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सोमवार, 21 जुलाई 2025

BA 1st sem SEP chapter 3 notes

 लघु प्रश्नोत्तरी 

१ पीली कली कहा लगी थी?

सोनजुही 

२ गिल्लू लेखिका के घर में कहा छिप कर बैठा करता था?

सोनजुही की लताओं में 

३ गिल्लू लेखिका को कैसे चौका देता था?

कंधे पर कूदकर 

४ काक बनकर लोगों से कुछ पाने के लिए कब अवतीर्ण होना पड़ता है?

पितर पक्ष में 

५ दूरस्थ प्रियजनों के आने का मधु संदेश कौन देता है?

कौआ 

६ कौवों ने किसको चोंच मारकर घायल कर दिया था?

गिलहरी के बच्चे को 

७ लेखिका ने गिलहरी के घाव पर क्या लगाया ?

पेनिसिलिन 

८ लेखिका ने गिलहरी के बच्चे को कैसे दूध पिलाया ?

रुई की पतली बत्ती दूध में भिगोकर

९ गिलहरी की आँखें कैसी थी?

नीले कांच की मोतियों/मनकों जैसी

१० लेखिका और घर के बाकी लोग गिलहरी को क्या कहकर बुलाने लगे?

गिल्लू 

११ भूख लगने पर लेखिका गिल्लू को खाने के लिए क्या देती थी?

काजू या बिस्कुट 

शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

गांगुली महाशय

 

शेतोरपाड़ा गांव में विभाष रंजन गांगुली और उनका परिवार रहता था। गांव में उनके अलावा और 5-6 घर ब्राह्मणों के थे। सभी निम्न मध्यम वर्ग के लोग थे। मामूली खेती-बाड़ी और पुरोहिताई से जो आय होती, उसी में इनका गुज़ारा चलता। गांगुली जी का परिवार ईश्वर कृपा से काफी बड़ा था। खर्चा भी उतना ही था, इसलिए खेती-बाड़ी और पुरोहिताई के अलावा भी उन्होंने दूसरे गांव के एक धनाढ्य ब्राह्मण ज़मींदार के यहां उनके पुत्र को शास्त्र की शिक्षा देनी प्रारंभ कर दी थी। इससे अच्छी आमदनी हो जाती। इस बात से उनके गांव के कुछ लोगों को आपत्ति थी।

गांव के अन्य ब्राह्मण परिवार गांगुली महाशय को ज़मींदार के घर नौकरी करने के कारण निकृष्ट मानने लगे थे। लेकिन गांगुली महाशय को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। घर में पाँच बेटियाँ और तीन लड़के थे। इनकी माता जी और पत्नी के ज़िम्मे घर की बागडोर थी। बेटे-बेटियों को इन्होंने गांव के स्कूल में शिक्षा दिलवाने के लिए भर्ती करवा दिया था। हालाँकि अब देश में राजा राममोहन राय की कृपा से अंग्रेजों द्वारा सती प्रथा, दहेज प्रथा और बाल विवाह का उन्मूलन हो चुका था, फिर भी अपने सामाजिक दायित्व को समझते हुए गांगुली बाबू ने समझा कि बेटियों की शादी में रुपयों का इंतज़ाम करना ही पड़ेगा। बड़ी लड़की मात्र 13 वर्ष की हुई थी। उसके विवाह में अभी और समय था, सो गांगुली बाबू ने पत्नी से कह रखा था कि ज़मींदार के घर से आने वाली रकम वह अलग से छुपाकर संभाल कर रखे। बाकी घर का खर्च जैसे चलता है, वैसे ही चलाने की कोशिश करते रहेंगे।

 

दिन भर गांगुली बाबू गांव में आमदनी अधिक बढ़ाने की कोशिश में लगे रहते। गांव में कायस्थों और शूद्रों का परिवार था। मध्यम आय वाले सभी लोग पूजा-पाठ, शादी या अन्नप्राशन में उन्हें बुलाते। गांगुली बाबू अच्छे ब्राह्मण थे। कहते हैं कि जब भी पूजा-पाठ करने बैठते तो श्लोक के उच्चारण में कोई त्रुटि नहीं होती, विधिवत शास्त्र सम्मत पूजा करते, यजमान के घर इसका फल भी बहुत होता। सो, खुश होकर वे गांगुली महाशय को दान-दक्षिणा से निहाल कर देते। परंतु आठ-आठ संतानों का पालन-पोषण फिर भी बड़ी मुश्किल से हो पाता।

 

गांगुली महाशय ने सोच रखा था कि भले ही अपने तीनों बेटों को ब्राह्मणों का रहन-सहन एवं शास्त्र की शिक्षा देंगे, परंतु उन्हें इस गांव में उनके जैसे पुरोहिताई नहीं करने देंगे। अच्छी शिक्षा दिलवाकर उन्हें शहर भेज देंगे ताकि वे उचित शिक्षा लेकर कोई ढंग की नौकरी कर लें और अपना-अपना जीवन सुधार लें। इसीलिए उनकी पढ़ाई-लिखाई में कोई कोताही नहीं बरतते। बेटियों के लिए भी यही सिद्धांत तय कर रखा था। जब तक ससुराल नहीं चली जातीं, तब तक बेटियों को खिला-पिला कर तृप्त कर देना चाहते थे ताकि ससुराल में उन्हें कोई मलाल न रहे। वहीं गहनों के लिए भी रात-दिन पति-पत्नी में गोलमेज़ मीटिंग चलती। सोने का भाव जो आसमान पर चढ़ रहा था।

 

इसी प्रकार जीवन की नैया खिंचती चली जा रही थी। देखते-देखते लड़के-लड़कियाँ बड़ी हो गई थीं। गांव के स्कूल की शिक्षा पूरी कर वे शहर में पढ़ने लगे थे। गांगुली महाशय अभी भी ज़मींदार साहब के यहाँ लगे हुए थे। अब उनकी ज़मींदारी चली गई थी। वे अब व्यवसाय करके अपनी साख बनाए हुए थे। आमदनी कुछ अच्छी हो रही थी। आज़ाद भारत में वे सांस ले रहे थे। वहीं बंगाल के विभाजन के बाद उनका गांव अब पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) की सीमा के करीब हो गया था। लिहाज़ा ज़मींदार बाबू ने अपने परिवार को लाकर करीमगंज शहर में बसाने का मन बना लिया था। उन्होंने अपने कारोबार को वहीं पर जमा रखा था। आज़ादी से पहले भारत-विभाजन और दंगे-फसाद की खबरें उन्हें अपने कई विश्वसनीय सूत्रों से मिलती रही थीं। इसलिए उन्होंने अपने और परिवार की सुरक्षा हेतु पहले से ही करीमगंज शहर में कोठी बनवा ली थी। बांग्लादेश में अपनी बची-कुची ज़मीन-जायदाद भी बेच आए थे। घर का सारा किमती माल-असबाब और गहने वगैरह उन्होंने अपने एक रिश्तेदार के पास शहर में रखवा लिया था। केवल पत्नी और बच्चों के साथ वे गांव में रह रहे थे। उनका बड़ा लड़का गांगुली महाशय से विद्या पाकर अब काशी चला गया था। वहीं पर उसका विवाह भी हो चुका था, पत्नी समेत वहीं रहता। पिता से कभी-कभार मिलने परिवार समेत आया करता। इधर उनका छोटा बेटा बचपन से पोलियो ग्रस्त होने के कारण बैसाखियों के सहारे गांव में घूमा करता। उसने महज़ दसवीं पास की थी। लेकिन बुद्धि-विवेक उसमें भी कम न था। ज़मींदार साहब की पत्नी कई बार कह चुकी थीं कि अब इस गांव में कुछ नहीं रखा है। आये दिन गांव में दंगे का भय बना रहता है, क्यों न सब कुछ छोड़कर करीमगंज ही जाकर रह लिया जाए। आखिर इतनी बड़ी कोठी किसलिए बनवाई है। ज़मींदार साहब इस बात पर मौन रह जाते। उन्हें न जाने किस बात का इंतज़ार रहता। लेकिन वे न कुछ कहते, न ही किसी की सुनते।

 

वहीं गांगुली महाशय का हाल अब बहुत बुरा था। गांव में दंगे में उनके सबसे छोटे बेटे की जान चली गई। आधी खेती पर एक मुसलमान ने कब्जा कर लिया। उनका गांव भी भारतीय सीमा से उस पार था। अब वे बंगाली कहलाने लगे। बरसों से जिस बंगाल में सब लोग रियाया मिल-जुल कर रहते थे, आज कुछ राजनीतिज्ञों के कारण विभाजन में बंट गए थे। गांगुली जी के बच्चे अब ढाका शहर में पढ़ रहे थे जब गांव में दंगे हुए। सभी अब अपनी जान का खतरा समझकर घर वापस लौट आए। अब गांव में मुसलमानों का कब्जा था। जो हिन्दू परिवार थे, या तो दंगे में मारे गए या फिर वे भारत की ओर भाग गए। गांगुली जी भी भागना चाहते थे, मगर पूर्वजों की मिट्टी छूट जाने का दुख उनके मुख पर साफ़ झलकता था।

