दधीचि
प्रथम सर्ग
क्षेत्र-भेद से एक बीज के फल विभिन्न
होते हैं
छू धरती को बने सलिल के मधुर-लवण सोते
हैं।
एक
डाल पर लगे फलों में कब समता होती है?
उसी सूर्य की
एक किरण हँसती अपरा रोती है।
व्यख्या:-प्रस्तुत पंक्तियाँ श्री गंगा सहाय प्रेमी द्वारा रचित
दधीचि खण्ड काव्य से ली गयी है। इन पंक्तियों में कवि संसार में व्याप्त विभिन्नता
की बात करते हैं। संसार में ऐसी बहुत सी वस्तुएँ है जो कई बार एक ही तत्त्व या एक
ही पदार्थ से निर्मित होती है लेकिन फिर में उसमें कितनी असमानताएँ होती है। लेखक
इस बात को स्पष्ट करने के लिए हमें कई सारे उदाहरण देते हैं।
वह
कहते हैं कि क्षेत्र के भेद के कारण एक ही बीज से उत्पन्न फल में भी विभिन्नता
होती है। उनके स्वाद में विभिन्नता होती है। जैसे की आम यह फल पूरे भारत
में पाया जाता है। परन्तु अलग-अलग स्थानों में होने के कारण उसके स्वाद में अंतर
होता है। कभी ज्यादा मीठा तो कभी खट्टा। उसी प्रकार समुद्र का खारा पानी जब धरती
को छू जाता है तो उसका लवण हमारे भोजन में स्वाद ले आता है। परन्तु इसका मतलब ये
नहीं कि समुद्र के जल से हम अपने भोजन को ज्यादा स्वादिष्ट बना पाएंगे। वह प्रश्न
के रूप में बताते हैं कि एक ही डाल में लगे फलों में भी समानता नहीं होती है।(यह
मनुष्यों के लिए भी उतना ही अर्थ पूर्ण है क्योंकि एक ही परिवार के लोगों में भी
कितनी भिन्नता होती है।) वह आगे कहते हैं कि सूर्य की हर किरण समान रूप से धरती पर
पड़ती है लेकिन वही एक किरण हँसती है तो दूसरी रोती है। कहने का तात्त्पर्य यह है
कि संसार में सब कुछ ईश्वर ने निर्मित किया है। एक ही से सब निर्मित हुए है लेकिन
हम सबमें विविधताएँ हैं।
कश्यप ऋषि
ज्ञानी विज्ञानी यमी संयमी त्यागी
अपरिग्रही
विप्र विद्या के सर्वाधिक अनुरागी।
गणना थी
सप्तर्षि मध्य,ऋषिमुनि गुणगण गाते थे,
उनके आगे आदर
से रवि शशि उडु झुक जाते थे।
व्याख्या:- इन पंक्तियों में कवि कश्यप ऋषि के बारे में बता रहे
है। जो कि देव एवं असुर दोनों के पिता थे। ऋषि कश्यप ब्रह्मा के मानस पुत्र थे एवं
उनकी गणना सप्तर्षि में होती थी अर्थात् सात महान् ऋषियों में होती थी। वे बहुत
ज्ञानी थे। ज्ञान-विज्ञान के प्रख्यात व्याख्याता थे। वे यम-नियम का पालन करने
वाले, संयमी एवं त्यागी व्यक्ति थे। अर्थात् वे बहुत मेहनती स्वभाव के व्यक्ति थे,
वे अनुशासन प्रिय थे, स्वयं को सदैव संयमित रखते थे तथा त्याग करने की महान गुण
उनमें था। उनके इन्हीं गुणों के कारण पूरा संसार यहाँ तक कि सूर्य-चन्द्र-तारे भी
उनके सामने झुक जाते थे। पूरा संसार उनका आदर करता था।
उन कश्यप की
सन्तानों में धरती-नभ का अन्तर
एक सभी को
सुखद, दूसरी दुख देने को तत्पर।
पिता एक थे,
माताओं के कारण पुत्र निराले,
कलाकार ने
अलग-अलग साँचों में जैसे ढाले।
व्यख्या:- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि कश्यप मुनि की संतानों के
बारे में बात कर रहे हैं। कश्यप मुनि की दो पत्नियाँ थी। एक अदिति तथा दूसरी
दनायु( दिति)। इन दोनों के पुत्र क्रमशः देव एवं दैत्य कहलाये। दोनों एक ही पिता
की संताने थी परन्तु दोनों में धरती आकाश का अंतर था। दोनों के संस्कार एक दम अलग।
एक यदि लोगों को सुख प्रदान करते थे तो दूसरा दुख देता था। दोनों एक ही पिता की
संताने थी परन्तु अपनी-अपनी माताओं के कारण अलग-अलग स्वभाव के थे। ऐसे लगता था
