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बुधवार, 17 सितंबर 2014

शिल्पी कविता का सार




             सुमित्रानंदन पंत के द्वारा लिखित यह कविता एक अद्भुत रचना है। इसमें उन्होंने संसार के सभी शिल्पियों को सार्थक माना है साथ ही साथ उनके समान कविता लिखने वाले कवि को भी शिल्पी बताया है। उन्होंने कवियों के द्वारा जगत-जीवन में भावनाओं,संवेदनाओं, राग-अनुराग जिससे मानव जीवन सार्थक होता है ऐसे तत्वों को निर्मित करने के लिए उन्हें जग-जीवन का शिल्पी कहा है।
            उनकी कविता एक छोटे से प्रश्न से शुरू होती है और अंत कविता के द्वारा अमर सत्य की स्थापना में जाकर होता है। इसमें उन्होंने मानव जीवन में जितनी महत्ता रोटी, कपड़ा या मकान को माना है उतनी ही महत्ता भावना, संवेदना, प्रेम, सत्य को भी माना है। वे प्रश्न करने लगते है

                                    इस क्षुद्र लेखनी से केवल
                                    करता मैं छाया लोक सृजन?
                                    पैदा हो मरते जहाँ भाव,
                                    बुद्-बुद् विचार स्वप्न सघन?
            अर्थात् कवि अपनी इस लेखनी को क्षुद्र मानते है और अपने-आप से ही प्रश्न करने लग जाते है कि क्या में सिर्फ अपनी इस लेखनी से मात्र एक छाया लोक का सृजन करता हूँ? क्या ऐसे छाया लोक का सृजन करता हूँ जहाँ भावनाएँ जन्म लेती हैं और मर जाती हैं, जहाँ बुलबुले के समान विचार जन्म लेते हैं और सपने बनते है और मिट जाते हैं। क्या मेरी यह लेखनी केवल यही काम करती है? उन्हें अपनी यह लेखनी तभी सार्थक लगती है जब उनकी भावनाएँ दूसरों के मन में भी घर कर सके। दूसरों में भी भावनाएँ जगा सके। उन्हें मात्र किसी छाया लोक का सृजन कर संतुष्टी नहीं प्राप्त होती है।
            इसी प्रकार वे संसार के एक शिल्पी जो घर का निर्माण करता है उससे पूछते है कि हे शिल्पी तुम जिस जग का निर्माण कर रहे हो। जिसमें ईंट, चूना, पत्थर जोड़ रहे हो, बार-बार हथौड़े मार-मार कर इन्हें मजबूती से जोड़ रहे हो, क्या इससे तुम्हारे इस जग का निर्माण हो जाएगा, क्या इससे तुम जीवन से भरा हुआ घर बना सकोगे? कवि पंत के अनुसार घर न तो ईंट, चूना, पत्थर या दीवारों से नहीं बनती है। उससे तो केवल एक मकान बनता है। घर तो तब बनता है जब उसमें जीवन से भरे लोग हो। उनमें आपसी प्रेम, समझ, संवेदना, एक-दूसरे के प्रति त्याग और सम्मान करने की भावना हो, जो किसी भी परिस्थिति में एक-दूसरे का साथ न छोड़े। वे आगे मानव जीवन के दूसरे शिल्पी किसान पर प्रश्न करते हैं। पूछते है कि ये जो कठिन हलों को बिना रूके, बिना थके जो धरती पर चलाएँ जा रहे हो, जिससे फल, फूल तथा अन्न उग रहे हैं क्या इस पर मानव जीवन वास्तव में निर्भर हैं? मनुष्य को जीने के लिए तो खाने की आवश्यकता है। परन्तु यदि मनुष्य मनुष्य की तरहा न रहकर केवल पशु की भांति खाता-पीता ही रहे तो क्या उससे उसका जीवन चल जाएगा। मनुष्य को जिस प्रकार भोजन की आवश्यकता है उसी प्रकार उसमें इस बात की भी चेतना होनी चाहिए कि उसे दूसरों को भी भोजन खिलाना चाहिए। भूखे लोगों के प्रति यदि दया न हो तो फिर वह कैसा मनुष्य, किसी के मुख से यदि मधुर वाणी न निकले तो फूलों की क्या आवश्यकता है, यदि केवल फल की आशा लेकर काम किया तो क्या किया, यही सारे विचार कवि पंत ने लोगों के सामने अभिव्यक्त किया है। वे चाहते है कि जिस प्रकार मनुष्य के शरीर के लिए भोजन की आवश्यकता है उसी प्रकार मनुष्य की आत्मा के लिए चेतना की आवश्यकता है। वह कहते है कि

