कुल पेज दृश्य

बुधवार, 19 जून 2024

जादू का कालीन में व्यक्त सामाजिक समस्याएं।

जादू का कालीन दरसल एक ऐसा नाटक है जिसमें समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, अशिक्षा, राजनीतिक अनैतिकता, ग़रीबी, भुखमरी जो कि अपनी जड़े गहरी जमा चुकी है उसे ही एक व्यंग्यात्मक शीर्षक के जरिये मृदुला गर्ग जी ने दर्शाया है। भारत देश का गाँव देश की वास्तविक छवि को दर्शाता है। गाँव जहाँ हरे-भरे खेत-खलिहान हो, जहाँ आस-पास घने जंगल, तालाबों और नदियों और कूवों में पानी हो एक शहरी के मन में गाँव कि यही तस्वीर झलकती है। लेकिन जादू के कालीन में सभी गाँव सुखा और अकाल की चपेट में हैं। वहाँ गाँव के लोग पारंपरिक खेती के काम को छोड़ कर मजदूरी कर रहे हैं। लेकिन मजदूरी भी भ्रष्टाचार पर निर्भर करती है। अगर ठेकेदार अच्छी सड़कें बनायेगा तो वह बारिश में नहीं बहेगा न धसेगा। पर अच्छी सड़क बनती है तो गाँव के लोगों को  नयी सड़क बनाने का काम कहाँ से मिलेगा? ये एक व्यंग्यात्मक उदाहरण है समाज में फैले भ्रष्टाचार की। रमई और माई के संवाद से यही पता चलता है। वही सरकार की गाँव के प्रति उदासीन दृष्टिकोण के कारण अब गाँव वाले जो की जंगलों पर निर्भर है वह भी अब गाँव वालों के हाथ से चला गया है और वह सरकार के कब्जे में है। उसे सरकार ने रिज़र्व कर लिया है। अब गाँव वाले बिना मजदूरी, बिना खेती, बिना पानी के मजबूरी में अपने बच्चों को ही काम पर भेजने के लिए तैयार हो जाते हैं। भूख से  बिलबिलाते बच्चे आखिर उनके माता पिता का भी क्या दोष। उन्हें भी पता है कि कालीन कारखानों में बच्चों की दुर्गती हो सकती है। लेकिन कमाई का जरिया ना हो और सिर पर ग़रीबी और भुखमरी की तलवार लटकी हो तो इंसान परिस्थिति का शिकार हो ही जाता है। वही कारखाने के मालिक द्वारा यह दिखाया गया है कि कैसे निचले दफ्तर के कर्मचारी, लेबर ऑफिसर और नेता तक इस कुचक्र में शामिल होकर पैसों के लालच में कालीन का व्यवसाय गलत तरीके से चलाने दे रहे हैं और कारखाने के मालिक जैसे लोग खुद लाभ कमा रहे हैं। उन्हें किसी मुसीबत का सामना नहीं करना पड़ता है। बल्कि वे कमिशन देकर अपना काम सुचारु रूप से चला रहे है। बच्चों की सेहत, उन्हें भरपेट भोजन, शिक्षा इत्यादि की किसी को फिकर नहीं है। बच्चे गेहूँ में घुन की तरह पीस रहे है। यद्यपि उनके मन में आजादी का सपना है, शिक्षा और अच्छे भोजन का सपना भी देखते है लेकिन वास्तविकता इससे उलट है। बच्चों की माओं के मन में चिन्ता जहाँ दिखती है वही उनके पिता बच्चों से ही आमदनी करने की सोचते है। केशो का बाप और संतो का बाप दोनों पैसे लेकर अपने बच्चों को दलालो के हाथ बेच देना यही दर्शाता है। 