लेकिन किस्मत भी कब तक साथ देती। एक दिन गांव में फिर से ऐलान हुआ कि जितने हिन्दू गांव में बचे हैं, या तो घर छोड़ दें या फिर इस्लाम कबूल कर लें। गांगुली जी घबराए और भीतर जाकर पत्नी से सामान बाँधने को कह देते हैं। जितने रुपए इतने वर्षों की मेहनत से जमा थे उन्हें एक पोटली में बांध उन्होंने अन्य सामान में छिपा दिया। इसके बाद अपने आधे खेत पर कब्जा जमाए हुए मुसलमान पड़ोसी से कह कर उसको बाकी का घर और खेत सौंप दिया ताकि कोई उपद्रव न हो। फिर रातों-रात में पत्नी और बच्चों समेत भारत की ओर निकल पड़े। यह समय था 1950 का। गांगुली महाशय अन्य शरणार्थियों के साथ असम के बदरपुर जिले पहुंचे। पड़ोसी देश में दंगों में सताएँ लोगों के लिए भारत ने अपने द्वार खोल दिये थे। वहाँ पहले से ही मौजूद सरकारी लोगों के पास जाकर जो भी ज़रूरी कागज़-पत्र थे, सब दिखाए और पहचान लिखवाई। परिवार में पाँच बेटियाँ और दो बेटे थे। माँ तीन साल पहले गुजर चुकी थीं।

नए स्थान पर आकर गांगुली जी को तकलीफ़ हुई। लड़कों की पढ़ाई छूट गई थी, बेटियाँ माँ के पास ही रहतीं और काम-काज कर उनकी मदद करतीं। विभाजन के कारण आए शरणार्थियों को भारत सरकार ने दया दिखाते हुए गांव में ज़मीन देकर बसा तो लिया था, लेकिन रोज़गार की व्यवस्था नहीं कर पाए थे। फिर भी कुछ लोगों ने अपनी पहचान और गुण से थोड़ा-बहुत कारोबार और अन्य रोज़गार की व्यवस्था कर ली थी। गांगुली जी अच्छे ब्राह्मण थे तो उन्होंने यही काम जारी रखा। पहले से बदरपुर गांव में रह रहे कुछ अच्छे लोगों से उनकी पहचान हुई और थोड़ा-बहुत काम मिलने लगा। परंतु भाग्य जब पलटता है तो मनुष्य की परीक्षा कठिन से कठिनतर लेता है। गांगुली जी की सारी जमा पूंजी अब परिवार के भरण-पोषण में ही खर्च हो रही थी। दोनों बेटे दिन-रात काम की तलाश में मारे-मारे फिरते। दोनों डिग्री की परीक्षा भी पूरी न कर सके थे कि ये मुसीबत आ गई थी। लिहाज़ा कोई ढंग का काम मिलता नहीं था। वे सिलचर जाकर काम ढूंढ़ने लगे थे। इधर बड़ी लड़की भी शादी के योग्य हो चुकी थी। इसलिए उसकी शादी की चिंता खाए रहती थी।

एक दिन उन्हें किसी ने कहा कि वे करीमगंज में चले जाएं। वहाँ कई अच्छे व्यापारी लोग हैं जिन्हें अपने यहां घर में नियमित पूजा के लिए पुजारी चाहिए होता है। गांगुली महाशय ने सोचा कि वे जाकर कोशिश करेंगे। मगर रास्ता उन्हें मालूम न था। करीमगंज बस से जाएं या रेल से, कुछ उन्हें मालूम न था। सो उन्होंने लोगों की सहायता मांगी। किसी तरह वे करीमगंज एक ट्रक के सहारे पहुँच गए। काम की तलाश में उन्होंने इधर-उधर खोज-ख़बर ली। बहुत पता करने पर उन्हें किसी ने एक सज्जन का नाम बताया। नाम सुनते ही वे चौंक पड़े। ये वही ज़मींदार साहब हैं जिनके घर वे पढ़ाने आते थे। दंगे के कारण उन्होंने अपना गांव छोड़ दिया था। अब वे करीमगंज में ही आकर रहने लगे थे। वे मन में पशोपेश लिए उन्हीं के घर पहुँच गए। ज़मींदार साहब पुराने दिनों के आदमी थे तो गांगुली महाशय को देख तुरन्त पहचान गए। गांगुली महाशय ने अपनी आपबीती बताई। साहब ने उन्हें दुबारा अपने घर पुरोहित बनाकर रख लिया।

 

 

गांगुली महाशय वापस बदरपुर पहुँचे और परिवार को सुखद ख़बर दी और वे वापस काम के लिए अगले दिन रवाना हो लिए। पर नियति की परीक्षा अभी बाकी थी। बेटों को सिलचर में नौकरी नहीं मिली थी। वे दुबारा वापस आ गए। अब गांव में ही रहकर पिता के आदेश से खेती का काम करने लगे। किसी प्रकार पटरी पर जीवन की गाड़ी चल ही रही थी कि अचानक गांव भर में हैजा फैल गया। दंगे में बेटे को खोने का दुःख और विभाजन में अपने पुरखों का घर खोने का दुःख पहले ही पत्नी को बीमार कर गया था। वे हैजा से ग्रसित हो गईं। बेटियों ने माँ की खूब तीमारदारी की लेकिन उन्हें बचा न सकीं, बल्कि और दो लड़कियों को भी हैजा हो गया। बस क्या था, देखते ही देखते परिवार की तीन सदस्याओं की मृत्यु हो गई। गांगुली महाशय की कमाई भी इनके इलाज में चली गई। अब तीन बेटियाँ और दो बेटे बचे रह गए। माँ के बिना बच्चों को अकेले गांव में छोड़ना सही न लगा सो बेटियों को अपने साथ करीमगंज लेकर चले आए। दोनों लड़के गाँव में खेती संभालने के लिए रह गए। पड़ोस की एक भद्र महिला से उनके भोजन की व्यवस्था भी महिने के दस रुपयों में तय कर आए । लड़कियाँ अपने पिता के पास करीमगंज में रहकर पिता की सेवा करने लगी। दोनों बड़ी लकड़ियाँ दिनभर घर के काम से फुर्सत लेकर सिलाई-कढ़ाई का काम करती वही छोटी को गाँगुली महाशय ने जमींदार की पहचान से वही के एक कॉलेज में दाखिला दिलवा दिया था। आस-पास के पड़ोसियों ने जब गाँगुली जी के परिवार की बेटियों को देखा तो उन्हें आश्चर्य होने लगा कि इतनी बड़ी-बड़ी लड़कियाँ अभी तक उनका विवाह नहीं हुआ है। वे पिता के घर बड़ी स्वच्छन्दता से रह रही है। वास्तव में भारत में तब तक बाल-विवाह का पूरी तरह से उन्मूलन नहीं हो सका था। बंगाल की जो व्यवस्था थी वही भारत में ही थी केवल कुछ बड़े शहरों तक ही लोगों ने प्रगतिशीलता दिखाते हुए नए बदलाव को स्वीकार किया था। गाँगुली महाशय तो स्वयं ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के ननिहाल के गाँव से ताल्लुक रखते थे लिहाजा उन्होंने अपनी बेटियो की शिक्षा का वे भी समर्थन करते थे। हालांकि भीतर से वे घोर हिन्दु थे। इसलिए बेटियों की शादी वे जल्द-से-जल्द कर देना चाहते थे।

इसलिए अब नई मुसीबत थी। नया देश, नई व्यवस्था, कोई विशेष जान-पहचान नहीं। तीन-तीन बेटियों की शादी कोई खेल नहीं। वे दिन भर बड़ी लड़की के लिए ऐसा दूल्हा ढूंढने की सोचते जो इस गरीब ब्राह्मण की बेटी को दो जोड़ी में स्वीकार कर ले। लिहाज़ा काम में मन कम लगता और सोचने व परेशानी में दिन बिताने लगे। काम में हानि होने लगी। ज़मींदार साहब परेशान हो गए।