                                    इस अमर लेखनी से प्रतिक्षण
                                    मैं करता मधुर अमृत वर्षण,
                                    जिससे मिट्टी के पुतलों में
                                    भर जाता, प्राण, अमर जीवन।
            अर्थात् कवि अपनी मधुर-मधुर लेखनी से संसार में प्रतिक्षण अमृत की मधुर वर्षा करते रहता है। जिससे माटी के पुतलों में जान आ जाती है। वह चेतना से भर उठता है। यदि मनुष्य की चेतना जगी हुई हो तो वह संसार के लिए बहुत कुछ कर सकता है। वह समाज को नई दिशा दिखा सकता है। लोगों में चेतना को जगा सकता है। इसीलिए कवि को सृजनकार कहा जाता है। क्योंकि उसकी रचना में वह शक्ति होती है जिससे गहरी-से-गहरी नींद में सोया व्यक्ति भी जाग उठता है, उसमें जीवन के सारे रस भर जाते हैं, वह एक जागरूक व्यक्ति बन जाता है। कवि की रचना न केवल व्यक्ति के लिए ही कल्याणकारी होती है बल्कि समाज के लिए भी कल्याणकारी होती है। वह क्रान्ति ला सकती है, अन्याय का विरोध करती है, नवीन सृष्ट का निर्माण भी कर सकती है क्योंकि कवि की रचना कवि के मन में समाज तथा उसमें रहने वाले लोगों के प्रति प्रेम और संवेदना से ही निर्मित होती है।
            कवि पंत आगे कहते है कि वे ऐसे जग का निर्माण कर रहे हैं जिसमें वे मनुष्य के मन को जोड़ रहे हैं। उनके भीतर जो कलह है, घृणा है, एक-दूसरे के प्रति कटुता है उसे काट कर फेंक रहे है और उसकी जगह प्रेम, सत्य, श्रद्धा, भक्ति, समर्पण, संवेदना, चेतना आदि जैसे तत्वों को भरकर आत्मा के लिए मन का भवन बना रहे है। एक ऐसा भवन जिसमें सभी के लिए समान रूप से स्थान हो। वे खरे एवं कोमल शब्दों को चुन-चुन कर मनुष्य के मन में अंकित कर रहे हैं। क्योंकि उनके अनुसार मानव आत्मा का खाद्य प्रेम है और यही प्रेम जगत का आधार है। इसी पर जगत के जीवन निर्भर करता है।
            अंत में वे कहते हैं कि वे जग-जीवन के शिल्पी हैं, उनकी  वाणी के स्वर जीवित है क्योंकि वे अभी-भी निरंतर मनुष्य के मन में प्रेम और भावना को जगाने का काम कर रहे हैं। वे कहते हैं कि वे लोगों के मन जो मांस-खण्ड से बना है उसमें अमर सत्य को मुद्रित कर रहे हैं।

बुधवार, 10 सितंबर 2014

आस.............

काश ज़िन्दगी ने इतनी सारी
मजबूरियाँ न रखी होती मेरे सामने
काश मैंने न हार मानी होती इन
मजबूरियों से अपनी ही ज़िन्दगीे के सामने

हर बार एक आस जगती थी मन में
कि ये होगा, मैं वो करूँगी
ऐसा होगा, वैसा होगा
हर बार चोट लगी आस को
ये न हुआ, कुछ भी न हुआ
कुछ न हो पाएगा अब इस गुज़रते वक्त में

मैं बार-बार साहिल की तरहा
दीवारों से टकराती हूँ
चूर-चूर हो जाने पर भी
खुद को समेट लाती हूँ
न दीवार एक इंच भी खिसकती है
अपनी जगह से
मगर मिट जाती है आस
इस जद्दो-जहत से.....................

सोमवार, 11 अगस्त 2014

भूषण के कविताओं की व्याख्या -- पार्ट 2



दारुन दुगुन दुरजोधन तें अवरंग
भूषन भनत जग राख्यो छल मढ़िकैं।
धरम धरम, बल भीम, पैज अरजुन,
नकुल अकिल, सहदेव तेज, चढ़िकैं।
साहि के शिवाजी गाजी करयो दिल्ली माँहि,
चंड पाँडवनह तें पुरुषारथ सु बढ़िकैं।
सूने लाखभौन ते कढ़े वै पाँच राति मैं,
जु धौस लाल चौकी ते अकेलो आयो कढ़िकै।

व्याख्या कवि भूषण शिवाजी की राजनीतिक बुद्धि की प्रशंसा करते हुए कहते है कि ये औरंगजेब बिलकुल दुर्योधन के समान अधर्मी है। उसने छल से ही सब कुछ अपने कब्जे में कर रखा है। परन्तु शिवाजी उसे भी छलकर आज़ाद हो जाते हैं। क्योंकि शिवाजी का धर्म युधिष्ठिर के समान है, बल भीम के समान, प्रतिज्ञा अर्जुन के समान, बुद्धि नकुल के समान तथा तेज सहदेव के समान है। इन सबकी सम्मिलित शक्ति से ही शिवाजी ने दिल्ली में अपना कमाल दिखा दिया। वे पाँच पांडव तो दुर्योधन के लाक्षागृह से रात को भाग निकले थे जब वहाँ कोई नहीं था। लेकिन शिवाजी की विशेषता यह है कि वे दिन-दहाड़े इतने सारे सैनिकों के बीच से ही अपना कौशल दिखाते हुए कैद से मुक्त हो गए। उन्होंने प्रतिदिन गरीबों के मिठाई बाटने के बहाने अवसर पाकर एक दिन टोकरी में बैठ कर औरंगजेब के कैद से मुक्त हो गए।

 
वेद राखे विदित पुरान परसिद्ध राखे,
राम नाम राख्यो अति रसना सुघर मैं।
हिन्दुन की चोटी रोटी राखी है सिपाहिन को,
काँधे मैं जनेऊ राख्यो माला राखी गर मैं।
मीड़ि राखे मुगल मरोड़ि राखे पातसाह,
बैरी पीसि राखे बरदान राख्यो कर मैं।
राजन की हद्द राखी तेग-बल सिवराज,
देव राखे देवल स्वधर्म राख्यों घर मैं।

