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सोमवार, 21 अक्टूबर 2013

छलकती आँखें




सुनो!”
क्या है?”
तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ। अ अपने बारे में..........
प्रतिमा तुमसे कितनी बार कहा है, जब भी मैं ऑफिस के काम कर रहा होता हूँ तब तुम अपनी बेसिर-पैर की बातें लेकर मत बैठा करो। काम करने दिया करो मुझे। कहकर नरेन्द्र तेढ़ी नज़रों से प्रतिमा की ओर देखने लगा।
फिर तुमसे कब बात करू? ! तुम सारा दिन ऑफिस में रहते हो, देर रात घर आते हो और थककर खाना खाकर सो जाते हो। छुट्टी के दिन भी तुम्हारा ऑफिस का काम लेकर बैठे रहते हो। मेरे लिए तो तुम्हारे पास वक्त ही नहीं है।
प्रतिमा!!!तुम जानती हो न यह सब में किसके लिए कर रहा हूँ। हमारे फ्यूचर के लिए ही न। इतना अच्छा फ्लेट ले दिया है तुम्हें। इतनी लेविश लाइफ है तुम्हारी। जो कुछ यहाँ तुम्हें मिल रहा है शायद ही तुम वह अपने पापा के यहाँ रहते कर पायी होगी। फिर किस बात की शिकायत है तुम्हे?
नरेन्द्र मैं तो तुमसे सिर्फ बात करना चाहती थी। पर तुमने तो वक्त मांगने पर ही ताना सुना दिया। और फिर ये भी कोई ज़िन्दगी है मेरी? सारा दिन में अकेली ही रहती हूँ.... इससे पहले की प्रतिमा कुछ और कहती नरेन्द्र उसे प्यार से हंसकर गले लगा लेता है और चूमते हुए उसे मनाने लगता है।
प्रतिमा की दिन चर्या यही थी। सुबह नौ-साड़े नौ बजे नरेन्द्र ऑफिस के लिए निकल जाता और शाम को उसके घर आने का कोई समय तय नहीं होता। वह आने से पहले फोन जरूर कर देता। प्रतिमा उसके जाने के बाद घर का सारा काम निपटा लेती और फिर नन्हे से बालक को लेकर आराम करती। शादी के बाद भी कुछ दिनों तक यही सिलसिला था उसका। कभी मन होता तो कुछ पढ़ लेती जो वह अपने घर से लाई थी।
उसे पढ़ने का बहुत शौक था। बचपन से ही उसे अपने कैरियर बनाने की इच्छा थी। पिता ने भी उसकी इच्छा देख कर खूब आज़ादी दी थी। यद्यपि उसे बहुत शान-ओ-शौकत की ज़िन्दगी नहीं दे पाए थे मगर आत्म-सम्मान से भरे जीवन का रास्ता खोल कर दिया था। उसकी दूसरे बहने और भाभियों में इस बात की जलन थी कि प्रतिमा, पूर्णिमा और अरुणाभ तीनों भाई बहन पढ़ाई में भी अव्वल थे और सब-के-सब अच्छी नौकरी में लग चुके थे। शादी भी बहुत अच्छे घर में हो गई थी। परन्तु जीवन का सबसे तीक्त पढ़ाव शादी के जैसे मीठे मोड़ पर आएगा उसकी इसे उम्मीद नहीं थी। प्रतिमा को रह-रहकर अपने पुराने दिन याद आते जब उसकी रचनाओं की प्रशंसा हुआ करती थी। बड़े गुरूजनों ने उससे कहा था कि वह अपने लेखनी जारी रखे। लड़के वाले जब आए थे तो उन्होंने भी बड़ी तारीफ की थी और भरपूर प्रोत्साहन दिया था। पर कहा पता था उसे कि शादी का जोड़ा ओढ़ते ही उसके हाथ से कलम छूटेगी और छूट ही जाएगी। शादी के कुछ महिने बाद ही उसे नौकरी मिली मगर एक छोटे से कॉलेज में। वह खुश थी लेकिन कही-न-कही उसे डर था कि कुछ उसका छूट रहा है। वह क्या समझ नहीं पायी थी। फिर वह इतनी खुदग़र्ज़ नहीं थी कि अपने बारे में सोचे वह भी अलग। अब नरेन्द्र उसका जीवन था और जीवन साथी के साथ सुख के दिन जीना भी उसकी इच्छा ही नहीं बल्कि अधिकार और कर्तव्य भी था। उसने उसे निभाने में अपनी पूरी कसर लगा दी। इसी बीच वह नन्हा सा जीवन उनके बीच प्यार की निशानी और कड़ी बनकर आया और वह अब नई दुल्हन से, एक उभरती लेखिका से माँ बन गई। अपनी सारी प्रतिभा, कौशल मातृत्व में लुटाने लगी।
अभी रात के साड़े दस हुए थे। नरेन्द्र ने खाना लगा देने का फरमान जारी किया। प्रतिमा उठकर काम पर लग गई। टेबल लगाते हुए उसने नरेन्द्र को पुकारा
बस में दो मिनट में आ रहा हूँ। तुम तब तक सलाद काट लो। दोनों खाने बैठ जाते है।
क्या तुमसे अभी कुछ कह सकती हूँ? अभी तो तुम फ्री हो।
ज़रा वह पापड़ पास करना।
नरेन्द्र मुझे तुमसे कुछ जरूरी बात करनी है।
ओके बाबा!बोलो न मैं सुन रहा हूँ। क्या कहना है कहो।
नरेन्द्र मैं सोच रही थी कि मुझे कुछ करना चाहिए। आइ मिन की मैं कोई ऐसा काम... जो मेरे लिए स्वीटेबल हो और साथ ही साथ बिट्टू की देखभाल में भी कोई बाधा न आए।
करो न बाबा। मैंने तुम्हे कभी नहीं रोका है कुछ करने से।
प्रतिमा सुनकर थोड़ी सी हिम्मत जुटाती है। वह नरेन्द्र के हाथ पर हाथ रखकर कहती है अच्छा है तब तो फिर मैं कल ही नौकरी डॉट कॉम पर सर्च करना शुरू कर देती हूँ।
हूँ सहसा कहकर नरेन्द्र उसकी तरफ देखता है....
तुम कहना क्या चाहती हो?”
मेरे कहने का मतलब है कि मैंने कल इण्टरनेट पर देखा है कि बहुत सी ऐसे कम्पनीज़ है जो घर में बैठी पढ़ी-लिखी महिलाओं के लिए घर बैठे ही काम करने का मौका दे रही है। जैसे की ट्रान्सलेशन वगेरा। फिर मैंने ट्रान्सलेशन भी किया हुआ है। जब तक बिट्टू छोटा है तब-तक मैं भी इसके जरिए और अपनी लेखनी के जरिए अपने-आपको एन्गेज़ रखना चाहती हूँ। ताकी भविष्य में दुबारा नौकरी पर जाने से पहले मेरे लिए कोई गेप का झंझट न होने पाए।
नौकरी! सहसा नरेन्द्र चौका। फिर वह कहने लगा।
तुम्हें नौकरी करने की क्या खुराफात सुझी। तुम जानती हो कि बिट्टू अभी छोटा है। फिर घर पर अगर ऑफिस का सा माहौल रहा तो फिर मैं पागल ही हो जाऊँगा। तुम जानती हो सारा-सारा दिन में ऑफिस में ही रहता हूँ। फिर वापिस घर आता हूँ यही सोच कर की दुनिया में कही तो पूरे आराम की जगह है। अगर इसे भी तुमने अपना ऑफिस बना डाला तो मैं फिर कहा रहूँगा। देख रही हो ने कितना छोटा सा घर है हमारा। सिर्फ दो बेडरूम का है। एक में हम रहते है दूसरे मम्मी-पापा के लिए रखा गया है। अगर तुम दूसरे रूम में ऑफिस खोल लोगी तो फिर वे लोग कहा रहेंगे।