एक दिन ज़मींदार साहब ने गांगुली महाशय की परेशानी का कारण जानने की कोशिश की। बहुत पूछने पर वे बोले कि बड़ी बेटी के विवाह के लिए लड़का ढूंढ रहे हैं, मगर पैसों की कमी के कारण कुछ नहीं कर सकते। सुनकर ज़मींदार साहब ने जो कहा, गांगुली महाशय को यक़ीन न हुआ। उन्होंने तुला कन्या की बात कह दी।

बंगाल में सिलहट प्रांत के सिलेटी लोगों में एक प्रथा है कि यदि कोई गरीब बाप अपनी बेटी की शादी न कर पाए तो लड़के वाले उसे अपने साथ ले जाते हैं और अपनी ही तरफ से गहने-कपड़े पहनाकर अपने घर में ही शादी कर देते हैं। लड़की के पिता को केवल कन्यादान कर विदा करना होता है। इसे तुला कन्या की प्रथा कहते हैं। गांगुली महाशय को जब ज़मींदार साहब ने तुला कन्या करने को कहा तो वे हिचकिचाने लगे। फिर वे पूछने लगे कि लड़का है किधर, तो ज़मींदार साहब ने अपने छोटे बेटे शुभम की बात छेड़ दी। बात दरअसल ये थी कि अपाहिज लड़का होने के कारण कोई लड़की न देता था। लेकिन लड़के में कोई कमी न थी। पिता बनने लायक था। रहा ससुराल भी अच्छा-खाता-पीता। किसी की बेटी आए तो जेवरों से लदी रहेगी।

गांगुली महाशय को सुनकर सदमा लगा। बड़ी बेटी को सोने के जेवरों के बदले जीवन भर का बोझ देना नहीं चाहते थे। मगर परिवार की हालत कुछ ऐसी थी कि वे सोच में पड़ गए। इस समय उन्हें अपनी पत्नी की बड़ी याद आने लगी। पत्नी जीवित होती तो शायद वह अपना मत रखती। ज़मींदार साहब के पूछने पर उन्होंने तत्काल कोई जवाब न दिया। वे सोचने का समय मांग कर घर चले आए। तब तक बड़ी बेटी ने पिता के आते ही गरम चाय की प्याली तैयार कर दी और कुछ मूढ़ी के लड्डू लाकर पिता के सामने रख दिए। फिर वह रसोई में काम करने लगी। अपनी इतनी सुंदर, सुघड़ बेटी को देखकर पिता का हृदय जलने लगा। बेटी का विवाह पिता का सपना होता है। सुंदर दूल्हा सिर्फ लड़की ही नहीं, माँ-बाप भी चाहते हैं। मगर परिवार ने इतने वर्षों में जो पाकर खोया था, उससे गांगुली महाशय का दिल भय से भर जाता। सो वे काफी देर तक सोचने लगे। फिर मन ही मन निश्चय कर कुछ उठे। रात को खाना खाते समय बेटी का मन टटोलने के लिए उन्होंने बेटी से ही बात छेड़ दी। बेटी पिता की बात सुन लजा जाती है। लेकिन फिर खुद को संयमित कर कहती है कि पिता का जो आदेश होगा, वह मन-प्राण देकर पालन करेगी। फिर क्या था। पिता की आँखें चमकने लगीं।

अगले दिन वे ज़मींदार साहब के घर पहुँचे और रिश्ते के लिए हामी भर आए। दिन और समय तय हुआ, तो बड़ी लड़की पिता से विदा लेकर ससुराल चली आई। विवाह की सारी रीति अच्छे से संपन्न हुई।

कुछ दिन बाद गांगुली महाशय अपनी बेटी से मिलने सपरिवार ज़मींदार साहब के घर पहुँचे, तो देखा कि बेटी जेवरों और बड़ी-सी सिंदूर की बिंदी में ठकुराइन बनी सुंदर लग रही है। वहीं उसका पति उसके साथ मनोविनोद करते हुए उसे हँसा-हँसा कर थका रहा है। बेटी को अपने ससुराल में खुश देखकर पिता के मन को संतोष पहुँचता है।

बुधवार, 16 जुलाई 2025

सब कुछ खत्म हो गया दादा...


(एक सच्ची घटना पर आधारित लघु कथा)


सिलचर के एसबीआई बैंक के बगल में बने बस स्टैंड पर उस दोपहर एक अजीब सी खामोशी थी। भीड़ थी, भागदौड़ थी, लेकिन उनके बीच एक बदहवास आदमी अलग ही दुनिया में खोया नज़र आ रहा था। उसके अस्त-व्यस्त कपड़े, जिन पर कई दिनों की धूल जमी थी, उसका बिखरा हुआ चेहरा और आंखों में डर और घबराहट—ये सब किसी गहरे हादसे की कहानी कह रहे थे।


वह आदमी इधर-उधर दौड़ता फिर रहा था, जैसे किसी को ढूंढ रहा हो, पर खुद को भी नहीं जानता। राह चलते लोगों को देखकर वह रोते हुए कुछ कहने की कोशिश करता, पर आवाज़ जैसे गले में ही अटक जाती। कोई रुकता नहीं, कोई पूछता नहीं — सभी को अपनी जल्दी थी।


अचानक वह ज़मीन पर गिर पड़ा। और फिर फूट-फूट कर रोने लगा, जैसे उसका कलेजा चीरकर दर्द बाहर आ रहा हो। अब लोग ठिठकने लगे थे।

"क्या हुआ दादा? आप ऐसे क्यों रो रहे हैं?" — एक सज्जन ने पास जाकर धीरे से पूछा।


उसकी कांपती आवाज़ में बस इतना निकला —

"सब कुछ खत्म हो गया दादा... सब कुछ..."

इसके बाद वह और ज़ोर से रोने लगा।


बहुत देर तक समझाने-बुझाने और पानी पिलाने के बाद उसने जो बताया, वह सुनकर लोगों की रूह कांप उठी।


तीन महीने पहले, इसी बैंक से उसने अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए तीन लाख रुपये निकाले थे। जैसे ही वह बाहर निकला, दो मोटरसाइकिल सवार लुटेरे उसकी ताक में थे। उन्होंने उसका बैग छीना, वह भिड़ा, गिरा, घिसटा... लेकिन लुटेरे भाग निकले। पुलिस वहीं पास थी, पर कुछ कर न सकी।


उस दिन न सिर्फ रुपये लुटे, बल्कि उम्मीद, सपने और जीवन की धड़कन भी छिन गई। पैसों के बिना इलाज न हो सका और उसकी पत्नी ने तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया। उसके जीवन में कोई और नहीं था — वह अकेला रह गया। इस अकेलेपन ने उसके होश भी छीन लिए। और तब से वह यूँ ही सड़कों पर भटकता रहा — कभी बैंक के पास जाकर रो पड़ता, कभी भीड़ में खो जाता।


किसी ने धीरे से कहा, "ये वही हैं... सुभोजित रॉय। तीन महीने पहले की वही लूट की घटना... अखबारों में खबर भी छपी थी।"


थोड़ी देर बाद एक गाड़ी आई और सुभोजित को लेकर चली गई। पता चला कि किसी दूर के रिश्तेदार ने उनके मानसिक इलाज की व्यवस्था की है।


बैंक के बगल में खड़े वे सभी लोग कुछ देर तक निःशब्द रहे।

"हमें कभी किसी की पीड़ा को यूँ ही नजरअंदाज़ नहीं करना चाहिए..." — किसी ने धीरे से कहा।


और सभी उस भीड़भरे बस स्टैंड से कुछ थके-थके कदमों से आगे बढ़ गए, पर भीत

र कहीं कुछ भारी-सा छोड़ आए।



मंगलवार, 15 जुलाई 2025

BA SEP 1st sem chapter 2

 लघु प्रश्नोत्तरी 

१ मैं धोबी हूं व्यंग्य निबंध के लेखक कौन हैं?

उत्तर आचार्य शिवपूजन सहाय

२ भगवान क्या कहलाते हैं?

उत्तर पतितपावन 

३ धोबी को समाज में क्या माना जाता है?

उत्तर अछूत 

४ धोबी को ब्रह्मा जी ने किसके पास रहने को कहा?

उत्तर इंद्र के पास 

५ धोबी इंद्र लोक में कहां कपड़े धोने लगा?

उत्तर नंदन वन के सरोवर में।

६ धोबी किसके कपड़े चोरी से सुंघा करता था?

उत्तर उर्वशी और रंभा के।

७ धोबी से किसने हाल पूछा?

उत्तर मंजु घोषा देवी ने।

८ किसने धोबी के रक्त में विलासिता के कीटाणु होने की बात कही? 

उत्तर मेनका देवी

९ किसने धोबी को दंड देने की बात कही?

उत्तर घृताची देवी

१० किन्होंने धोबी को मर्त्यलोक में जाकर रहने और अपनी मलिन वासनाएं पूरी करने का अभिशाप दिया?

