धनेश्वर
इंग्टी असम के जाने माने रचनाकार है। इनका जन्म 1955 में असम में हुआ। इन्होंने
असमिया, अंग्रेजी तथा कार्बी भाषा में आठ कविता-संग्रह की रचना की है। ‘पूर्वजों की धरती’ इनके द्वारा लिखित कार्बी
आंग्लांग जिले में रहने वाले लोगों की
मूलभूत समस्या तथा उनकी कमजोरियों को अभिव्यक्त किया है। इस कहानी का अनुवाद
उदयभानु पाण्डेय जी ने किया है। यह कहानी बहुत छोटी सी है परन्तु इस कहानी में
गरीब किसान की कमजोरियों तथा बुरी आदत को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया है।
कहानी इस प्रकार है – सरपो एंग्जाई
नामक एक गरीब किसान को पैसों की जरूरत होती है क्योंकि दुर्गा पूजा के अवसर पर वह
बच्चों के लिए नए कपड़े बनवाना चाहता है। वह डाकामोका बाजार में सिकंदर महाजन की
दुकान पर उससे पैसे मांगने जाता है। सिकंदर महाजन से पैसे मांगने पर महाजन उसको
बताता है कि उसके पास पहले से ही कई जमीने रेहन रखे हुए हैं और वह अब किसी की भी
जमीन बंधक या पैकारी में नहीं लेगा क्योंकि इससे उसका बहुत नुकसान होता है। महाजन
बताता है कि यदि सरपो अपनी जमीन बेचना चाहे तो वह खरीद सकता है क्योंकि उसके पास
जमीन खरीदने के पैसे हैं। महाजन सरपो से कहता है कि वह मानिक तेरांग के पास क्यों
नहीं जाता। इस बात पर सरपो कहता है कि यदि वह मानिक तेरांग (एक कार्बी व्यापारी)
के पास गया तो वह उसे जमीन न बेचने की सलाह देगा। सरपो को अपनी जमीन बेचने की धुन
सवार होती है। वह महाजन से कहता है कि उस पर बहुत सारा कर्जा है जिसे चुकाने के
लिए वह जमीन बेचना चाहता है। महाजन उसे बता देता है कि उसके पास उधार जमीन रखने के
लिए पैसे नहीं है अलबत्ता जमीन खरीदने के लिए पैसे हैं। सरपो के बार-बार कहने पर
महाजन उसे महज पाँच हजार रुपये निकाल कर दे देता है। सरपो यह पैसे लेकर डाकमोका
बाजार के साप्ताहिक बाजार की ओर चल देता है। तभी उसे अपने कई घनिष्ठ मित्र दिखाई
पड़ते हैं जो कि सोनारू पेड़ के नीचे बैठ कर देसी शराब(हर अरक) पी रहे थे। सहसा
सार्थे रांग्पी सरपो में बातचीत होती है जिसमें सरपो सार्थे को बताता है कि सिकंदर
महाजन ने उसे जमीन के लिए पाँच हजार रुपये दिये हैं। सार्थे रांग्पी का साला लकबक
भी वही होता है जो देसी शराब पी रहा होता है। वह सरपो को भी शराब पीने का न्योता
देता है। फिर वह अनिहाई( श्रीमती सांग्पी रांधागपी) जो शराब की दुकान चलाती है उसे
सरपो के लिए एक बोतल शराब देने को कहता है। सरपो जब शराब पीने लगता है तो उसे
तुरंत नशा चढ़ जाता है और उत्तेजना में वह दूसरी बोतल का भी ऑर्डर दे देता है। वह
एक और शराब की बोतल का ऑर्डर देता है जो वह अपने मित्र को सम्मान जताने हेतु देता
है। जब वह शराब के नशे में होता है तभी उसका बेटा धनसिंह डिफू शहर से महिने भर का
राशन लेने घर वापस आता है। जब वह घर पर अपने पिता सरपो एंग्जाई को नहीं मिल पाता
है तो वह डाकमोका बाज़ार की ओर जाता है जहाँ उसे उसके पिता शराब के नशे में चूर
दिखाई पड़ता है। जब सरपो से धनसिंह प्रश्न करता है तो सरपो शराब के नशे में उसे नोटों
की गड्डी दिखाता है और उसे कोरकंथी नदी की ओर उछाल देता है। सरपो शराब के नशे में
जो कुछ भी करता है उसे बाद में कुछ याद नहीं रहता है। जब उसे होश आता है तो वह
अपने आप को कड़ाके की ठण्ड में डाकमोका बाज़ार की मुख्य सड़क पर पड़ा हुआ पाता है।