मैंने कब कहा कि घर में ऑफिस खुलने जा रहा है। मैं तो बस एक ट्रांस्लेशन का ही काम करूंगी। इसमें ऑफिस खोलने की बात कहा से आयी। कहकर प्रतिमा आँखों से हलका सा क्षोभ प्रकट करती है। उसे किसी बात की परेशानी नहीं थी। अगर थी भी तो सिर्फ नरेन्द्र के बर्ताव से। नरेन्द्र उसे मारता या पीटता तो वह शायद कुछ कह सकती थी। मगर नरेन्द्र उससे बहुत प्यार भी करता है। खयाल भी रखता है। मीठे बोल बोलकर भी वह उसे खुश करता है। पर कभी-कभी उसके बर्ताव में एक रूढ़ीवादीता की गंध सी आती है। खास करके जब वह अपनी नौकरी या कैरियर से सम्बन्धित कोई बात उससे करना चाहती तो। इतने में नरेन्द्र खाना खाकर उठ चुका होता है  कि तभी बालक के रोने की आवाज़ आती है। नरेन्द्र उसे गोद में लेकर चुप कराने की कोशिश करता है।
देखो प्रतिमा। मैं तुम्हें मना नहीं करता हूँ जॉब के लिए। लेकिन तुम ही ज़रा सोचकर देखो। बिट्टू नन्हा सा बालक है। क्या उसकी देखभाल नहीं करोगी, उसे इस वक्त माँ की ज़रूरत है। फिर घर के कितने ही काम है जो अकेली करती हो। वक्त कहा है तुम्हारे पास
मैं समझती हूँ। उसकी देखभाल में कोई कसर नहीं होगी। मेरा बच्चा है वह।
तब फिर तुम नौकरी या घर बैठे ही काम कैसे कर पाओगी, क्या कभी सोचा है।
मैंने सोच लिया है, मैं मेनेज कर सकती हूँ। बस किसी को घर पर रखना होगा।
तुम्हारे कहने का मतलब है आया?”
तुमने ये बात सोची भी कैसे? माँ होकर तुम अपने बच्चे की देखभाल नहीं करोगी। घर पर ही रहोगी पर फिर भी तुम्हें आया चाहिए!!”
नहीं मैंने आया की बात नहीं की। मैंने बस एक नौकर रख देने की बात कही है। जो मुझे घर के कामों में मदद कर दिया करे। इससे घर के काम भी जल्दी हो जाएंगे और मुझे वक्त भी मिलेगा।
दो लोगों के लिए ऐसा क्या काम है जो तुम्हें नौकर चाहिए? तुम भी न कैसी बातें करती हो। देख रही हो न कितनी महंगाई है। उसपर से तुम्हें नौकर रखना है। सारा दिन घर बैठे-बैठे न जाने क्या-क्या सोचती रहती हो।
पर नेरन्द्र अभी तो तुम मुझे कह रहे थे कि घर के कितने सारे काम होते है जो मैं अकेली ही करती हूँ। तुम्हें नहीं लगता कि मेरे लिए तुम एक हाथ बटाने वाले का जुगाड़ कर दो।
प्रतिमा तुम समझती क्यों नहीं।
नरेन्द्र सच मैं तुम्हें समझ नहीं पाती। एक तरफ जहाँ तुम मेरे लिए सोचते हुए नज़र आते हो वही तुम्हारी बातें कुछ और ही इशारा करती है।
बिट्टू की देखभाल और घर का काम क्या यही मेरी ज़िन्दगी रह गयी है। तुम मुझे कुछ करने से न रोकने की बात करते हो और जब मैं कुछ करना चाहती हूँ तो रोक देते हो। ये सब क्या है। आखिर तुम चाहते क्या हो? क्या घर की इस चार दिवारी के भीतर भी मेरी कोई मर्जी या मेरी कोई इच्छा-आकांक्षाएँ न हो। शादी से पहले तक तुमने मुझे नौकरी करने की इजाजत दी तो भी सिर्फ इसीलिए कि कुछ पैसे आ सके। उस वक्त तुमने मुझे कैरियर बनाने के सपने भी दिखाए। और अब जब से बिट्टू आया है तब से देख रही हूँ तुम्हारा बर्ताव दिन-ब-दिन अजीब ही हो रहा है। तुम अब रूढ़िवादी बनते जा रहे हो।
देखो प्रतिमा। मैं तुमसे कोई बहस नहीं करना चाहता। तुम्हारी बातें मेरी समझ के परे है। बस तुम मेरी इतनी सी बात समझ लो। अगर तुम्हें घर बैठ कर अच्छा नहीं लगता है तो लगाना पड़ेगा। तुम्हारी नौकरी की बात बाद में सोची जाएगी। पहले बिट्टू को बड़ा हो जाने दो और इस वक्त में नौकर अफोर्ड नहीं कर सकता। घर की इ.एम. आइ में सबकुछ चला जाता है।
तो जब घर की इ.एम. आइ में सबकुछ चला जा रहा है तो मैं कुछ काम करके पैसे कमा कर तुम्हारी मदद ही तो करूंगी।
नहीं बाबा। मुझे तुम्हारे पैसे नहीं चाहिए। जितना में कमा रहा हूँ उससे सबकुछ चल रहा है न।
नरेन्द्र तुम्हें नहीं लगता कि तुम कुछ ज्यादा ही ओवर रियेक्ट कर रहे हो। आखिर तुम मुझे साफ-साफ कहते क्यों नहीं कि तुम क्या चाहते हो। मैं जो कुछ भी कहती हूँ तुम उसका उलटा ही कहकर हर बात को काट देते हो। साफ-साफ कहो न मुझसे तुम्हारी क्या राय है?”और कहकर वह नरेन्द्र की तरफ देखने लगती है।
प्रतिमा मैं चाहता हूँ कि तुम नौकरी न ही करो तो अच्छा है।
क्यों जान सकती हूँ?”
बस मैं नहीं चाहता।
तुम नहीं चाहते का क्या मतलब है। शादी से पहले तो तुम मेरी बहुत तारीफ करते थे। मेरी कविताएँ भी पढ़ी थी और कहते थे कि मैं इसी तरहा लिखा करू। तुमने तब तो मेरे नौकरी करने के फैसले पर कुछ नहीं कहा। अब क्या हो गया है तुम्हें?”
प्रतिमा यू बात-बात पर सवाल मत पूछा करो। मैं नहीं चाहता बस नहीं चाहता। शादी से पहले ये सब तुम्हें सोचना चाहिए था। उस वक्त बात कुछ और थी। तुमसे शादी करने की इच्छा थी मेरी इसलिए शादी की और तुम्हें भी पता था कि मैं प्राइवेट कम्पनी में काम करता हूँ। जितना अच्छा पैसा है उतना काम भी होता है। तुम्हें सारी बातें सोच-समझकर मुझसे शादी करने के लिए हाँ करनी चाहिए थी।
तुम्हारी प्राइवेट कम्पनी में काम करने और मेरे नौकरी दुबारा करने में क्या कनेक्शन है। और फिर शादी करने से मैं तो मना ही कर रही थी। तुमने मुझे ज़िन्दगी के रंगीन सपने दिखाकर शादी करने को राज़ी किया और अब तुम मुझे घर की चार दिवारी में कैद रहने को कह रहे हो। नरेन्द्र आर यू आउट ऑफ योर माइन्ड?”
देखो प्रतिमा मुझे तुमसे कोई बहस नहीं करनी है। मुझे निंद आ रही है मैं सोने जा रहा हूँ। बहुत रात हो चुकी है। इससे पहले की प्रतिमा उसे समझाती या बात करती नरेन्द्र कमरे में जा चुका होता है। प्रतिमा वही खड़ी रह जाती है छलकती आँखों के साथ।


