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बुधवार, 15 मई 2019

तुलसीदास की दोहावली में मानवीय मूल्य।



गोस्वामी तुलसीदास भक्तिकाल के उन महान कवियों में से एक हैं जिन्होंने जन-मानस के मन में भक्ति की अलख जगाकर समाज को एक नई दिशा प्रदान की। उनकी समन्वयवादी रचना, उत्तम विचार तथा भक्ति की तल्लीनता ने न केवल उस समय के लोगों को भक्ति मार्ग की ओर आकृष्ट किया बल्कि आज भी उनके द्वारा लिखित रचनाओं को जो कोई भी पढ़ता है तो वह स्वयं ही भक्ति से परिपूर्ण संसार में अपने-आप ही चला जाता है। एक कवि के लिए इससे बड़ी सफलता की बात और क्या होगी यदि उसकी रचना पढ़कर पाठक की लोकोत्तर चेतना जाग उठे और वह दिखाई देने वाले संसार में रहते हुए भी भक्ति भावना से समृद्ध रचना के द्वारा वह ईश्वर के समीप होने का आनन्द पा सके।
मानव मूल्य का अर्थ क्या है?
सृष्टि के प्रारम्भ से ही मनुष्य को जीने के लिए संघर्ष करना पड़ा है। इस संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि मनुष्य को मिलजुल कर रहने एवं एकतृत रहने की प्रयोजनियता का अनुभव हुई । मनुष्य तथा प्राणी जीवन काल की सीमाबद्धता, अनिश्चयता एवं प्रकृति की अप्रतिरूद्ध क्षमता के सामने मनुष्य की शक्ति की तुच्छता के ज्ञान से मनुष्य के मन में भय तथा संभ्रम का उदय हुआ। प्रकृति के इस अदम्य शक्ति के सामने मनुष्य का आत्म समर्पण करने के सिवा और कोई उपाय नहीं था। मनुष्य की यह धारणा हुई कि अदम्य शक्ति का नियंत्रणकर्ता ही इस संसार का सृष्टिकर्ता है। अतः मनुष्य ने सृष्टिकर्ता को तुष्ट करने के लिए उनके आगे आत्मसमर्पण किया। इस आत्मसमर्पण की भावना को भक्ति कहते है । साथ-ही-साथ मनुष्य ने यह भी देखा कि एक सुश्रृंखल एवं नियमानुवर्तित समाज के बिना मानव के कल्याण तथा प्राकृतित विपर्यय से भी अपने-आप की रक्षा करना कठिन है। इस प्रकार धीरे-धीरे सामाजिक जीवन की सृष्टि हुई। सामाजिक जीवन में जीना और दूसरों को जीने देना, इस सिद्धान्त को  ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत तथा सामुहिक उन्नति के गुण को ही मानव-मूल्य कहा जाता है। इसमें प्रथम मूल्य है अपनापन। अपनेपन के बिना सहनशीलता नहीं जन्म लेती है। परन्तु यही सबसे बड़ी विषय-वस्तु है। सबसे अधिक आश्चर्य की बात है कि आज के समय में लोग जानते समझते हुए भी अनदेखा कर देते हैं परन्तु यह सत्य है कि हम अपनो की किसी भी बात का बुरा नहीं मानते, अपनो की बातों को अच्छी तरह समझते भी है तथा अपनो द्वारा दिए गए परामर्श को भी अपना लेते हैं। लेकिन घर की सीमा या परिधि लांगने के बाद यह कुछ तक ही सीमित रह जाती है। दूसरों के मामले में यही अपनेपन का भाव नहीं रहता है। परन्तु जब समाज के सभी व्यक्तियों में यह अपनेपन की भावना घर के बाहर के लोगों के लिए भी रहेगी तभी सहनशीलता का गुण भी जन्मेगा और उस सहनशीलता से एक सुन्दर समाज की रचना हो सकेगी। सहनशीलता के बिना व्यक्ति समाज में अन्य व्यक्तियों का सुझाव या समाधान को जान नहीं पाता एवं सठिक सिद्धान्त ले नहीं पाता है, और इसके लिए दूसरा जरूरी मूल्य है सहनशीलता। यदि व्यक्ति समाज के अन्य व्यक्तियों को अपना नहीं समझते हैं तो दूसरों के बात को सठिक मूल्य नहीं दे पाते हैं तथा प्रयोजनानुसार इन बातों का सदुपयोग नहीं कर पाते हैं। इस प्रकार अपनेपन से सहनशीलता जन्मती है तथा उससे सामुहिक विचारधारा उत्पन्न होती है।