व्याख्या कवि भूषण ने शिवाजी को धर्म-रक्षक वीर के रूप में चित्रित किया है। जब औरंगजेब सम्पूर्ण भारत में देवस्थानों को नष्ट कर रहा था, वेद-पुराणों को जला रहा था, हिन्दुओं की चोटी कटवा रहा था, ब्राह्मणों के जनेऊ उतरवा रहा था और उनकी मालाओं को तुड़वा रहा था, तब शिवाजी महाराज ने ही मुगलों को मरोड़ कर और शत्रुओं को नष्ट कर सुप्रसिद्ध वेद-पुराणों की रक्षा की, लोगों को राम नाम लेने की स्वतंत्रता प्रदान की, हिन्दुओं की चोटी रखी, सिपाहियों को अपने यहाँ रखकर उनको रोटी दी, ब्राह्मणों के कंधे पर जनेऊ, गले में माला रखी। देवस्थानों पर देवताओं की रक्षा की और स्वधर्म की घर-घर में रक्षा की।

 
गढ़नेर, गढ़-चांदा, भागनेर, बीजापुर,
नृपन की नारी रोय, हाथन मलति हैं।
करनाट, हबस, फिरंगह, बिलायत,
बलख, रूम अरि-तिय छतियाँ दलति हैं।
भूषन भनत साहि सिवराज, एते मान,
तब धाक आगे चहुँ दिशा बबलति हैं।
तेरो चमू चलिबे की चरचा चले तें,
चक्रवर्तिन की चतुरंग चमू विचलति हैं।

व्याख्या कवि भूषण शिवाजी के आतंक का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि गढ़नेर(नगरगढ़), चाँदागढ़, भागनेर( गोलकुण्डा का भाग नगर) तथा बीजापुर के राजाओं की स्त्रियाँ हाथ मलन लग जाती है रोने लग जाती हैं। वही कर्नाटक, हबशियों का देश, विदेशी राज्य, बलख(तुर्किस्तान का एक नगर) तथा रूम तक के शत्रु राजाओं की स्त्रियाँ भी छाती पीटती रह जाती हैं। शिवाजी की धाक सुनकर सभी दिशाये उबलने लग जाती हैं। यदि कही यह चर्चा सुनाई दे जाती है कि शिवाजी की सेना आ रही है तो बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राटों की भी चतुरंगिणी सेनाये तक विचलित हो जाती है।

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

भूषण की कविताओं की व्याख्या




चकित चकत्ता चौंकि उठै बार-बार,
दिल्ली दहसति चित चाहे खरकति है
बिलखि बदन बिलखात बिजैपुर-पति
फिरत फिरगिन की नारी फरकति है
थर-थर काँपत कुतुब साहि गोलकुंडा
हहरि हवसि भूप भीर भरकति है
राजा सिवराज के नगारन की धाक सुनि
केते पातसाहन की छाती दरकति है।


व्याख्या भूषण कहते है कि चाक पक्षी बारम्बार चौंक कर उठ जाता है। दिल्ली के राजा का चित्त दहशत से बार-बार खरक जाता है। बिजापुर के राजा का तो शरीर ही बिलख उठता है और वे बच्चों जैसे बिलख-बिलख कर रोने लग जाते है। फ़िरंगियों की औरतें तो चिड़ियाँ की भाँति फरक जाती है। वही परिवार सहित गोलकुंडा के साह भी थर-थर काँप जाते है। भीरु, कायर तथा भोग-विलास में लिप्त राजाओं के हृदय भय से भर जाते है। जब राजा शिवाजी के (युद्ध के लिए प्रस्थान की घोषणा) नगाड़े की धाक सुनाई देती है तो कितने ही बादशाहों की छाती धड़कने लगती है।


आपस की फूट ही ते सारे हिन्दुताने टूटे,
टूटयो कुल रावन अनीति अति करते।
पैठिगो पताल बलि बज्रधर ईरषा ते,
टूट्यो हिरन्याक्ष अभिमान चित्त धरते
टूट्यो सिसुपाल वासुदेव जू सो बैर करि,
टूटो है महिष दैत्य अधम बिचरते।
राम कर छुवत ही टूट्यो ज्यों महेस चाप,
टूटी पातसाहो सिवराज संग लरते।

व्याख्या कवि भूषण कहते है कि आपस की फूट की वजह से ही सारा हिन्दुस्तान बिखर गया। जैसे रावण की अतिरिक्त अनीति के कारण उसके भाई विभिषण के साथ झगड़ा हो जाता है और उसके कुल का नाश हो जाता है। कवि भूषण कहते है कि राजा बलि इन्द्र से ईर्ष्या करते हि भगवान बामन के द्वारा पाताल भेज दिये जाते हैं। हिरन्याश जब यह अभिमान धर लेता है कि वह भगवान से भी श्रेष्ठ है वह भगवान जैसा भी सबकुछ कर सकता है तो भगवान विष्णु के द्वारा उसका अभिमान टूट जाता है। शिशुपाल भगवान कृष्ण को अभिमान के चलते गालियाँ देने लगता है, उनसे बैर कर लेता है, परन्तु उसका भी सुदर्शन चक्र के द्वारा वध करके उसका अभिमान मिटा दिया जाता है। महिषासुर दैत्य के मन में अधम विचार उपजते ही वह भी मारा जाता है। जिस प्रकार श्रीराम के हाथ लगते ही शिवजी का धनुष टूट जाता है उसी प्रकार शिवाजी के साथ लड़ते ही कई बादशाहों की कमर टूट जाती है।