वही सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार भी जब बच्चों को कारखाने से मुक्त करवाते है तो उन्हें दुबारा सही जीवन मिले इसका कोई व्यावहारिक उपाय या तरीका नहीं ढूंढ पाते हैं। गाँव के बच्चों को गाय और सिलाई मशीन देकर वे जैसे अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है। वही केशो जो कि पढ़ना चाहता था उसे भी शहर में घरेलू नौकर ही बनना पड़ता है। जब संतो कि दादी गाँव की वास्तविक आवश्यकता जंगल और पानी की मांग करती है तो उसे चुप करा दिया जाता है। सुखा के कारण उनको दी गयी गायें भी सुख कर अधमरी हो जाती है जिस पर कलेक्टर गाँव वालों पर ही नाराज़ होता है। लाखन जैसे बच्चे जो कि क्षणिक समाधान और क्षणिक लाभ के चक्कर में आकर इस बाल मजदूरी के कुचक्र में फँसा रहना ही चाहता है। काम काज और अन्न के अभाव में रमई और तीसरा गाँव वाला अपनी बेटियों की शादी कर देना चाहते हैं जो कि समाज में बाल विवाह की समस्या को उजागर करता है। वे दोनों लड़के के बाप से महज साड़े सात सौ- आठ सौ रुपए लेकर बच्चियों को बेचने के लिए राज़ी हो जाते है। 

डाक बंगला प्रश्नोत्तर

ममदू कौन था?

घोड़े वाला

इरा किस होटल में रुकी थी?

एल्पाइन होटल

इरा का पालन पोषण किसने किया?

नौकरानियों

कौन बतरा के बंगले का चक्कर लगाता था?

विमल

डॉ साहब के बच्चों के नाम क्या थे?

रंजन और विजन

इरा की सहेली का नाम क्या है?

दमयंती

शीला किसकी प्रेमिका थी?

बतरा

इरा अपनी कहानी किसे सुनाती है?

तिलक

डॉ साहब की उम्र क्या थी?

पचास से ऊपर

बतरा कौन सा खेल खेलते थे?

पोकर


संदर्भ सहित व्याख्या

१. आदमी से भागना भी चाहती हूँ, और उसी के पास रहना भी चाहती हूँ। शिकायतें भी उसी से हैं और प्यार भी उसी से हैं। 

संदर्भ:- प्रस्तुत गद्यांश डाक बंगला से लिया गया है। इस उपन्यास के रचैता कमलेश्वर जी है। 

प्रसंग:- किसने किससे कहा- इरा ने तिलक से कहा। 

व्याख्या:- इरा ने अपनी कहानी तिलक को सुनाई जिसमें उसने यह बताया कि कैसे उसके जीवन में अलग-अलग पुरुषों के कारण उसे कितने कष्ट और मुसीबतें झेलनी पड़ी है। पहले विमल जिससे इरा प्रेम करती थी परन्तु विमल खुद ही संकीर्ण मानसिकता वाला और कमजोर व्यक्तित्व वाला था जो उसे दिल्ली अकेले छोड़ कर बंबई भाग गया था। वो शंकालु भी हो गया था। फिर बतरा ने इरा के साथ अन्याय किया। वह उसके बच्चे की माँ भी बनने वाली थी लेकिन बतरा ने छल से उस बच्चे को गिरवा दिया। वही डॉ चंद्रमोहन से भी जब शादी हुई तो उसने भी केवल इरा से शरीरिक सुख ही पाना चाहा। इरा के कथन का अर्थ ये था कि उसके जीवन में जो भी पुरुष आया उन्होंने उसे विलास की वस्तु के रूप में देखा, उससे यही चाहा। इरा को वास्तविक प्रेम और अधिकार वाला जीवन साथी भी नहीं मिला। उसे ऐसा आदमी चाहिए था जो इरा को प्यार करे और उसे समझे। जैसे इरा के मन में किसी भी पुरुष को देखने पर प्रेम और ममता की भावना जगती रही है उसे भी वही चाहिए। परन्तु पुरुषों के संसार में नारी को भोग विलास मात्र समझना यही इरा की सबसे बड़ी शिकायत है। 


जादू का कालीन संदर्भ प्रसंग व्याख्या

 बरखा ना हुई, पिछले बरस बनी सड़क जौन की तौन  मौजूद है। ना बही, ना धँसी। मुझे बी लौटा दिया

संदर्भ:- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक जादू का कालीन नामक नाटक से ली गयी है। इसके नाटकार है मृदुला गर्ग। 

प्रसंग:- किसने किससे कहा- रमई ने माई से कहा। रमई माई को मजदूरी का काम न मिलने की वजह बता रहा है। 