उत्तर उर्वशी और रंभा ने

११ किनके प्रताप से कपड़ों की मलीनता दूर होती है?

उत्तर वरुण देव, पवन देव, सूर्यदेव

१२ महाराज देवराज की बहन का नाम क्या था?

उत्तर सुकेशी 

१३ यात्रकाल में किसका दर्शन मंगलमय होगा?

उत्तर धोबी

१४ धोबी को किस पर चढ़ाकर सुरलोक से निकाला गया?

उत्तर गदहे पर

१५ धोबी की सनातन सवारी क्या है?

उत्तर गदहा

१६ गदहे का दूसरे नाम क्या–क्या है?

उत्तर दूर्वाकंद–निकन्द वैशाखनन्दन 

१७ गरुड़ को किसकी सवारी होने का गर्व है?

उत्तर भगवान की

१८ गदहे को किसकी सवारी होने का गर्व है?

उत्तर जगदम्बा 

१९ रावण और रासभ की मात्राएं किसके अनुसार बराबर है?

उत्तर पिंगला अनुसार 

२० गर्दभ का तद्भव रूप क्या है?

उत्तर गदहा 

२१ राम ने किनके झगड़े को सुनकर सीताजी को वनवास दिया था?

उत्तर धोबी और धोबिन

२२ निबंध में धोबी किसके अपनी धोबिन बताता है?

उत्तर हरी धनिया।

२३ कृष्णावतार में कृष्ण अपने मामा कंस के पास ननिहाल में किसके कपड़ों में सजकर गए थे?

उत्तर धोबी


सोमवार, 14 जुलाई 2025

BA 1st sem SEP chapter 1

 लघु प्रश्नोत्तरी 

१ माधवी के पति की मृत्यु कितने वर्ष पहले हुई?

उत्तर २२ वर्ष

२ माधवी के लड़के को क्या हुआ था?

उत्तर उसे जेल की सज़ा हो गई थी।

३ माधवी किससे बदला लेना चाहती थी?

उत्तर बागची 

४ माधवी के बेटे का नाम क्या है?

उत्तर आत्मानंद 

५ पुलिस द्वारा कितने युवकों को फंसाया गया ?

उत्तर २०

६ आत्मानंद को कितने वर्ष की कठिन कारावास की सज़ा मिली?

उत्तर ८ वर्ष की

७ नारी हृदय कैसे होता है?

उत्तर कोमल

८ किसने माधवी को रक्त के आंसू रुलाए थे?

उत्तर बागची

९ किसके लिए संसार में स्थान नहीं है?

उत्तर सत्कर्म के लिए

१० बागची क्या काम करते थे?

उत्तर वह पुलिस सुपरिटेंडेंट थे?

११ बागची का बंगला कहा था?

उत्तर लखनऊ 

१२ माधवी किसके घर में आया का काम करने लगी?

उत्तर बागची के घर

१३ बागची की पहली पत्नी से कितनी बेटियां थी?

उत्तर पांच बेटियां 

१४ पांचों बेटियां कहां पढ़ाई कर रही थी?

उत्तर इलाहाब 

१५ बागची की बड़ी बेटी की उम्र क्या थी?

उत्तर १५–१६

१६ बेटियों के विवाह में कितने रकम लगने का अनुमान था?

उत्तर २५ हज़ार 

१७ बागची के सभी बेटों के साथ क्या हुआ था?

उत्तर वे सभी पैदा होते ही बीमारी से साल भर में ही मर जाते थे।

१८ बागची की मां ने उन्हें किसके हाथों बेच दिया था?

उत्तर धोबिन

१९ बागची के कितने भाई मर चुके थे?

उत्तर तीन 

२० बागची के छोटे लड़के को क्या हो गया था?

उत्तर उसे सर्दी लग गई थी।

२१ माधवी ने किसे बचाया था?

उत्तर बागची के बेटे को। 

शुक्रवार, 4 जुलाई 2025

एक विरान ज़िन्दगी New Story

 1

            सिलचर का टिकर बस्ती इलाका। बड़ी-छोटी कुछ इमारतो के बीच एक मध्यम दर्जे का घर। चारों तरफ झाड़ियों से ढका। मालूम होता है कि काफी दिनों से वहाँ की सफाई नहीं हुई है। घर घुसते ही नज़ारा कुछ इस तरह का। टूटा दरवाज़ा, सामने की सीढ़ियाँ टूटी हुई, लाल रंग का पेंट कभी किसी ज़माने में लगाया गया था अब धूल और मिट्टी लग कर बेरंग सा हो गया है। दरवाज़े के बगल में मेटेल की कुर्सी में बैठे विश्वंबर देवनाथ जी अपनी मोतियाबिंद वाली आँखों से किसी को आवाज़ दे रहे हैं। हाँ उन्हें मोतियाबिंद हो गया है। दोनों ही आँखों में। अब पूरी तरह से अंधे हो चुके हैं। चेहरे में बीते समय की लकीरे। बाल सफेद और लम्बे हो चुके हैं जिस पर शायद दो दिन से कंघी नहीं फिरी है। शरीर हड्डियों का ढाँचा बन चुका है। शरीर के लोम तक सफेदी की चादर ओढ़ चुके हैं। पुरानी बनियान और नीली चेक वाली लूंगी पहने हुए हैं। पत्नी को मरे भी अरसा बीत गया है। एक बेटी थी जिसका ब्याह हो चुका है। अब परदेश में रहती है। अपने ससुराल में पूरी तरह से रम चुकी है।

            विश्वंबर जी की आवाज़ सुनकर उनके पास उनका छोटा भाई दिगंबर आता है। दुबला-पतला व्यक्तित्व, झुका हुआ शरीर, बुढ़ापे ने उसे भी अच्छी तरह से निचोड़ दिया है। हाथ में एक पुराना अलुमीनियम का मग्गा लिए गरम पानी भर कर वह अपने बड़े भाई के पास आते हैं। अपने भाई का मुख धुलवाकर उन्होंने दाड़ी बना दी। फिर गमछा लेकर मुँह पोछा और वही पर बैठने का कहकर उनके लिए कपड़े लेने भीतर चले गए।

            जितना बाहर का नज़ारा देख कर लगता था कि ये दोनों बुजुर्ग गरीबी में जी रहे हैं उससे कही ज्यादा भीतर का नज़ारा भयानक था। जिस कमरे में ये दोनों भाई सोते थे वहाँ बड़ा सा पलंग जिसमें मच्छरदानी अभी तक लटकी हुई थी। उसका रंग पहले चाहे जो भी रहा हो मगर अब काला पड़ चुका था। इतनी गंदगी कि कमरे में घुसते ही बदबू से कोई कै कर दे। धूल ने अपनी विरासत कमरे के हर कोने में फैला रखी थी। दीवार से लगी मेज हो चाहे छोटी अलमारी, दराज हो या फिर बिस्तर से सटा स्टूल हो। हर जगह धूल-ही-धूल। एक तरफ आलना(कपड़े रखने का स्टेंड जो कि हर बंगाली घरों में हुआ करता था।) कपड़ों का ढेर यू ही लटका हुआ है। उन कपड़ो को देख लगता है कि जैसे कि पानी-साबुन से दूर कर दिया गया हो। उन्हीं कपड़ों के ढेर से एक पुरानी मैली-कुचली शर्ट लेकर दिगंबर निकालता है साथ में एक पैंट निकालते हैं। अपने बड़े भाई को पहनाने के लिए। आज दोनों को बैंक जाना जो है। पेंशन मिलने वाली है। दोनों को वहाँ बैंक में हाजरी लगानी है। पैसे निकालने है ताकि ज़रूरत का सामान ला सके। दिगंबर अपने बड़े भाई को बड़े जतन के साथ कपड़े पहनाते हैं। फिर वे उन्हें कुर्सी में ही बिठाकर खुद तैयार होने चले जाते है। कभी दोनों भाई सिलचर के प्राथिक स्कूल में शिक्षक हुआ करते थे। साथ-साथ नौकरी और घर दोनों ही भाईयों ने बड़े शौक से बनवाया था। पूरा घर भरा-भरा सा था। पत्नी और बच्चों की किलकारियों से घर गूंजा करता था। फिर एक-एक करके सब कुछ बर्बाद हो चला। पहले दिगंबर की पत्नी बिमारी के चलते चल बसी। फिर विश्वंबर की धर्मपत्नी ने दोनों बच्चों की ज़िम्मेदारी सम्भाली। बेटी की शादी तक सब ठीक था। मगर एक दिन वह भी संसार को अलविदा कर गयी।

 