जैसे किसी कलाकार ने इन सबको अलग-अलग साँचें में ढालकर बनाया हो।
कश्यप ऋषि की
जाया अदिति सतोगुण संभरिता थी,
दयामयी थी,
प्रेमपूर्ण थी,पति-सेवा-निरता थी।
ममतामयी,
सपन्तीजन को भगिनी-तुल्य समझती,
रोती थी अन्यों
के दुख में,उनके सुख में हँसती।
व्याख्या :- कवि आगे कहते है कि कश्यप ऋषि की पहली पत्नी अदिति एक
बहुत ही असाधारण स्त्री थी। वे समस्त सतोगुण अर्थात् सारे अच्छे गुणों से भरी हुई
थी। दया, माया, ममता, प्रेम आदि से परिपूर्ण थी। दिन रात पति सेवा में निरता रहती
थी(लगी रहती थी)। वह बहुत ही ममतामयी थी। अपनी सौतन अर्थात् कश्यप ऋषि की दूसरी
पत्नी दनायु को अपनी बहन समान मानती थी। वह इतनी संवेदनशील थी कि वह दूसरों के दुख
में रोती थी और दूसरों की खुशी में खुश होती थी। दनायु से उनका बहुत अधिक स्नेह
था। वह दनायु के दुख में दुखी होती थी तो दनायु के सुख में ही अपना सुख समझती थी।
पति-सेवा,
सन्तति की देखभाल ही नित्य नियम था,
शब्दों में
माधुर्य समाया, वाणी में संयम था।
सद्गुण सिखलाती
तनयों को, ऐसी कथा सुनाती,
हो उदात्तता का
प्रकाश ज्यों स्वर्णिम उषा प्रभाती।
व्यख्या :- कवि आगे देवी
अदिति की नित्य कार्यों के बारे में बता रहे हैं। देवी अदिति का नित्य कर्म यही थी
कि सुबह से शाम तक वह पति की सेवा तथा अपने सन्तानों की देखभाल किया करती है। यही
उनके रोज का काम था। वे निष्ठा के साथ प्रतिदिन यही किया करती थी। उनकी वाणी बहुत
ही मधुर एवं संयमित थी। सुन्दर एवं मधुर(मन को भा जाने वाले शब्दों) शब्दों से वे
अपने बच्चों को अच्छे गुण सिखाया करती थी। अपने बच्चों को अच्छी-अच्छी कहानियाँ
सुनाया करती थी। उनके चरित्र में ऐसी उदात्तता थी जैसे सुबह उगते हुए सूर्य का
स्वर्णिम किरणों से भरा हुआ प्रभात हो। अर्थात् वे अपने उदारता (विशाल मन) के जरिए
सबका मन मोह लेती थी। अपने यह सारे अच्छे गुण वे अपने संतानों में भी भर रही थी।
अविनय से
रोकती, टोकती यदि अकर्म वे करते,
इसी भाँति उनके
स्वभाव में प्रतिदिन रत्न निखरते।
भ्रातृ-प्रेम
में पगे, लगे अंकुश सबके ऊपर थे,
नित्य चरण धरते
यथार्थ की अति कठोर भू पर थे।
व्याख्या:- कवि आगे कहते हैं कि देव माता अदिति अपनी संतानों को
किसी से भी अविनय करने से रोकती थी। अर्थात् किसी से भी विनम्रता के बदले गुस्से
या अपमान या विरक्ति से बाद करने से रोकती थी। क्योंकि विनम्रता से ही सबका हृदय
जीता जा सकता है। यदि उनकी संतान कोई बुरा काम करने लगती तो भी उन्हें रोकती थी।
देव माता अदिति अपनी संतानों को हर पग पर सही मार्ग दर्शन दिया करती थी। इसी
प्रकार प्रतिदिन उनके स्वभाव रतन की भाँति निखरते जा रहे थे। सभी भाईयों में आपसे
में बहुत प्रेम था तथा सभी पर अंकुश लगे हुए थे। नित्य वे चरण धरते थे यथार्थ की
जो अति कठोर हुआ करता था। वे यद्यपि देव पुत्र थे परन्तु उन्हें अहंकार के आकाश
में नहीं बल्कि विनम्रता की धरती पर रहने की सीख दी जाती थी।
अदिति-पुत्र
आदित्य कहाये, सबको सदा सुहाये,
माता की शिक्षा
ने उनमें गुणगण नित्य बढ़ाये।
सभी परस्पर
बंधे प्रेम से, माँ के आज्ञाकारी,
सज्जन-जन को
सुखकारी थे मित्रों के दुखहारी।
व्याख्या:- देव माता अदिति के पुत्रों को आदित्य कहा जाने लगा। ये
नाम सबको सुहाने लगे। माता की शिक्षा के कारण उनमें हर प्रकार के अच्छे गुणों का
