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बुधवार, 24 अप्रैल 2013

‘शेखर: एक जीवनी’ उपन्यास का भाषा शिल्प




 
        साहित्य की एक विधा है उपन्यास। उपन्यास आज के युग का महाकाव्य है। इसकी विशेषता है कि यह सरल एवं सहज है तथा व्यक्ति के जीवन के एकदम निकट है। इसकी भाषा भी इसी की तरह है। अर्थात् सहज, सरल एवं जन की भाषा है। प्रत्येक उपन्यासकार अपनी रचना को लोगों तक पहुँचाने के लिए उपन्यास में उसी प्रकार की भाषा एवं बोली का प्रयोग करता है जो लोग बोलते हैं। जैसा समाज, जैसी संस्कृति, जैसा परिवेश वैसे ही सबकुछ उपन्यासकार अपनी रचना में डाल देता है ताकि लोग इसे पढ़ें तथा अपने निकट समझकर इसमें साहित्यकार ने जो अपने मन की बात अभिव्यक्त की है या कुछ कहना चाहा है वह पाठकों तक पहुँचे और पाठक समुदाय उसे ग्रहण कर ले। अतः उपन्यासकार का यह दायित्व हो जाता है कि वह अपनी रचना की भाषा को बहुत ही जतन के साथ तथा पाठक के ग्रहण योग्य स्तर पर ही रखे। साथ ही यह भी दायित्व रहता है कि भाषा के प्रयोग में वह साहित्यिक मानदण्डों को भी ध्यान में रखे। कही ऐसा न हो कि भाषा के चलते रचना ही साहित्य के क्षेत्र में निम्नस्तर की हो जाए। रचना की साहित्यिक उच्चता भी बरकार रखनी आवश्यक है।
यह गुण हिन्दी साहित्य में अनेक रचनाकारों में पाया गया है जिनमें प्राचीन काल के महानतम कवियों से लेकर आधुनिक काल तक के महान रचनाकार शामिल है। जैसे कबीर, महाकवि तुलसीदास, केशवदास, बिहारी, मैथिलीशरण गुप्त, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, पंडित सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानन्दन पंत, अज्ञेय आदि। इन सभी की रचनाओं ने पाठकों के हृदय में इसीलिए स्थान बनाया है क्योंकि इनकी रचनाएँ जनता की रचना है। सबकी रचनाओं में समाज, लोक-संस्कृति, परम्परा, साधारण जनता के जीवन से जुड़ी प्रत्येक प्रकार की बातें तथा उनकी ही अपनी भाषा समाहित है। अतः कैसे कोई इनकी रचना को अपने हृदय में स्थान न दे। ऐसे ही एक रचनाकार है जो कि आधुनिक काल में भी अपनी रचनाओं के जरिए पाठकों के हृदय में स्थान रखते हैं। वह है बहुमुखी प्रतिभा के धनी सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय जी। इन्होंने कई कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास तथा निबन्ध लिखे हैं। इनकी रचना की विशेषता यह है कि सभी रचनाओं में पाठक को अपने अंदर के भीतर के व्यक्ति से मिलवा देता है। अर्थात् पाठक इनकी रचनाओं से इतना प्रभावित हो जाता है कि रचना में उभरे विचार जो कि वास्तव में अज्ञेय जी के वह पाठक के अपने विचार से मालूम होने लगते हैं। अज्ञेय जी द्वारा लिखित शेखर: एक जीवनी उपन्यास को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है। शेखरः एक जीवनीएक मनोवैज्ञानिक उपन्यास है। इस उपन्यास के केन्द्र में शेखर है जिसके जीवन की कथा इस उपन्यास में लिखी है। शेखर के ही इर्द-गिर्द घुमती परिस्थितियों तथा उसका शेखर पर पड़ते प्रभाव को एवं इन्हीं के मध्य शेखर के उभरते व्यक्तित्व को ही अज्ञेय जी ने उपन्यास में अभिव्यक्त किया गया है। शेखर क्या सोचता है, कैसे परिस्थितियों का सामना करते वक्त उसके मन से विद्रोह की भावना उठती है या किसी के प्रति वह झुकता है सबकुछ इसमें व्यक्त हुआ है। सबसे अधिक अपने आपको समझने एवं उसी में खोने की बात भी इसमें स्पष्ट दिखायी देती है। शेखर केन्द्रीय पात्र है परन्तु उसके साथ-साथ अन्य पात्रों को भी लिया गया है एवं उनकी भी भूमिका दिखायी गयी है ताकि शेखर का व्यक्तित्व स्पष्ट हो जाए। इस समस्त पक्षों को उजागर करने के लिए अज्ञेय जी कभी शेखर के मुख से तो कभी अपनी तरफ से, संवाद के माध्यम से भी शेखर के विचारों, चिन्ताधारा, अंतस्चेतना में होती हलचले सबको सरल भाषा में ही प्रस्तुत किया है। परन्तु यह मनोवैज्ञानिक उपन्यास है अतः