जै जयंति जै आदि सकति जै कालि कपर्दिनि।
जै मधुकैटभ-धलनि देवि जै महिष-विमर्दिनि,
जै चमुंड जै चंड-मुंड भंडासुर खंडिनि,
जै सुरक्त जै रक्त-बीज विड्डाल बिहंडिनि,
जै जै निसुंभ सुंभद्दलनि, भनि भूषन जै जै भवनि
सरजा समत्थ शिवराज कहँ, देहि बिजै जै जगजननि।

व्याख्या कवि भूषण कहते है कि जय हो जयंति माँ दुर्गा, आदिशक्ति की। आपकी जय हो। आप काली है, कपर्दिनी है। जय हो मधु-कैटभ को छलने वाले, उन्हें मारने वाली, आपकी जय हो। हे महिषासुर को मारने वाली, हे चामुंडे, चंड-मुंड का दमन करने वाली आपकी जय हो। हे जगदम्बे, भंडासुर का नाश करने वाली, छिन्नमस्ता का रूप धर रक्त-बीज का विध्वंस करने वाली, हे शुम्भ-निशुम्भ का समूल नाश करने वाली आपकी जय हो। हे भवानी आपकी जय हो। हे काली आपसे ये राजा शिवाजी प्रार्थना करता है कि मेरी विजय हो। मैं आपसे विजय का कामना करता हूँ।



श्रीनगर नयपाल जुमिला के छितिपाल
भेजत रिसाल, चौरं, गढ़,कही बाज की
मेवार, ढुंडार मारवाड़ औ बुंदेलखंड,
झारखंड बाँधों-धनी चाकरी इलाज की
भुवन जे पूरब पछाँह नरनाह ते वै,
ताकत पनाह दिलीपति सिरताज की।
जगत को जैतवार जीत्यो अवरंगजेब
न्यारी रीति भूतल निहारी सिवराज की।


व्याख्या कवि भूषण ने अपने इस छन्द में शिवाजी के आत्मसम्मान तथा उनकी नीति की प्रशंसा की है। वह कहते है कि श्रीनगर, नेपाल, मेवाड़, जयपुर, मारवाड़, बुंदेलखण्ड, रीवाँ आदि भारत के उत्तर, पूर्व तथा पश्चिम के जितने भी शासक है सभी दिल्लीपति औरंगजेब का आदेश पाते ही, उसके भय से अपनी सेनाये, चमर, किला, घोड़े, बाज़ आदि नज़राने के रूप में भेंट कर देते है। वे इतने कायर और डरपोक है कि दिल्लीपति की सेवा करने या उनकी अधीनता मान लेने में ही अपनी सुरक्षा मान लेते है। उसकी ताकत के आगे झुक जाते है। जबकि दक्षिण के राजा शिवाजी ही अकेले ऐसे राजा थे जिनकी नीति सर्वथा भिन्न थी। वे इस प्रकार की अधीनता को अपने आत्मसम्मान के विरुद्ध समझते थे। उन्होंने कभी भी औरंगजेब की अधीनता स्वीकार नहीं की।