व्याख्या:- लेखिका मृदुला गर्ग जी ने इस नाटक में ग्रामीण समाज की समस्याओं का चित्रण करते हुए दिखाना चाहा है कि किस प्रकार गाओं के लोग सुखा और अकाल पड़ने से अब शहरों में मजदूरी करने के लिए मजबूर है। और देश में भ्रष्टाचार की जड़े कितनी मजबूत है। 

जब माई गाओं के पास सड़क बनने की उम्मीद से अपना नंबर लगा आने की बात कहती है तो रमई उसे बताता है कि इस बार बारिश ना होने की वजह से सड़क अभी भी अच्छी ही है। अब उस सड़क में ना गड्ढ़े है ना ही वो बारिश में बही है। ना ही किसी जगह से धसी है। ऐसे में अच्छी सड़क को दुबारा बनाने का विचार भी नहीं आयेगा। वही गाँव के लोग जो इन कामों से मेहनत मजदूरी करके गुजारा करते है उनके लिए भी और कोई दूसरे काम की भी उम्मीद नहीं है। वही गाँव में जबरदस्त सुखा पड़ने से वे खेती भी नहीं कर सकते है जिससे गरीबी और भुकमरी की समस्या उत्पन्न हो गयी है। इसी कारण रमई और माई जैसे लोग परेशान है। 

वही सड़कों की बारिश में धसने और बहने की बात से पता चलता है कि इस प्रकार के कामों में ठेकेदारों और सड़क बनवाने वालों के बीच भ्रष्टाचार की जड़े कितनी ज्यादा गहरी हो चुकी है। 

जादू का कालीन प्रश्नोत्तर

 जादू का कालीन के नाटककार कौन है?

मृदुला गर्ग

संतो के पिता का नाम क्या है?

रमई

भले मानुष की संस्था का नाम क्या है?

सेवा संघ

किसकी उमर पूछी न जाती है?

लड़के की 

हरियाणा सरकार की गाये किसने डॉनेट की थी?

कलेक्टर साहब

केशों और संतों किस गाँव में रहते थे?

सरसताल

जंगल अब किसका हो गया है?

सरकार का

औरतें लड़कियों को बिठा कर क्या गीत गाती है?

कन्या विदा का



सोमवार, 29 अप्रैल 2024

सिलचर की दुर्गा पूजा

 

सिलचर हमारा प्यारा शहर सिलचर, असम का एक छोटा सा मगर खुद्दार और शांति का शहर सिलचर अपनी कई विशेषताओं के लिए यहाँ रहने वाले प्रत्येक सिलचर वासियों के मन में एक खास जगह लिए रहता है। कह सकते हैं कि आप सिलचर के बाहर तो जा सकते हैं मगर सिलचर आपके अंदर से बाहर नहीं निकलेगा।

            आज जिस विषय के बारे में हम बात करने वाले हैं वह है सिलचर की दुर्गा पूजा के बारे में। जी हाँ अब कुछ ही दिन बाकी है दुर्गा पूजा आने में और सिलचर एक ऐसा शहर है जहाँ की दुर्गा पूजा बहुत सारे बातों में मायने रखता है। विशेष कर आर्थिक रूप एवं आध्यात्मिक दृष्टि से। दुर्गा पूजा एक ऐसा पर्व है जो प्रत्येक बंगाली के जीवन में विशेष स्थान रखता है। महालया से शुरु कर विजया दशमी तक हर बंगाली इस उत्सव का आनंद मनाता है। प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह अमीर हो या गरीब हो इस उत्सव में विशेष रूप से प्रसन्न होकर अपनी तरह से मनाने की तैयारी करता है। फिर जब ये उत्सव पारिवारिक न होकर सार्वजनीन हो तो इसकी बात ही अलग होती है। बड़े-बड़े सुन्दर ढंग से सजाए पूजा पंडालों में माँ के भक्तों की भीड़ लग जाती है। तब न जाति देखी जाती है न ही वर्ण। सभी माँ के भक्त है। सभी माँ को प्रसन्न करने के लिए अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार तैयार होकर सुबह-सुबह उनके चरणों में अंजली देने को चले आते हैं। ये उत्सव इस लिए और खास बन जाता है क्योंकि इसमें जातिय दिवारें नहीं होती है।