व्यक्ति का मनोविज्ञान सब समय स्थिर या एक ही जैसा रहे ऐसा नहीं होता बल्कि परिस्थिति अनुसार बदलती भी है। इसी कारण इस उपन्यास की भाषा भी औपन्यासिक मोड़ों पर बदलती जाती है। भाषा के बदलाव के साथ-साथ हमें शेखर के विचार एवं बदलाव का भी आभास होता जाता है जिससे पाठक समाज कभी शेखर से जुड़ता है तो कभी उसके संवाद या हरकत से चकित भी होता है। कुल मिलाकर पूरे उपन्यास से शेखर के जीवन के विविध आयामों के दर्शन हो जाते है। और इसके लिए इस उपन्यास की भाषा को ही सराहा जा सकता है जिसके कारण यह उपन्यास पाठक के मन में स्थान बना गयी है। आमतौर पर कहा जाता है कि किसी के मनोविज्ञान को समझना इतना आसान नहीं होता है, उसी तरह एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास को भी पढ़कर उसके धरातल तक जाकर उसे समझना भी उतना आसान नहीं है। परन्तु शेखर: एक जीवनी के साथ यह कठिनता नहीं है। तभी तो इसकी कितनी बार आलोचना हो चुकी है तथा कितने ही लेख इस उपन्यास को लेकर प्रकाशित हो चुके है। इस उपन्यास की भाषा है ही इतनी सुन्दर और सरल।
शेखर: एक जीवनी के प्रथम भाग में अज्ञेय जी ने शेखर के बचपन का चित्रण किया है। कहीं-कहीं पर शेखर के रूप में अज्ञेय स्वयं बोल उठते है तो कहीं-कहीं पर वे वर्णन करते हुए नज़र आते हैं। जैसे कि प्रथम खण्ड में शेखर के स्कूल की एक घटना वर्णित की है जिसमें शेखर तथा उसके साथियों के बीच किन्हीं दो लड़कों में लड़ाई हो जाती है। तब उस लड़ाई को रोकने के लिए आयी हुई टीचर शेखर की कमीज़ के बटन में एक नोट चिपका देती है और उसे डाँटती है कि उसने बहुत शरारत की है। तब शेखर के मन के भाव को अज्ञेय जी ने इसी प्रकार से व्यक्त किया:- उस दिन लगभग चार बजे शेखर घर की ओर चला जा रहा था। धीरे-धीरे किसी विचार में लीन।........वह इतना गम्भीर इसलिए था कि वह किसी निश्चय पर पहुँचना चाहता था। उसने सिस्टर के शब्दों में शरारत की थी अवश्य, किन्तु यह कोई कारण नहीं था कि वह घर जाकर पिटे। उसकी न्याय-बुद्धि कह रही थी, मैंने दूसरों को मारा, स्वयं भी मार खा ली, अब घर पहुँचकर दुबारा दण्ड क्यों पाऊँ?1 यहाँ अज्ञेय जी ने जैसा वर्णन किया है उससे पाठको को घटना भी समझमें आती है तथा हँसी भी क्योंकि यह बचपन के समय का चित्रण है। यहाँ भाषा बिल्कुल सरल किन्तु विद्रोहात्मक तेवर लिए हुए है। शेखर के मन में उठ रहे विद्रोही विचार को एक क्यों शब्द ने प्रकट कर दिया है। यह एक बालक के मन में उठ रहे विचार है। इसी प्रकार की एक ओर शरारत भरी एक और घटना जो कि शेखर के बचपन में ही बीती थी तथा जिसका कारण भी शेखर ही था उसे भी अज्ञेय जी ने बहुत ही सुन्दरता से उभारा है। इसमें अज्ञेय जी ने वर्णानात्मक तरीका अपनाया है परन्तु ऐसे वर्णन किया है जैसे की वह स्वयं उस घटना को प्रत्यक्ष देख रहे हों। शेखर ने अपने पिता से प्रभावित होकर एक किताब लिखने की सोची था तथा इसमें वह कामयाब भी हो गया था अपनी बहन की मदद से। एकाएक वह किताब शेखर के पिता के हाथ लग जाती है तथा उसे देखकर एवं पढ़कर शेखर के माता-पिता दोनों हँसने लगते है। हँसने का कारण शेखर द्वारा जो बातें उस पुस्तक में लिखी गयी थी उसे अज्ञेय जी ने इस प्रकार लिखा है: -  Fushia Vylet flower with fore red small leeves vary pretty Kashmiri girls put it in there hare nurse zinnia puts it in her ears to dance in the kichen
Habitat, Shlamar gardens and chashma Shahi
(फूशिया छोटी लाल पत्तियोंवाला बैंगनी रंग का फूल बहुत सुन्दर, काश्मीरी लड़कियाँ बालों में लगाती हैं। जिनिया आया कानों में पहनकर रसोईघर में नाचती है। पैदाइश शालामार बाग और चश्माशाही।)
Iris, very butiful some are bloo some red and some white there is a yellow stik inside the flower.
Habitat, Mr. Chatterjis house near gupkar the best were in our house but the flud took them away.2