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            सड़क के किनारे कड़ी धूप में दोनों काफी देर से खड़े हैं। कोई ऑटो वाला रुक नहीं रहा है। कोई रिसर्व जाना चाहता है तो कोई दोनों बूढ़ों की मजबूरी का फायदा उठाकर ज्यादा पैसे लेने की कोशिश करता है। इसी के चलते लगभग आधे घंटे से दोनों भाई खड़े किसी रहमदिल ऑटो वाले की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनके पास सिर्फ बैंक जाने तक के पैसे है, कुछ पैसे छोटे भाई ने अपनी जेब में रखे हैं ताकि बैंक से आते वक्त दवाई लेते हुए जाए। अपने बड़े भाई को काफी देर से सहारा देकर पकड़ते हुए खड़े रहने के कारण अब दिगंबर के भी बाजुओं में दर्द होने लगा है। वह अपने भाई को सड़क के किनारे ही बिठा देते हैं। काफी देर प्रतीक्षा करने के बाद एक ऑटो वाला रुकता है। दिगंबर उसे बैंक ले जाने के किराया पूछते है तो ऑटो वाला चालीस रुपये मांग लेता है। दिगंबर के काफी बहस करने पर ऑटो वाला तीस पर मानता है जबकि बैंक तक जाने के लिए सिर्फ़ बीस रुपए लगते थे। ये था उस समय सिलचर के ऑटो रिक्शा का रेट। दिगंबर जब ऑटो वाले से अपने बड़े भाई विश्वंबर को ऑटो में बिठाने के लिए मदद मांगता है तो ऑटो वाला मुँह बनाते हुए पहले तो मना कर देता है लेकिन फिर न जाने क्या सोच कर वह उन्हें सहारा देकर बिठा देता है।

            बैंक पहुँचने के बाद दोनों भाई बैंक की सीढ़ियों में बड़ी मुश्किल से चढ़ाई करते हुए उपरी मंजील पहुँचते हैं जहाँ आज बहुत भीड़ लगी हुई है। विशेषकर पैंशन लेने वालों की लाइन सबसे लम्बी है। सभी प्रकार के लोग वहाँ आए हुए हैं। लेकिन ये क्या? कुछ जवान नव-विवाहित लोग पैंशन वाली लाइन लगे कुछ बुढ्ढे-बुढ्ढियों के पास क्या कर रहे होंगे? दिगंबर को बैंक का ये दृश्य देख समझते देर नहीं लगी। क्योंकि उनके साथ भी तो कुछ ऐसा ही हुआ था। करीब चार साल पहले की बात है। इसी तरह अपने पैंशन की पासबुक लिए वह बैंक के काउंटर के सामने खड़े थे। पास ही उनका बेटा अमल खड़ा था। बैंक के बाहर गाड़ी में उसकी नव-विवाहिता पत्नी इंतज़ार कर रही थी। दिगंबर ने काउंटर में पासबुक दिया और अपनी पैंशन की रक्म निकाली जिसमें से आधी से ज्यादा रकम अमल ले लेता है। दिगंबर कुछ कहते इससे पहले अमल बोल उठता है –इतने पैसों का तुम क्या करोगे बाबा? मैं जाता हूँ। वह इंतज़ार कर रही है। दिगंबर को उस दिन पैसों की ज्यादा ज़रूरत तो नहीं थी लेकिन उन्हें निकालने पड़े थे। अपने बेटे की इच्छाओं की पूर्ति के लिए उन्हें पैसे निकालने पड़े। आखिर पिता जो थे। बेटे के लिए कर्तव्य का पालन जो करना था। अपने बेटे को उन्होंने इसी तरह जाते हुए देखा था। इसके बाद जितनी बार भी मिला वह अपने पिता से पैसों के लिए मिला। फिर न जाने क्या हुआ उसका आना भी बंद हो गया और फोन पर भी कभी बात नहीं होती।

            दिगंबर! अपना नाम सुनते ही जैसे वह नींद से जागे हो इस प्रकार वह चेतना में लौट आते हैं। विश्वंबर उनको लगातार कुछ कहे जा रहे थे। मगर उनको अपने बेटे की याद में कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।

विश्वंबर --मैं जानता हूँ तू फिर से उसी बात को याद करके बैठ गया है। देख तेरी लापरवाही लाइन कितनी आगे निकल गयी है। अगर तू ऐसे बुत न बना होता तो कब का हमें पैंशन मिल जाता। अब यही खड़े रहना है? चल-चल आगे चल। दोनों के पासबुक काउंटर पर दे और पैसे निकाल। जल्दी से घर चले जाएंगे। कौन इस चिलचिलाती गर्मी में मरेगा यहाँ।

दिगंबर --घर जाकर क्या करना है तुम्हें? घर में कोई है जो हमारा इंतज़ार कर रहा हो? पैंशन के बहाने ही सही एक बार तो घर से निकलते हो। यहाँ देखो कितने लोग है। लोगों को देखकर थोड़ा अच्छा लगता है। सुकून मिलता है। वरना घर का अकेलापन तो मुझे काटने को दौड़ता है।

विश्वंबर --बेकार की बात मत कर दिगंबर। मैं जानता हूँ घर का अकेलापन बगैरह कुछ नहीं है। सब बकवास है। तू यहाँ पैंशन लेने के बहाने क्यों मुझे भी साथ ले आता है। अपने बेटे को ढूँढने आता है। सोचता है कि काश तेरा बेटा यहाँ आ जाए तुझसे मिलने के लिए। पैसे लेने के बहाने ही सही। अरे तुझे कितनी बार समझाया है कि अमल गया अपनी पत्नी के साथ नया संसार बसाने। उसे अब तेरी ज़रूरत नहीं है। तू अब उनके नए संसार में बूढ़ा लगाम है। वरना वह नहीं आता तुझसे मिलने? शादी के बाद ही जब उसने अपने ससुर के दिए फ्लेट में रहने चला गया था तभी समझ गया था कि वह लड़का हाथ से निकल चुका है। जब भी तुझसे मिलने आता तो पैसों के लिए आता था। भूल गया था कि किस तरह से उसकी माँ के जाने के बाद तूने उसकी माँ और पिता  बनकर उसका लालन-पालन किया है। उस दिन भी आया था वह। वो तो मैं समझ चुका था इसलिए बहाने से उसे तुझसे मिलने रोक दिया था। वरना वह सिर्फ पैसों के लिए ही आता। इतना स्वार्थी लड़का मैंने तो नहीं देखा कभी। राम-राम!’

दिगंबर --बस करो दादा। सबके सामने अभी ये सब क्यो कह रहे हो। मुझसे और सहा नहीं जाता। तुम्हारी बातें काँटों जैसी चुभती है। दिगंबर किसी प्रकार अपने मन पर काबू पाते हैं। इसी बीच उनकी बारी आती है तो काउंटर पर वे अपना पासबुक देते हैं। पासबुक अपडेट हो जाता है। फिर पैंशन निकालने के लिए रसीद लेकर वे भरते हैं तथा कुछ पैसे ले लेते हैं। विश्वंबर को भी पैंशन की रकम निकालकर गिनते हुए वह उन्हें पकड़ाते हैं।

विश्वंबर--रख-रख। ये पैसे रख। मैं क्या इनका अचार डालूंगा? जानता नहीं कि मैं देख नहीं सकता। पूरी तरह से तुझी पर निर्भर हूँ।

दिगंबर --फिर भी। आपके हाथों में पैसे पकड़ाना मेरा दायित्व है।

विश्वंबर--बड़ा आया दायित्व की बात करने वाला। चल-चल घर चल।

दोनों बूढ़े धीरे-धीरे बैंक की सीढ़ियाँ उतर कर किसी प्रकार नीचे आते हैं। फिर से वही ऑटो की जद्दोजहद शुरु होती है। फिर से वही पुरानी विरान से पड़े घर में जाकर अपने बचे-कुचे दिन काटने के लिए........