इन सुनहरे पलों की शुरुआत ही महालया से हो जाती है। महालया के दिन सुबह चार बजे उठना फिर और रेडियो पर बंगाल के प्रसिद्ध गायक विरेन्द्र कृष्ण भद्र की आवाज़ में महिषासुर मर्दिनी का यादगार गायन और चंडी पाठ को सुनना एक ऐसा काम होता था जिसे करने के बाद गर्व की अनुभूति होती। सचमुच ये पाठ है कि इतना महान की आज भी हर बंगाली जब भी इसे सुनता है तो उसके मन में आनंद का संचार तो होता ही है फिर रोंगटे भी खड़े हो जाते हैं। फिर तो कुछ दिन बीतते ही दुर्गा पूजा शुरु हो जाती है। चारों तरफ जोर-शोर से तैयारी होने लगती है। पंडाल बनने लगते हैं, सड़कों के इर्द-गिर्द लाइटों की सजावट, माँ दुर्गा की मूर्तियों को लेने जाने वालों का जयकारा लगाते हुए जाना। घर-घर चंदा मांगने के लिए समूह में आते लोगों का तांता। चारों तरफ श्यामा संगीत और ढाकी का ढाक बजाना। बाज़ार में दुकानों में लोगों की भीड़ लग जाती है नए कपड़ों के लिए। नए-नए फैशन के कपड़े तो आज लोग खरीद कर खूब सज लेते हैं। लेकिन एक समय था जब लोग विशेष कर महिलाएँ और लड़कियाँ सलवार कमीज के अनसीले कपड़े लाकर दर्जी से अपने हिसाब से अपने फैशन की पसंद के अनुसार सिवालती थी। पुरुषों में धोती और कुर्ता या फिर सिंपल शर्ट के लिए शर्ट के पीस खरीदने का दौर था। पूजा के एक-दो महीने से पहले ही दर्जियों की व्यस्तता का अंदाज लगाना मुश्किल होता था। महालया के बाद यदि कपड़े सीलने के लिए दर्जी के पास ले जाओ तो वह कभी-कभी मना तक कर देता था। कई बार समय पर नए कपड़े मिलते तक नहीं थे। फिर कई बार तो लोगों को पिछले साल के पुराने लेकिन जिन्हें एक ही बार पहना गया हो उन्हीं कपड़ों में सप्तमी और अष्टमी निकालनी पड़ती थी। फिर नवमी में बिलकुल नए कपड़े। ये तो निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों की बात है। गरीब परिवारों में दुर्गा पूजा में नए कपड़े पहनना एक सपने जैसा होता था। तब वे किन-किन माध्यमों से नए कपड़े लाते थे ये तो वे जाने या फिर उनके भगवान। लेकिन उनमें भी पूजा के प्रति इतना उत्साह था कि वे अपने सबसे अच्छे कपड़े पहन कर पूजा देखने आते थे। उनमें इस बात की फ़िक्र नहीं थी कि कोई क्या सोचता होगा। विडम्बना की बात है कि आज लोगों में इन सब बातों  का कोई मोल नहीं रह गया है। लोग एक-दूसरे के कपड़ों से उन्हें मान देते हैं। वही महिलाओं ने भी अपनी शालीनता को त्याग कर अजीबो-गरीब ब्लाउज, छोटे -छोटे कपड़े पहनकर स्वयं को स्वतंत्र नारी का तमगा देकर इस उत्सव की मर्यादा को ही गिरा दिया है। जबकि एक समय था कि बंगाली स्त्रियों का मर्यादित आचारण एक मिसाल की तरह था। भले ही फैशन किया जाए पर उसके लिए अंग प्रदर्शन करना वह भी ऐसे पवित्र अवसर पर वह पूजा का आनन्द नहीं बल्कि स्वयं के वैचारिक पतन और दुर्दशा को दर्शाता है।

रविवार, 17 दिसंबर 2023

प्रिय प्रवास प्रथम सर्ग व्याख्या

 प्रिय प्रवास हिंदी खड़ी बोली का प्रथम महा काव्य है जिसके रचैता अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध जी है। इसका मुख्य विषय भगवान् कृष्ण का गोकुल को छोड़कर मथुरा चले जाने पर आधारित है।

