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मंगलवार, 21 मई 2013

धामाइल ( सिलहठी बांग्ला लोक गीत एवं लोक नृत्य )




कॉलिरकाल बुझिते ना पारी। दुखे मरि!
कॉलिरकाल बुझिते ना पारी

कॉलिरकालेर बउझियारी तारा करे बाबू गिरि
चोखे चश्मा हाथे लागाये घड़ी। दुखे मरि!
कॉलिरकाल बुझिते ना पारी।

बेला दश्टा बाझले परे टावेल शाबान हाथे निये
स्नान करिया आशलो तारातारी। दुखे मरि!
कॉलिरकाल बुझिते ना पारी।

स्नान कॉरिया आशिया शाशुरी के डाकिया
देओगो आमार शाया, ब्लाउज, शाड़ी। दुखे मरि!
कॉलिरकाल बुझिते ना पारी।

बधू जोखोन खावाय बोशे
शाशुड़ीये मोशला बाटे
पाक करिया देओगो तारातारी। दुखे मरि!
कॉलिरकाल बुझिते ना पारी।

खावा दावा शेश कॉरिया
पालंकेते शोइया शोइया
देओगो आमार शाइठ पानेर खिलि। दुखे मरि!
कॉलिरकाल बुझिते ना पारी।

                धामाइल बराक घाटी (असम) की सबसे जनप्रिय लोक नृत्य है। इसका उद्भव बांग्लादेश के सिलहट प्रान्त से हुआ। इसके जन्मदाता श्री राधा रमन दत्त (1833-1915) माने गए है जो कि सिलहठी बांग्ला के प्रसिद्ध लोक गीतकार थे। धामाइल गीत सिलहठी बंग्ला समाज की सबसे बड़ी विशेषता है। यद्यपि ये आजकल के समय में शहरी अँचलों में लुप्त होती जा रही है परन्तु ये अभी भी ग्रामीण इलाको में प्रचलित है। एक समय था जब धामाइल यहाँ के हर पूजा-पर्व एवं अनुष्ठानों में आवश्यक था। विवाह, अधिवास[1], फ़िराजात्रा[2], जनेऊ, दुर्गा-पूजा, अन्नप्राशन, साधुभोज जैसे अवसरों पर ये गीत अनिवार्य रूप से स्त्रियाँ गाती एवं नृत्य करती है। ये गीत ज्यादातर राधा और कृष्ण से जुड़े होते है। इन गीतों की खासियत यह है कि इनमें कही गयी बातों का अर्थ सीधे-सीधे उसी से सम्बन्धित होता जिसको आधार बनाकर गीत गाया जा रहा हो तथा गीत के मायने जो भी हो, परन्तु सभी इसका भरपूर आनन्द उठा सकते है। प्रत्येक त्योहार के लिए अलग-अलग तरह के धमाइल गीतों की व्यवस्था है। जैसे उपरोक्त गीत ये विवाह के अवसर पर गाने वाला गीत है। ये तब गाया जाता है जब नयी दुल्हन अपने ससुराल आती है तथा उसके साथ छेड़खानी के उद्देश्य से घर की अन्य स्त्रियाँ यह गाती है। इस गीत में  आधुनिक बहू बनाम घरेलु सास का बड़ा ही रोचक वर्णन हुआ है। एक सास दूसरी स्त्री से अपनी बहू की शिकायत कर रही है कि कलियुग का समय मुझे समझ में नहीं आता। हाय रे मैं तो दुख से मरी जा रही हूँ। हाय रे ये कैसा कलयुग आया है। आजकल की नयी नवेली दुल्हने देखों कैसे हमारे सामने दादा गिरि करती है। हाथ में घड़ी और आँखों चश्मा लगाकर घुमती है। दिन के दस बजने पर ये नहा-धोकर आती है और बेशर्मी से अपनी सास से कहती है कि मेरी साड़ी, ब्लाउज इत्यादि दो। जब वह खाना खाने बैठती है तो सास मसाला पिसती रहती है। तब वधू बेशर्मी से सास को जल्दी-जल्दी खाना बनाकर देने के लिए कहती है। खाना खत्म करने के बाद वे अपने पलंग पर लेटे-लेटे अपनी सास को हुक्म देती है कि मुझे साठ पान की खिलियाँ बनाकर दो। लेकिन ऐसा नहीं है कि इन गीतों में संस्कृति एवं परम्परा की कट्टरता नज़र आए। बल्कि आनन्द के साथ नयी संस्कृति एवं सोच को भी अपनाया जाता है। धामाइल की खासियत यह है कि भले ही अलग-अलग त्योहारों के लिए अलग-अलग गीतों की व्यवस्था हो परन्तु एक ही गीत या एक ही प्रकार के गीत नहीं गाए जाते है बल्कि गीतों की भरमार लगी ही रहती है तथा नए समय के हिसाब से गीत बनते जाते है।