हर सिद्धान्त के पीछे एक ही बात होनी चाहिए ‘जीने और जीने देना’। जब व्यक्ति जीने और जीने देने का सिद्धान्त को अपना लेगा तब हर व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार जीवन को विकसित कर सकेगा। हमारे प्राचीन ऋषियों ने भी इसी अपनेपन की भावना को एक बहुत सुन्दर उक्ति प्रदान की है, वह है ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ केवल एक नारा नहीं है बल्कि इसका वास्तविक तात्पर्य है कि समग्र संसार को यदि अपना समझा जाय तो एक अपनापन जगेगा, एक भातृभाव का जन्म होगा और उसी से, जैसे हम अपने सगे की सहायता करते हैं, उसी प्रकार हम दूसरों की भी सहायता कर सकते हैं उन परिस्थितियों में जब जरूरत होगी। क्योंकि मानव जीवन ऐसा है जिसमें कभी-न-कभी परिस्थितियाँ प्रतिकूल हो सकती है, अनेक समस्याएँ आती है जिसके बारे में हम पहले से कुछ नहीं कह सकते हैं। परन्तु ये सिद्धान्त तभी सठिक होगा जब व्यक्ति के मन में दूसरे के प्रति अपनेपन की भावना रहेगी। अतः मानव मूल्य में अपनापन ही सबसे जरूरी बात है जिससे मनुष्य के मन में सहानुभूति, दया, माया, ममता, संवेदनशीलता का जन्म होता है। वही जब मानव-मूल्य किसी व्यक्ति के मन में जग जाता है तो फिर वह किसी भी परिस्थिति में अपना संयम खोय बिना भी न्याय कर पाता है।
भक्ति और मानव मूल्य का सम्बन्ध।
भक्ति तथा मानव-मूल्य दोनों एक-दूसरे के परिपूरक है। जिसमें मानव-मूल्य नहीं है वह भक्ति मार्ग पर भी नहीं जा सकता। जिसने भक्ति का रास्ता चुना है वह अपने आप ही महा-मानव की भूमिका में आ जाता है तथा इनमें सारे मानव-मूल्य अपने-आप ही विकसित हो जाता है। क्योंकि भक्तिमार्गी व्यक्ति हरेक प्राणी में सृष्टिकर्ता की शक्ति को अनुभव करने लगता है। अतः प्रत्येक प्राणी ही भक्ति मार्ग के लिए एक ही बिरादरी का हो जाता है। भक्ति तथा मानव-मूल्य की परिपूरकता को समझने के लिए रत्नाकर दस्यू का ऋषि वाल्मीकि में रूपायन एक सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। रत्नाकर जब तक दस्यू तब तक उसमें न मानव-मूल्य था न ही भक्ति भावना थी। परन्तु जब रत्नाकर ने नारद मुनि के उपदेश से भक्तिमार्ग में चलना शुरू किया तब मानव-मूल्य उनमें अपने आप ही विकसित हो गया। कालान्तर में वही प्रसिद्ध दस्यू रत्नाकर महाऋषि वाल्मीकि के रूप में प्रसिद्ध हुए।
तो यहाँ स्पष्ट हो जाता है कि भक्ति मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति मानवता के रास्ते पर स्वतः ही चलने लगता है।
मानव-मूल्य की आवश्यकता।
मानव-मूल्य की सबसे बड़ी आवश्यकता समाज तथा देश के लिए होती है। जिस समाज के लोगों में मानव-मूल्य होता है वह समाज सही रास्ते पर चलता है तथा उस देश का भी विकास होता है। जहाँ मानव-मूल्य नहीं होता वहाँ विकास नहीं केवल विनाश होता है।

तुलसीदास जी की रचना दोहावली में मानव-मूल्य।