 

शनिवार, 3 मई 2025

रांगा मामा से एक बातचीत

                                                 रांगा मामा का नाम सुनते ही मेरे ज़हन में हमारे सबसे प्यारे छोटे मामा जी की तस्वीर उभर आती है। मेरे रांगा मामा का पूरा नाम है श्री पिनाकपाणी चक्रवर्ती जिन्हें हम सभी जुनु मामा(घर का नाम) के नाम से भी जानते हैं। रांगा शब्द बांग्ला भाषा में परिवार के सबसे छोटे सदस्य को कहा जाता है। मंझली कद-काठी, बैसाखी के सहारे धीरे-धीरे मुस्कुराते हुए अपना और अपने संसार का भार उठाकर पोस्ट ऑफ़िस से घर की ओर लौटते हुए। हमारे रांगा मामा परिवार में नौ भाई-बहनों में सबसे छोटे भाई है। उनके बाद सबसे छोटी बहन है अपु मासी। मेरे मामा जी को पोलियो के कारण दाहीने पैर और कमर से नीचे तक लकवा मार गया था सो वे बैसाखी के सहारे चलते हैं। रांगा मामा का जन्म सन् 1961, 31 मार्च असम के बदरपुर जिले के श्रीगौरी ग्राम में हुआ। उनकी शादी मेरी बुआ जी की ननद अजंता चक्रवर्ती देवी से हुई जिन्हें हम सभी प्यार से इति मामी के नाम से पुकारते हैं। उनकी दो संताने है। अद्वितीया चक्रवर्ती तथा सौम्य चक्रवर्ती। रांगा मामा सन् 31 मार्च 2021  को पोस्ट ऑफिस की नौकरी से रिटायर हुए। अपनी शारीरिक अक्षमता के बावजूद भी वे सदैव हंसते-मुस्कुराते हुए तथा हम सभी भांजे-भांजियों पर प्यार लुटाते रहे। उनकी वाकपटुता तथा मज़ाकीया अंदाज़ सदैव ही हमारे लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। बचपन में जब कभी भी हम ननीहाल जाते थे तो उनसे चुटकुले सुनाने की मांग करते थे। फिर वे चुटकुले सुनाते जाते और हम सभी भाई-बहन हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते। अपने दिव्यांग शरीर की पीड़ा जैसे उनके मन में कभी घर ही नहीं कर पाई। हम उनसे जब भी मिलते वे सदैव ही हंसते-मुस्कुराते ही दिखते रहे हैं।

            रांगा मामा का पूरा जीवन एक आदर्श जीवन रहा है। ग्रामीण परिवेश जहाँ शहरी सुख-सुविधाएँ हमेशा उपलब्ध होना असंभव है वही उन्होंने प्रत्येक कठीन-से-कठीन परिस्थिति में भी तटस्थ रहकर अपने जीवन को जिया है। मामा जी से बातचीत को दौरान पता चला कि उनके दाहीने पैर में पोलियों ढाई साल की ही उम्र में हो गयी थी। उस घटना के बारे में मैंने पहले एक बार माँ से सुना था लेकिन पूरा विवरण मामा जी से ही सुना। बचपन में जब गाँव में बच्चे सुपारी के बड़े-बड़े खोल को नौका बनाकर उसमें बैठकर खीचते हुए खेलते हैं तो बड़ा ही आनन्द का माहौल बन जाता है। इस तरह का खेल एक दिन मामा, मौसी और माँ भी खेल रहे थे कि मामा जी अचानक खेल-खेल में गिर पड़े और उन्हें हल्कि चोट आ गयी। उस वक्त बात आयी-गयी हो गयी। लेकिन उसी रात मामा जी को बुखार आ गया। मामा जी इतने बीमार पड़े कि लगभग सात दिन तक उनका खाना-पीना तो जैसे बंद ही हो गया था। उन्हें उन दिनों मल-मूत्र त्यागने में भी कष्ट हो रहा था। हमारे नाना जी स्वर्गीय उपेन्द्र कुमार चक्रवर्ती तब डिगबोई में अपना होमियोपेथी का दवाखाना चलाते थे। वे स्वयं होमियोपेथी के चिकित्सक थे। उन्हें जब इस बात का पता चला तो उन्होंने तुरंत ही मामा जी के लिए दवा भेजी। लेकिन उस समय डिगबोई से बदरपुर तक के यातायात की व्यवस्था इतनी अच्छी नहीं थी, सो दवाई पहुँचने में करीब दो दिन का समय लग गया था। मामा जी को उस दवा से कुछ फायदा हुआ और सांतवे दिन उन्होंने थोड़ा मल-मूत्र त्यागा और अपने पैरों पर कुछ देर के लिए खड़े हो सके। घर वालों को लगा कि मामा जी स्वस्थ हो चले हैं। लेकिन जल्द ही घरवालों की यह आशा निराशा में बदल गयी। मामा जी अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पा रहे थे। नाना जी की  दी हुई दवाई के साथ-साथ कई अन्य उपाय किये जाने लगे। यहाँ तक कि उन्हें अपने पैरों पर सीधे खड़े होने में मदद के लिए मिट्टी में गड्डा खोद कर उन्हें कमर तक गाड़ कर भी रखा गया। मगर उसका कुछ असर न हो सका। अंत में नाना जी उन्हें लेकर डिगबोई के ही एलोपेथी डॉक्टर के पास लेकर गए जहाँ उन्हें पता चला कि मामा जी को पोलियो हो गया है और ये रोग उनके पूरे शरीर में फैल सकता है। परन्तु भगवान की कृपा से मामा जी के पूरे शरीर में पोलियो नहीं फैला, केवल पैरों तक ही सीमित रह गया। उसके बाद उनके जीवन का संघर्ष शुरु हुआ।

            मामा जी से जब मेरी बात हुई तो उन्होंने मुझे बताया कि मेरी माता जी श्रीमति अनिता चक्रवर्ती जिन्हें वे प्यार से दीदीभाई बुलाते वही प्रतिदिन स्कूल लेकर जाया करती थी। उन्हीं की ही मुख्य भूमिका थी स्कूल और कॉलेज तक की पढ़ाई करने में। उनके अलावा बड़े मामाजी रांगा मामा को पढ़ाया करते थे। घर से स्कूल तक की दूरी लगभग एक किलोमिटर की थी। लेकिन आने-जाने का रास्ता नहीं था। गाँव की पगडंडी हो कर जाना पड़ता था। आज भी वह स्कूल मौजूद है। मैंने बचपन से लेकर अभी तक कई बार श्रीगौरी ग्राम की यात्रा की है। आज भी मुख्य राजमार्ग से गाँव को जोड़ती सड़क से जब मामा जी के घर जाती हूँ तो गांव का हाल जैसे 20 साल पहले था आज भी करीब-करीब वैसा ही है। टेढ़े-मेढ़े कच्चे रास्तें, कई घरों के किनारों से होकर, कई घरों के पीछे बने तालाब के किनारों से होकर, जगह-जगह जंगली घासों और बेलों से लदे ये रास्तें उनके घर तक जाती है। इन्हीं रास्तों को मामा जी ने अपने नित्य जीवन में पार करके स्कूल से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई पूरी की है।1976 में एच.एस एल.ली की परीक्षा पास की। उन दिनों स्कूल की पढ़ाई दसवीं तक ही सीमित होती थी। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने करीब 5 कि.मि. दूर बदरपुर के नवीनचन्द्र कॉलेज से प्री-यूनिवर्सिटी पास की। फिर आपने घर से छः-सात किलोमिटर दूर चतुष्पाती संस्कृत टूल से संस्कृत में शास्त्री उपाधि की परीक्षा पास करी। मामा जी ने मुझे यह भी बताया था कि बरसात के दिनों में ये रास्ते बहुत खतरनाक होते थे जिसका अनुभव मुझे भी बचपन से कई बार हो चुका है। विशेषकर गर्मियों के दिनों में साँप-बिच्छू के निकलने का भय होता तो रात को सियार के निकलने का भय रहता। मामा जी ने बताया कि इन्हीं रास्तों से होकर उन्होंने तथा उनके बाकि सभी भाई-बहनों ने स्कूल तथा कॉलेज की शिक्षा भी पूरी की एवं अपने जीवन में वे सफल हो सके। उनके लिए सफलता का मतलब था एक अच्छा मनुष्य बनना जिसके पास इतना विवेक अवश्य हो जिससे वह अपना जीवन तो संभाल ही पाए  साथ ही औरों का जीवन भी संभाल पाए। उन्होंने अपनी विचारधारा को सार्थक भी कर दिखाया। क्योंकि उनके दौर में एक साधारण ग्रामीण व्यक्ति जो कि विक्लांग हो उसके लिए सरकारी नौकरी करना तथा विवाह कर अपनी गृहस्थी बसाना एक कठीन कार्य ही नहीं लगभग असंभव ही समझा जाता था। विशेषकर विक्लांग पात्र को लोग अपनी कन्या देने में हिचकते थे। यदि कोई विशेष कन्यादाय ग्रस्त दरिद्र पिता हो तो ही उसके लिए कई विकल्पों में ये एक विकल्प रहता है। परन्तु मामा जी ने न केवल स्वयं को शिक्षित ही किया बल्कि उन्होंने पोस्ट ऑफिस में नौकरी भी पायी तथा प्रेम विवाह भी किया। मामा जी बहुत अच्छा भजन-कीर्तन करते हैं। तबला, मृदंग, हारमोनियम बजाने में काफी उस्ताद है। उनके पास संस्कृत एवं बांग्ला भाषा का जितना ज्ञान है शायद ही आज के दौर के किसी पढ़े-लिखे व्यक्ति के पास हो। भागवत् से लेकर संस्कृत के कई ग्रन्थों का उन्होंने गहन अध्ययन किया है। पूजा करने बैठते हैं तो उनके मुख से श्लोक इस प्रकार से निकलते हैं मानो सव्यं माँ सरस्वती बोल रही हो। शायद इसी कारण हमारी प्यारी मामीजी मामाजी को दिल दे बैठी और 9 फरवरी 1989 में दोनों ने विवाह कर लिया।