                धामाइल नृत्य स्त्रियों द्वारा किया जाता है जिसमें 10-15 स्त्रियाँ घर के किसी खाली कोने में या आंगन में वृत्ताकार होकर घूमती है और केवल तालियों द्वारा गीत को लय प्रदान करती है। कभी-कभी अपवाद स्वरूप करताल का भी प्रयोग होता है। शहरों में धामाइल में वाद्ययंत्र का प्रयोग आजकल के समय में होता है। परन्तु इसमें वाद्ययंत्र की कोई भूमिका नहीं होती है। आरम्भ में समूह की प्रधान इस गीत को अकेले शुरू करती है तथा बाद में बाकी स्त्रियाँ इसे कोरस प्रदान करती है। गीत की शुरूआत धीमे-धीमे होती है और नृत्य भी धीमे-धीमे किया जाता है। बाद में इसमें गति आती है और फिर इसे तेज गति के साथ ही समाप्त किया जाता है। थोड़े से अंतराल के बाद दूसरा गीत भी इसी प्रकार शुरू किए जाते हैं। धामाइल की एक और खासियत यह है भाटियाल एवं उल्टा भाटियाल। इसमें नृत्य करने वाला दल दो भागों में बंट जाता है और परस्पर दोनों दल गीत गाते-गाते बिलकुल सम्मुख आकर नृत्य करते है फिर उसी प्रकार दोनों एक-दूसरे से दूर भी हो जाते है। जब दोनों सम्मुख होते है तो उसे भाटियाल कहते है तथा जब वे दूर होते है तो उसे उल्टा भाटियाल कहा जाता है। इस नृत्य को करने वाली गीत के प्रारम्भ में हाथों से एक ताली देती है फिर गाने में चरम गति में या अन्त में दो ताली, तीन ताली, चार ताली क्रमागत रूप से देती है और चरम गति पर पहुँचने पर जाकर यह गीत समाप्त होता है। गीत के समाप्त होने पर स्त्रियाँ उलूध्वनि[3] या मंगलध्वनि करती हैं। धामाइल की एक और खासियत यह है कि इस गीत में व्यक्ति विशेष को केन्द्र में रखकर गीत गाया जाता है। इसलिए इसमें साली, भाभी, दादी, नानी सम्बन्ध में आने वाली स्त्रियाँ अंशग्रहण करती है। परन्तु इसका नियम यह है कि जिसे लक्ष्य करके गीत गाया जाता है उसकी मा-काकी या मामी इस गीत में हिस्सा नहीं ले सकती है। ये नियम विवाह के समय चलता है। अन्य पर्वों में इस नियम की आवश्यकता नहीं होती। जैसे शिशु के अन्नप्राशन में उसकी माँ-मासी-बुआ-दीदी-दादी-काकी-नानी सभी हिस्सा ले सकती है।
               
                और यदि प्रेम की बात हो तो राधा-कृष्ण के प्रेम की अभिव्यंजना इन गीतों में बहुत आत्मीय रूप से नज़र आती है जैसे ये गीत है--
कुल मान आर जायेना राखा
बाशिये डाके राधा-राधा
ओ शोखि गो
कुन बोने बाजाय गो बाशि
जाओगो तोरा
बाजले बाशि बाधा दिओना (एगो)
बाशिर शूरे प्राण उड़िया जाय
उड़ाल प्राण ओ बाशिये डाके राधा-राधा

ओ शोखि गो
प्रेम करिस्लाय शादे-शादे
एखोन प्रेम बुझि आर भालो लागेना
(भाई रे) महिन्द्रए कोए बाशिर दूष नोए
कोरमोर दूषे ए बाशिये डाके राधा-राधा
                इस गीत में राधा का कृष्ण के प्रति प्रेम और उसकी सखियों द्वारा उसे इस बात पर चिढ़ाये जाने की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। राधा कह रही है कि अब वह अपना कुल और मान बचाके रख नहीं सकती क्योंकि मोहन की बाँसुरी राधा-राधा पुकारने लगी है। वह अपनी सखि से कह रही है कि हे सखि जरा ध्यान से सुनके बताओं की कौन से वन में कृष्ण बाँसुरी बजा कर राधा-राधा पुकार रहे हैं। हे सखि जरा तुम वहाँ जाना तो उन्हें बाँसुरी बजाने से रोकना मत। हे सखि बाँसुरी के स्वर से मेरे प्राण उड़े जा रहे हैं। राधा को अब उसकी सखियाँ मज़ाक में ताना देते हुए कह रही है कि हे राधा जब प्रेम किया था तो प्रेमरस का स्वाद बहुत आनन्द से ले रही थी। अब क्या हुआ तुम्हें? क्या अब प्रेमरस में वह स्वाद नहीं है या तुम्हें और अच्छा नहीं लगता प्रेम करना। कवि महिन्द्र कहते हैं कि बाँसुरी का कोई दोष नहीं, बल्कि कर्म दोष के कारण वह राधा-राधा पुकार रहा है। हे राधा तुमने जो कृष्ण से प्रेम करने का जो कर्म किया है उसका कु-फल(सु-फल) है कि ये बाँसुरी राधा-राधा पुकार रही है।

                उसी तरह एक गीत और है---

                ना ना ना नागो       
                बॉन्धु बिने प्रान बाचे ना
                आमि रोबोना-रोबोना[4] गृहे
                बॉन्धु बिने प्रान बाचे ना