निर्माण होने लगा। सभी परस्पर प्रेम से बंधे थे। वे अपनी माता के आज्ञाकारी पुत्र
थे। माता उन्हें जो सिखाती वे ध्यान से सीखते थे तथा कभी भी किसी भी बात की अवज्ञा
नहीं करते थे। वे इतने विनम्र तथा अच्छे स्वभाव के थे कि सज्जनों को वे सुख प्रदान
करते थे तथा अपने मित्रों के दुखों को भी हर लेते थे।( देवताओं के इन्हीं गुणों के
कारण ही उन्हें प्रत्येक प्रकार की शक्तियाँ मिली थी।)
जो चाहते पिता
कश्यप आदित्य वही करते थे,
जननी तथा जनक
का मानस प्रमोद से भरते थे।
सौतेले भाइयों
पर सदा उनकी प्रीति निराली,
उनके कल्याण की
कामना सदा हृदय में पाली।
ब्याख्या:- आदित्य अर्थात् देवी अदिति के पुत्र जितने मातृ भक्त थे
उतने ही पिता को भी सम्मान करते थे। जो भी पिता कश्यप कहते आदित्य वही किया करते
थे। माता और पिता दोनों को ही अपने कर्मों से सदा आनन्द प्रदान करते थे तथा उनके
मन को हर प्रकार के प्रमोद से भर देते थे।(माता-पिता सदा ही बच्चों के कल्याण की
कामना करते हैं तथा बच्चों की खुशी में ही अपनी खुशी समझते हैं।) आदित्य अपने सौतेले भाइयों (दिति के
पुत्र) को भी बहुत प्रेम करते थे। उनके लिए भी सदा कल्याण की कामना अपने हृदय में
रखते थे।
अदिति-पुत्र
द्वादश, जिनमें थे सबसे ज्येष्ठ-विधाता,
अंश, अंशु या
अंशुमान भी कहा इन्हें ही जाता।
थे अर्यमा
द्वितीय पुत्र जो यम भी कहलाते थे,
इन्द्र तीसरे
शतक्रतु शक्रादि नाम पाते थे।
व्याख्या:- देवी अदिति के 12 पुत्र थे, जिनमें से सबसे बड़े पुत्र
का नाम था विधाता। उन्हें अंशु या अंशुमान भी कहा जाता था। दूसरे पुत्र का नाम था
अर्यमा जिन्हें यम नाम से भी जाना जाता है। तीसरे पुत्र का नाम इन्द्र जिन्हें
शतक्रतु तथा शक्रादि नाम दिया गया।
चौथे विष्णु
उरुक्रम भी जिनको सब जन कहते थे,
त्वष्टा पुत्र
पाँचवें कला-साधनारत रहते थे।
धाता छठे,
सातवें पूषा, भग आठवें कहाये,
नवम मित्र थे,
दशम वरुण पर्जन्य गये जो गाये।
व्याख्या:- उनके चौथे पुत्र का नाम विष्णु था जिन्हें सभी उरुक्रम
के नाम से पुकारते थे।(वास्तव में देवी माता अदिति को विष्णु के वामन अवतार की
माता के रूप में भी जाना जाता है।) त्वष्टा उनकी पाँचवे पुत्र थे जो कि कला में
सदैव साधना करते रहते थे। धाता छठे पुत्र, सातवें पूषा(पूष्य), भग आठवे पुत्र थे।
मित्र नौवीं संतान, दसवीं वरुण थे जो कि बादल बनकर पूरे संसार में वर्षा करते थे।
विवस्वान्
ग्यारहवें सुत थे तो मार्तण्ड कहाते,
सविता थे
बारहवें सबसे छोटे अधिक सुहाते।
इनमें इन्द्र
परम तेजस्वी पराक्रमी बलशाली,
जिसने तप से
देवों के राजा की पदवी पा ली।
व्याख्या:- विवस्वान् अदिति के ग्यारहवें पुत्र थे जिन्हें लोग
मार्तण्ड भी कहते थे। सविता सबसे छोटे पुत्र थे और सबके प्रिय थे। इन सभी आदित्यों
में इन्द्र सबसे तेजस्वी, पराक्रमी, और बलशाली थे। उन्होंने अपने तपस्या से
देवताओं के राजा का पद प्राप्त कर लिया था।
भाषा के आचार्य
इन्द्र सब वेदों के ज्ञाता थे,
यज्ञ प्रचारक,
तत्व विचारक, जनजन के त्राता थे।
देवों के
अतिरिक्त मानवों ने महत्व स्वीकारा,
क्योंकि इन्द्र
ने धरती पर था शोभन स्वर्ग उतारा।
व्याख्या:- इन्द्र सभी भाषाओं के आचार्य माने जाते है। प्राचीन काल
से संस्कृत को ही सभी भाषा की जननी माना जाता रहा है। इन्द्र भाषा के विद्वान थे
तथा वे सब वेदों ( अथर्व वेद, ऋग वेद, साम वेद, यजुर्वेद) के ज्ञाता थे। अर्थात्