रविवार, 15 सितंबर 2013

ममता कालिया के उपन्यास दौड़ में आज के मानवीय सम्बन्धों का चित्रण।




          ममता कालिया के उपन्यास में आधुनिक भारतीय समाज तथा भारतीय समाज एवं जीवन में व्यवसाय जगत् के प्रभाव तथा बढ़ते दबाव को दर्शाती कथा है। पवन पाण्डे, सघन, राकेश, रेखा, स्टेला जैसे लोग आज व्यवसाय जगत् की परिस्थितियों में घिरकर यथास्थितिवादी बनकर रह गये हैं। सभी यह जानते है कि इस तेज़ दौड़ती ज़िन्दगी में किसी एक जगह बैठे रहकर अपना कैरियर और लाइफ़् सेटल करना सम्भव नहीं है। फिर भी इन चीज़ों के लिए मानवीय सम्बन्धों में जिस तेजी से बदलाव आया है और रिश्तों से अधिक महत्त्व कैरियर हो गया है इससे यही साबित होता है कि आज के आधुनिक जीवन में वास्तव में कैरियर और ऐशो-आराम की ज़िन्दगी ही सब कुछ है नई पीढ़ी के लिए बाकी सबकुछ गौण है। उपन्यास में पवन के सामंतशाही सोच और अपने माँ-बाप के साथ किए गए महाजनी बर्ताव से उसकी माँ रेखा और पिता राकेश बहुत आहत होते है। इतना ही नहीं ममता कालिया ने उपन्यास में कुछ गौण पात्रों के जरिए ऐसे प्रसंगों का वर्णन किया है जिसमें आहत होते माताओं तथा पिताओं की विवशता स्पष्ट झलकती है।
          अपने उपन्यास के बारे में स्वयं लिखते समय ममता कालिया कहती है कि भूमंडलीकरण और उत्तर औद्योगिक समाज ने इक्कीसवी सदी में युवा वर्ग के सामने एकदम नए ढंग के रोज़गार और नौकरी के रास्ते खोल दिए हैं। एक समय था जब हर विद्यार्थी का एक ही सपना था पढ़ लिखकर प्रशासनिक सेवा में चुना जाना।.... इनके अन्तर्गत डॉक्टर की बेटी डॉक्टर और इंजीनियर का बेटा इंजीनियर बनना चाहता था। तब बाज़ार इतना आकर्षक, विशाल और व्यापक नहीं हुआ था कि युवा वर्ग इसे अपने सपनों में शामिल करे। तब बाज़ार का मतलब था एक ऐसी जगह जहाँ हम अपनी ज़रूरतें पूरी करते थे और थककर घर लौटे आते थे। उस वक्त का बाज़ार इतना चमकदार और चटकीला नहीं था कि आप वहाँ अपनी पूरी जेब खाली कर आते..... आर्थिक उदारीकरण ने भारतीय बाज़ार को शक्तिशाली बनाया। इसने बाज़ार प्रबन्ध की शिक्षा के द्वार खोले और छात्र वर्ग को व्यापार प्रबन्धन में विशेषता हासिल करने के अवसर दिए। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने रोज़गार के नए अवसर प्रदान किए। युवा-वर्ग ने पूरी लगन के साथ इस सिमसिम द्वार को खोला और इसमें प्रविष्ट हो गया। वर्तमान सदी में समस्त अन्य वाद के साथ एक नया वाद आरम्भ हो गया, बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद। इसके अन्तर्गत, बीसवीं सदी का सीधा-सादा खरीददार एक चतुर उपभोक्ता बन गया। जिन युवा-प्रतिभाओं ने यह कमान सँभाली उन्होंने कार्यक्षेत्र में तो खूब कामयाबी पायी पर मानवीय सम्बन्धों के समीकरण उनसे कहीं ज्यादा खिंच गए, तो कही ढीले पड़ गए। दौड़ इन प्रभावों और तनावों की पहचान कराता है।......व्यावसायिकता से आजीविकावाद (कैरियरिज़्म) पैदा होता है और यह आजीविकावाद पारिवारिक सम्बन्धों को और सम्बन्धों की भावात्मकता आदि को नष्टप्राय कर देता है।1 (5-6) चन्द संतरें...
          इस उपन्यास में ममता कालिया ने पवन, शरद, अभिषेक जैसे पात्रों के जरिए बाज़ार तथा मार्केटिंग की नीतियों का परिचय दिया है। उपन्यास के प्रारम्भिक अध्यायों में सभी के कम्पनियों के प्रोडक्ट्स तथा उन्हें बेचने की चुनौतियों तथा अन्य व्यवसाय जगत् की समस्याओं का चित्रण किया है। मानवीय सम्बन्धों के टूटन एवं खिंचाव को पवन, सघन तथा स्टेला के जरिए उन्होंने बखूबी चित्रित किया है। जब पवन इलाहबाद अपने माँ-बाप से मिलने जाता है तो वे लोग उसे  इलाहाबाद के आस-पास ही कही जॉब ढूंढने को कहते हैं। उन्हें आशा थी कि इस तरह वे अपने बेटे के कैरियर में रूकावट भी नहीं बनेंगे और पवन भी उनके पास रह सकेगा। लेकिन पवन की सोच और दृष्टिकोण कुछ अलग ही होते है। वह अपने पिता के कलकत्ते जाकर बसने के सलाह पर कहता है ..पापा मेरे लिए शहर महत्त्वपूर्ण नहीं है, कैरियर है। अब कलकत्ते को ही लिजिए। कहने को महानगर है पर मार्केटिंग की दृष्टि से एकदम लद्धड़। कलकत्ते में प्रोड्यूसर्स का मार्केट है, कंज्यूमर्स का नहीं। मैं ऐसे शहर में रहना चाहता हूँ जहाँ कल्चर हो ने हो, कंज्यूमर कल्चर जरूर हो। मुझे संस्कृति नहीं उपभोक्ता संस्कृति चाहिए, तभी मैं कामयाब रहूँगा।