                बॉन्धु बिने नाई शे गोति
                किबा दिबा किबा राति
                जोलोन्तो आगुनि निबेना
                ना ना ना नागो
                बॉन्धु बिने प्रान बाचे ना
               
घोरे आसे कुलो बधु
                हस्ते निया शर-अ- मधु[5]
                ओगो की मधु खावाईलो जानिना
                ना ना ना नागो
बॉन्धु बिने प्रान बाचेना

                हियार सुन्दर पाखि
                हृदये-हृदये राखि
                छूटले पाखि धरा दिबे ना
                ना ना ना नागो
बॉन्धु बिने प्रान बाचे ना

यहाँ पूर्णतः लौकिक प्रेम के दर्शन मिलते है।  यहाँ एक स्त्री अपने साथी के बगैर न जी सकने की दुहाई दे रही है।                                

शोना बन्धुरे आमि तोमार नाम लॉइया कान्दि
गगनेते डाके देया आसमान हईलॉ आंधिरे बन्धु
आमि तोमार नाम लॉइया कान्दि

तोमार बाड़ी आमार बाड़ी
मॉद्धे शुरनदी
शेइ नदीके मने हईलॉ अकूल जलधिरे बन्धु
आमि तोमार नाम लॉइया कान्दि
गगनेते डाके देया आसमान हईल आन्धिरे बन्धु
आमि तोमार नाम लॉइया कान्दि

उइड़ा जायेरे चखुयार पंखी
पड़िया रइल छाया
कोन पोराने विदेशे रइला
भुलि देशेर मायार बन्धु
आमि तोमार नाम लइया कान्दि
शोना बन्धुरे आमि तोमार नाम लइया कान्दि
    इस गीत में एक स्त्री अपने प्रिय को लेकर दुख मना रही है कि वह क्यों उसे छोड़कर विदेश चला गया।
धामाइल आज भले ही आधुनिक गीत एवं बेन्ड संगीत के आगे लुप्त होता जा रहा है। परन्तु इस गीत में आज भी लोक संस्कृति एवं संवेदना के सारे तत्व मौजूद है। आज भी ये लोक गीत एवं नृत्य असम के कछार जिले, करीमगंज, हाइलाकान्दि तथा त्रिपुरा के धर्मनगर, कैलाशर आदि स्थानों में लोकप्रिय है। समय आ गया है कि हमें अपने देश की लोक संस्कृति एवं कला को फिर से उस शिखर पर पहुँचने की जहाँ एक समय वह हुआ करती थी।


[1] विवाह से एक रात पहले वर-वधू दोनों के घर पर यह रस्म निभायी जाती है जिसमें दोनों पक्ष रात भर जागकर गीत-संगीत गाते है तथा वधू को उसी रात सजाया जाता है तथा सोहाग का शृंगार  कराया जाता है।
[2] सिलेठी बंग्ला भाषा में पगफेरे की रस्म के फ़िराजात्रा कहा जाता है।
[3] स्त्रियों द्वारा मंगलानुष्ठान में जीभ द्वारा की जाने वाली एक विशेष प्रकार की ध्वनि को कहते है। ये दैनंदिन की पूजा-पाठ एवं संध्या आरती के समय भी किया जाता है जिसका उद्देश्य दूसरों को मंगल अनुष्ठान की सूचना देना होता है।
[4]  घर में नहीं रहूंगी या रह पाउँगी।
[5] दूध की मलाई तथा मधु।

शुक्रवार, 17 मई 2013

चुप चुप...खामोश ज़िन्दगी

चुप-चुप, चुप-चुप
खामोश ज़िन्दगी
यूँ ही चली जा रही है

बात नहीं है मगर
बातें किये जा रहे हैं
हँसने की वजह भी नहीं है
बेमतलब हँसे जा रहे हैं

चुप-चुप, चुप-चुप
खामोश ज़िन्दगी
यूँ ही चली जा रही है

सोचते हैं जब हम
उन बातों के बारे में
तब कुछ सवाल उठते हैं
एक टीस सी होती है
क्यों की थी वे बातें
हमनें यूँ ही,
क्या जाता अगर रहते खामोश यूँ ही?
तब भी तो उन बातों का कोई मतलब न था
तब भी तो उन बातों में कुछ नहीं था

ऐसा लगता है कि
खामोशी सहन न होती थी हमसे
इसलिए शोर सा किया था
तब भी तो चुप-चुप सी रहती थी
दिल की गलियाँ
तब भी तो चुप-चुप सी रहती थी
मेरी दुनियाँ

आज सोचते हैं हम
चुप रहते तब ज़रा अगर हम
तो चैन से जी लेते
कट जाती यूँ ही ज़िन्दगी
न मज़ाक बनते कभी हम

जो लम्हें गवाए यूँ बातों में
उन्हें गिनते रहते हम
आज इकट्ठा हो जाते तो
उन लम्हों से एक घर बना लेते
रहते उसमें खुशी से हम
उसकी खिड़की से झाँकते
चुप-चुप
खामोश होकर चली जा रही
ज़िन्दगी को देखते।