रविवार, 18 मई 2014

दिव्या और उसका अस्मिता बोध





            जब हम नारी उत्कर्ष की बात करते हैं तो हमारे ज़हन में यह बात आती है कि नारी का उद्धार हो। सदियों से जो रूढ़ियाँ हमारे समाज में गहरे रूप में फैली है जिसमें नारी पिसती जा रही है उन रूढ़ियों के बन्धन से उसकी मुक्ति हो तथा वह भी समाज में खुलकर सास ले सके। वह भी अपने अस्तित्व को खुलकर विकसित कर सके, उसे जीवित रख सके। नारी सदा से ही समाज में जो कुछ भी घटित हुआ हो चाहे वह ऐतिहासिक हो या सामान्य घटना मात्र हो उसमें अपना योगदान देती आ रही है।  लेकिन ऐसा कई बार हुआ है कि उसने अपना सर्वस्व दे दिया पर समाज उसे इसके बदले में मान न देकर अपना ही क्रेडिट समझता रहा है। इसलिए अब यह जरूरी हो गया है नारी की स्वतंत्रता। उसके अस्तित्व के लिए, उसकी ज़िन्दगी के लिए, समाज के उज्ज्वल भविष्य के लिए।
          हिन्दी साहित्यकारों की बात करे तो उनके साहित्यिक रचनाओं में उन्होंने नारी समाज के उद्धार तथा उनके उत्कर्ष को लेकर अपने विचार प्रस्तुत किए है। विशेषकर आधुनिक साहित्यकारों द्वारा रचित उपन्यासों में नारी की स्वतंत्रता को लेकर वे गंभीर दिखते है। इसी प्रकार एक रचनाकार है यशपाल जिन्होंने अपने कई उपन्यासों में नारी की स्वतंत्रता तथा उनकी स्वतंत्र सत्ता को बहुत स्पष्ट एवं विस्तृत रूप से चित्रित किया है। उन्हीं के द्वारा लिखित दिव्या उपन्यास में उन्होंने बौद्ध कालीन समय में जब समाज में ब्राह्मणों तथा बौद्धो के बीच समाज की सत्ता को हासिल करने का संघर्ष चल रहा था तब कैसे एक स्त्री समस्त प्रकार के कठिनाईयों से लड़कर अपना स्वतंत्र जीवन जीने के लिए तत्पर हो जाती है, उसे प्रस्तुत किया है। इस उपन्यास में न केवल दिव्या बल्कि अन्य सभी स्त्री पात्रों के जरिए भी उनकी स्वतंत्र सत्ता को दर्शाया गया है।
          दिव्या एक सम्भ्रान्त ब्राह्मण कुल की कन्या है। सागल नगर की राजनर्तकी देवी मल्लिका की वह सबसे प्रिय शिष्या है। धुपर्व के उत्सव में उसकी पृथुसेन नामक युवक से भेंट होती है। पृथुसेन श्रेष्ठी प्रेस्थ का पुत्र था। प्रेस्थ यवनराज का दास हुआ करता था। दासत्व से मुक्ति मिलने के बाद प्रेस्थ ने व्यापार करके अपने-आपको समाज में विशिष्ट जनों के बीच में स्थान प्राप्त करा लिया था। परन्तु उसके पूर्व में दास होने के कारण ब्राह्मणों के अधीन समाज उसे अभी भी उसी रूप में देखता था। इसी कारण पृथुसेन को भी कभी मद्र के गणराज में मुख्य स्थान प्राप्त नहीं हुआ। इधर दिव्या तथा पृथुसेन इन सामाजिक कठिनाईओं के बावजूद प्रेम के बन्धन में बन्ध जाते है। दिव्या पृथुसेन द्वारा गर्भवती हो जाती है और उसे अपने पितामह का घर त्यागना पड़ता है। उधर पृथुसेन के पिता पृथुसेन को दिव्या से विवाह न कर मद्र के गणपति की बेटी सीरो से विवाह करने पर दबाव डालता है। यही से उसकी संघर्ष की शुरूआत होती है। पहले वह दारा बनकर दासी के रूप में एक ब्राह्मण के घर में रहती है ताकि उसके शिशु का पालन-पोषण वह कर सके। परन्तु स्वामी-स्वामिनी के अत्याचार के कारण उसे वहाँ से भागना पड़ता है। वह भाग कर बौद्ध आश्रम में शरण मांगती है लेकिन उसे वहाँ शरण नहीं मिलती। बौद्ध भिक्षु जिसके पास वह शरण मांगने गयी थी यह कहकर उसे लौटा देता है कि इसमें न तो उसके स्वामी या उसके पति की अनुमति है। दिव्या उससे तर्क करती है कि स्वतंत्र नारी तो निर्वाण ले सकती है तब बौद्ध भिक्षु स्थवीर उससे कहता है कि वेश्या स्वतंत्र नारी है देवी1। दिव्या निराश होकर लौट आती है। वह अपनी संतान को बचाना चाहती थी। उसे जिलाना चाहती थी। लेकिन स्वामी के घर से भाग आने के कारण उसके पास कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था कही शरण की आशा भी नहीं थी। दारूण व्यथा और आघात से उसके जड़ हो गये मस्तिष्क में केवल एक ही बात स्पष्ट थीवेश्या  स्वतंत्र नारी है। परतंत्र होने के कारण उसके लिये कहीं शरण और स्थान नहीं। दासी होकर वह परतंत्र हो गयी? दारा का मस्तिष्क झुँझला उठा --- वह स्वतंत्र थी ही कब?...अपनी सन्तान को पा सकने की स्वतंत्रता के लिये ही उसने दासत्व स्वीकार किया अपना शरीर बेचकर उसके इच्छा को स्वतंत्र रखना चाहा परन्तु स्वतन्त्रता मिली कहाँ ? कुल-नारी के लिये स्वतंत्रता कहाँ? केवल वेश्या स्वतन्त्र है। दारा ने निश्चय किया अपनी संतान के लिए वह स्वतन्त्र होगी।2 लेकिन जब उसे इसके लिए भी कुछ पथिकों द्वारा प्रताड़ना सुनने को मिलती है तो हारकर अपने बच्चे के साथ नदी में कूद जाती है। शूरसेन प्रदेश की जनपद कल्याणी राजनर्तकी देवी रत्नप्रभा उसे बचाती है। वही से वह अंशुमाला के रूप में स्वतंत्र होती है। उधर देवी मल्लिका अब अपने वृद्धा वस्था में अपना उत्तराधिकार किसी समर्थ शिष्या को देना चाहती थी जो कि देवी मल्लिका के समान ही कला को उसके उत्तम चरण तक ले जा सके। देवी मल्लिका अंशुमाला के बारे में सुनती है और उसे अपना उत्तरअधिकारी बनाने के लिए निकल पड़ती है। जब वह अंशुमाला को देखती है तो चकित रह जाती है। लेकिन अंशुमाला के सारे इतिहास को जानकर वह उसे अपना उत्तरअधिकारी नियुक्त करती है। परन्तु जब वह उसे अपने आसन पर बिठाने जाती है उसी समय लोग अंशुमाला को देख चकित हो जाते है कि यह अंशुमाला और कोई नहीं बल्कि द्विज कन्या दिव्या है। अतः मद्र