहने बनाता है। जालपा भी अब अपने शोक से निकलकर घर तथा बाहर सभी से घुलने मिलने लगती है। इसी दौरान उसकी रतन नामक एक सम्भ्रान्त महिला से होती है। वह एक बड़े और बूढ़े वकील की पत्नी है। रतन को जालपा के जड़ाऊ कंगन बहुत अच्छे लगते है तो वह रमानाथ से इसी प्रकार के कंगन बनवा देने के लिए कहती है और रुपए दे देती है। रमानाथ इन्हीं रुपयों से सर्राफ के कर्जें उतारने तथा वैसे ही एक जोड़ा और कंगन बनवाने को कहता है तो सर्राफ सीधा इन्कार कर देता है। रतन को कंगन नहीं मिलते तो वह अपने रुपये वापस मांगती है। रतन के पैसे लौटाने के चक्कर में रमानाथ चुंगी के रुपये ही जालपा को लाकर दे देता है और जालपा भी अनजाने में वहीं रुपये रतन को दे देती  है। रमानाथ इस घटना से विचलित हो जाता है और उसे भय होने लगता है कि कही उसपर ग़बन करने का इलजाम न लगे। वह सबसे अपनी सारी परेशानी छुपाता फिरता है। अंत में वह एक चिट्ठी लिखकर जालपा को सारी बातें बताना चाहता है लेकिन वह भी उससे नहीं हो पाता। जालपा उसकी चिट्ठी पढ़ लेती है और रमानाथ को लगता है कि सारा भेद खुल जाने पर जालपा उससे घृणा करेगी वह डर से घर छोड़कर कलकत्ता भाग जाता है। वहाँ वह देवीदीन खटिक के यहाँ रहने लगता है। देवीदीन से भी वह अपनी वास्तविकता छुपाता है। उधर जालपा चिट्ठी पढ़कर अपने पति की वास्तविकता को समझ जाती है और अपने-आप को कोसने लगती है कि उसने गहनों का लालच किया ही क्यों था और अपने पति की इज्जत बचाने के लिए अपने सारे गहने रतन को बेचकर दफ्तर का सारा पैसा वापस कर देती है। रमानाथ इधर कलकत्ते में किसी प्रकार छुपकर जीवन बीताने की सोचता है लेकिन वह वहाँ की पुलिस के हाथों शक में उठा लिया जाता है। उससे पहले जालपा शतरंज की एक बाजी को अखबार में छपवाकर इनाम के 50 रुपये के जरिये पता कर लेती है कि रमानाथ कलकत्ते में है। वह उसे वहाँ ढूँढ भी लेती है लेकिन पुलिस के चक्रव्यू में फंसे रमानाथ को बहुत मुश्किल से अपने झूठ तथा वास्तविकता का बोध कराते हुए जालपा उसे छुड़ा पाती है।
            इस प्रकार हम देखते है कि पूरे कथानक में रमानाथ के झूठे रौब तथा उस झूठ से निकलने के लिए एक और झूठ का सहारा लेना ही उसके परिवार के बिखरने का कारण बनता है। आमतौर पर अन्य कई आलोचको में इस उपन्यास में स्त्रियों की आभूषण प्रियता को ही दोष माना है लेकिन ध्यान से यदि इस उपन्यास को पढ़ा जाए तो इसमें जालपा या रतन या किसी भी स्त्री पात्र का उतना दोष नहीं है। स्त्रियों के लिए स्वाभाविक बात होती है गहनों के प्रति उनका आकर्षण। भारतीय स्त्रियों की सुन्दरता की परिकल्पना में कभी भी कोई भी स्त्री बिना आभूषणों के सुन्दर ही नहीं दिखी है। यहाँ तक की सोने के आभूषण न हो तो वह चांदी या पीतल-तांबे के बने आभूषण पहनती है, यह भी न हो तो फूलों के बने आभूषण तो पहनती है। इतिहास में इसके कई उदाहरण दिखेंगे। फिर जालपा को तो बचपन से ही खिलौनो की जगह आभूषण दिये जाते रहे हैं तथा बाल मन में ही यही बातें डाली जाती रही है कि उसके ससुराल से उसके लिए चन्द्रहार आएगा। जालपा अपने पति के इस प्रकार घर छोड़कर चले जाने पर उसे दुख होता है तथा वह अंत में अपने इस लालच पर विजय पाने की ठान लेती है तथा उन सभी चीज़ों से मुक्ति पाने की सोचती है जिसके कारण यह सारी समस्याएँ खड़ी होती है। .....