2 (40-41) उसके इस एक जवाब ने माता-पिता को स्तंभित कर दिया। वह आदर्श से ज्यादा यथार्थ की ओर झुका हुआ था। इतना ही नहीं जितने दिन वह घर पर रहता है उतने दिन उसका व्यवहार अपने माता-पिता से, विशेषकर माँ से एक पराए व्यक्ति जैसा रहता है। यहाँ तक कि धोबी से इस्त्री होकर आए कपड़ों के लिए पवन ज्यादा पैसे दे देता है तो उसकी माँ उसे समझाती है कि यदि वह टूरिस्ट की तरह पैसे देता रहेगा तो ये लोग सिर चढ़ जाएंगे। लेकिन पवन अपनी माँ की इस बात पर हंगामा खड़ा कर देता है। अपने दफ्तर में मिल रही इज़्ज़त का हवाला देकर माँ को ताने दे बैठता है। साथ ही वह यह भी कहता है कि उसके जन्मदिन पर उसे ग्रीटिंग कार्ड नहीं भेजा गया जिससे उसके ऑफिस के लोग उसकी हँसी उड़ाते है। पवन जानता था कि उसकी माँ किस प्रकार उसका जन्मदिन मनाती है लेकिन उसके ताने से माँ को लगा उन्हें अपने बेटे को प्यार करने का नया तरीका सीखना पड़ेगा।3(43) पवन इस बात से भी उखड़ा हुआ था कि अब उसके कोई भी दोस्त शहर में नहीं रहे, सब-के-सब कैरियर के लिए बाहर जा चुके है। वह स्वयं यथार्थवादी है परन्तु उसी के जैसा व्यवहार दूसरो से मिले ये उसे मंजूर नहीं। अपने पिता से भी वह बिना बात के बहस करता है। उसके पिता के विचार उससे मेल नहीं खाते। धर्म, आध्यात्मिकता, दर्शन, अर्थशास्त्र जैसी बातों पर पवन और उसके पिता के विचार अलग-अलग हो जाते है। उसके पिता जहाँ नई और पुरानी चीज़ों और व्यवस्थाओं की तुलना करते हुए पुराने के समर्थन में बोलने लगते है तो पवन उन्हें यह कहकर आलोचना कर देता है कि उसके पिता नई चिज़ों का फायदा भी उठाते है और उसकी आलोचना भी करते है। धर्म के विषय में तो वह अपने पिता से बिलकुल भी सहमती नहीं जताता। उसके पिता बचपन से शंकर के अद्वैतवाद के बारे में उसे बताते आ रहे थे लेकिन पवन अपने नए आधुनिक आध्यात्मिक गुरू को ही अधिक मान्यता देता है तो उसके पिता आहत हो देखते रह गए। उनके बेटे के व्यक्तित्व में भौतिकतावाद, अध्यात्म और यथार्थवाद की कैसी त्रिपथगा बह रही थी।4(46) पवन अपने विचारों से न केवल माता-पिता को आहत करता है बल्कि उसके जीवन साथी के चयन तथा उसके साथ वैवाहित जीवन के एक अजीब तरीके से भी वह उन्हें दुख पहुँचाता है। पवन स्टेला के अमदाबाद में मिला था, तब से दोनों के सम्बन्ध घने होने लगते है। जब रेखा और राकेश को इसका पता चलता है तो राकेश रेखा को अमदाबाद में ही देख आने को कह आता है। रेखा को स्टेला बिलकुल पसन्द नहीं आती। इतना ही नहीं जब स्टेला के दिए गए उपहार को भी रेखा अस्वीकार कर देती है तो पवन कहने लगता है कि वह बहुत मंहगा उपहार था जो अब व्यर्थ जा रहा है। पवन स्टेला के मामले में अपनी माँ से यहा तक कह देता है कि जब उसके पिता ने उनसे विवाह करने की ठानी थी तब उसकी दादी ने भी रेखा को पसन्द नहीं किया था तब क्या उसके पिताजी रूके थे। रेखा को अपने ही बेटे से यह बात सुनकर धक्का लगता है। किसी प्रकार पवन स्टेला के मामले में अपने अभिभावकों को मना लेता है फिर अपने स्वामी जी द्वारा लगाए गए रामकृष्णपुरम में सामुहिक विवाह आयोजन में विवाह कर लेता है। रेखा और राकेश को इससे थोड़ा दुख भी पहुँचता है। पवन और स्टेला मुश्किल से कुछ दिन घर पर रहते है कि तभी पवन के चैन्ने जाने और स्टेला के राजकोट और अमदाबाद में बिजनेस की बागडोर सम्भालने की बात सामने आती है। रेखा और राकेश दोनों पवन को समझाते लगते है कि शादी के बाद साथ रहना जरूरी होता है। उसे विवाह के वचनों का भी वास्ता देते है पर पवन फिर से अपने आधुनिक यथार्थवादी विचार उनके सामने यह कहकर रखता है कि पापा आप भारी-भरकम शब्दों से हमारा रिश्ता बोझिल बना रहे हैं। मैं अपना कैरियर, अपनी आज़ादी कभी नहीं छोड़ूँगा। स्टेला चाहे तो अपना बिजनेस चैन्ने ले चले।