गोस्वामी तुलसीदास के साहित्य में श्रीराम सबसे मुख्य विषय है। तुलसीदास जी भक्तिकाल के राम भक्ति शाखा के प्रमुख कवियों में से एक हैं। उनका समग्र साहित्य श्रीराम की भक्ति को समर्पित है। ये श्रीराम न केवल दशरथ पुत्र राम है बल्कि समस्त संसार का सृजन करने वाले राम है। अतः उनकी दोहावली में अंतर्निहित मानवीय मूल्य को जानने के लिए श्रीराम को जानना समझना बहुत आवश्यक है। श्रीराम को सदा से ही भगवान विष्णु का अवतार माना गया है। वे दशरथ पुत्र थे, अयोध्या के राजा थे, पूरे संसार को कष्ट पहुँचाने वाले रावण का नाश करने वाले, देवी सीता की रक्षा करने वाले तथा दुखियों के दुखों के दूर करने वाले श्रीराम की महिमा का गुणगान तुलसीदास की रचना में भरपूर हुआ है। श्रीराम के व्यक्तित्व की ओर ध्यान दे तो निम्नलिखित बातें सामने आती है।
. श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से जाना जाता है।
. श्रीराम पितृभक्त थे, यही कारण हैं कि अपने पिता के वचनों का पालन करने के लिए वे 14 वर्ष का वनवास काटने चले गए थे।
. श्रीराम चाहते तो वे वनवास नहीं जा सकते थे, क्योंकि उनपर किसी प्रकार का दबाव नहीं था, परन्तु उन्होंने अपने पिता के सम्मान की रक्षा हेतु वन जाना स्वीकार किया। जब उनके भाई भरत उन्हें लेने चित्रकुट आए तब वे इस बहाने से वापस लौट सकते थे परन्तु अपने पिता के वचनों की मर्यादा का पालन करते हुए उन्होंने वनवास को ही चुना।
. श्रीराम को वनवास भेजने वाली माता कैकयी थी परन्तु श्रीराम स्वभाव से इतने कोमल तथा दयालु थे कि उन्होंने माता कैकयी को क्षमा कर दिया था। केवल इतना ही नहीं, उनके मन में माता कैकयी के प्रति गहरी श्रद्धा तथा प्रेम भरा हुआ था।
. श्रीराम स्वभाव से प्रेमी थे, देवी सीता को अपने साथ वन में ले जाना उनके पति धर्म का ही एक उत्कृष्ट उदाहरण है। क्योंकि जिस प्रकार पति की सेवा तथा दायित्व पत्नी का धर्म है उसी प्रकार पत्नी के प्रति दायित्व पति का भी है। श्रीराम देवी सीता को महल में अकेले छोड़ नहीं सकते थे, वही देवी सीता भी राम के साथ वन में जाने के लिए तैयार थी।
. देवी सीता को वनवास देने के बावजूद भी श्रीराम ने एक पत्नी धर्म का पालन किया जो कि उस समय एक बहुत बड़ी बात थी। राम के समकालीन अन्य राजाओं ने अनेक विवाह किए थे परन्तु श्रीराम ने अपने भाईयों तथा समाज के सामने सबसे सर्वोत्तम उदाहरण रखा।
. श्रीराम जब वन में थे तो उन्हें ऐसे भी कई राजाओं का समर्थन मिला जो सहर्ष अपनी राजगद्दी उन्हें सौंप देना चाहते थे। जैसे कि निषाद राज तथा सुग्रीव। परन्तु श्रीराम ने अपने पिता के वचनों का पालन करते हुए 14 वर्ष वन में ही कांटे। किसी भी राज्य में या गांव तक में भी प्रवेश नहीं किया। अपनी मर्यादा में रहकर वन में अपने सामर्थ्य से जीते रहे।
. श्रीराम के पास जितनी शक्ति थी उससे वे किसी भी राज्य को जीत सकते थे एवं उनके राजा बन सकते थे। परन्तु उन्होंने अपना संयम नहीं खोया। उन्होंने वन में राक्षसों का वध करके वन में रहने वाले ऋषिमुनियों की रक्षा की। श्रीराम ने बाली, रावण जैसे दुराचारियों का वध एक राजा की हैसियत से किया क्योंकि उस समय उनके लिए जंगल में रहने वाली प्रजा ही उनके अपने थे। परन्तु फिर भी अपनी मर्यादा का पालन करना उन्होंने नहीं छोड़ा। बाली का वध करके बाली के पुत्र अंगद को उसका राज्य सौंप दिया, सुग्रीव के साथ न्याय किया तथा रावण का वध करके उन्होंने लंका पर अधिकार नहीं किया बल्कि रावण के भाई विभिषण को राज्य सौंप दिया।