विपत्ती में हमारा मन अंतर्मुखी हो जाता है। जालपा को अब यही शंका होती थी कि ईश्वर ने मेरे पापों का यह दंड दिया है। आखिर रमानाथ किसी का गला दबाकर ही तो रोज रुपये लाते थे। कोई खुशी से तो न दे देता। यह रुपये देखकर वह कितनी खुश होती थी। इन्हीं रुपयों से तो नित्य शौक-श्रृंगार की चीज़ें आती रहती थी। उन वस्तुओं को देखकर अब उसका जी जलता था। यही सारे दुखों की मूल हैं। इन्हीं के लिए तो उसके पति को विदेश जाना पड़ा। वे चीज़ें उसकी आँखों में अब कांटों की तरह गड़ती थीं, उसके हृदय में शूल की तरह चुभती थीं।....आख़िर एक दिन उसने इन चीजों को जमा किया- मखमली स्लीपर, रेशमी मोजे, तरह-तरह की बेलें, फीते, पिन, कंघियां, आईनें, कोई कहां तक गिनाए। अच्छा-खासा एक ढेर हो गया। वह इस ढेर को गंगा में डुबा देगी, और अब से एक नये जीवन का सूत्रपात करेगी।[1] इस प्रकार हम देख पाते है कि प्रेमचन्द ने यहाँ पर आकर जालपा की आभूषण तथा अन्य सुख-सुविधा की इच्छाओं पर रोक लगाया है। वैसे भी रमानाथ का घर छोड़कर जाने का कारण जालपा नहीं थी बल्कि रमानाथ का डर ही था जो उसे अपने परिवार से अलग कर देता है। रमानाथ के इस झूठ तथा दिखावे के ताने-बाने को प्रेमचन्द ने उपन्यास के शुरूआत से ही दर्शाया है। उसके विवाह के समय से ही यह सब शुरू हो जाता है यथा दयानाथ दिखावे और नुमाइश को चाहे अनावश्यक समझें, रमानाथ उसे परमावश्यक समझता था। बरात ऐसे धूम से जानी चाहिए कि गांव-भर में शोर मच जाय। पहले दूल्हे के लिए पालकी का विचार था। रमानाथ ने मोटर पर जोर दिया। उसके मित्रों ने इसका अनुमोदन किया प्रस्ताव स्वीकृत हो गया... आतिशबाजियां बनवाईं, तो अव्वल दर्जें की। नाच ठीक किया, तो अव्वल दर्जे का, बाजे-गाजे भी अव्वल दर्जो के, दोयम या सोयम का वहां जिक्र ही न था। दयाना उसकी उच्छृंखलता देखकर चिंतित तो हो जाते थे पर कुछ कह न सकते थे। क्या कहते![2]  इसी प्रकार उसकी शादी के बाद भी रमानाथ को उसके झूठ के ताने-बाने तथा होने वाली समस्या का आभास होता रहता है परन्तु वह इसे नहीं त्यागता है। बल्कि वह और भी ज्यादा इसमें उलझता जाता है। जैसे कि सर्राफ से लिए उधार के गहनों का मोल चुकाने की बारी आती है तो दयानाथ सीधे-सीधे जालपा के गहनों को ही वापस लौटाकर उधार खत्म करना चाहते थे लेकिन रमानाथ सोचने पर मजबूर हो जाता है --- रमानाथ ने जवानों के स्वभाव के अनुसार जालपा से खूब जीट उड़ाई थी। खूब बढ़-बढ़कर बातें की थीं। जमींदारी है, उससे कई हजार का नफा है। बैंक में रुपये हैं, उनका सूद आता है। जालपा से अब अगर गहने की बात कही गई, तो रमानाथ को वह पूरा लबाड़िया समझेगी।