5(65) पवन के लिए कैरियर इतना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि वह शादी की ज़िम्मेदारियों को भी परे हटा देना चाहता है। वह स्टेला के व्यस्थता की बात करता है। रेखा और राकेश को यह अजीब सा लगता है कि उनका दाम्पत्य जीवन सेटेलाइट और इंटरनेट के जरिए चलेगा। पवन और स्टेला के चले जाने के बाद सघन (पवन का छोटा भाई) भी अचानक उन्हें यह सूचना देता है कि उसे ताइवान में नौकरी लग गई है और वह भी चला जाता है। रेखा और राकेश अब अकेले हो जाते है। रेखा और राकेश जिस बात से घबरा रहे थे आखिर वही बात होती है। वे जिस गली में रहते थे उसे बुढ्ढा-बुढ्ढी गली कहा जाता है क्योंकि सभी के घरों के चिराग अपने माँ-बाप को छोड़कर कैरियर बनाने के लिए दूसरे शहरों तथा विदेश चले जाते है। रह जाते है तो सिर्फ बूढ़े माँ-बाप, एक कार, एक कुत्ता और उनके घरों में उनके बच्चों द्वारा भेजी गए महंगी चीज़े। रेखा को भी पवन माइक्रोवेब और वीसीडी दे जाता है लेकिन रेखा को इन चीज़ों की कोई जरूरत नहीं थी। जरूरत थी तो बस इस बात की कि उसके घर में बसे सन्नाटे को तोड़ने की, खालीपन और अकेलेपन के ऊब से वह बाहर आना चाहती थी। फिर दोनों बच्चों के चले जाने पर इतना काम नहीं रह गया था कि वह किसी में व्यस्त रहकर अपना समय काट लेती। उसे इस बात के लिए अब खुद पर ही जैसे एक क्षोभ सा होने लगा था कि बचपन में उसी ने बच्चों को आगे बढ़ने की शिक्षा दी थी और आज जब वे आगे निकल गए है तो उसे उनसे दूर होने का गम सता रहा है। वह अजीबों-गरीब उलझनों में फंसी हुई थी। उसे अब रह-रहकर अपने बच्चों के बचपन और उनके किस्से याद आ रहे थे। उसका मन बार-बार बच्चों के बचपन और लड़कपन की यादों में उलझ जाता। घूम-फिरकर वही दिन याद आते जब पुन्नू छोटू धोती से लिपट-लिपट जाते थे।.....क्या दिन थे वे। तब इनकी दुनिया की धुरी माँ थी, उसी में था इनका ब्रह्मांड और ब्रह्म। ...... रेखा के कलेजे में हूक-सी उठती , कितनी जल्दी गुजर गए वे दिन अब तो दिन महीने में बदल जाते हैं और महीने साल में, वह अपने बच्चों को भर नजर देख भी नहीं पाती। वैसे उसी ने तो उन्हें सारे सबक याद कराए थे। इसी प्रक्रिया में बच्चों के अन्दर तेजी, तेजस्विता और त्वरा विकसित हुई प्रतिभा, पराक्रम और महत्त्वकांक्षा के गुण आए। वही तो सिखाती थी उन्हें जीवन में हमेशा आगे-ही-आगे बढ़ों, कभी पीछे मुड़कर मत देखो।6(76)ममता कालिया ने पवन, सघन और स्टेला के जरिए जहाँ पारिवारिक सम्बन्धों में आए विवशता को दर्शाया है तो वही एक ऐसे कटु सत्य के भी दर्शन कराए है जिससे प्राय वे सभी परिवार भुगत रहे है जिनके बच्चे प्रवासियों के तरह हो गए है। जिनके लिए पराया देश और वहा की सुख-सुविधा तथा नौकरी के झमेलों में फंसे हुए है। मिस्टर और मिसेज सोनी ऐसे ही दो मजबूर माता-पिता है। उनका बेटा सिद्धार्थ विदेश में जा बसा है। मिस्टर सोनी को अचानक दिल का दौरा पड़ता है और वे गुज़र जाते है। जब सिद्धार्थ को उसके फ़र्ज़ के लिए बुलाया जाता है तो बहाने बनाता है कि उसके घर तक आने में हफ्ते भर से अधिक लगेगा। वह अपनी माँ को समझाते हुए कहता है हम सब तो आज लुट गए ममा। लोग बता रहे हैं मेरे आने तक डैडी को रखा नहीं जा सकता। आप ऐसा कीजिए, इस काम के लिए किसी को बेटा बनाकर दाह-संस्कार करवाइए। मेरे लिए तेरह दिन रुकना मुश्किल होगा। मिन्हाज साहब के समझाने पर वह यह भी कहता है कि विदेश के मुर्दा घरों में माँ-बाप के शव महिनों पड़े रहते है और जब बच्चों को फुर्सत होती है तभी वे जाकर उनका अंतिम संस्कार करते है।
          वस्तुतः यह एक कटु सत्य है समाज की कि जब से बाज़ारवाद ने पूरे विश्व में अपना वर्चस्व कायम किया है तब से लेकर अब तक उसकी चमक-धमक में लोगों की ज़िन्दगी को पूरी तरहा से अपने में समेटता चला गया है। पहले लोग अपनी आजीविका के लिए नौकरी करते थे, लेकिन आज लोग अपनी आजीविका के लिए नौकरी से अधिक आजीविका के अधिन एक मशिन बन चुके है और पहले जहाँ वे आजीविका के लिए अपनी नैतिकता, जिम्मेदारी या मनुष्यत्व को खोना नहीं चाहते थे। लेकिन आज बाज़ारवाद ने लोगों के इन सब से कोसो दूर कर दिया है। आधुनिक समाज में चलते बाजारवाद तथा उपभोक्तावाद में सिमटती ज़िन्दगियों का परिचय कराता हुआ ये एक ऐसा उपन्यास है।