इन्द्र को सारे वेदों को अच्छी तरहा से जानते थे। वे यज्ञ-हवन आदि के प्रचारक थे।
तत्व विचारक थे अर्थात् संसार में प्रत्येक वस्तु किन-किन तत्वों से निर्मित हुई
है, कितने प्रकार के तत्वों से पूरा वायुमण्डल बना है। धरती, आकाश, अग्नी,वायु, जल
आदि का निर्माण कब और कैसे हुआ इन सब पर विचार करना, चिन्तन, मनन करना उनका काम
था। इसके साथ ही वे सभी जनों के रक्षक भी थे। क्या देवता क्या मनुष्य सबकी वे
रक्षा करते थे। इसीलिए देवताओं के अतिरिक्त मनुष्य ने भी उनके महत्त्व को स्वीकार
कर लिया था। इन्द्र ने अपने कर्मों तथा गुणों से धरती पर स्वर्ग की स्थापना कर दी
थी।
वेद पाठ के
साथ-साथ सर्वत्र यज्ञ होते थे,
इसीलिए सब लोग
परम-सुख से सदैव सोते थे।
यज्ञ-धूम से
बनता था पर्जन्य प्रजा हितकारी,
जिसकी यथा-समय
वर्षा से धरा धान्य-निधि सारी।
व्याख्या:- इन्द्र के
कारण चारों और पृथ्वी पर स्वर्ग का वातावरण बन गया था। सभी वेद पाठ किया करते थे
तथा विभिन्न कारणों से यज्ञ होते रहते थे। इसी कारण सभी लोग परम-सुख का अनुभव करते
थे तथा चैन की नींद भी सो पाते थे। वेदों का अनुसरण कर वे सभी सुख-शान्ति का जीवन
जीते थे। यज्ञ के धूवें से बादल बनता था जिससे समय-समय पर वर्षा होती थी तथा धरती
को धन-धान्य से भर देती थी। समय पर वर्षा होने से नदियों तथा जलाशय भरे रहते थे
जिससे न तो मनुष्यों को न ही जानवरों को पानी की कमि महसूस होती थी। प्रजा के हित
के लिए नित्य ही यज्ञ होते रहते थे।
हँसती आती उषा,
सूर्य दिनभर सोना बरसाता,
संध्या श्रम
हरती, रजनी का तम प्यार से सुलाता।
चन्दा की
चाँदनी सुधा एवं चाँदी बरसाती,
पत्रपत्र पर ओस
सबेरे मोती बन इतराती।
व्याख्या:- यज्ञ-हवन के कारण चारों और सुखमय वातावरण बन गया था।
सुबह सूर्य उदय होता और उषा हँसती हुई आती थी अर्थात् दिन की शुरूआत बहुत
प्रसन्नता से शुरू होती थी। सूर्य देव दिन पर आकाश में चमकते और धरती पर जैसे सोना
बरस रहा होता था। लोग तथा अन्य प्राणी भोजन के लिए दिनभर मेहनत करते। जब शाम हो
जाती तो उनकी थकान संध्या हर लेती थी। अर्थात् डूबता हुआ सूरज, घर वापस जाते
पक्षी, धीरे-धीरे चलता पवन इन सबकी थकान को दूर कर देती तथा रात का अंधेरा इन्हें
प्यार से सुला देता था। रात को जब-जब चाँद निकलता तो उसकी चाँदनी से जैसे अमृत बरस
रहा होता है। सुबह हरियाली में अनोखी सुन्दरता छा जाती जब हर एक पत्ते पर ओस की
बून्दे मोती की तरह बिखरे पड़े रहते और अपनी सुन्दरता पर इठलाते रहते। कवि ने यहाँ
पर प्रकृति का सुन्दर मनोरम चित्रण किया है।
भवन-भवन
धनधान्य-तनय से पूर्ण चूर्ण दुविधा थी,
मनचाहा सुकर्म
करने की सभी कहीं सुविधा थी।
खाते गाते सुख
पाते भव-जल-निधि तर जाते थे,
जन-जन में
बन्धु के, मित्र के प्रेम-पूर्ण नाते थे।
व्याख्या:- कवि कहते हैं कि चारों ओर सुख का संचार हो रहा था। हर
घर धन से धान्य(अन्न) तथा बाल-बच्चों से भरा पूरा था। कही पर भी किसी भी टकराव या
परिवार के अलग-थलग होने का कोई कारण नहीं था। सभी को अपने मन-पसंद काम करने की
सुविधा थी। सभी के मन में सुख विराजमान था। वे पेट भर भोजन कर सकते थे, प्रभु के
गुण गाते थे तथा उसी के द्वारा भव सागर को पार कर ईश्वर में लीन हो जाते थे।
प्रत्येक लोगों के मन में एक-दूसरे के प्रति बन्धु भाव(दूसरे को अपना भाई समझना)