इस प्रसंग से स्पष्ट हो जाता है कि अज्ञेय जी को अंग्रेज़ी भाषा का भी बहुत अच्छा ज्ञान था। तभी वह अंग्रेज़ी का इस तरह का प्रयोग कर सके जिससे की शेखर के बचपन की बालपन वाली बेवकूफी भी झलकती है तथा पाठकों में हँसी की लहर भी दौड़ जाती है। अज्ञेय जी को बंगला भाषा का भी ज्ञान था तभी उनके प्रथम खण्ड से पहले के प्रसंग में एक बंगला गीत भी लिखा हुआ मिलता है जो कि शेखर अपने मन में गाता है। अज्ञेय जी का इस तरह का प्रयास अपने समय में अनोखा है। यहाँ अलग-अलग शब्द ही प्रयुक्त हुए है जिनसे वाक्य तो बना है परन्तु अर्थ नहीं है। फिर भी प्रसंग को समझने में किसी को कठिनाई नहीं होगी क्योंकि यदि इन सबका शाब्दिक अर्थ निकाला जाए तो प्रसंग वास्तव में ही हास्यास्पद दिखता है। उपन्यास में व्यंजना होती है। साधारण तरीके से ही सही, परन्तु उपन्यास में लिखित वाक्यों का शाब्दिक अर्थ कुछ और कहता है तथा पूरा अनुच्छेद पढ़ने पर कुछ और ही अर्थ नज़र आता हैं। यही उपन्यासकार की भाषा वाली कला है। चक्रधर नलिन जी ने अज्ञेय जी की भाषा के कलात्मक प्रयोग को लेकर कहा है कि अज्ञेय भाषा की कोमलता के बल पर मानवीय चिंतन तथा चेतना के अंतिम आयाम का सहज स्पर्श करते हैं। उन्होंने काव्य-वस्तु को ही नहीं वरन् भाषा और उसके उपकरणों के प्रयोगों से भाषाई क्रांति की। उनके कथ्य सूक्ष्म अंतर्दृष्टि का प्रतिफलन हैं तथा भाषा कृष्णा-सी प्रवाहमान है।3 यद्यपि उन्होंने यह बात अज्ञेय जी की कविताओं को लेकर कही है परन्तु अज्ञेय जी द्वारा लिखित गद्य रचनाओं में भी यही विशेषताएँ नज़र आती हैं। शशि तथा शान्ति, शारदा सभी को लेकर जो शेखर के मन में भावनाएँ उठती हैं उन सबका जो वर्णन अज्ञेय जी ने किया है उन प्रसंगों में तथा ऐसे कुछ प्रसंगों में जहाँ शेखर के मन में विद्रोहात्मक तेवर या क्रान्ति के विचार उठते है उनमें यह बातें लागू होती हैं। शेखर बचपन से ही शरारती तथा जिद्दी हुआ करता था जिस कारण घर में उसे माता-पिता के अलावा अपनी बहिन से भी कभी-कभार पिटायी खानी पड़ती थी। फिर भी शेखर का अपनी बहिन सरस्वती से अधिक दोस्ताना था क्योंकि अक्सर सरस्वती ही उसकी हर काम में मदद कर दिया करती थी तथा उसे लाढ-प्यार भी करती थी। शेखर के मन में सरस्वती को लेकर जो भावनाएँ थीं उन्हें  अज्ञेय जी ने ऐसे चित्रित किया है:- तो सरस्वती और शेखर साथ खेलते थे, लेकिन उनके खेल में उनके साथ की अपेक्षा सरस्वती के हाथ और शेखर के गालों का साथ अधिक रहता था। और जब से शेखर के पिता ने सरस्वती को आज्ञा दी थी कि वह शेखर को पढ़ाया करे, तब से तो शेखर ने समझ लिया था कि बहिन उस जन्तु का नाम है, जो खेल में झगड़ा करे, अपनी गलती होने पर भी पीट डाले, तंग करे, सीधे