रविवार, 1 सितंबर 2013

सम्प्रेषण सिद्धान्त

          पश्चिमी आलोचकों में आई. ए. रिचर्डस का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्हें मनोवैज्ञानिक आलोचना पद्धति का प्रवर्तक माना जाता है। सम्प्रेषण सिद्धान्त उन्हीं के द्वारा प्रतिपादित है।
         सम्प्रेषण शब्द दो शब्दों के योग से बना है। सम् तथा प्रेषण। सम् का अर्थ है भली भांति और प्रेषण का अर्थ है किसी संदेश या वस्तु को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजना या भेजने की क्रिया। इस प्रकार सम्प्रेषण शब्द का अर्थ होगा किसी संदेश अथवा वस्तु को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भली भांति पहुँचाना और सम्प्रेषण तभी होगा जब वस्तु उचित स्थिति में उचित स्थान पर पहुँच जाए।
           रिचर्डस पश्चिमी जगत् के आधुनिक काल के  समीक्षक है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने काव्यशास्त्र या सामाजिक उद्देश्य आदि के स्थान पर मनोविज्ञान को अपनी आलोचना का आधार बनाया। इसलिए उन्हें मनोवैज्ञानिक आलोचक माना जाता है। यह विश्व समोलना शास्त्र में सर्वथा एक नई वस्तु है जो रिचर्डस के द्वारा दी गई। पहले रचना होती थी जिसमें काव्यशास्त्र, अभिव्यंजना, सौन्दर्य सिद्धान्त, सामाजिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक आदि तत्त्व को आधार बनाया जाता था और रिचर्डस ने इन सबको छोड़कर पाठक के मनोविज्ञान को आधार बनाया। रिचर्डस ने मनोवैज्ञानिक आलोचना में पाठक और रचनाकार दोनों के मनोविज्ञान को आधार बनाया है। क्योंकि सम्प्रेषण के लिए रचनाकार और पाठक दोनों के मन की आवश्यकता है। सम्प्रेषण में वस्तु हमेशा दो वस्तु से सम्बन्ध रखती है। यहा दो वस्तु से अर्थ है रचनाकार और पाठक जिसे रिचर्डस ने समान रूप से आधार बनाया है क्योंकि सम्प्रेषण क्रिया में दोनों सापेक्ष होते है।
             कला और साहित्य में वस्तु सम्प्रेषित होती है किन्तु वह वस्तु ठोस नहीं होती। कला और साहित्य में आवेग का सम्प्रेषण होता है। आवेग एक सूक्ष्म वस्तु है और सूक्ष्म वस्तु का केवल अनुभव होता है। इसलिए रिचर्डस ने कहा कि सम्प्रेषण का अर्थ एक वस्तु का एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना नहीं है। सम्प्रेषण में अनुभवों के सम्प्रेषण की क्रिया होती है किसी ठोस वस्तु या पदार्थ की नहीं। रिचर्डस ने अनुभूति या आवेग को मन से सम्बन्धित कहा है। मन एक ऐसी वस्तु है जो मनुष्य में एक जैसी नहीं होती। वह अखिल मन की कल्पना को निराधार सिद्ध करते है। प्रत्येक मनुष्य अलग-अलग मन रखता है और सम्प्रेषण क्रिया अलग-अलग मन में होती है। रचनाकार का एक मन अपना होता है और पाठक का निजि और स्वतंत्र मन होता है और इन दोनों में तादात्म्य नहीं होता दो मन के बीच समानता हो सकती है। समानता का अर्थ एक जैसा होना नहीं अपितु मात्रात्मक अनुकूलता।
             रिचर्डस ने सम्प्रेषण की परिभाषा इस प्रकार दी है --- सम्प्रेषण का अर्थ न तो आवेग का यथावत अंतरण(Strict transference) है और न ही व्यक्तियों के बीच अनुभूति का तादात्म्य(Identical Experience)। बल्कि कुछ अवस्थाओं में विभिन्न मनों की अनुभूतियों की अत्यंत समानता ही सम्प्रेषण है। सम्प्रेषण तब होता है जब वातावरण पर किसी मन की ऐसी क्रिया होती है कि दूसरा मन उससे प्रभावित हो उठता है और दूसरे मन की अनुभूति पहले मन की अनुभूति के समान होती है। साथ ही उस अनुभूति से अंशतः प्रेरित भी। दोनों अनुभूतियाँ थोड़ी या अधिक समान हो सकती हैं और दूसरी अनुभूति पहली पर आश्रित हो सकती है।

            इस परिभाषा में यह तीन बातें विचारणीय है------ आवेग का यथावत अंतरण नहीं होना।
                                                                             ------ आवेग की समानता
                                                                            ------- पहले मन की अनुभूति से प्रभावित होकर दूसरे मन में उठने वाली अनुभूति पहले वाले मन की अनुभूति का परिणाम है।

           इस क्रिया के दो पक्ष है रचनाकार और पाठक। रिचर्डस ने दोनों के लिए अपेक्षित गुणों की भी निर्धारणा की है। अर्थात् पाठक और रचनाकार दोनों को कैसा होना चाहिए। रचनाकार में अपूर्व अभिव्यंजना कौशल होना चाहिए। अनुभव की परिपक्वता पर ही अनुभूति की अभिव्यक्ति निर्भर करती है। अनुभूति की श्रेष्ठता ही अभिव्यक्ति की श्रेष्ठता को निर्धारित करती है। साथ ही पाठक को भी सहृदय होना चाहिए। अर्थात् किसी विषय को वह सुरूचि के साथ सुनने की समझने की, पढ़ने की ग्रहण करने की स्थिति में हो और यह स्थिति तब होती है जब वस्तु उसके मन के अनुकूल हो।  इसीलिए रचनाकार की अभिव्यंजना में यह बात भी सम्मिलित हे कि उसके द्वारा कही गयी बात दूसरों के मन के अनुकूल होनी चाहिए और उसकी ग्रहण शक्ति के सीमा के भीतर होनी चाहिए।
      

मंगलवार, 21 मई 2013

धामाइल ( सिलहठी बांग्ला लोक गीत एवं लोक नृत्य )




कॉलिरकाल बुझिते ना पारी। दुखे मरि!
कॉलिरकाल बुझिते ना पारी

कॉलिरकालेर बउझियारी तारा करे बाबू गिरि
चोखे चश्मा हाथे लागाये घड़ी। दुखे मरि!
कॉलिरकाल बुझिते ना पारी।

