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बुधवार, 10 सितंबर 2014

आस.............

काश ज़िन्दगी ने इतनी सारी
मजबूरियाँ न रखी होती मेरे सामने
काश मैंने न हार मानी होती इन
मजबूरियों से अपनी ही ज़िन्दगीे के सामने

हर बार एक आस जगती थी मन में
कि ये होगा, मैं वो करूँगी
ऐसा होगा, वैसा होगा
हर बार चोट लगी आस को
ये न हुआ, कुछ भी न हुआ
कुछ न हो पाएगा अब इस गुज़रते वक्त में

मैं बार-बार साहिल की तरहा
दीवारों से टकराती हूँ
चूर-चूर हो जाने पर भी
खुद को समेट लाती हूँ
न दीवार एक इंच भी खिसकती है
अपनी जगह से
मगर मिट जाती है आस
इस जद्दो-जहत से.....................

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