था और अपने मित्रों से प्रेम का नाता था। यह सत्य युग था जिसमें सभी एक दूसरे के
सुख-दुख में शामिल होते थे, सबके साथ प्रेम से रहते थे, किसी प्रकार का दुख या
अशान्ति नहीं था समाज में तथा सभी ईश्वर में आस्था रखते थे और वेदों का अनुसरण कर
अन्त में भव-सागर को पार कर जाते थे।
पूजी जाती थीं
सर्वत्र नारियाँ सच्चे मन से,
नारि-द्रोह को
देख देवता जाते निकल भवन से।
पतिव्रता
नारियाँ, पुरूष सब पत्नीव्रत धारी थे,
घर-घर में था
स्वर्ग, नारि-नर पावन हितकारी थे।
व्याख्या:- कवि आगे कहते हैं कि वह ऐसा युग था जब सभी जगह पर
स्त्रियों का वास्तव में सम्मान होता था। उन्हें पूजा जाता था सच्चे मन से। कोई छल
या कपट नहीं होता था। यदि कही पर स्त्री के प्रति किसी भी प्रकार का अन्याय दिखायी
देता था तो देवता तुरन्त वहाँ से चले जाते थे। अर्थात् जहाँ नारी की पूजा होती थी,
उनका सम्मान होता था वही पर देवता रहते थे। नारी भी उस समय बहुत गुणशाली थी।
पतिव्रता, ममता, परिश्रमी, ज्ञानी हुआ करती थी। अपने पति से जैसे स्त्री प्रेम एवं
श्रद्धा करती थी उसी प्रकार सभी पुरुष भी पत्नीव्रता थे अर्थात् अपनी स्त्री के
अलावा उनके लिए सभी स्त्रियाँ माता या बहन के समान होती थी। घर-घर में स्वर्ग का
सा माहोल था तथा सभी नारी नर पवित्र धर्म का पालन करते थे एक-दूसरे के हित के बारे
में सोचा करते थे।
प्रतिवेशी
पुष्प का कंटकों ने होना स्वीकारा,
निष्कंटक
साम्राज्य पुष्प का रहा न कभी सहारा।
संग उषा के
संध्या, दिन की निशा सहचरी बनती,
प्रकाश के सब
ओर तमस की वितानिका सी तनती।
व्याख्या:- कवि आगे प्रकृति का मानवीकरण कर देते हैं। वे कहते हैं
कि काटों ने फूलों का पड़ोसी होना स्वीकार कर दिया। इस कारण पहले जहाँ बिना काटों
के फूल खिला करते थे उनका संसार अलग था अब वही कांटों के साथ फूल उगने लगे। उसी
प्रकार प्रकृति में और भी परिवर्तन हुए। जैसे सुबह के साथ शाम तथा दिन के साथ रात
ने अपना सहचर्य बना लिया अर्थात् दोस्ती कर ली। उसी प्रकार प्रकाश के चारों ओर
अंधकार विस्तार सा फैलाव होने लगा। अर्थात् जहाँ प्रकाश होता था उसके आस-पास
अंधकार भी मौजूद रहता था। यह कवि के द्वारा सत्य युग में आ रहे परिवर्तन तथा सुख
के साथ दुख के आगमन का सूचक था।
कश्यप ऋषि का
हृदय न केवल पुष्पों की फुलवारी,
चुभने वाल शूल
भी उन्हें कष्टप्रद थे भारी।
देख चरित्र
अदिति-पुत्रों के अतिशय सुख पाते थे,
दनायु के तनयों
को लख पीड़ा से भर जाते थे।
व्याख्या:- कवि इस परिवर्तन का संकेत प्रकृति के द्वारा दिया था।
अब वे उसका मूल संबंध कश्यप ऋषि के परिवार के साथ बता कर उसे समझा रहे है। कश्यप
ऋषि का हृदय न केवल फूलों की फुलवारी से भरा था बल्कि पैरों में चुभने वाले काटों
जो कष्ट पहुँचाते है उससे भी भारी हो गया था। अर्थात् वे जब-जब अदिति के पुत्रों
के देखते तो उन्हें सुख मिलता था परन्तु दनायु के पुत्रों को देखते तो उन्हें बहुत
पीड़ा होती थी। अदिति के पुत्र जहाँ सबको सुख-शान्ति प्रदान करने वाले, ज्ञानी,
दयालु, धरती पर स्वर्ग की स्थापना करने वाले थे वही दनायु के पुत्र उसके विपरीत
थे। माता-पिता के लिए सबसे बड़ा सुख यही होता है जब उनकी संतान अच्छे कर्म कर तथा
दूसरों को सुख प्रदान करें। इससे सभी उन्हें(संतान) को अपना समझ सकेंगे। इसके
विपरीत दनायु पुत्रों के कर्म से कश्यप ऋषि को दुख होता रहता था।
कश्यप ऋषि की