इसके प्रथम सर्ग का सारांश (१-१५) कुछ इस प्रकार है।
    कवि इसकी शुरुआत इस प्रकार करते हैं- दिन समाप्त होने वाला था, संध्या का समय था। आकाश में डूबते सूरज की लालिमा छा जाने से वो लाल हो गया था। पेड़ों की चोटियों पर भी सूर्य की किरणें सुशोभित हो रही थी। कमल के कुल के स्वामी अर्थात् सूर्य की प्रभा सभी पेड़ और पौधों की चोटियों पर शोभित हो रही थी। जंगल के बीच चिड़ियों का शोरगुल बढ़ रहा था। संध्या होने के कारण सभी चिड़ियाँ घर वापस लौट रही थी और लौटते समय बहुत शोर कर रही थी। जंगल में अलग अलग प्रकार की चिड़िया शोर मचाती हुई आकाश मध्य उड़ रही थी। कवि आगे कहते हैं कि आकाश की लालिमा और अधिक होने लगी और दसों दिशाओं में ये लालिमा से भर गयी और प्रसन्नता छा गयी। सारे पेड़, पौधें पर भी सूर्य की लालिमा छा गयी तो यह दृश्य देखने में ऐसा लगा जैसे पेड़ों पौधों की हरीतिमा सूर्य की लालिमा में डूब सी गयी हो। इसी प्रकार नदी के किनारे पर भी गगन के तल की यह लालिमा झलकने लगी। झरने के बहते पानी में तथा पास के सरोवर में भी सूर्य की लालिमा जब पड़ी तो वह दृश्य देखने में बहुत ही सुंदर था। फिर यही लालिमा जो कुछ समय पहले पेड़ों की शिखा पर विराजती थी वह पर्वतों के शिखरों पर जा चड़ी। संध्या और अधिक हो जाने के कारण आकाश के मध्य सूरज का बिम्ब धीरे-धीरे मिटने लगा। अर्थात् शाम ढलकर अंधेरा होने का समय हो चला।
    इसी बीच कृष्ण की मुरली बज उठी और चारों तरफ पर्वत, गुफा, पेड़-पौधे, फूल, बाग-बगीचे, नदी, नदी के तट, कुंज, नदी बीच खिले-अधखिले कमल आदि मुरली की धुन से गूंज उठे। सब कुछ मुरली की ध्वनि से ध्वनिमय हो गया। कवि आगे कहते हैं कि कृष्ण की मुरली बज उठते ही अन्य ग्वाल-बालकों के भी सुन्दर वाद्य यंत्र जैसे श्रृंगी आदि भी झनझना कर बज उठे और अन्य ग्वाल बालकों को घर लौटने का संकेत मिलने लगा। उन सभी ने फिर वन के बीच अपनी गायों के इक्ट्ठा करना शुरू कर दिया। इस कारण जंगल के बीच दौड़ती हुई गायों का स्वर सुनाई देने लगा। देखते ही देखते वन की सारी गलियाँ कई प्रकार की गायों से भर गयी। उनके साथ-साथ उनके सफेद और मठमैले रंग के बछड़े-बछिया भी उछलते-कूदते उनके साथ आ रहे थे। अर्थात् विविध प्रकार की गायों के साथ उनके बछड़ों का दल खुशी-खुशी लौट रहा था। कवि आगे कहते हैं कि धीरे-धीरे जब सभी ग्वाल-बाल, अन्य गोप-गोपियाँ, कृष्ण और बलराम, सारी