अक्षर पढ़ाकर संयुक्ताक्षर( यद्यपि शेखर तब उन्हें संयुक्ताक्षर नहीं कहता था) पढ़ाये, न पढ़ने पर पिता से कहे, और कभी किसी बात में विरोध होने पर माँ से यह फतवा प्राप्त कर ले कि वह बड़ी है इसलिए शेखर को उसका कहना मानना चाहिए। जब वे काश्मीर गये, तब शेखर को इस बात में बड़ा मजा आता था कि कभी वर्षा के दिनों वह रात में चुपचाप खिड़की खोल दे,ताकि खिड़की के पास सोयी हुई सरस्वती भीग जाय। ( शेखर ने आग्रह किया था कि खिड़की के पास वह सोयेगा क्योंकि वहाँ से चाँद दीखता था, पर माँ का आज्ञा हुई कि वह नहीं सो सकता, उसे ठण्ड लग जायगी, क्योंकि वह छोटा है। लेकिन वहीं काश्मीर में, उन्हीं वर्षा के दिनों, एक दिन सरस्वती उसके मन में एकाएक सरस्वती से बहिन और बहिन से सरस हो गई थी यद्यपि इस अन्तिम अंतरंग नाम का उसने कभी उच्चारण नहीं किया, इसे मन में ही छिपा रखा।4 यहाँ अज्ञेय जी ने भाषा का मनोवैज्ञानिक पद्धति से प्रयोग किया है। पहले शेखर के मन में अपनी बहिन के प्रति बालपन वाली ईर्ष्या तथा द्वेष, फिर उसी के प्रति झुकाव को यहाँ अज्ञेय जी ने बहुत स्पष्ट किन्तु सुन्दर ढंग से प्रयोग किया है। इसी प्रकार अज्ञेय जी ने शेखर के जिद्दीपन को भी कई जगहों पर इसी प्रकार से व्यक्त किया है। जैसे शेखर का भवानी मंदिर में जाकर कह उठना कि मैं ईश्वर को नहीं मानता। मैं प्रार्थना भी नहीं मानता। ये एक प्रकार से यह कथन शेखर के भीतर के विद्रोह का सूचक बनकर नज़र आता है।
अज्ञेय जी ने अपने इस उपन्यास में सबसे अधिक शेखर के जीवन की अनुभूतियों का चित्रण किया है। दोनों ही भागों में हमें इसके कई उदाहरण मिलेंगे। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने अनुभूतियों के चित्रण में छायावादी कवि की जो विशेषता है अर्थात् प्रकृति के साथ मनोभावों के ताल-मेल को भी चित्रित किया है। जिससे न केवल शेखर के मनोभाव स्पष्ट होने लगते है, बल्कि भाषा के माध्यम से यह भी विदित होता है कि प्रकृति हमारे मनोभावों के कितने अनुकूल एवं प्रतिकूल लग सकती है। जब-जब हम जैसा सोचते होंगे प्रकृति वैसा ही रूप दिखाती होगी। शेखर जब धीरे-धीरे बड़ा होने लगता है तो उसका मन नए विचारों से भरने लगता है, उसकी आँखें कुछ नया देखना पसन्द करती है। अज्ञेय जी ने शेखर के मनोभावों को तथा उसके अनुभवों को पूरी तरह से चित्रित करने के लिए अंग्रेज़ी के कई रोमांटिक कवियों की कविताएँ भी बीच-बीच में उद्धृत की है। जैसेः-
Ah me, my mountain shepherd, that my arms
Were wound about thee, and my hot lips prest
Close, close to thine in that quick-falling dew
Of fruitful kisses, thick as autumn rains
Flash in the pools of whirling Simois….5