गणराज्य के नए राजा रुद्रधीर इसकी अनुमति नहीं देता है। वह दिव्या के सामने प्रास्ताव रखता है कि दिव्या उससे विवाह कर ले एवं मद्र की साम्राज्ञी बन जाए। यहाँ तक कि पृथुसेन जो एक काल में मद्र का शासक बन गया था परन्तु ब्राह्मणों के गणराज्य पर अधिकार करते ही हार जाता है और अंत में बौद्ध भिक्षु बन जाता है। वह दिव्या को निर्वाण लेने के लिए कहता है तो दिव्या उसे ठुकरा देती है। क्योंकि वह अपनी स्वतंत्रता नहीं खोना चाहती थी। स्वतंत्रता को खोने का अर्थ था अपने-आपको खो देना। वस्तुतः नारी जहाँ सबसे अधिक स्वतंत्र दिखायी देती है वही वह सबसे अधिक परतंत्र दिखायी देती है। समाज नारी को सदैव ही कई बहानों से परतंत्र करता रहा है। दिव्या एक सम्पन्न ब्राह्मण महापण्डित धर्मस्थ की प्रपौत्री थी। उसके लिए स्वतंत्रता केवल इतनी थी कि वह अपने पितामह के घर में आराम से रह सके। परन्तु यह स्वतंत्रता नहीं थी कि वह अपने भविष्य का निर्णय ले सके। उसे पृथुसेन से प्रेम था, वह उसी को चाहती थी लेकिन उसके घर वाले इसके विरूद्ध थे क्योंकि पृथुसेन एक प्रतापी यौद्धा होने के बावजूद दास पुत्र ही था। समाज की विडम्बना है या स्त्री जीवन का सबसे बड़ा परिहास कि चाहे वह किसी भी कुल या जाति से हो उसे हमेशा परिवार या सामाजिक रीति-रिवाज़ो के बन्धन में बंधे रहना पड़ता है। साथ ही चाहे राजमहल हो या गरीब के झोपड़े में रहने वाली हो भविष्य का निर्णय वह नहीं ले सकती। कारण राजमहल में रहकर यदि किसी छोटी जाति के लड़के से विवाह करना चाहे तो परिवार की बदनामी और झोपड़े में रहकर अपने से किसी बड़े घर में विवाह करना चाहे तो भी परिवार की बदनामी, रहन-सहन, संस्कार, आचारण आदि का अंतर इत्यादि बातों का सहारा लेकर उसे रोक दिया जाता है। कैसी विडम्बना है कि स्त्री को अपना भविष्य पुरुष की सहमती के अनुसार बनाना पड़ता है। दिव्या के लिए यह सबसे पहली चुनौती थी जिसे वह लड़कर पूरा करती है। लेकिन फिर भी दिव्या पृथुसेन को प्राप्त नहीं कर पाती है क्योंकि पृथुसेन युद्ध में चला जाता है। जब वह घायल होकर लौटता है तब तक मद्र  की राजनैतिक परिस्थितियाँ बदल जाती है। दिव्या और पृथुसेन एक दूसरे से मिलना चाहते है परन्तु बार-बार कोई-न-कोई बाधा उत्पन्न होती ही रहती है। वही प्रेस्थ पृथुसेन का पिता पृथुसेन को मद्र गणराज्य का प्रमुख बनाना चाहता था। वह जानता था कि मद्र के गणपति की पुत्री से वह विवाह करेगा तो वह सामन्त बन पाएगा, परन्तु यदि दिव्या से विवाह किया तो पूरा ब्राह्मण समाज उसका विरोधी हो जाएगा। वह पृथुसेन को यह कहकर समझाता है कि पुत्र, स्त्री जीवन की पूर्ति नहीं, जीवन की पूर्ति का एक उपकरण और साधन मात्र है। सामर्थ्यवान, सफल मनुष्य अनेक स्त्रियाँ प्राप्त कर सकता है। परन्तु सफलता के अवसर जीवन में अनेक नहीं आते। पुत्र संसार में बल ही प्रधान है धन-बल और जन बल।3 यद्यपि पृथुसेन अपने पिता से असहमत था किन्तु उसे अंततः अपने पिता की बात माननी पड़ती है और दिव्या को पृथुसेन की उपेक्षा। पुरुष समाज की नारी के प्रति ऐसी सोच ही नारी के लिए कठीन परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देती है। दिव्या पृथुसेन द्वारा गर्भवती हो जाती है और पुरुष सत्तामक समाज में कुमारी लड़की का गर्भवती हो जाना अपराध माना जाता है। परन्तु इसमें अकेले लड़की का ही तो दोष नहीं होता है। दिव्या ने न तो खुद को अपराधी माना बल्कि उसने पृथुसेन की उपेक्षा के बदले उसे त्याग दिया और वह घर-बार छोड़कर स्वतंत्र हो अपने पालन-पोषण का निर्णय लेती है। क्योंकि वह जानती है कि यदि उसके परिवार को दिव्या की स्थिति का पता चलेगा तो वे सभी दिव्या को उसके इस कार्य के लिए दण्ड देंगे। भले ही इस के लिए केवल दिव्या ही दायी नहीं है। वह बौद्ध श्रमण की बातों पर विचार करती है कि मनुष्य अपने कर्म से ही दुखी होता है। लेकिन उसके कर्म का फल उसका जन्मा पुत्र क्यों भोगे, उसके मन में प्रश्न उठते, क्रान्तिकारी विचार जन्म लेते है कि उसका न तो पृथुसेन से प्रेम करना पाप था न ही गर्भ धारण करना क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि ही गर्भ धारण करती है। केवल द्विजसमाज की आज्ञा के बिना गर्भ धारण करना पाप है यह नहीं हो सकता। द्विज समाज कर्मफल देने वाला कौन होता है? यशपाल के उपन्यासों पर चर्चा करते हुए जबरीमल्ल पारख ने कहा है कि यशपाल के स्त्री चरित्रों की विशेषता यह है कि प्रायः सभी में विद्रोही प्रकृति के दर्शन होते हैं। वे रूढ़ियों, परम्पराओं और दबावों के आगे आसानी से हार नहीं मानती और हर तरह का खतरा उठाकर भी अपनी बात कहने और अपने मन के अनुसार चलने में वे नहीं हिचकती।4  तभी दिव्या अपने पुत्र की रक्षा के लिए ब्राह्मण पुरोहित का घर छोड़ कर निडर होकर निकल पड़ती है। लेकिन उसे निराशा ही हाथ आती है फिर भी वह वेश्याओं के यहाँ जाने का खतरा मोल लेकर फिर से प्रयास करती है। वहाँ भी उसे निराशा हाथ लगती है।