अपरा जाया दनायु तमनिरता थी,
आश्रम में रहकर
भी रौरव भावों से भरिता थी।
पति को सुखकर
कर्म कौन सा, उसने नहीं विचारा,
उसे बहाती रही
द्वेष एवं विरोध की धारा।
व्याख्या:- कश्यप ऋषि की दूसरी पत्नी दनायु अंधकार में भरी हुई थी,
अंधकारमयी विचारधाराओं में निरत रहती थी। ऋषि आश्रम के पवित्र वातावरण् में रहकर
भी नरक के भावों से भरी हुई थी। पति को क्या अच्छा लगता है, किस काम से उन्हें सुख
मिलेगा इस बात का विचार दनायु को कभी नहीं आता था। वह सदा द्वेष और विरोध की धारा
में बहती रहती थी। अर्थात् जैसी अदिति थी दनायु उसके बिलकुल उलटे स्वभाव की थी।
पति के प्रति असंवेदनशील थी। मन में अच्छे विचार तथा भावनाएँ नहीं थे बल्कि द्वेष
और ईष्या की भावना भरी हुई थी।
तनयों को दनायु
ने अतिशय अविनय की शिक्षा दी,
मानो सन्यासी
को मद की, आमिष की भिक्षा दी।
अदिति अधिक
प्रिय थी कश्यप को, इससे दनायु रुष्टा,
शनैः-शनैः
रुष्टता कर गई उसको अतिशत दुष्टा।
व्याख्या :- दनायु ने अदिति के समान अपने पुत्रों को शिक्षा न देकर
उन्हें अविनय की शिक्षा दी। उन्हें दूसरों से प्रेम करना, विनम्रता से पेश आना,
अच्छा व्यवहार करना आदि न सिखाकर दूसरों पर अपनी शक्ति का गलत प्रयोग करना,
मार-पीट से भी काम चलाना, अहंकार की भाषा बोलना आदि की शिक्षा दी। क्योंकि दनायु
को अच्छा व्यक्तित्व कमजोरी लगता था तथा वह अपने पुत्रों को शक्तिशाली बनाने के
लिए अनुचित मार्ग पर चलने के लिए भी प्रेरित करती रहती थी। यह कर्म उसका ऐसा था कि
किसी संन्यासी ने भिक्षा मांगी हो और उसे कंद-मूल-फल के बदले मदिरा तथा मांस की
भिक्षा दी गयी हो। कश्यप ऋषि को अदिति अधिक प्रिय थी क्योंकि अदिति के कर्म तथा
आचार-व्यहार-विचार अच्छे थे। इस बात से दनायु रुष्ट थी। धीरे-धीरे दनायु की यह
रुष्टता बढ़ती गयी तथा वह और भी अधिक दुष्ट हो गयी अर्थात् बुरे कर्मों में लीन
होती गयी।
जो कुछ करते
तनय अदिति के, वह उलटा सिखलाती,
इस प्रकार अपने
ही घर में बैर-बीज बिखराती।
शान्त, तपस्वी
कश्यप सब कुछ देख-देख चुप रहते,
चिन्ता की
ज्वाला से निशिदिन मन ही मन थे दहते।
व्याख्या:- अदिति पुत्र जिनते समझदार थे, जैसा अपनी माता की आज्ञा
का पालन करते तथा अच्छे व्यवहार से सबका मन मोह लेते थे, दनायु उतना ही उलटा
उन्हें सिखाती थी। अर्थात् दनायु पुत्र उतने ही दुष्ट, उद्दण्ड तथा झगड़ा करने
लगते थे। इसी प्रकार घर में भाई-भाई में ही बैर(शत्रुता) के बीज बोती जा रही थी।
(जिसका परिणाम आगे चलकर देवासुर संग्राम हुआ।) कश्यप ऋषि तपस्वी व्यक्ति थे। शान्त
रहकर यह सब देखते और चुप रह जाते थे। वे मन-ही-मन चिन्ता की आग में जलते रहते थे
कि आगे क्या होगा। भाई-भाई में इस प्रकार का झगड़ा, घर का कलह आगे चलकर क्या रंग
लाएगा।
अदिति और कश्यप
जितना ही संयम दिखलाते थे,
दनायु एवं उसके
सुत त्यों धृष्ट हुए जाते थे।
दनायु के सुत
वीर, वृत्र थे, बल एवं विक्षुर थे,
माता के इंगित
पर कुछ भी करने को तत्पर थे।
व्याख्या:- कवि आगे कहते हैं कि अदिति एवं कश्यप जितना ही दनायु
तथा उसके पुत्रों से संयम का बर्ताव दिखाते थे दनायु के पुत्र उतना ही अधिक
अभद्रता दिखाते थे। दनायु के पुत्र वीर, वृत्र, बल तथा विक्षुर अत्यंत
शक्तिशाली एवं उद्दण्ड थे। अपनी माता के एक इशारे पर वे कुछ भी करने को तैयार हो
जाते थे। कश्यप ऋषि तथा देवी अदिति उनकी उद्दण्डता के कारण आश्रम का वातावरण्