            विवाह के बाद जिम्मेदारी बड़ जाती है। उस समय नौकरी पाना इतना सहज नहीं था। पर उन्होंने होसला नहीं त्यागा और 1 मई 1992 को ग्रामीण डाक सेवा के तहत एक्सट्रा डिपार्टमेंटल पोस्ट ऑफिस में उन्हें अस्थायी नौकरी मिल गयी। धीरे-धीरे डिपार्टमेंटल परीक्षा पास करके स्थायी नौकरी पायी। फिर 31 मार्च 2021 को सब-पोस्ट मास्टर के पद से सेवा निवृत्त हुए। मामा जी कहते है कि उनकी नौकरी पाने में मेरे पिताजी का बहुत अवदान है।

             

            मामा जी को मैंने बचपन से ही देखा है कि उनका जीवन सदैव प्रेरणा दायक रहा है। यही कारण है कि हम सभी भांजे-भांजियाँ उनसे बहुत प्यार करते थे। वे भी हम तीनों भाई-बहनों से बहुत प्यार करते थे। परन्तु मेरे माता-पिता के साथ तो उनका विशेष लगाव था। मामा जी ने ही मुझे बताया था कि पिताजी ने उन्हें अपने पैरों पर सीधे खड़े होकर चलने के लिए उनके पैरों के लिए केलिपर्स लगवाकर दिया था। उस समय मेरे पिताजी मणिपुर इम्फाल में असम रायफल्स में तैनात थे। मणिपुर के रिज़नल इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस का ही एक रिहैबिलिटेशन विभाग था जो कि दिव्यांग लोगों को सक्षम करने के लिए उन्हें उनके ज़रूरत के मुताबिक चीजें उपलब्ध कराया करता था। मेरे पिताजी उन्हें अपने साथ इम्फाल ले गए और वहाँ उन्होंने उनको केलिपर्स लगवा कर दिया। वैसे तो मामा जी केलिपर्स पाकर बहुत खुश भी हुए थे क्योंकि अब बिना किसी सहारे के वे चल फिर सकते थे। लेकिन जल्द ही उन्हें केलिपर्स निकालने पड़े। क्योंकि गाँव की सड़क जो काफी कच्ची और बरसात के दिनों में कीचड़ और दलदल से भर जाया करती थी उन रास्तों में उनके लिए चलना-फिरना मुश्किल था। परन्तु उन्होंने अपने इरादों को इन मुश्किलों के सामने झुकने नहीं दिया।

            मामा जी के जीवन की कुछ दिलचस्प बातें जो उन्होंने मुझे फोन पर लिए गए साक्षात्कार के समय बताए। हालांकि ये साक्षात्कार हमने हमारी मातृभाषा सिलेटी बांग्ला में ही की। उसी का अनूदित रूप यहाँ पर रख रही हूँ।

1.सवाल --मेरा सबसे पहला सवाल उनसे यही था -मामा आपके जीवन में वह कौनसी प्रेरणा थी जिसने आपको इतनी शक्ति प्रदान की और आप हमेशा हंसते-मुस्कुराते रहते हैं?

जवाब- (मामा जी) – मैं ये जानता था कि मुझे ये करना ही है। मैं हार नहीं मान सकता था। मुझे अपने पैरों पर खड़ा ही होना था। हमारे एक काका थे। यानी की तुम्हारे दादु के छोटे भाई। उनका नाम था श्री किरणमय चक्रवर्ती। उनका एक हाथ और एक पैर नहीं था। अंग्रेजों के जमाने में उन्होंने मैट्रीक पास किया था। बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। उन्हीं से मैंने प्रेरणा ली थी।

2. सवाल-- मामा दादु के हाथ और पैर दोनों क्या दुर्घटना के कारण गए थे या कोई अन्य कारण था?

जवाब – उन्हें बचपन में टाईपॉइड हो गया था। इस वजह से उनका एक पैर खराब हो चुका था। बाद में एक दुर्घटना में हाथ भी कट गया था। वे एक ही हाथ और एक ही पैर से काम चलाते थे।

3. सवाल – मामा उनके बारे में थोड़ा और विस्तार में बताइए।

जवाब – तुम्हारे छोटे दादु बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। वे इतने तेज़ बुद्धि के थे कि लोग उनके आगे हार मान लेते थे। एक बार उनके स्कूल में एक प्रतियोगिता आयोजित हुई थी। प्रतियोगिता की शर्त थी कि एक तस्वीर को देख कर कविता लिखनी है। तस्वीर में एक तालाब में हंस, बैल और रखवाला बाँसुरी बजा रहा था, वही दूर सूरज डूब रहा था। सभी ने अपनी तरफ से कोशिश करके अच्छी से अच्छी कविता लिखी। मगर सबकी कविता उस तस्वीर से पूरी तरह से मेल नहीं खा रही थी। परन्तु उन्होंने महज तीन पंक्तियों में तस्वीर से मेल खाती कविता लिख डाली। वह कविता ऐसी थी –

            सरोबरे हंसमिथून अस्ताचले रवि,

            राखाल छेले बाजाय बांशि

            के एकेछे छवि? ( अर्थ -- सरोवर में हंस और बैल दोनों है, रवि अस्त होने वाला है वही गाय चराने वाला लड़का बाँसुरी बजा रहा है। ऐसा चित्र किसने बनाया है।)

4.सवाल-- मामा दादु तो कमाल है। वे इतनी अच्छी कविताएँ लिखते थे। शायद मुझे इसीलिए कविता लिखने की प्रेरणा विरासत में मिली है। मामा उनके बारे में कोई और बाते हों तो बताए जो आपके लिए प्रेरणा दायक रही हो।

जवाब – वे स्कूल मास्टर रहे हैं। उन्होंने हमेशा ही गाँव के गरीब तथा असहाय छात्रों की बहुत मदद की है। उन्होंने  तो अपने जैसे विक्लांग लोगों पर कविता भी लिखी थी। यही कविता मेरे लिए प्रेरणा दायक बनी।

कविता ऐसी है

आमि खंज, आमि खंज,आमि खंज,

खूड़ाईया चलि उड़ाईया धूलि,

घुरिया बेड़ाई गंज।

नगर हईते पल्ली, डिगबय हईते दिल्ली,

कत अलि-गलि, कत भिड़ ठेली

पार हई कत कूंज।

आमार गानेर शुनिया शूर,

केउ बा हाशिया खून,

केउ बा रागिया आगून।

कत हाँशि, कत विद्रूप

उठे आमारे करिया केन्द्र।

 

5. सवाल -- मामा ये कविता सुनकर तो ऐसा ही लगता है जैसे विक्लांग लोगों के प्रति दूसरों के मन में कुछ खास जगह नहीं है। फायदे के न हो तो लोग अच्छे खासे व्यक्ति का साथ छोड़ देते हैं।

 जवाब – हाँ लोग ऐसा करते हैं। लेकिन काका की इस कविता ने मुझे इतनी प्रेरणा दी कि भले ही मुझे कोई चाहे न चाहे पर अपने लिए तो जीना ही पड़ेगा। अपने लिए तो करना ही पड़ेगा।

6. सवाल -- मामा आपके साथ कभी ऐसा हुआ है जहाँ आपको लगा हो कि अन्याय हुआ है आपके साथ या आपके दोस्त स्कूल में या कॉलेज में मजाक उड़ाते हो?

जवाब – नहीं मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ। मुझे ज्यादातर लोग प्यार करते थे। मेरे स्कूल के दोस्त मेरे शिक्षक सभी। घर में भी जितना प्यार मिला है उतना ही बाहर में भी प्यार मिला है।

7. सवाल --  मामा स्कूल में जब लड़के खेलते थे तो तब आपको बुरा नहीं लगता था कि काश आप भी खेल पाते तो कितना अच्छा होता?