दूसरी बात पुरुष समाज ने सदैव नारी के शरीर को भोग की दृष्टि से देखा है। लेकिन वह जबरदस्ती उस पर नहीं कर सकता। अतः उसने नारी को मन और आत्मा से दुर्बल बना कर अपने अधीन कर भोग करता रहा है । फिर चाहे उसे प्रेमिका बनाकर भोग करे या कुलवधु के रूप में। दोनों ही जगह उसे पुरूष की अधीनता स्वीकार करनी पड़ती है। यही कारण से दिव्या रूद्रधीर एवं पृथुसेन के प्रस्तावों को ठुकरा देती है। क्योंकि दोनों स्थानों पर उन पुरुषों की अधीनता दिव्या के लिए असह्य थी। फिर दोनों ने ही एक काल में उसकी उपेक्षा की थी। वही दिव्या वेश्या अंशुमाला के रूप में जीकर उठी थी। वह रूद्रधीर के प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा देती है कि आचार्य कुलवधु का आसन, कुलमाता का आसन, कुलमहादेवी का आसन दुर्लभ सम्मान है, यह अकिंचन नारी उस आसन के सम्मुख आदर से मस्तक झुकाती है परन्तु आचार्य, कुलमाता और कुलमहादेवी निरादृत वेश्या की भांति स्वतंत्र और आत्मनिर्भर नहीं है। ज्ञानी आचार्य कुलवधू का सम्मान कुलमाता का आदर और कुलमहादेवी का अधिकार आर्य पुरुष का प्रश्रयमात्र है। वही नारी का सम्मान नहीं उसे भोग करने वाले पराक्रमी पुरुष का सम्मान है। आर्य अपने स्वत्व का त्याग करके ही नारी वह सम्मान प्राप्त कर सकती है। ......ज्ञानी आर्य, जिसने अपना स्वत्व ही त्याग दिया, वह क्या पा सकेगी?आचार्य दासी को क्षमा करें। दासी हीन होकर भी आत्मनिर्भर रहेगी। स्वत्वहीन होकर वह जीवित नहीं रहेगी।5 वस्तुतः यशपाल ने अपनी स्त्री समाज के प्रति जो विचार है उसे दिव्या के जरिए पेश करना चाहा है। स्त्रियों के बारे में उनकी कुछ विचार है जिन्हें यहाँ प्रस्तुत करना आवश्यक है। एक, उनका मानना है कि स्त्रियों और पुरुषों में समान रूप से यौन भावना विद्यमान होती है। यदि पुरुषों को अपनी यौन इच्छाएँ पूरा करने का अधिकार है तो यह अधिकार स्त्रियों को भी होना चाहिए। दो, उनके अनुसार स्त्रियों के लिए गर्भधारण और मातृत्व उनकी स्वतंत्रता में सबसे बड़ी बाधा है इसलिए वे विवाह और मातृत्व को एक दूसरे से अलग-अलग किए जाने की हिमायती हैं। तीन, उनका मानना है कि आर्थिक परतंत्रता स्त्रियों को पुरुषों का अनुगामी बनने को विवश करती है इसलिए आर्थिक रूप में स्त्रियों का स्वतंत्र होना जरूरी है।6 यशपाल के यह विचार सत्य है। हम सैद्धांतिक रूप में स्त्री की स्वतंत्रता कि बात करते है लेकिन उसकी स्वतंत्रता में सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा उसके शरीर से जुड़े अधिकारों को भूल जाते है। पुरुष सत्तामक समाज की चालाकी यह है कि यदि एक पुरुष एक से अधिक स्त्री से सम्बन्ध रखता है तो उसे कोई कुछ नहीं कहता है लेकिन स्त्री करे तो उसे गालियाँ दी जाती है। यहाँ तक कि बलात्कार भी हो तो उसमें स्त्री को ही दोषी माना जाता है। यदि स्त्री को सबसे पहले अपने शरीर से जुड़े अधिकार और स्वतंत्रता प्राप्त हो तथा उसकी रक्षा करने की शक्ति भी प्राप्त हो तो आज समाज में स्त्रियों के साथ जितने अपराध हो रहे है वह कुछ हद तक कम हो सकते है। यशपाल इसीलिए अपने उपन्यासों में स्त्री के शरीर से जुड़े अधिकार और स्वतंत्रता के पक्षधर दिखायी देते है। दूसरी बात स्त्री के लिए गर्भ धारण एवं मातृत्व बाधा के रूप में यशपाल ने माना है जिसके पीछे वे यह दिखाना चाहते है कि किस प्रकार समाज एक स्त्री को उसके विवाह के बिना गर्भधारण करने पर उसे दोषी मानता है तथा विवाह के बाद यदि वह गर्भ धारण नहीं करती है तब भी उसे दोषी मानता है। जिस कारण स्त्री के लिए दोनों ही परिस्थितियों में जीना मुश्किल हो जाता है। उसे इस क्षेत्र में कोई स्वतंत्रता नहीं है। जबकि स्त्री का तो स्वभाव ही है कि वह निर्माण करे। वह यदि माँ नहीं भी बनती है तब भी उसके मन में ममता रहती है। वह अपनी ममता केवल माँ बनकर ही नहीं बल्कि बहन, बेटी, पत्नी, भाभी इत्यादि रूपों में दिखाती है। फिर क्यों समाज उसके मातृत्व से जुड़े अधिकारों मे अपना अंकुश लगाए? दूसरी बात कि यदि विवाह के बाद स्त्री माँ बनती है तो उसका ध्यान पूरा-पूरा अपने शिशु के लालन-पालन में होता है। तबभी पुरुष अपनी स्त्री को उसके प्रति उपेक्षित रहने के लिए कोसता है। यानी दोनों ही तरफ स्त्री के लिए हार। जो कि स्त्री के प्रति अन्याय है। दिव्या में  दिव्या का अपने मातृत्व की रक्षा करना यशपाल की ही विचारधारा का परिणाम है। अंत में दिव्या जिस प्रकार रुद्रधीर के प्रस्ताव का उत्तर देती है वह भी यशपाल की ही विचारधारा है।
अंत में यह कहाँ जा सकता है कि भारतीय समाज की संरचना का भी इस उपन्यास में विश्लेषण किया गया है। भारतीय समाज दो स्तरों पर विखंडित समाज दिखायी पड़ता है। प्रथम स्तर है जातिवाद और दूसरा स्तर है लिंगवाद। यहाँ उच्च और नीच का विभाजन जाति के आधार पर ही होता है। व्यक्ति के अपने गुण, धर्म और कर्म का कोई महत्व नहीं होता। जातिवाद का यहाँ बड़ा कठोर नियंत्रण है। दिव्या उच्च कुल में उच्च जाति में उत्पन्न हुई है इसीलिए वह सहज ही सम्माननीया हो जाती है। लेकिन जैसे ही वह एक क्षुद्र पुरुष के संसर्ग से गर्भवती बनती है तो उसके ऊपर अत्याचारों का सिलसिला आरंभ हो जाता है। यह अत्याचार इसलिए नहीं होती है कि वह अनब्याही गर्भवती है अपितु इसलिए भी होती  है कि वह एक क्षुद्र पुरुष के संसर्ग से गर्भ धारण करती है। जातिवाद की ही तरह यहाँ लिंगभेद भी अपनी चरम सीमा पर है। इस देश में भले ही यत्र नारीयस्तु पूज्यंतेघोषणा की है तथापि नारी यहाँ दूसरे दर्जे की नागरिक है। दिव्या के साथ यही कुछ होता है। इसीलिए दिव्या अपनी अस्मीता, अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ती है और उसे प्राप्त करती है।