. श्रीराम के मन में ऊँच-नीच की भावना भी नहीं थी। तभी उन्होंने शबरी के झूटे बेर खाकर समाज में जाति-भेद से परे एक अलग समाज के होने का आदर्श प्रस्तुत किया।
यहाँ हम देख सकते हैं कि इतनी विपरीत परिस्थिति तथा उत्तेजनात्मक परिवेश में भी राम ने अपनी मर्यादा नहीं छोड़ी। अपने पिता के वचनों का पालन करते हुए वनवास को संयम के साथ पालन करते रहे। यह तो थी लौकिक राम की विशेषताएँ परन्तु तुलसीदास के श्रीराम न केवल लौकिक है बल्कि अलौकिक भी है। यह वह श्रीराम है जो समस्त सृष्टि के सृजनकर्ता है। दुखियों के दुख दूर करने वाले, सांसारिक प्राणी को जन्म-जन्मान्तर के चक्रव्यू से मुक्ति देकर मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। इस प्रकार न जाने कितनी ऐसी विशेषताएँ हैं जिन्हें गोस्वामी तुलसीदास ने अपने सम्पूर्ण रचनाओं में स्थापित किया है। राम के आदर्शों को लोगों के सामने स्थापित करने का मूल कारण भी यही था कि समाज में राम के चरित्र के समान आम लोग भी उनके जैसे अच्छी बातों का अनुसरण करें। इतना ही नहीं बल्कि राम के आदर्शों का अनुसरण के साथ-साथ राम की भक्ति पर भी ध्यान देते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपनी सभी रचनाओं में श्रीराम के आदर्शों तथा उनकी मर्यादा को भली भांति उजागर किया है। तथा जैसे कि हम पहले कह चुके हैं कि मानव-मूल्य का अर्थ अपनापन है तथा उससे जनित भक्ति भी मानव-मूल्य है। अतः तुलसीदास रचित भक्तिकाव्य को मानव-मूल्य का काव्य कहा जा सकता है। दूसरी बात यहा कहना जरूरी है कि भक्तिकाल में जितने भी कवि हुए है वे सभी मानव-मूल्य से भरे हुए महा-मानव थे। यही कारण है कि उन्होंने पूरे समाज में अपनी भक्ति द्वारा मानव-मूल्य को स्थापित करने के लिए अपनी रचनाओं द्वारा सफल प्रयास किया है।
तुलसीदास की दोहावली में राम नाम का जाप तथा उनका स्मरण करना प्रमुख है। अपने प्रथम दोहे से ही वह राम नाम के जप की महिमा  के बारे में बताते हुए कहते हैं कि भगवान श्रीराम अपनी पत्नी सीता तथा भाई लक्षमण के साथ चित्रकूट में सदा निवास करते हैं। उनका नाम जो भी जाप करता है भगराम राम उसकी हर इच्छा पूरी कर देते हैं, उसे उसकी इच्छानुसार फल प्रदान करते हैं। इसी प्रकार अपने एक और दोहे हैं भी राम नाम के जप की अनिवार्यता को दर्शाते हुए कहते हैं कि --
बिगरी जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु।
होहि राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु।।1