जवाब –देखो ये बात यदि मैं अस्वीकार कर दू तो मैं झूठा बन जाऊँगा। हाँ मुझे भी बुरा लगता था जब मैं अपने दूसरे दोस्तों को खेलते हुए देखता था। वे लोग मुझे ग्राउंड के एक साइड बिठाकर रखते थे और कहते थे कि हम खेलते हैं तू देख। तब मुझे जरूर लगता था कि काश में भी जाकर उनके साथ खेलू। मुझे जीवन से वैसे तो कोई शिकायत नहीं थी मगर कभी-कभी जरूर लगता था कि काश में भी दूसरों की तरह चल-फिर सकता तो कितना अच्छा था।

8. सवाल--  मामा आपको जब पहली बार केलिपर्स लगवाकर दिया गया था तो कब तक उपयोग किया था?

जवाब – केलिपर्स मैंने शायद 1982-83 में लगवाया था और चार से पाँच साल तक इस्तेमाल किया था।

9. सवाल -- मामा पिताजी ने मुझे बताया कि केलिपर्स लगाने के बाद आप सीधे होकर चल पाते थे, लेकिन श्रीगौरी के रास्ते खराब होने के कारण आपको निकाल देने पड़े, क्योंकि केलिपर्स आपकी उतनी मदद नहीं कर पाए?

 जवाब – हाँ श्रीगौरी के रास्तों में केलिपर्स लेकर चलना मुश्किल था इसलिए निकाल देना पड़ा।

10. सवाल-- मामा केलिपर्स लगाने के बाद आपको कैसा लगा था जब आप सीधे खड़े होने पा रहे थे?

जवाब – अपूर्व। इम्फाल में पहली बार तुझे ही गोद में लिया था खड़े होकर। मैं तो कभी भी सीधे खड़ा नहीं हो पाता था। किसी भी बच्चे को अपने गोद में नहीं ले पाया था। केलिपर्स लगाने के बाद तुझे ही पहली बार गोद में उठा पाया था। और तुझे ही गोद में लेकर फोटो भी खिंचवाई थी। लेकिन हमारे घर में एक बार चोरी हो गयी थी उसी के बाद से ये फोटों आज तक नहीं मिली।

11. सवाल-- केलिपर्स जब आपको बाध्य होकर खोलना पड़ा तो काफी दुख हुआ होगा कि दुबारा अब झुककर लाठी के सहारे चलना पड़ेगा।

 जवाब – हाँ दुख तो हुआ था। मैं तब स्कूल जाता था। रेल लाइन के किनारे से चलकर जाना पड़ता था और केलिपर्स के कारण मुझे असुविधा होती थी। हाँ ठंड के दिनों में कोई असुविधा नहीं होती थी। रास्ता भी ठीक रहता था। लेकिन वर्षा के दिनों में हमारी गली का जो रस्ता था उसमें काफी कीचड़ हो जाया करता था। और केलिपर्स में तो जुता लगा होता था। अगर कीचड़ में ये खराब हो जाता तो ये इम्फाल के अलावा कही उपलब्ध नहीं होता था, इसलिए इसे खोलकर रख दिया था।

12. सवाल --  मामा आप अपने ऑफिस के कुछ अनुभव के बार में बताई। जब आपने पहली बार पोस्ट ऑफिस ज्वान करी तो अक्सर कुछ लोगों का रवैया रहता है कि ये तो दिव्यांग है, ये क्या काम कर सकेगा। कभी आपके दफ्तर के किसी भी सहयोगी ने आपकी कार्य-क्षमता पर संदेह प्रकट किया हो?

जवाब – ना, ऐसा किसी ने नहीं किया। कारण हमलोग, हमारे दादामाशय(नाना) भी पोस्टमास्टर थे। हमारी माँ (नानी) के पिताजी भी पोस्टमास्टर थे। मेरे मामा भी एसिस्टेंट पोस्टमास्टर जेनरल थे। उसके अलावा हमारे एक और चचेरे भाई थे वे पोस्टल इन्स्पेक्टर होकर रिटायर हुए थे। तो मेरे साथ कभी किसी ने कोई ऐसा व्यवहार नहीं किया। बल्कि सभी स्टाफ ने मुझे बहुत सपोर्ट किया। प्रथम-प्रथम बहुत डर लगता था। बहुत सारे पैसे होते थे जिन्हें मिलाना पड़ता था। तो डर लगता था कि शाम तक इन सबका ठीक से मिलान हो पाएगा की नहीं। फिर 99 को मैंने फिर से परीक्षा दी और पोस्ट मैन बन गया। तो डिपार्टमेंट वालों ने भी थोड़ी मर्सी दिखायी और मुझे गाँव के ही पोस्ट ऑफिस में पोस्टिंग कर दी। तो ये तो अपना ही गाँव है, अपने ही जाने-पहचाने लोग हैं। तो मैं खुद ही जा-जाकर अपनी ड्यूटी करता था। वहीं गाँव के लोगों ने भी मुझे काफी साथ दिया। कभी-कभार तो वह रास्ते से ही अपनी चिट्ठी ये कहकर ले जाया करते थे कि मुझे उनके घर तक आने की इतनी तकलीफ न करने की जरूरत नहीं है।

13.सवाल -- मामा आपको और किस तरह का साथ मिला जब आप पोस्ट मैन का काम करना शुरु किया?

 जवाब—मुझे किस तरह का सपोर्ट मिला जैसे मैं बैंक में चिट्ठी पहुँचाने जाया करता था। तो बैंक के मैनेजर ने मुझसे कह रखा था कि मैं केवल बाहर ही सूचना दे दु कि चिट्ठी आ गयी है। वे अपना पियोन भेजेंगे तथा रजिस्टर भेजेंगे जिसमें एंट्री वगैरा सब करवा दिया जाएगा।  वे लोग बाहर आकर चिट्ठी लेंगे। कभी में श्रीगौरी हॉस्पिटल जाया करता था चिट्ठी देने को तो वहाँ के डॉक्टर साहब ने कह रखा था कि मैं सिर्फ वहाँ जाऊंगा सामान लेकर और कुर्सी पर बैठूंगा। बाकि स्टाफ स्वयं आकर अस्पताल के लिए जो भी वस्तुएँ तथा चिट्ठी वगैरह आयी है वह लेकर जाएंगे। मुझे हर कमरे में चिट्ठी पहुँचाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। पियोन से ही वह सब चीजें लिवा लेंगे।

14.सवाल--   मामा आपको अपने दफ्तर के स्टाफ से तो अच्छा साथ मिला। सामाजिक रूप में आपका कैसा अनुभव रहा, विशेषकर आपके दैनिक आवागमन दफ्तर से घर, घर से दफ्तर। जहाँ तक मुझे याद है आप जब बदरपुर के पोस्ट ऑफिस में काम करते थे तो आप रोज बदरपुर से रेल पकड़कर रुपोशी बाड़ी रेलवे स्टेशन पर उतरते थे। कभी-कभी आप सिलचर वगैरह जाया करते थे तो आपको बस पकड़नी पड़ती थी। तो ऐसे में कभी आपको किसी प्रकार की दिक्कत का सामना करना पड़ा?

जवाब –बात दरअसल ये है कि पहले मेरा शरीर काफी अच्छा रहता था तो कभी भी मुझे बस या रेलगाड़ी में चढ़ने में उतनी असुविधा नहीं होती थी। बस में उठता तो मुझे कोई-न-कोई सीट दे ही देता था। वही मैं पोस्ट ऑफिस में काम करने से पहले दस साल तक एक स्कूल में काम कर चुका था। तो मेरी आदत लगभग हो चुकी थी।

15. सवाल -- मामा स्कूल के बारे में वहाँ की कुछ अनुभूतियाँ बताइए?

जवाब –ये एक वेंचर स्कूल था। 1982 में मैंने यहाँ काम करना शुरु किया था। इसका नाम था समवाय हाई-स्कूल। प्रायः समय जब भी स्कूल से घर लौटता तो कोई-न-कोई मेरे साथ काम करने वाले सहयोगी या फिर कोई छात्र या छात्रा मिल ही जाते थे। तो वे अक्सर मुझे गाड़ी में सीट दे दिया करते थे बैठने के लिए। मैं स्कूल में संस्कृत का अध्यापक था। परन्तु संस्कृत के विद्यार्थी न होने के कारण दूसरे विषय के छात्रों को पढ़ाना पड़ा। पहले-पहले छोटे बच्चे मुझसे बहुत डरते थे क्योंकि मैं अपनी दो लाठियों के सहारे कक्षा में जाता था। मगर मेरे साथ कभी किसी छात्र ने बुरा व्यवहार नहीं किया। वे सभी ग्रामीण छात्र थे और बहुत ही नम्र और भद्र स्वभाव के थे। तो वे मुझे अपने शिक्षक के रूप में बहुत सम्मान करते थे। इसलिए मुझे कभी किसी प्रकार की असुविधा महसूस ही नहीं हुई।