गायें और बछड़े एक जगह जमा हुए तो तब वे लोग कृष्ण को लेकर अपने सुन्दर और साफ-सुथरे गाँव गोकुल की तरफ लौटने लगे। जब वे सभी लोग गोकुल की तरफ चलने लगे तो सभी ग्वाल-बाल तथा गायों-बछड़ों सभी के पैरों की पदचाप से आसमान में धूल सी छा गयी। चारों तरफ से कई प्रकार के शब्द अर्थात् गायों-बछड़ों के रंभाने का शब्द, ग्वाल-बाल एवं कृष्ण-बलराम के एक-दूसरे से बातचीत और हंसी-मज़ाक का शब्द गूंजने लगा। गोकुल एक बड़ा सा गाँव था और उसके प्रत्येक घर में सभी बच्चों, गायों आदि के सकुशल लौटने पर हंसी-मज़ाक और विनोद का एक झरना सा बहने लगा था।कवि आगे कहते हैं कि पूरे दिन गोकुल वासी व्याकुल से रहे। दिन का अंत और अधिक होने लगा तो लोगों में ब्रजभूषण कृष्ण को देखने की लालसा भी अधिक होने लगी। उनकी यह दशा संध्या अधिक होने के कारण हो रही थी। वही धीरे-धीरे सभी ग्वाल-बाल, कृष्ण बलराम आदि गोकुल की तरफ बढ़ते चले आ रहे थे। कृष्ण अपनी मुरली बजाते हुए चले आ रहे थे। जैसे ही कृष्ण की मुरली की मधुर-ध्वनि सुनाई पड़ी पूरा गाँव एक साथ उत्सुक हो उठा। उनका हृदय भावनाओं से इतना भर गया कि उन लोगों में मर्यादा का ध्यान न रहा। उनके हृदय की सारी भावनाएँ एक साथ गूँज उठी। कृष्ण की मुरली की मधुर तान सुनाई पड़ी तो सभी युवक-युवतियाँ, छोटे बच्चे, बालक, बड़े-बूढ़े, व्यस्क अर्थात् पूरी आयु के लोग, घरों में रहने वाली बालिकाएं सभी विवश होकर अपने-अपने घर से निकल पड़े। उन्होंने पूरे दिन कृष्ण को नहीं देखा था जिस कारण मानो ऐसा लगा जैसे उनकी आँखों को कष्ट हो रहा था। वे अपनी आँखों का कष्ट दूर करने के लिए अपने-अपने घर से निकल पड़े थे। (यहाँ वे अपनी कृष्ण के प्रति अपार ममता की भावना से भरे हुए थे इसी कारण वे मुरली की धुन से विवश होकर निकल रहे थे।) कवि आगे कहते हैं कि इधर गोकुल की जनता अपने घर से खुशी में डूबती हुई बहुत खुश होती हुई निकल पड़ी। वही कृष्ण के साथ गायों-बछड़ों की मण्डली जो कि बहुत सुन्दर लग रही थी गोकुल आ पहुँची। सारे ग्वाल-बाल भी गोकुल पहुँच चके थे। कवि कहते हैं कि गायों के पैरों से धूल उड़ कर चारों दिशाओं में फैल गयी है और उसी के बीच से कृष्ण इस प्रकार से निकल कर आ रहे हैं जैसे चारों दिशाओं की कालिमा का विनाश कर आकाश में सूर्य हँसता हुआ चमकता है या फिर रात की कालिमा के बीच चंद्रमा अपनी चाँदनी से चारों ओर को आलोकित करता हुआ चमकता है।