बेला दश्टा बाझले परे टावेल शाबान हाथे निये
स्नान करिया आशलो तारातारी। दुखे मरि!
कॉलिरकाल बुझिते ना पारी।

स्नान कॉरिया आशिया शाशुरी के डाकिया
देओगो आमार शाया, ब्लाउज, शाड़ी। दुखे मरि!
कॉलिरकाल बुझिते ना पारी।

बधू जोखोन खावाय बोशे
शाशुड़ीये मोशला बाटे
पाक करिया देओगो तारातारी। दुखे मरि!
कॉलिरकाल बुझिते ना पारी।

खावा दावा शेश कॉरिया
पालंकेते शोइया शोइया
देओगो आमार शाइठ पानेर खिलि। दुखे मरि!
कॉलिरकाल बुझिते ना पारी।

                धामाइल बराक घाटी (असम) की सबसे जनप्रिय लोक नृत्य है। इसका उद्भव बांग्लादेश के सिलहट प्रान्त से हुआ। इसके जन्मदाता श्री राधा रमन दत्त (1833-1915) माने गए है जो कि सिलहठी बांग्ला के प्रसिद्ध लोक गीतकार थे। धामाइल गीत सिलहठी बंग्ला समाज की सबसे बड़ी विशेषता है। यद्यपि ये आजकल के समय में शहरी अँचलों में लुप्त होती जा रही है परन्तु ये अभी भी ग्रामीण इलाको में प्रचलित है। एक समय था जब धामाइल यहाँ के हर पूजा-पर्व एवं अनुष्ठानों में आवश्यक था। विवाह, अधिवास[1], फ़िराजात्रा[2], जनेऊ, दुर्गा-पूजा, अन्नप्राशन, साधुभोज जैसे अवसरों पर ये गीत अनिवार्य रूप से स्त्रियाँ गाती एवं नृत्य करती है। ये गीत ज्यादातर राधा और कृष्ण से जुड़े होते है। इन गीतों की खासियत यह है कि इनमें कही गयी बातों का अर्थ सीधे-सीधे उसी से सम्बन्धित होता जिसको आधार बनाकर गीत गाया जा रहा हो तथा गीत के मायने जो भी हो, परन्तु सभी इसका भरपूर आनन्द उठा सकते है। प्रत्येक त्योहार के लिए अलग-अलग तरह के धमाइल गीतों की व्यवस्था है। जैसे उपरोक्त गीत ये विवाह के अवसर पर गाने वाला गीत है। ये तब गाया जाता है जब नयी दुल्हन अपने ससुराल आती है तथा उसके साथ छेड़खानी के उद्देश्य से घर की अन्य स्त्रियाँ यह गाती है। इस गीत में  आधुनिक बहू बनाम घरेलु सास का बड़ा ही रोचक वर्णन हुआ है। एक सास दूसरी स्त्री से अपनी बहू की शिकायत कर रही है कि कलियुग का समय मुझे समझ में नहीं आता। हाय रे मैं तो दुख से मरी जा रही हूँ। हाय रे ये कैसा कलयुग आया है। आजकल की नयी नवेली दुल्हने देखों कैसे हमारे सामने दादा गिरि करती है। हाथ में घड़ी और आँखों चश्मा लगाकर घुमती है। दिन के दस बजने पर ये नहा-धोकर आती है और बेशर्मी से अपनी सास से कहती है कि मेरी साड़ी, ब्लाउज इत्यादि दो। जब वह खाना खाने बैठती है तो सास मसाला पिसती रहती है। तब वधू बेशर्मी से सास को जल्दी-जल्दी खाना बनाकर देने के लिए कहती है। खाना खत्म करने के बाद वे अपने पलंग पर लेटे-लेटे अपनी सास को हुक्म देती है कि मुझे साठ पान की खिलियाँ बनाकर दो। लेकिन ऐसा नहीं है कि इन गीतों में संस्कृति एवं परम्परा की कट्टरता नज़र आए। बल्कि आनन्द के साथ नयी संस्कृति एवं सोच को भी अपनाया जाता है। धामाइल की खासियत यह है कि भले ही अलग-अलग त्योहारों के लिए अलग-अलग गीतों की व्यवस्था हो परन्तु एक ही गीत या एक ही प्रकार के गीत नहीं गाए जाते है बल्कि गीतों की भरमार लगी ही रहती है तथा नए समय के हिसाब से गीत बनते जाते है।

                धामाइल नृत्य स्त्रियों द्वारा किया जाता है जिसमें 10-15 स्त्रियाँ घर के किसी खाली कोने में या आंगन में वृत्ताकार होकर घूमती है और केवल तालियों द्वारा गीत को लय प्रदान करती है। कभी-कभी अपवाद स्वरूप करताल का भी प्रयोग होता है। शहरों में धामाइल में वाद्ययंत्र का प्रयोग आजकल के समय में होता है। परन्तु इसमें वाद्ययंत्र की कोई भूमिका नहीं होती है। आरम्भ में समूह की प्रधान इस गीत को अकेले शुरू करती है तथा बाद में बाकी स्त्रियाँ इसे कोरस प्रदान करती है। गीत की शुरूआत धीमे-धीमे होती है और नृत्य भी धीमे-धीमे किया जाता है। बाद में इसमें गति आती है और फिर इसे तेज गति के साथ ही समाप्त किया जाता है। थोड़े से अंतराल के बाद दूसरा गीत भी इसी प्रकार शुरू किए जाते हैं। धामाइल की एक और खासियत यह है भाटियाल एवं उल्टा भाटियाल। इसमें नृत्य करने वाला दल दो भागों में बंट जाता है और परस्पर दोनों दल गीत गाते-गाते बिलकुल सम्मुख आकर नृत्य करते है फिर उसी प्रकार दोनों एक-दूसरे से दूर भी हो जाते है। जब दोनों सम्मुख होते है तो उसे भाटियाल कहते है तथा जब वे दूर होते है तो उसे उल्टा भाटियाल कहा जाता है। इस नृत्य को करने वाली गीत के प्रारम्भ में हाथों से एक ताली देती है फिर गाने में चरम गति में या अन्त में दो ताली, तीन ताली, चार ताली क्रमागत रूप से देती है और चरम गति पर पहुँचने पर जाकर यह गीत समाप्त होता है। गीत के समाप्त होने पर स्त्रियाँ उलूध्वनि[3] या मंगलध्वनि करती हैं। धामाइल की एक और खासियत यह है कि इस गीत में व्यक्ति विशेष को केन्द्र में रखकर गीत गाया जाता है। इसलिए इसमें साली, भाभी, दादी, नानी सम्बन्ध में आने वाली स्त्रियाँ अंशग्रहण करती है। परन्तु इसका नियम यह है कि जिसे लक्ष्य करके गीत गाया जाता है उसकी मा-काकी या मामी इस गीत में हिस्सा नहीं ले सकती है। ये नियम विवाह के समय चलता है। अन्य पर्वों में इस नियम की आवश्यकता नहीं होती। जैसे शिशु के अन्नप्राशन में उसकी माँ-मासी-बुआ-दीदी-दादी-काकी-नानी सभी हिस्सा ले सकती है।
               
