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बुधवार, 20 जनवरी 2010

वापसी और अकेली कहानी में व्यक्त अकेलापन

भारतीय साहित्य की कुछ आधारभूत विशेषताएं रही हैं। परिवार भाव उनमें से एक है। मध्यकालीन काव्य 'रामायण' और उससे पहले 'महाभारत' और समस्त पौराणिक वाङ्मय में एक भरा-पूरा परिवार देखते हैं। उस समय लोग सुख या दुख का भोग परिवार के साथ करते थे। तब व्यक्ति अपने परिवार का एक अटूट अंग था। आधुनिक युग के महान उपन्यास 'गोदान' में भी होरी का एक परिवार देखते है।इस अत्याधुनिक काल में आकर यह पारिवारिक चेतना विलुप्त हो गई है। अब मनुष्य व्यक्तिवादी बन गया है। ऐसी अवस्था में वृद्ध आयु-वर्ग के नर और नारी परिवार के लिए समान उत्तरदायित्व होते थे।आज यह भाव विलुप्त हो चुका है मनुष्य नितांत अकेला हो गया है। अकेलेपन की यह त्रासदी वृद्ध आयु-वर्ग के नर-नारी भोगते दिखायी दे रहे है। अब वृद्ध नर-नारी वृद्धाश्रम भेज दिये जाते हैं। घर में उनकी उपस्थिति पहले सुख का विषय माना जाता था अब वे बोझ हो गये हैं। उनकी उपस्थिति से परिवार के दूसरे लोग अपनी स्वतंत्रता में बाधा समझते हैं। समाज की इस अवस्था का प्रभाव साहित्य पर पड़ना स्वाभाविक था। इस परिवर्तित पारिवारिक विश्रृंखलता को दो कहानियाँ, 'उषा प्रियंवदा' कृत 'वापसी' और 'मन्नू भंडारी' कृत 'अकेली', बहुत ही संवेदनात्मक रूप में प्रसतुत करती है


उषा प्रियंवदा कृत 'वापसी' और मन्नू भंडारी कृत 'अकेली' कहानियाँ अकेलेपन की ऐसी दास्तां है जिसे पढ़कर पाठक कहानी के पात्र के प्रति एक तीव्र पीड़ा अनुभव करता है। यद्यपि दोनों कथाओं में अकेलेपन की अलग-अलग परिस्थितियाँ हैं। दोनों में अकेलेपन की अपनी अलग-अलग वजह है। फिर भी, दोनों कहानियों के मुख्य पात्रों में एक समानता है। दोनों वृद्ध हैं और अपने अपने परिवार से दूर है। दोनों को ही अपनों ने अपने से दूर कर दिया है। गजाधर बाबू जो कि 35 साल की नौकरी के बाद ये सोचकर घर लौटते है कि अब वे अपने परिवार के साथ खुशी से दिन गुज़ारेंगे पर घर जाते ही उनकी उपस्थिति से घर के लोगों का उनके प्रति अजीब व्यवहार होता है। जैसे कि वे लोग उनके आने से खुश नहीं है। जैसे कि वे लोग यह समझते हो कि बाबू जी उनके हंसी-मज़ाक के कारण उनसे नाखुश हो! इसी तरह अकेली बुआ यही सोचकर अपनी सगे-सम्बन्धियों के घर में शादी में मदद करती है कि वह भी तो उन्हीं लोगों के परिवार का एक हिस्सा है। शादी के दिन तक वह काम-काज सम्भालती है पर शादी में उसे कोई भी आमंत्रित तक नहीं करता है। बुआ खुद ही सारे काम सम्भालती है। अकेली है, बेटा भी जीवित नहीं जो इस वृद्धावस्था में सहारा बने, पति भी पुत्र शोक से घर छोड़कर संन्यासी बनकर घूम रहे हैं।बस आस-पड़ोस की कुछ जान-पहचान वाली स्त्रियाँ है जो उनसे हंसी-ठठ्टा करती हैं। बुआ बड़े अरमानों से राह देखती है कि कोई तो उन्हें बुलाने आएगा पर कोई भी नहीं आता है। वह अपने घर की छत पर अकेली राह तकती रहती है।

गजाधर बाबू का भी यही हाल है। वे सोचते है कि सब लोग उनके आने से खुश है, वे उनकी बात मानेंगे और अपने दिल की बात कहेंगे। पर गजाधर बाबू के लिए यह एक कोरी कल्पना साबित हुई। न तो कोई उनसे बात करना चाहता है न ही किसी के पास समय है। यहाँ तक कि उनकी पत्नी के पास भी। गजाधर बाबू क्या चाहते हैं,क्या कहना चाहते है, घर में वह एक अभिभावक की हैसियत से है , इन बातों का घर के लोगों के लिए कोई मतलब नहीं। सब बस अपने ही धुन में मगन होकर चले जा रहे है। यहाँ तक कि गजाधर बाबू की छोटी बेटी, तक उनसे किसी भी बात की इजाजत लेने की ज़रूरत नहीं समझती ।

इस प्रकार दोनों कथाकारों ने दिखाया कि किस प्रकार अपनो का ही अपनो के प्रति उपेक्षा का भाव उनके अकेलेपन का कारण बन जाता है। यह अकेलापन वह भी उस उम्र में जिसमें सबसे ज्यादा अपने जीवनसाथी के साथ की ज़रूरत होती है अगर न मिले तो इन्सान टूट सा जाता है। तभी तो अकेली बुआ अपने मन की बात को मन में ही दबाकर अकेले जी रही है, रोती भी है तो मन के भीतर क्योंकि उनके रोने को कोई भी नहीं समझ सकता है। अपनी अकेलेपन की इस दुनिया में जी रही है किसी तरह से दिन और वक्त को गिनकर। यही हाल गजाधर बाबू का है जो कि अपनो की उपेक्षा पाकर वापस उसी ज़िन्दगी में चले जाते है जहाँ से लौटते है। उन्हें कितनी मानसिक और आत्मिक पीड़ा का अनुभव होता है जब वह अपनी पत्नी को साथ चलने को कहते हैं तो वह मना कर देती है। उनके बच्चे भी केवल उनके जैसे जाने की प्रतीक्षा में थे कि कब वे जाएं और वे सिनेमा देखने चले।

ऐसा अकेलापन और जब उसे दूर करने की आस लेकर अपनो के पास जाना और उनसे केवल उपेक्षा पाना इन्सान को दुख और केवल दुख के सिवा कुछ नहीं दे सकता है यह बात दोनों कहानियों से स्पष्ट होती है।




मधुछन्दा चक्रवर्ती

हिन्दी विभाग,असम विश्वविद्यालय

सिलचर, 788011