वस्तुतः यशपाल अपने उपन्यास में दिव्या के चरित्र, उसके विचार तथा उसके स्वतंत्र रहने की भावना के जरिए समाज को यह बताना चाहते है कि स्त्री कोई किसी की संपत्ति नहीं है बल्कि पुरुष के समान वह भी ईश्वर की एक स्वतंत्र निर्माण है।  उसे भी ईश्वर ने अपनी ही तरह निर्माण करने की शक्ति प्रदान की है। अतः उसके साथ जो कुछ भी अब तक होता आया है दरसल वह न केवल स्त्री समाज के प्रति अन्याय है बल्कि ईश्वर के द्वारा निर्मित की गयी शक्ति का भी विरोध है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए की स्त्री को प्रकृति कहा गया है। तथा प्रकृति में इतनी शक्ति है कि वह एक ही पल में सभ्यता को मिट्टी में मिला सकती है। यदि सभ्यता को जीवित रखना है तो पुरुष को प्रकृति का साथ देना होगा, उसे स्वतंत्र रखना होगा ताकि वह सही रूप में रह सके न कि उसे अपने अधीन करके उसका दुरूपयोग करना। पुरुष और प्रकृति साथ-साथ चले तभी जीवन सफल होगा।
   



संदर्भ :
1)              दिव्या, यशपाल, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण- 2012, पृ.सं 92
2)              वही, पृ.सं 93
3)              वही, पृ.सं 63
4)              आधुनिक हिन्दी साहित्य मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन जबरीमल्ल परख, अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा) लिमिटेड, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2004, पृ.सं114.
5)              दिव्या. , पृ.सं 157
6)              आधुनिक हिन्दी साहित्य., पृ.सं 119