[3] इसी प्रकार पूरे उपन्यास में रमानाथ के झूठ की परतों पर परत चढ़ती जाती है जिसमें जालपा  की आखों पर भ्रम का पर्दा चढ़ता ही जाता है। यही कारण है कि वह चन्द्रहार की जिद करती है, गहने चोरी हो जाने पर अत्यन्त दुखी हो जाती है। नामवर सिंह प्रेमचन्द के उपन्यासों पर चर्चा करते हुए कहते है कि आमतौर पर लोग कहते है कि गबन उपन्यास आभूषण प्रेम की कहानी है, यानी रमानाथ की बीबी जालपा गहना ज्यादा चाहती है। पूरा उपन्यास आभूषण प्रेम का उपन्यास कहकर टाल दिया जाता है। लेकिन इस उपन्यास में प्रेमचन्द ने मध्यवर्गीय नायक रमानाथ की ढुलमुलयकीनी को दिखाते हुए मध्य वर्ग की कमजोरियों की ओर इशारा किया है। शहरी मध्यवर्ग का आदमी, किस तरह हिपोक्रेसी का शिकार होता है। मध्यवर्ग की स्थिति तो यह है कि परिस्थिति के कारण वह बीबी के सामने अपने खानदान की सम्पन्नता दिखाना चाहता है और अन्दर से वह इतना खोखला है कि एक छोटी-सी चीज़ बीबी को नहीं दे सकता है। इन दो स्थितियों के बीच ढुलकता, झूलता हुआ रमानाथ कहा जाता है? इस हद तक जाता है कि देशद्रोही हो जाता है।[4]
            गबन उपन्यास में भारतीय मध्यवर्ग का जो चित्रण हुआ है वह आज के युग में बहुत प्रासंगिक है। आज भी समाज में ऐसे कई लोग मौजूद है जो झूठे दावे के साथ अपना जीवन जीते है। विशेषकर युवा वर्ग में यह प्रवृत्ति अधिक नज़र आने लगी है। रमानाथ की ही भांति आज के युवा वर्ग आधुनिक भौतिक सुख-सुविधाओं को बाकी चीज़ों से अधिक महत्त्व देते है। सच्चाई, ईमानदारी, मेहनत, सरलता से कही अधिक अन्यों के सामने दिखावा करते रहते हैं। यही कारण है कि समाज किसी सकारात्मक दिशा की ओर अग्रसर नहीं हो पा रहा है। प्रेमचन्द ने जिस समय में ग़बन की रचना की थी उस समय भारतीय मध्यवर्ग के उदय का समय था। तभी से ही उनमें यह सारी प्रवृत्तियाँ उभरने लगी थी जो आगे चलकर किस रूप में परिणत होगा, शायद यह बात प्रेमचन्द समझ चुके थे। तभी उन्होंने जहाँ उसकी कमजोरियों को दर्शाया है वही जालपा के जरिए ही उसके सुधार का भी रास्ता दिखाया है कि जैसे जालपा अपने इच्छाओं को भुलाकर अन्त में अपने पति के ही हित के लिए उन क्रान्तिकारी लोगों की सेवा करने को तैयार हो जाती है जिन्हें डाकू बनाकर कलकत्ता पुलिस वाले सज़ा दिलवाने पर तुले हुए थे और जिसमें रमानाथ को झूठा गवाह बनाया जाता है। जालपा की इसी विशेषता को उजागर करते हुए रामदरश मिश्र कहते है कि जालपा में मध्यवर्गीय नारी की युवती सुलभ आकांक्षा ( आभूषण-प्रेम, भोग-विलास की प्रवृत्ति, ऊँचे समाज की नारियों से मिलने-जुलने और उनसे स्पर्धा करने की इच्छा, यानी ऊपरी चमक-दमक को ही जीवन-मूल्य मान लेने की आसक्ति) के साथ नारी की समस्त पीड़ा, अभाव, सत्यनिष्ठा, निश्चयशक्ति, सेवा-त्याग और सहानुभूति है। रमानाथ असत्य से असत्य पर पहुँचता है, जालपा असत्य से सीधे सत्य तक पहुँचती है। उसका मनोबल अधिक जागृत और निर्विकल्प है।[5] प्रेमचन्द ने ऐसा इसलिए दिखाया क्योंकि उन्हें अपने देश से प्रेम था तथा देश का हित, समाज का हित उनके लिए सर्वोपरि रहा है। तथा वह यह भी जानते है कि समाज का प्रत्येक वर्ग यदि सही ढंग से आगे नहीं बढ़ेगा तो देश को गुलामी से मुक्ति नहीं मिलेगी। मध्यवर्ग एक ऐसा वर्ग है जिसके पास कुछ खोने के लिए भी है तो कुछ पाने के लिए भी है। वह न तो अभिजात्य वर्ग की तरह बेफिक्री के साथ जी सकता है, न ही जो जी में आए कर सकता है जिससे उसके मान-सम्मान में कोई आँच न आए। बल्कि यह वह वर्ग है जिसमें सदा एक भय सा बना रहता है कि जो कुछ भी हो लोगों के सामने बदनामी न हो। इसलिए वह किसी तरहा से घुट-घुट