इसी तरह एक और जगह शेखर के मन में उठते कुछ इसी प्रकार के विचारों को प्रकृति के एक और रूप के साथ पेश किया है:- शेखर के पिता का बँगला बबूल के वृक्षों और झाड़ियों से घिरे हुए एक पहाड़ के अंचल में है। उनके घर के सामने, तलहटी के पार के पहाड़ के शिखर पर एक छोटा-सा पेड़ है, जिसकी शाखाएँ और पत्तियाँ मिलकर आकाश की पृष्ठ-भूमि पर अंग्रेज़ी एस (s)  अक्षर का आकार बना देती हैं। शिखर से कुछ उतरकर चारों और यह पहाड़ देवदारु, चीड़ और युकलिप्टस वृक्षों के वन से घिरा हुआ है। यही सुदूर चित्र शेखर की चंचल आँखों का एकमात्र खाद्य है, आँखे जो किसी नूतनता की, किसी परिवर्तन की भूखी हैं, और जो अपने सब ओर परिव्याप्त एकस्वरता से उकताई हुई हैं। 6 यही एस शेखर शारदा से मिलने के बाद भी देखता है। यहाँ अज्ञेय जी ने एस का प्रयोग प्रतीकात्मक तौर पर दिखाया है जो शेखर के मन में अलग-अलग समय पर उठते विचारों का प्रतीक है। अज्ञेय जी के भाषा के क्रान्तिकारी एवं प्रतीकात्मक प्रयोगों को लेकर एक और विद्वान विजयमोहन सिंह जी का मानना है कि चित्रात्मक गद्य का प्रयोग अज्ञेय से पहले हिंदी कथा-साहित्य में नहीं हो सका था। इसके अतिरिक्त उपन्यास में अनुभूतियों की भाषा लिखने वाले अज्ञेय हिंदी के पहले गद्य लेखक हैं। इस गद्य की काव्यात्मकता छायावादियों के गद्य की काव्यात्मकता से भिन्न है, जो भावात्मकता से भरा हुआ ढीला-ढाला गद्य (लूज प्रोज) होता था और कल्पना के कुहासे में अनुभूतियों को धुँधला कर देने वाला होता था।.......अज्ञेय दृश्य और भाव की प्रत्येक सिलवट को सटीक ढंग से व्यक्त कर देने वाले शब्दों का प्रयोग करते हैं और दृश्य को उसकी संपूर्ण वस्तुपरकता के साथ चित्रित करने के लिए अद्भुत शब्द-बिंबों का निर्माण कर लेते हैं।.....वस्तुतः अज्ञेय की इस भाषा की पृष्ठभूमि में छायावाद या रौमैंटिसिज्म से पृथक् फ्रेंच प्रतीकवादी आंदोलन था और जिसकी भाषा में संगीत और काव्य के तत्त्व संयुक्त थे।7 विजयमोहन सिंह जी ने प्रसिद्ध विद्वान एडमंड विल्सन जी के कथन का उदाहरण देते हुए शेखर: एक जीवनी की भाषा के प्रतीकात्मक प्रयोग तथा शिल्प की प्रशंसा करते हुए आगे कहते है कि अज्ञेय की भाषा में इसी प्रकार के प्रतीकवादी उपकरण मिलते हैं। इस प्रकार उन्होंने एक ओर शेखर की प्रविधि मनोवैज्ञानिक फ्री एसोसिएशन ऑफ आइडियाज वाले शिल्प से ली और दूसरी ओर उसमें प्रतीकवादियों वाली भाषा को अनुस्यूत कर एक अनोखे औपन्यासिक शिल्प का निर्माण किया। इस भाषा में विभिन्न इंद्रियों की संवेदनाओं के संश्लेषण से एक ऐसी प्रभावात्मकता उत्पन्न होती है जो अभी तक औपन्यासिक स्तर पर उपलब्ध नहीं थी।8 उपन्यास के द्वितीय भाग के अंतिम खण्ड में भी हम यह देख सकते है जब शेखर अपनी मौसेरी बहन शशि के साथ रह रहा था तथा उन दोनों के बीच की आत्मीयता बढ़ रही थी। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि अज्ञेय जी ने शेखर के जीवन और उसमें घटने वाली घटनाओं का न केवल वर्णन ही किया है, बल्कि शेखर स्वयं क्या सोचता है, उसकी अपने जीवन में घटी घटनाओं को लेकर क्या अनुभूतियाँ हैं उन सबको भी अज्ञेय जी ने स्वयं शेखर बनकर सोचा और उन्हें व्यक्त किया। व्यक्त करने के लिए उन्होंने जैसी भाषा का प्रयोग किया है, उसे और सजीव ढंग से चित्रित करने के लिए शेखर के आस-पास की प्रकृति, सामान या व्यक्ति को व्यवहार तक को भी प्रयोग किया है। साथ ही अज्ञेय जी को कई भाषाओं का ज्ञान था जिनका प्रयोग उन्होंने शेखर के मनोविज्ञान को दर्शाने के लिए प्रयोग किया। बँगला गीत से लेकर अंगरेज़ी के रोमांटिक कविताओं को उन्होंने जगह-जगह पर सटीक ढंग से प्रयोग किया है।
शेखर: एक जीवनी के प्रथम भाग में जिस तरह से शेखर का मनोविज्ञान पूरी तरह से चित्रित हुआ है उसी तरह दूसरे भाग में शेखर के वास्तविक जीवन में जिसमें उसे अनुभव से अधिक कार्यरत रहना पड़ा है वहाँ भी अज्ञेय जी ने अपनी भाषा के कलात्मकता से शेखर के मनोभावों को प्रकट करने में सफलता पायी है। फिर वह चाहे शेखर के कॉलेज का प्रसंग हो या पंजाब में जाकर कांग्रेस से जुड़कर देश-सेवा तथा जेल जाने का प्रसंग हो। सभी प्रसंग पाठकों को इसीलिए रुचिकर लगे क्योंकि एक तो उन प्रसंगों को अज्ञेय जी ने प्रस्तुत किया ही इतने रोचक ढंग से, साथ ही भाषा की सरलता तथा छायावादि दृष्टिकोण के कारण वह अधिक सुपाठ्य हो गयी। द्वितीय भाग के अंतिम चरण में शशि और शेखर के साथ-साथ चलती ज़िन्दगी और उनके बीच के करीबी को भी बहुत ही संजीदगी से प्रस्तुत किया गया है। यह मनोवैज्ञानिक उपन्यास है अतः भाषा को मनोविज्ञान की दृष्टि से एक भाव से दूसरे भाव ले जाते हुए तथा घटनाओं से प्रभावित होते अनुभवों को व्यक्त करने हुए कही भी भाषा की कृत्तिमता नहीं झलकती है और न ही कहीं पर साथ ही छूटता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो कहा जा सकता है कि अज्ञेय जी की औपन्यासिक भाषा में काफी मजबूत पकड़ थी जिसके कारण उनका यह उपन्यास हिन्दी साहित्य जगत् में उत्तम स्थान प्राप्त कर सका है।