दूषित न हो तथा आश्रम में किसी भी प्रकार का झगड़ा ना हो इसलिए संयम से काम लिया
करते थे। परन्तु इसका फल उलटा ही जाता था।
अदिति सुतों को
नहीं उन्होंने कभी स्वभ्राता माना,
जब भी जाना,
उन्हें विरोधी और शत्रु ही जाना।
कश्यप ने जब-जब
समझाया भ्रातृ-प्रेम सिखलाया,
तब-तब दनायु ने
सारे घर को शीश पर उठाया।
व्याख्या:- कवि कहते हैं कि दनायु के पुत्रों ने कभी भी अपनी
सौतेली माता अदिति के पुत्रों को अपना सगा-भाई नहीं माना। यद्यपि वे सभी अलग-अलग
माताओं के पुत्र थे लेकिन थे तो एक ही पिता की संतान। फिर भी उनमें जमीन-आसमान का
फर्क था तथा इसी कारण दनायु पुत्रों ने कभी भी अदिति के पुत्रों को अपना भाई नहीं
समझा। जब भी उन्हें देखा या जाना तो अपना विरोधी तथा शत्रु ही समझा। कश्यप ऋषि
जब-जब दनायु पुत्रों से बात करते उन्हें समझाते तो उन्हें भ्रातृ-प्रेम सिखाया
करते थे। लेकिन दनायु जो सदैव ही बुरे भावों से भरी हुई रहती थी, अदिति तथा उसके
पुत्रों का अहित चाहती थी, इस बात को लेकर पुरा घर सर पर चढ़ा लेती थी कि कश्यप
ऋषि केवल उसके ही पुत्रों को क्यों समझाते हैं।
कहा कि “तुम मेरे पुत्रों को कायरता सिखलाते,”
और सौत के
तनयों को शीश पर सदैव बिठाते।
‘मेरे भी सुत तनय आपके हैं, क्या कभी विचारा?,
उनको सदैव
पुचकारा, इनको सदैव फटकारा।’
व्याख्या:- दनायु जब भी
सुनती कि कश्यप ऋषि उसके पुत्रों को कुछ समझा रहे हैं तो वह तुरंत उनका विरोध करना
शुरू कर देती। पूरे घर को सिर पर चढ़ा लेती। वह तब ऋषिवर से कहने लगती कि – तुम मेरे पुत्रों को जब देखों कायरता सिखाते हो। दनायु को भ्रातृ-प्रेम,
सदाचार आदि व्यवहार कायरता ही प्रतीत होते थे इसलिए वह अपने पुत्रों को यह सब न
सिखाकर उलटा ही सिखाती थी। वह ऋषि से कहने लगती कि तुम मेरी सौतन के बेटों को
हमेशा अपने सर पर बिठाते हो, उनका ही पक्ष लेते हो। मेरे बेटे तो आपके भी बेटे है
लेकिन कभी उनके बारे में आपने नहीं सोचा। सदा ही अदिति के पुत्रों को आप प्यार
करते हैं और मेरे बेटे को फटकारते रहते हैं।
यह सब अन्याय है।
अदिति-पुत्र
देवों का राजा बना, देख प्रमुदित हो,
कभी न
सोचा-स्थान प्राप्त मम तनयों को समुचित हो।
बना इन्द्र
देवेन्द्र, बन्धुओं को उसने पद बाँटे,
मम तनयों से
ऐसे बचा कि इन सबमें हों काँटे।
व्याख्या:- दनायु ऋषि कश्यप को ताने मारते हुए कहने लगती है कि – अदिति का पुत्र देवताओं का राजा बन गया और आप उसे देख कर अत्यंत प्रसन्न
हो गये। लेकिन कभी ये नहीं सोचा कि मेरे पुत्रों को भी कोई उचित एवं अच्छा स्थान
प्राप्त हो। दनायु भी चाहती थी कि उसके पुत्र में से कोई राजा बन जाए। लेकिन ऐसा
नहीं हुआ। वह आगे कहती है कि – इन्द्र ने
राजा बनते ही अपने भाईयों को कई अच्छे-अच्छे पद एवं कार्यभार संभालने के लिए दिये।
लेकिन पद बाँटते समय उसने मेरे पुत्रों का ध्यान नहीं आया, वह उनसे ऐसे बचा-बचा कर
अपने भाईयों को देवताओं का पद बाँट रहा था जैसे मेरे बेटों में काँटे लगे हो।
दनायु इस बात से भी रुष्ट थी कि उसके पुत्रों को कभी कोई अच्छा स्थान नहीं मिला।
ऐसा कुछ भी
किया न, मेरे सुत भी कुछ बन जाते,
‘यह मत करो, करो मत वह’ ही उन्हें रहे सिखलाते।
प्रतिभा कुंठित
हो, विकास इनका न कभी हो पाये,
अदिति पुत्र
फूलें, मेरे सुत रहें सदा मुरझाये।
व्याख्या:- दनायु आगे कहती है कि – आपने (अपने