मंगलवार, 12 सितंबर 2023

भारतीय काव्यशास्त्र -- काव्य का अर्थ एवं परिचय Part-2

 काव्य की परिभाषा या लक्षण  
    परिभाषा में मूल शब्द भाषा है। मानव मुख के द्वारा निकली उच्चरित ध्वनि संकेत जिसका एक निश्चित अर्थ होता है और जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचार और मनोभाव प्रकट करता है उसे भाषा कहते है। 'परि' का अर्थ होता है चारो ओर से या पूरी तरह से। 'परिभाषा' का अर्थ है कि जिस कथन से किसी विषय या वस्तु का पूरा-पूरा परिचय मिल जाए और जिस कथन से उस विषय की अधिकांश विशेषता नज़र आए उस कथन को परिभाषा कहते है।

    जिसके द्वारा किसी वस्तु को पहचाना जा सके उसे 'लक्षक' कहते है। यानी जिन क्रियाओं द्वारा किसी वस्तु अथवा विषय या तथ्य को पहचानते है उस क्रिया को 'लक्षण' कहते है।

    काव्य में कुछ अंतर्गुण है जो दूसरे प्रकारों की साहित्यिक विधाओं में नहीं होती है। काव्य में अलग प्रकार के लक्षण होते है जिस कारण काव्य की अलग पहचान होती है। जैसे काव्य में शब्द छन्द बद्ध तरीके से जुड़े होते है। सभी युगों के और सभी देशों के मनुष्य ने काव्य को समझने की चेष्ठा की और अपनी-अपनी परिभाषाएँ दी। काव्य के लक्षण देश और समाज और समय के आधार पर तय होते है। समय बदलने पर वस्तु का स्वरूप भी बदलता है। काव्य एक विश्व व्यापी वस्तु है। अतः विश्वभर के विद्वानों एवं आचार्यों ने इसकी परिभाषा एवं लक्षण बताने की चेष्ठा की।
पहला है संस्कृत के आचार्यों द्वारा दिए गए लक्षण या परिभाषाएँ :-  संस्कृत भारत की प्राचीन भाषा है। इस भाषा में बहुत से ग्रंथों की रचना की गई है। काव्य के बारे में भी इस भाषा में विचार किए गए है जो कि पूरे संसार के लिए मूल्यवान है। हमारे आचार्यों द्वारा दि गयी एक परिभाषा या लक्षण--

                कवेरिदं कर्म भावो वा काव्यम् । -- मेदिनी कोश

कव्यः + इदं। यह कवियों के द्वारा जो कार्य किया गया है उन कार्यों को हम काव्य कहते है। अर्थात् कवि कर्म काव्य है। कवियों के द्वारा की गयी रचना काव्य है। इस परिभाषा में रचना शब्द का क्या अर्थ है? कवि का काम जो कि रचनात्मक है उसे रचना या कर्म कहते है। वह रचना जिसमें भावना, संवेदना, सौन्दर्य-दृष्टि और कल्पना शक्ति का प्रयोग होता है उसे काव्य रचना कहते है।
गद्यात्मक रचना में सौन्दर्य-दृष्टि नहीं होती है।(Note)
                काव्यं लोकोत्तर निपुणं कवि-कर्म। -- काव्य प्रकाशः मम्मट, प्रथमोल्लास पृ.सं72
विस्तार 

लोकोत्तर :- संसार से अलग, संसारिक ज्ञान से भिन्न। लोकोत्तर अवस्था वह अवस्था है जिसमें संसार का विस्मरण हो जाता है और जो भी हमारी कल्पना होती वह संसारिक नहीं होती है। हमें संसार का ज्ञान नहीं रहता है। कविता हमारी चेतना को लोकोत्तर चेतना से जोड़ती है। कविता हमें लोकोत्तर अनुभूति कराती है। जो कविता हमें लोकोत्तर चेतना से जोड़ती है उसे हम काव्य कहते है।

 लोकोत्तर निपुणं :- इसका अर्थ है जिस कवि कर्म में हमारी चेतना को लोकोत्तर चेतना से जोड़ने की क्षमता हो उसे हम लोकोत्तर निपुणं कहते है। कवि दक्ष होते है इसलिए वे हमारे चेतना को लोकोत्तर में पहुँचा देते है और उसी दक्षता को हम लोकोत्तर निपुणं कहते है। जो कर्म हमारे भीतर की भावना, सौन्दर्य अंतर-दृष्टि को जगा दे उसे लोकोत्तर निपुणं कहते है।

    काव्य कवि के द्वारा निर्मित वह रचना है जिसमें कवि अपने अनुभव, सौन्दर्य से बाह्य चेतना से हमें लोकोत्तर चेतना में पहुँचा देती है। लोकोत्तर चेतना बाहरी और आन्तरिक चेतना और सूक्षम अनुभव से जुड़ी होती है।

                अपारे काव्य-संसारे कविरेव प्रजापतिः।

    अर्थात् कवि रूपी असीम संसार में कवि ही ब्रह्मा होता है। रचनाकार होता है कवि। कवि के लिए संसार का कोई भी विषय काव्य का विषय हो सकता है। कवि किसी भी वस्तु को कोई भी रूप प्रदान कर सकता है। "जहाँ न जाय रवि, वहाँ जाय कवि।" कवि के संसार की कोई सीमा नहीं है।

                कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः।

    अर्थात् कवि मनीषी है, ज्ञानी है। मनीषा वह शक्ति है जो किसी वस्तु के मूल रूप को देख सकती है। मनीषा आंतरिक चेतना, आंतरिक ज्ञान है। अर्थात् कवि के पास आंतरिक चेतना और ज्ञान है। कवि के पास मन की आत्मा की आँखे है जिससे वह किसी वस्तु के बाहरी और आंतरिक स्वरूप को भी देख सकता है। कवि परिभू होता है। परिभू शब्द का अर्थ है जिसकी अनुभूति का क्षेत्र असीम हो वह संसार के किसी भी वस्तु को अपने अनुभव के क्षेत्र में ला सकता है। कवि की परीधी में पूरा संसार सिमट जाता है। कवि स्वयंभू है अर्थात् कवि स्वयं को कही भी प्रकट कर सकता है बिना किसी शक्ति के अर्थात् स्वयं प्रकट होना। जो अपने अनुभव किसी दूसरे पर निर्भर रहकर नहीं प्रकट करता है। कवि अपने अनुभव के लिए स्वयं ही कारण है। वैदिक साहित्य में कवि को द्रष्टा और ऋषि भी कहा गया है एवं एक माना गया है।

                सहितस्य भावः साहित्यम्। -- आचार्य विश्वनाथ साहित्य दर्पण

    सहित की भावना से पूर्ण, चेतना, विचार और अनुभव से युक्त रचना ही साहित्य अथवा काव्य है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार हित से पूर्ण चेतना, विचार और अनुभव ही साहित्य है। काव्य से मनुष्य की चेतना और मन विशाल रूप धारण कर सकती है। काव्य से मनुष्य के मन की संकीर्णता दूर हो जाती है। काव्य से मनुष्य का कल्याण होता है। अर्थात् उपरोक्त श्लोक का अर्थ है जो रचना कल्याण के भाव से पूर्ण हो वह काव्य है।

                शब्दार्थों सहितं काव्यम्

    आचार्य विश्वनाथ के अनुसार जो रचना सुन्दर शब्द एवं सुन्दर शब्द के अर्थ के साथ हो वह काव्य है। इसलिए शब्द को काव्य का शरीर और अर्थ का आत्मा कहा गया है। आचार्य विश्वनाथ कहते है कि काव्य के लिए सुन्दर शब्द, अलंकार, रस, भावना, कला और अर्थ इन सभी तत्वों की आवश्यकता होती है।

               वाक्यं रसात्मकं काव्यम्। -- आचार्य विश्वनाथ साहित्य दर्पण

    अर्थात् रसात्मक कथन ही काव्य है। रसात्मक कथन का अर्थ होता है कि हम किसी दूसरे के सुख-दुख की अनुभूति स्वयं में कर सके और प्रत्येक वस्तु में सजीवता देख सके और वही अनुभूति और सजीवता का वर्णन कर सके, यही रसात्मक कथन कहलाता है। 

            जैसे (1) शुष्कं काष्ठं तिष्ठति अग्रे।

                   (2) अग्रे विलपति शुष्कं काष्ठम्।

    वैसा कथन जिसमें रचनाकार की संवेदना, सौन्दर्य भाव बोलता है उसे रसात्मक कथन ही काव्य है। यहाँ पर आचार्य विश्वनाथ ने रस को काव्य का प्रमुख लक्षण बताया है। उनके अनुसार रस काव्य की आत्मा  है।

               काव्यं गाह्यमलंकारात् सौन्दर्यमलंकार। -- वामनः

    आचार्य वामन के अनुसार काव्य अलंकार के कारण ग्रहण करने योग्य होता है क्योंकि अलंकार सुन्दर होते है। जिस शब्द से कथन में चमत्कार उत्पन्न हो वह अलंकार है। अलंकार से युक्त सौन्दर्य वाला कथन ही काव्य है।

               तद्दोषौं शब्दार्थो सगुणावमलंकृती पुनः क्वापि। -- मम्मट

    दोष, शब्द, अर्थ, गुण और अलंकार से युक्त रचना काव्य है।

               निर्दोषा लक्षणवती सरीतिर्गुणो भूषिता

               सालंकार रसानेका वृर्त्ति काव्यनाम भाक्। -- जयदेव

    जो रचना निर्दोष हो, रचना में काव्य के लक्षण हो, रीति से विभूषित हो, अलंकार से युक्त हो, रसो से भरी पड़ी हो एवं जिसमें वृत्ति हो ऐसे गुणों वाली रचना को काव्य कहते है।

                रमणीयार्थ प्रतिपादकः काव्यम्। -- मम्मट

    जिस कथन में सौन्दर्य और अलंकार हो उसे काव्य कहते है।