इस दोहे में तुलसीदास लोगों को यह संदेश दे रहे हैं कि यदि अपने कई जन्मों की बिगड़ी हुई को सुधारना चाहते हो तो कुसमाज को त्यागकर राम नाम को जपना शुरू कर दो। विशुद्ध भक्तिमत के अनुसार तो इसमें राम की शरण में जाने के लिए कहा गया है। यहाँ पर मानव-मूल्य की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि जिस प्रकार श्रीराम ने मानवीय मूल्यों का पालन किया है, मर्यादा का पालन किया है उसी प्रकार लोगों को भी श्रीराम के आदर्शों का पालन करना चाहिए। राम नाम का जाप करने का अर्थ ही यही है कि राम के आदर्शों पर चलो। जैसे राम ने कुसमाज को सदा अपने से दूर रखा उसी प्रकार हमें भी अपने-आप को कुसमाज से दूर रखना चाहिए तथा भक्तिमार्ग की ओर चलना चाहिए। दूसरी बात कुसमाज का अर्थ क्या है आज के युग में लोग भली-भांति जानते हैं।
उसी प्रकार तुलसीदास जी का एक और दोहा ले लिया जाए जिसमें उन्होंने एक बहुत ही सुन्दर संदेश दिया है। लोगों को किसी भी महत्वपूर्ण कार्य करते समय यदि प्रसन्नता का भाव ना हो तो उस कार्य का कोई फल नहीं मिलता है। यथा
रामहि सुमिरत रन भिरत देत परत गुरू पायँ।
तुलसी जिन्हहि न पुलक तनु ते जग जीवत जायँ।।2
इस दोहे में तुलसीदास जी जो संदेश देना चाहते हैं वह बहुत स्पष्ट है कि यदि धर्मयुद्ध हो तब शत्रु का सामना करते समय, किसी को दान देते समय या फिर गुरू के चरणों में प्रणाम करते समय यदि प्रसन्नता नहीं होती है तो फिर उस काम को करने का कोई मतलब नहीं है। प्रसन्नता कैसे आती है। जब हम किसी को अपना समझते हैं तो उसके लिए कुछ करते हैं तो प्रसन्नता का भाव आता है। यही तो मानव-मूल्य है। किसी भिखारी को दान देने से पहले यदि उस भिखारी को अपना समझा जाय तो उसे कुछ देते समय अपने-आप प्रसन्नता जागेगी। उसी प्रकार गुरू जो कि हमें अपना समझकर ज्ञान प्रदान करते हैं यदि उनके प्रति हमारे मन में अपनेपन की भावना रहेगी तभी उनके चरणों को स्पर्श करते हुए प्रसन्नता आएगी। अपनेपन की भावना से ही प्रसन्नता का भाव जन्म लेता है। परन्तु यदि कोई प्रसन्नता को भाव बिना ये कर्म करता है तो उसमें मानव-मूल्य नहीं है।
तुलसीदास जी इसी प्रकार राम राज्य की महिमा की वर्णन करते हुए कहते हैं।
राम राज राजत सकल धरम निरत नर नारि।
राग न रोष न दोष दुख सुलभ पदारथ चारि।।3
अर्थात् राम के राज्य में रहने वाले सभी लोग अपने धर्म का पालन करते हैं। किसी के मन में किसी के प्रति क्रोध, द्वेष, दुख आदि जैसी भावनाएँ नहीं है। सबको धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सहज ही प्राप्त हो जाता है। इसके पीछे एक विराट अर्थ छिपा हुआ है। जो लोग अपने कर्म पर ध्यान देते हैं तथा उसे ही सही रखकर जीने की सोचते हैं उसे अन्य किसी से बैर करने की जरूरत नहीं पड़ती है। वर्तमान समय में यह बात भारतीय समाज के सभी वर्गों तथा धर्मों के लोगों को जानना समझना बहुत जरूरी है। वैसे भी सबसे बड़ा धर्म है मानवता। और मानवता तभी पनपती है जहाँ हर कोई एक-दूसरे के साथ बिना किसी झगड़े, द्वेष तथा क्रोध, के रह पाते हैं। वहाँ मानव समुदाय का विकास होता है। वहाँ मानवता का विकास होता है।
मानव मूल्य की यदि बात की जाय तो उसमें सबसे बड़ा शत्रु होता है अभिमान। अभिमान या अहंकार किसी भी व्यक्ति के मन में पनपने से उसे समस्त अच्छे गुणों का सर्वनाश होने लगता है। तब व्यक्ति न केवल अपने परिजनों के लिए बल्कि समाज के लिए भी हानीकारक हो जाता है। यह अहंकार ही है जो किसी भी मनुष्य को, जाति को, समाज को, देश को बर्बाद कर सकती है। जैसे की रावण, कंस, जरासंध, दूर्योधन आदि का अंत हुआ था। ऐसे ही पूरे संसार में अनेक ऐसे उदाहरण मिलेंगे जिसमें अहंकार के कारण कई साम्राज्य बने और बिगड़े। तुलसीदास जी अहंकार के विरुद्ध अपनी दोहावली में कुछ ऐसे लिखते हैं –