कर जीने पर मजबूर है। वही सर्वहारा वर्ग की तरह भी उसमें कोई गुण नहीं है। सर्वहारा वर्ग ने सदैव ही सारे अत्याचार सहे है। इन अत्याचारों के विरुद्ध उसमें आवाज़ उठाने की भी कोशिश करता रहा क्योंकि वह मध्यवर्ग की तरह खोखली आदर्शवादिता एवं मान-सम्मान के जंजाल में नहीं फंसा हुआ है। परन्तु मध्यवर्ग ऐसा नहीं कर सकता है। उसमें सदैव भय रहता ही है। दूसरी बात यह की पुरुष के मुकाबले स्त्रियों में अधिक मनोबल होता है। वह अपने प्रत्येक प्रकार की परिस्थितियों में भी जीना जानती है, संघर्ष करना जानती है। साथ ही प्रेमचन्द के उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता भी यही रही है कि उनके प्रत्येक नारी पात्र पुरुष पात्रों से कही अधिक सशक्त है। यद्यपि इस उपन्यास के पूरे कथानक के केन्द्र बिन्दु जालपा और रमानाथ ही रहे है परन्तु उपन्यास के दूसरे पात्रों की भी विशेषताओं ने भी इस उपन्यास को प्रासंगिक बनाया है। मुंशी दीनदयाल तथा दयानाथ जैसे व्यक्ति आज भी समाज में मौजूद है। मुंशी दीनदयाल जैसे लोग जो नियमित आय के अलावा भी अन्य प्रकार के स्रोतों से धन लाभ करते है यह बात समाज के लिए कोई नयी नहीं है। आज भी ऐसे कई लोग है जो अपना काम निकलवाने के लिए दफ्तरों के बाबूओं को रिश्वत देते है और अपना काम करवाते है। जमींदार के मुख्तार होने के नाते गाँव के लोगों पर अपनी हुकूमत चलाते है। आज़ादी के बाद भी कई सारे गाँवों में जमींदारी प्रथा समाप्त होने के बावजूद भी ऐसे कई लोग थे जिन्होंने अपनी इसी झूठी साख को बनाए रखने के लिए क्या कुछ नहीं किया। उसी प्रकार दयानाथ जैसे आदर्शवादी लोग आज भी हमारे समाज में विद्यमान है। देवीदीन खटिक तथा उसकी पत्नी समाज के निचले तबके का प्रतिनिधित्व करते है। इस उपन्यास में उनकी भूमिका बहुत अच्छे व्यक्ति के रूप में हुई है। जैसे रमानाथ को अपने घर में शरण देना, उसकी देखभाल करना, फिर जब जालपा भी रमानाथ को ढूँढते हुए कलकत्ता पहुँचती है तो देवीदीन उसका भी साथ देता है। यह सारी बातें यही दर्शाता है कि निचले तबको के लोगों में कही अधिक मानवीयता रहती है। जिसके कारण रमानाथ किसी गलत राह में तब तक नहीं जाता जब तक वह पुलिस के जाल में नहीं फँसता। उसी प्रकार रतन का पात्र भी यहाँ बड़ा सशक्त दिखायी देता है। वह धनी परिवार की स्त्री है फिर भी वह जालपा की वास्तविकता जानने पर भी उससे मित्रता बनाए रखती है। हालाकि उपन्यास में उसके साथ हुई त्रासदि को प्रेमचन्द वर्णित करते हुए अनमेल विवाह तथा मध्यवर्ग की धन लोलुपता एवं धोखाधड़ी( रतन के पति वकील साहब के भतीजे द्वारा किया गया धोखा) को भी सामने रखते है। आज भी ऐसे कई सारी घटनाएँ उदाहरण के तौर पर सामने रखे जा सकते है जिसमें अपनों के द्वारा ही अपनों को सम्पत्ति एवं जायदाद के लिए लूटा जाता है। विशेषकर स्त्रियों के साथ ही ऐसा होता है। उनके पति के मृत्यु के बाद सभी उनकी सम्पत्ति के दावेदार के रूप में खड़े हो जाते है। प्रेमचन्द के इस चीज को इस प्रकार उजागर किया है--- जायदाद मेरी जीविका का आधार होगी। इतनी भविष्य-चिंता वह कर ही न सकती थी। उसे इस जायदाद के खरीदने में, उसके संवारने और सजाने में वही आनंद आता