संदर्भ:

1.   शेखर: एक जीवनी, प्रथम भाग:- सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय, सं- 2009, प्रकाशन सरस्वती प्रेस, इलाहाबाद, पृ.सं 54
2.   वही, पृ.सं 74
3.   आजकल ( साहित्य और संस्कृति का मासिक) ( अज्ञेय विशेषांक) अंक 12, अप्रैल 2011, पृ.सं 27, लेखकचक्रधर नलिन, लेख बहुमुखी प्रतिभा के धनी: अज्ञेय।
4.   शेखर: एक जीवनी, प्रथम भाग :- सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय, सं2009, प्रकाशन सरस्वती प्रेस, इलाहाबाद, पृ.सं. 78-79
5.   वही, पृ.सं 151
6.   वही, पृ.सं 159
7.   उपन्यास का समाजशास्त्र संपादिका:- गरिमा श्रीवास्तव, पृ.सं 209
8.   वही, पृ.सं 210

रविवार, 7 अप्रैल 2013

चलो बैठकर कविता करते है...................

चलो बैठकर कविता करते हैं
दो लाइनें तुम बोलो
दो लाइनें हम बोलते है
कविता में शब्द,
तुकबन्दि की कोशिश करते है
कविता अच्छी बने-न-बने
फिर भी
दो लाइनें तुम बोलो
दो लाइनें हम बोलते है।

सुनो,
थोड़ी सी कोशिश अगर तुम करोगे तो
तुम्हें भी आ जाएगा
इस पर तुम्हारा डायलॉग है
"जब वक्त आएगा देखा जाएगा"
अभी चलो आराम करते है

मैं मन-ही-मन उम्मीद करके रह जाती हुँ
कि
हम दोनों मिलके कविता करते है।