व्याख्या:
सुशीला टाकभौरे की कविता "विद्रोहिणी" समाज में व्याप्त वंचना, शोषण और बाधाओं के विरुद्ध स्त्री के आत्मसाक्षात्कार एवं विद्रोह की गाथा है। यह कविता दलित स्त्री चेतना, सामाजिक अन्याय और रूढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष की भावना को प्रकट करती है।
कविता की शुरुआत में कवयित्री यह दर्शाती हैं कि जन्म से कोई भी व्यक्ति विकलांग या सीमित नहीं होता—"माँ-बाप ने पैदा किया था गूँगा!"—बल्कि समाज और उसका परिवेश उसे विकलांगता या सीमितताओं का एहसास कराता है। यह पंक्तियाँ पितृसत्तात्मक और जातिगत शोषण को इंगित करती हैं, जहाँ व्यक्ति को उसकी इच्छाओं के अनुसार स्वतंत्रता नहीं मिलती, बल्कि उसे एक निर्धारित ढांचे में ढालने का प्रयास किया जाता है।
कवयित्री आगे जीवन को एक यात्रा की तरह प्रस्तुत करती हैं, जहाँ "बैसाखियाँ" प्रतीक हैं उन सहारों और परंपराओं का, जिन पर स्त्रियों को जबरन निर्भर किया जाता है। ये बैसाखियाँ सामाजिक नियमों, बंधनों और रूढ़ियों का प्रतीक हैं, जिनके सहारे वह अपने जीवन का सफर तय करती रही हैं। लेकिन जब वह जीवन के ऊँचे पड़ाव (संघर्ष की पराकाष्ठा) पर पहुँचती हैं, तब ये सहारे ही चरमराने लगते हैं। यहाँ यह संकेत है कि जब स्त्री अपनी शक्ति पहचानने लगती है, तो उसे एहसास होता है कि ये बैसाखियाँ अब उसके लिए बाधा बन चुकी हैं।
इसके बाद कविता का स्वर तीव्र होता है—"विस्फारित मन हुँकारता है—बैसाखियों को तोड़ दूँ!!"—यहाँ विद्रोह की घोषणा है। कवयित्री आत्मा की चटकन और दिल की आग को दिखाकर यह स्पष्ट करती हैं कि उनके भीतर दबी हुई वेदना अब एक विद्रोही स्वर में बदल रही है। यह स्त्री की आत्मस्वीकृति का क्षण है, जहाँ वह रूढ़ियों को तोड़कर अपनी असली शक्ति को पहचानती है।
कविता का अंतिम भाग सर्वाधिक सशक्त है, जहाँ कवयित्री अपने विद्रोही स्वर को और मुखर करती हैं। वे केवल प्रतीकात्मक स्वतंत्रता (छत का खुला आसमान) नहीं चाहतीं, बल्कि पूर्ण स्वतंत्रता (आसमान की खुली छत) की मांग करती हैं। यहाँ "छत" सीमित स्वतंत्रता का और "आसमान" अनंत संभावनाओं एवं असीम स्वतंत्रता का प्रतीक है। यह कविता केवल एक व्यक्ति विशेष की कहानी नहीं, बल्कि समूची स्त्री जाति और वंचित समुदायों की सामूहिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती है।
केंद्रीय भाव:
कविता "विद्रोहिणी" सामाजिक रूढ़ियों, पितृसत्ता और जातिगत बंधनों के खिलाफ स्त्री के विद्रोह की अभिव्यक्ति है। यह एक दलित स्त्री की आत्मबोध और आत्मनिर्भरता की घोषणा है। कवयित्री यह दर्शाती हैं कि स्त्री अब परंपरागत सीमाओं में बंधकर नहीं रहना चाहती, बल्कि वह अपनी शक्ति पहचानकर हर दिशा में मुक्त रूप से उड़ान भरना चाहती है। कविता न केवल स्त्री सशक्तिकरण, बल्कि व्यापक सामाजिक बदलाव की आवश्यकता को भी उजागर करती है।
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