था, जो माता अपनी संतान को फलते-फलते देखकर पाती है। उसमें स्वार्थ का भाव न था, केवल अपनेपन का गर्व था, वही ममता थी, पर पति की आंखें बंद होते ही उसके पाले और गोद के खेलाए बालक भी उसकी गोद से छीन लिए गए। उसका उन पर कोई अधिकार नहीं! अगर वह जानती कि एक दिन यह कठिन समस्या उसके सामने आएगी, तो वह चाहे रूपये को लुटा देती या दान कर देती, पर संपत्ति की कील अपनी छाती पर न गाड़ती। पंडितजी की ऐसी कौन बहुत बडी आमदनी थी। क्या गर्मियों में वह शिमले न जा सकती थी? क्या दो-चार और नौकर न रक्खे जा सकते थे? अगर वह गहने ही बनवाती, तो एक-एक मकान के मूल्य का एक-एक गहना बनवा सकती थी, पर उसने इन बातों को कभी उचित सीमा से आगे न बढ़ने दिया। केवल यही स्वप्न देखने के लिए! यही स्वप्न! इसके सिवा और था ही क्या! जो कल उसका था उसकी ओर आज आंखें उठाकर वह देख भी नहीं सकती! कितना महंगा था वह स्वप्न! हां, वह अब अनाथिनी थी। कल तक दूसरों को भीख देती थी, आज उसे ख़ुद भीख मांगनी पड़ेगी। और कोई आश्रय नहीं! पहले भी वह अनाथिनी थी, केवल भ्रम-वश अपने को स्वामिनी समझ रही थी। अब उस भ्रम का सहारा भी नहीं रहा![6] फिर भी रतन ने हार नहीं मानी। अपने भतीजे की आश्रिता होने या उसके द्वारा ठीक किये गए मकान में रहने के बजाए वह जालपा के घर चली जाती है। वहाँ वह उन लोगों की सेवा करते हुए रहना चाहती है ताकी वह मान-सम्मान के साथ जी सके। जालपा के यहाँ रतन के घर के जितने ऐशो-आराम की चीज़ें नहीं थी परन्तु प्रेम एवं आत्मीयता जरूर थी। यही कारण है वह उपन्यास के अंत तक जालपा के परिवार के साथ नज़र आती है।
            प्रेमचन्द ने इस उपन्यास की रचना की पीछे जो भी उद्देश्य रखा है, स्पष्ट है कि वह पाठक वर्ग के सामने यह बात रखना चाहते है कि झूठे दिखावे एवं खोखले विचारों से कुछ हासिल नहीं होता। मध्यवर्ग की समस्याओं को इस उपन्यास के जरिए उजागर करते हुए वह यही दर्शाना चाहते है कि असत्य के साथ जीना बहुत कठीन है बल्कि सत्य को स्वीकार करके जीना ज्यादा आसान है। मध्यवर्ग की यही सबसे बड़ी दुविधा रही है कि वह अपनी वास्तविकता जानता है परन्तु फिर भी उसमें इसे स्वीकार करके चलने की क्षमता कम है।
            अंत में प्रेमचन्द के उपन्यासों में इसी आधुनिकता के कारण आज भी उनके सभी उपन्यासो की प्रासंगिकता बनी हुई है और आगे भी पाठक वर्ग में वह पठनीय बने रहेंगे।

           
           




[1] गबन, प्रेमचन्द, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ.सं113.
[2] गबन, प्रेमचन्द, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ.सं.10.
[3] वही पृ.सं. 16.
[4] प्रेमचन्द- विगत महत्ता और वर्तमान अर्थवत्ता,सम्पादक-मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और रेखा अवस्थी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2006, अध्याय-3 राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन का सन्दर्भ- नामवर सिंह, पृ.सं. 52-53
[5] हिन्दी उपन्यास-एक अन्तर्यात्रा, रामदरश मिश्र, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2008 अध्याय-2-प्रेमचन्द-चुग, पृ.सं. 50.
[6]  गबन, वही, पृ.सं. 193.