हम हमार आचार बड़ भूरि भूरि धरि सीस।
हठि सठ परबस परत जिमि कीर कोस कृमि कीस।।4
अर्थात् जिस व्यक्ति में इस बात का अभिमान होता है कि हम बड़े है, हमारा आचार बड़ा है ऐसा अभिमान हमारे सिर पर इतना बोझ बन जाता है और हम तब मूर्ख तोते, रेशम के कीड़े और बंदर की भाँति स्वयं को बंधनों में बंधकर पराधीन हो जाते हैं। वस्तुतः अभिमान वश व्यक्ति हमेशा यही सोचता कि वह सबसे आजाद है उसके ऊपर कोई नहीं है, केवल वही एक मात्र है जो सबसे ऊपर और श्रेष्ठ है। परन्तु वह अपने अभिमान के अधीन होता है तथा लोगों के नज़रों में भी गिर चुका होता है। इसलिए प्राचीन काल से ही लोगों को अहंकार से दूर रहने की शिक्षा दी जाती रही है।
तुलसीदास जी के अनेक दोहों में उन्होंने इसी प्रकार राम नाम की महिमा तथा राम के प्रति अपने अगाध प्रेम को उजागर किया है। वे यह भी कहते हैं कि जिनके हृदय में श्रीराम का यशोगान सुनकर श्रीराम के प्रति प्रेम नहीं जगता तथा हृदय द्रवित नहीं होता वह हृदय वज्र की तरह कठोर है। तुलसीदास जी के लिए श्रीराम ही अंतिम गति है। यह सारी बाते इसी ओर इशारा करती है कि जिस व्यक्ति ने अपने सम्पूर्ण जीवन में मानव-मूल्य को धारण करके अपना जीवन जिया ऐसे व्यक्ति के प्रति मन में प्रेम और श्रद्धा होना भी एक प्रकार का मानव-मूल्य ही है। तुलसीदास जी ने इसी प्रकार रामभक्तों के बारे में परिचय दिया है जो कि मानव-मूल्य का एक और सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है –
हित सो हित रति राम सों, रिपु सों बैर बिहाउ।
उदासीन सब सों सरल तुलसी सहज सुभाउ।।5
तुलसीदास जी रामभक्त के लक्षण बता रहे हैं कि रामभक्त को कैसा होना चाहिए। रामभक्त को सहृदय तथा क्षमावान होना चाहिए। श्रीराम से उसका प्रेम होना चाहिए। मित्र से मैत्री तथा शत्रुओं को क्षमा करने की क्षमता होनी चाहिए। वह किसी के साथ पक्षपात् न करे था सबसे साथ प्रेम तथा सरल व्यवहार करे। यहाँ प्रेम, क्षमा, मैत्री, दया आदि गुण मानव मूल्य है। इन्हीं गुणों के रहने से व्यक्ति में मानव-मूल्य बना रहता है जिसकी तुलसीदास जी अपने इस दोहे में वर्णना कर रहे हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि तुलसीदास जी के प्रत्येक रचना में मानव-मूल्य का भण्डार भरा पड़ा है। उनकी सबसे उत्कृष्ट रचना रामचरित मानस में जिस प्रकार आदर्श मनुष्य के गुण की व्याख्या हुई है उसी प्रकार उनकी दोहावली में भी वही भावना भरी पड़ी हुई है फिर भले ही वह भक्ति एवं नीति वाले दोहे ही क्यों न हो। वस्तुतः मानव-मूल्य के लिए भक्ति एवं नीति दोनों की आवश्यकता है। जो मनुष्य है वह भक्ति भी करता है तथा जीवन जीने के लिए नीति का प्रयोग भी करता है। अतः ये दोनों ही मानव-मूल्य के अभिन्न अंग कहे जा सकते हैं।

संदर्भ ग्रंथ
1 तुलसी दोहावली – संपादन –राघव ‘रघु’, प्रभात प्रकाशन, 2012, पृ,सं –23।
2 वही पृ,सं –25।
3 वही पृ,सं –40।
4 वही पृ,सं –48।   
5 वही पृ,सं –31