कुछ क्षण तक रहकर मौन........ मसक दंड
पंक्तियों की व्याख्या:
यह अंश सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' द्वारा रचित महाकाव्य "राम की शक्ति पूजा" से लिया गया है। इस खंड में भगवान राम युद्ध के दौरान महाशक्ति की भूमिका पर विचार करते हैं और लक्ष्मण से संवाद करते हैं।
व्याख्या:
पहली दो पंक्तियों में राम कुछ समय तक मौन रहने के बाद अपने सहज और कोमल स्वर में अपने मित्र (लक्ष्मण) से कहते हैं कि यह युद्ध जीतना कठिन होगा। वे बताते हैं कि अब यह केवल मनुष्य-वानर और राक्षसों का युद्ध नहीं रह गया है, बल्कि स्वयं महाशक्ति (दुर्गा) रावण का पक्ष ले चुकी हैं, क्योंकि रावण ने उन्हें आमंत्रित कर लिया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि शक्ति सदैव उसी के पक्ष में होती हैं, जो उन्हें प्रसन्न कर लेता है।
इसके बाद, राम अत्यंत दुखी होकर स्वीकार करते हैं कि शक्ति अन्याय के पक्ष में खड़ी है और यही युद्ध का सबसे कठिन पक्ष है। उनके नेत्र छलक जाते हैं, कुछ अश्रु पुनः ढलकते हैं, जिससे उनके मानसिक द्वंद्व और वेदना का चित्रण होता है। यह भाव राम के संघर्ष और उनके भीतर के मानवीय पक्ष को दर्शाता है।
अगली पंक्तियों में लक्ष्मण का क्रोध और पराक्रम व्यक्त किया गया है। उनका तेज बढ़ जाता है, और वे अत्यंत क्रोध से भर उठते हैं। उनकी शक्ति इतनी प्रचंड हो जाती है कि वानर (हनुमान) अपने दोनों पैरों से धरती में धँस जाते हैं, मानो यह धरा भी इस अद्भुत तेज को सहन करने में असमर्थ हो।
मुख्य भाव:
- राम को यह ज्ञात होता है कि शक्ति केवल धर्म या न्याय के पक्ष में नहीं होती, बल्कि जो उसे प्रसन्न करता है, उसके पक्ष में जाती है।
- अन्याय के साथ शक्ति होने से राम के मन में चिंता उत्पन्न होती है।
- लक्ष्मण का प्रचंड तेज दिखाता है कि वे इस परिस्थिति से लड़ने के लिए तैयार हैं।
- यह अंश राम के मनोवैज्ञानिक द्वंद्व, शक्ति के प्रति उनकी समझ, और लक्ष्मण के युद्ध के प्रति उत्साह को प्रकट करता है।
यह पंक्तियाँ शक्ति की महत्ता, धर्म-अधर्म के संघर्ष, और राम के मानसिक द्वंद्व को अत्यंत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती हैं।
स्थिर जांबवान.......संस्कृति अपार।
पंक्तियों की व्याख्या:
यह अंश सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' द्वारा रचित "राम की शक्ति पूजा" महाकाव्य से लिया गया है। इस खंड में युद्धभूमि का वातावरण, विभिन्न पात्रों की मनोदशा और स्वयं राम के हृदय में उठ रहे द्वंद्व को दर्शाया गया है।
व्याख्या:
पहली दो पंक्तियों में जांबवान को स्थिर और गंभीर दिखाया गया है। वे अनुभवी और विवेकशील हैं, इसलिए वे पूरी परिस्थिति को समझने की चेष्टा कर रहे हैं। सुग्रीव व्याकुल हो जाते हैं, मानो उनके हृदय में कोई गहरा घाव हो गया हो। इससे स्पष्ट होता है कि स्थिति अत्यंत चिंताजनक हो गई है, जिससे वानर सेना में भी तनाव व्याप्त है।
विभीषण, जो अब राम की सेना में हैं, युद्ध को लेकर निश्चित भाव में हैं। वे आगे की रणनीति तय करने का प्रयास कर रहे हैं। किन्तु पूरे वातावरण में एक विचित्र मौन और तनाव व्याप्त है, जिससे युद्ध की भीषणता का आभास होता है।
इसके बाद, राम अपने सहज रूप में संयत होते हैं और गंभीर स्वर में कहते हैं कि उन्हें यह दैवी विधान समझ में नहीं आ रहा है। वे यह देखकर आश्चर्यचकित हैं कि रावण, जो अधर्म में लिप्त है, फिर भी शक्ति का समर्थन पा रहा है, जबकि वे स्वयं धर्म के मार्ग पर चल रहे हैं, फिर भी शक्ति उनसे विमुख है। यह स्थिति राम को गहरे मानसिक संघर्ष में डाल देती है।
राम समझते हैं कि यह मात्र एक युद्ध नहीं है, बल्कि शक्ति का एक विचित्र खेल है। वे भगवान शंकर को पुकारते हैं, मानो उनसे इस स्थिति की व्याख्या और समाधान की प्रार्थना कर रहे हों।
अंतिम पंक्तियों में, राम यह स्वीकार करते हैं कि वे बार-बार अपनी शक्ति से प्रचंड बाणों की वर्षा कर रहे हैं, जो इतने प्रबल हैं कि संपूर्ण सृष्टि को पराजित कर सकते हैं। ये बाण तेज और शक्ति का पुंज हैं, जिनमें सृष्टि की रक्षा करने की क्षमता है। इनमें ही पतनोन्मुख, अनैतिक संस्कृतियों का विनाश करने का सामर्थ्य है। परंतु फिर भी, रावण की शक्ति क्षीण नहीं हो रही, जिससे राम और भी अधिक चिंतित हो जाते हैं।
मुख्य भाव:
- युद्ध का संकटपूर्ण और तनावपूर्ण वातावरण।
- राम का मानसिक द्वंद्व, क्योंकि शक्ति अधर्म के साथ प्रतीत हो रही है।
- धर्म बनाम अधर्म की दुविधा—शक्ति का न्यायप्रिय न होना।
- राम की शक्ति और उनके बाणों की महत्ता, जो सृष्टि को विनाश और रक्षा दोनों कर सकते हैं।
- शिव का स्मरण, जो यह दर्शाता है कि राम दैवीय सहायता की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं।
यह अंश राम के भीतर के संघर्ष, युद्ध की जटिलता और शक्ति के रहस्यमय स्वरूप को प्रभावी रूप से व्यक्त करता है।
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