                और यदि प्रेम की बात हो तो राधा-कृष्ण के प्रेम की अभिव्यंजना इन गीतों में बहुत आत्मीय रूप से नज़र आती है जैसे ये गीत है--
कुल मान आर जायेना राखा
बाशिये डाके राधा-राधा
ओ शोखि गो
कुन बोने बाजाय गो बाशि
जाओगो तोरा
बाजले बाशि बाधा दिओना (एगो)
बाशिर शूरे प्राण उड़िया जाय
उड़ाल प्राण ओ बाशिये डाके राधा-राधा

ओ शोखि गो
प्रेम करिस्लाय शादे-शादे
एखोन प्रेम बुझि आर भालो लागेना
(भाई रे) महिन्द्रए कोए बाशिर दूष नोए
कोरमोर दूषे ए बाशिये डाके राधा-राधा
                इस गीत में राधा का कृष्ण के प्रति प्रेम और उसकी सखियों द्वारा उसे इस बात पर चिढ़ाये जाने की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। राधा कह रही है कि अब वह अपना कुल और मान बचाके रख नहीं सकती क्योंकि मोहन की बाँसुरी राधा-राधा पुकारने लगी है। वह अपनी सखि से कह रही है कि हे सखि जरा ध्यान से सुनके बताओं की कौन से वन में कृष्ण बाँसुरी बजा कर राधा-राधा पुकार रहे हैं। हे सखि जरा तुम वहाँ जाना तो उन्हें बाँसुरी बजाने से रोकना मत। हे सखि बाँसुरी के स्वर से मेरे प्राण उड़े जा रहे हैं। राधा को अब उसकी सखियाँ मज़ाक में ताना देते हुए कह रही है कि हे राधा जब प्रेम किया था तो प्रेमरस का स्वाद बहुत आनन्द से ले रही थी। अब क्या हुआ तुम्हें? क्या अब प्रेमरस में वह स्वाद नहीं है या तुम्हें और अच्छा नहीं लगता प्रेम करना। कवि महिन्द्र कहते हैं कि बाँसुरी का कोई दोष नहीं, बल्कि कर्म दोष के कारण वह राधा-राधा पुकार रहा है। हे राधा तुमने जो कृष्ण से प्रेम करने का जो कर्म किया है उसका कु-फल(सु-फल) है कि ये बाँसुरी राधा-राधा पुकार रही है।

                उसी तरह एक गीत और है---

                ना ना ना नागो       
                बॉन्धु बिने प्रान बाचे ना
                आमि रोबोना-रोबोना[4] गृहे
                बॉन्धु बिने प्रान बाचे ना

                बॉन्धु बिने नाई शे गोति
                किबा दिबा किबा राति
                जोलोन्तो आगुनि निबेना
                ना ना ना नागो
                बॉन्धु बिने प्रान बाचे ना
               
घोरे आसे कुलो बधु
                हस्ते निया शर-अ- मधु[5]
                ओगो की मधु खावाईलो जानिना
                ना ना ना नागो
बॉन्धु बिने प्रान बाचेना

                हियार सुन्दर पाखि
                हृदये-हृदये राखि
                छूटले पाखि धरा दिबे ना
                ना ना ना नागो
बॉन्धु बिने प्रान बाचे ना

यहाँ पूर्णतः लौकिक प्रेम के दर्शन मिलते है।  यहाँ एक स्त्री अपने साथी के बगैर न जी सकने की दुहाई दे रही है।                                

शोना बन्धुरे आमि तोमार नाम लॉइया कान्दि
गगनेते डाके देया आसमान हईलॉ आंधिरे बन्धु
आमि तोमार नाम लॉइया कान्दि

तोमार बाड़ी आमार बाड़ी
मॉद्धे शुरनदी
शेइ नदीके मने हईलॉ अकूल जलधिरे बन्धु
आमि तोमार नाम लॉइया कान्दि
गगनेते डाके देया आसमान हईल आन्धिरे बन्धु
आमि तोमार नाम लॉइया कान्दि

उइड़ा जायेरे चखुयार पंखी
पड़िया रइल छाया
कोन पोराने विदेशे रइला
भुलि देशेर मायार बन्धु
आमि तोमार नाम लइया कान्दि
शोना बन्धुरे आमि तोमार नाम लइया कान्दि
    इस गीत में एक स्त्री अपने प्रिय को लेकर दुख मना रही है कि वह क्यों उसे छोड़कर विदेश चला गया।
धामाइल आज भले ही आधुनिक गीत एवं बेन्ड संगीत के आगे लुप्त होता जा रहा है। परन्तु इस गीत में आज भी लोक संस्कृति एवं संवेदना के सारे तत्व मौजूद है। आज भी ये लोक गीत एवं नृत्य असम के कछार जिले, करीमगंज, हाइलाकान्दि तथा त्रिपुरा के धर्मनगर, कैलाशर आदि स्थानों में लोकप्रिय है। समय आ गया है कि हमें अपने देश की लोक संस्कृति एवं कला को फिर से उस शिखर पर पहुँचने की जहाँ एक समय वह हुआ करती थी।


[1] विवाह से एक रात पहले वर-वधू दोनों के घर पर यह रस्म निभायी जाती है जिसमें दोनों पक्ष रात भर जागकर गीत-संगीत गाते है तथा वधू को उसी रात सजाया जाता है तथा सोहाग का शृंगार  कराया जाता है।
[2] सिलेठी बंग्ला भाषा में पगफेरे की रस्म के फ़िराजात्रा कहा जाता है।
[3] स्त्रियों द्वारा मंगलानुष्ठान में जीभ द्वारा की जाने वाली एक विशेष प्रकार की ध्वनि को कहते है। ये दैनंदिन की पूजा-पाठ एवं संध्या आरती के समय भी किया जाता है जिसका उद्देश्य दूसरों को मंगल अनुष्ठान की सूचना देना होता है।
[4]  घर में नहीं रहूंगी या रह पाउँगी।
[5] दूध की मलाई तथा मधु।