पति ऋषि कश्यप से) कभी ऐसा कुछ नहीं किया कि मेरे पुत्रों का कोई हित हो। ऐसा कोई
काम नहीं नहीं किया जिससे कि मेरे पुत्र भी कुछ बन जाते। बल्कि उन्हें आप यह मत
करो, वह मत करो ही सिखाते रह गये। उनकी प्रतिभा केवल आपके कारण दबी रह गयी। वे
असफलताओं के कारण निराशा में घिरे रह गए। वे कभी भी विकसित नहीं हो पाये। अदिति के
पुत्र सदैव फलते-फूलते रहे और मेरे पुत्र सदा के लिए मुरझा गए।( वस्तुतः अदिति
पुत्रों और दनायु पुत्रों में बहुत अंतर था। अदिति पुत्र जितने शांत, गंभीर,
ज्ञानी, संयमी, विनम्र थे, दनायु पुत्र उनके बिलकुल विपरीत स्वभाव के थे। यही कारण
है कि उन्हें सृष्टि के ऐसे किसी भी काम के लिए अयोग्य घोषित किया गया था जो
सृष्टि के लिए उपयोगी थे। क्योंकि गलत व्यक्ति को यही महत्त्वपूर्ण काम अथवा किसी
अच्छे पद की जिम्मेदारी दी जाए तो वह उसे बर्बाद कर देता है। ऋषि कश्यप इस बात को
समझते थे लेकिन दनायु यह नहीं समझती थी।)
मैं अभिसन्धि
समझती हूँ, इतनी न ज्ञानरहिता हूँ,
नहीं अचेतन,
सावधान एवं संज्ञा-सहिता हूँ।
मेरे पुत्र
अदिति-पुत्रों के पथ में कभी न आवें,
छीनें उनका
राज्य न, उनसे भी आगे बढ़ जावें।
व्याख्या:- दनायु कहती है कि – मैं अभिसन्धि
(चालबाजी) को अच्छी तरह से समझ चुकी हूँ। इतनी भी अज्ञानी नहीं हूँ। मैं
चेतनाशून्य नहीं हूँ बल्कि सावधान हूँ एवं होश में हूँ। मेरे पुत्र अदिति के
पुत्रों के रास्तें में कभी न आ सके, न कभी भी उनका राज्य छीन सके उसमें राज कर
सके। न कभी मेरे पुत्र जीवन में आगे बढ़ सके इसीलिए यह चालबाजी की गयी है। यह बात
में अच्छी तरहा से जानती हूँ।
इतनी तुच्छ
नहीं हूँ मैं जो ऐसी शिक्षा दूँगी,
कर्तव्य-च्युत
तुम, मैं कर्तव्य का सुमार्ग गहूँगी।
मुझको या मेरे
पुत्रों को देवों से न प्रयोजन,
अदिति-सुतों से
हम सब दूर रहेंगे शत-शत योजन।
व्याख्या:- दनायु आगे कहती है कि मैं इतनी तुच्छ नहीं हूँ, इतनी
बुरी नहीं हूँ कि अपने पुत्रों को ऐसी शिक्षा दूँगी कि वे देवताओं का राज्य छीन ले
या देवताओं को दबाकर आगे बढ़ जाये। तुम(ऋषि कश्यप को संबोधित करते हुए) भले की
कर्तव्य-च्युत( कर्तव्य से विमुख होना) हो। मेरे पुत्रों के प्रति भी जो तुम्हारा
जो कर्तव्य था उसे भले ही न पूरा किया हो लेकिन मैं अपने कर्तव्य का पालन करूँगी।
कर्तव्य के सुमार्ग पर चलते हुए अपने पुत्रों को लेकर यहाँ से दूर चली जाऊँगी।
मुझको और मेरे पुत्रों को तुम्हारे पुत्रों से कोई प्रयोजन नहीं है, कोई मतलब नहीं
है। मैं और मेरे सभी पुत्र अदिति और उसके पुत्रों से बहुत दूर हजारो कोस दूर चले
जाएंगे। दूर जाकर कही रहेंगे।
नहीं मानव का
नृप इन्द्र, तथापि परम पूजित है,
यश का छन्द
इन्द्र के उनके मानस में कूजित है।
मानव उसे नृपति
से भी सम्मान अधिक देते हैं,
स्वर्ग-प्रदाता
एकमात्र वह, मान सहज लेते हैं।
व्याख्या:- दनायु ऋषि
कश्यप से इन्द्र के बारे में कहती है कि – इन्द्र तो
मानवों का राजा नहीं है। लेकिन मानवों में वह परम पूजित है। सभी उसकी पूजा करते है
उसको बहुत मान-सम्मान देते है। इन्द्र के यश का गान मानवों के मन-मस्तिष्क में
सदैव ही गूंजता रहता है। मानव जाति उसे अपने राजा से भी अधिक सम्मान देते है। वह
सहज ही मान लेते हैं कि इन्द्र ही उन्हें स्वर्ग में स्थान दिला देगा। इसीलिए सदैव
उसकी पूजा-अर्चना की जाती है उसको प्रसन्न किया जाता है।