उसके सारे पैसे कोरकंथी नदी में बह जाते हैं जिसे अगले दिन कार्बी त्योहार मनाने
आये स्थानीय निवासियों में मिलते हैं। वे लोग वहाँ त्योहार में प्रीतिभोज के लिए
मछली पकड़ने आते हैं। उस दिन वे लोग मछली के बजाए नोट पकड़ते हैं।
प्रस्तुत कहानी बहुत ही प्रेरणात्मक
तथा सीख देने वाली है। इस कहानी में धनेश्वर जी ने कार्बी जिले में रहने वाले गरीब
किसानों की कमजोरियाँ जैसे आलस्य और लापरवाही, अशिक्षा तथा शराब के नशे की लत में
सबकुछ डूबो देना इत्यादि को दर्शाया है। वासत्व में गरीब किसानों तथा समाज में
अन्य गरीब तबके के लोगों की गरीबी या उनके दयनीय दशा के लिए अधिकांश ये ही लोग
जिम्मेदार होते हैं। जैसे-जैसे समाज में परिवर्तन होता चला जाता है समझदार जातियाँ
अपने आप को नये सामाजिक रंग-ढंग में डाल लेती है। परन्तु जो इस परिवर्तन को अपना
नहीं पाते हैं उनके लिए ही चुनौतियाँ सामने आकर खड़ी हो जाती है। अतः वे इन
चुनौतियों का सामना का कर पाते हैं या फिर नहीं।
सबसे पहले धनेश्वर इंग्टी ने सरपो
जैसे गरीब किसानों की लापरवाही तथा महाजनों के चंगुल में आसानी से फंस जाने को कुछ
ऐसे बयान किया है – सरपो एंग्जाई कई और लोगों के साथ सिकंदर महाजन की दुकान पर जमा
हुआ था। यह दुकान डाकमोका बाज़ार के बीचोबीच स्थित थी। बाहर से देखने पर यह दुकान
बहुत बड़ी नहीं दिखती थी। लेकिन पूरे डाकमोका इलाक़े के निर्धन किसानों की ज़मीनें
इस दुकानदार के क़ब्ज़े में थीं। लेकिन यह कहना उचित नहीं होगा कि इस लूट के लिए
केवल सिकंदर महाजन ही दोषी था। कोई कभी उस पर धोखेबाज़ी या ग़रीबों के खून चूसने
का अभियोग नहीं लगा सकता। वास्तविक अपराधी तो सरपो जैसे वे लोग थे जो आलस्य के
कारण अपनी ज़मीनों पर खेती करने से कतराते थे,...।1 यहाँ यह बात स्पष्ट
दिखती है कि यदि किसान खेती ही नहीं करना चाहता तो उसके आय का दूसरा स्त्रोत क्या
हो सकता है। ये लोग पहले से ही गरीब तथा इनके पास खेती के अलावा दूसरे काम-काज का
कोई अन्य स्त्रोत नहीं है। वही सरपो जैसे लोग जब-जब छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा
करने के लिए सिकंदर महाजन जैसे धूर्त व्यापारियों के पास जाते हैं तो अपनी ज़मीन
औने-पौने दाम पर बेच देते हैं। ये इतने अशिक्षित है कि इन्हें भविष्य की जरूरतों
का खयाल नहीं रहता है। साथ ही इनमें इतना आलस भरा होता है कि ये कोई काम नहीं करना
चाहते हैं। जब सिकंदर महाजन सरपो से कहता है कि वह मानिक तेरांग के पास क्यों नहीं
जाता पैसों के लिए तो सरपो कहता है कि मानिक तेरांग उसे बाते सुनाएगा और उसे ज़मीन
बेचने से रोकेगा। सरपो को मानिक तेरांग कार्बी व्यापारी होते हुए भी इसलिए नहीं
पसंद है क्योंकि वह मानिक तेरांग उसे दस बाते कहेगा। कई बार एक ही समाज में रहने
वाले लोगों में यदि विचारों और कर्मों में भेद हो तो लोग एक-दूसरे को पसंद नहीं
करते। वही सरपो जैसे लोगों की बार-बार छोटी-छोटी जरूरतों के चलते जमीन को गिरवी रख
कर कर्ज के तले इतना दब जाते हैं कि उनके पास बची हुई जमीन भी उतने काम की नहीं रह
जाती है कि उसमें खेती करके वह गुजारा कर सके। वही मानिक तेरांग भी व्यापारी है।
वह भी अपने व्यापारिक दाव-पेंच सबके सामने नहीं खोलेगा। परन्तु वह सरपो जैसे लोगों
को समझाएगा जरूर जिसे सरपो नहीं समझ पाएगा। दूसरी बात कि अशिक्षित होने के कारण
सरपो को इतनी समझदारी नहीं है कि वह अपनी ज़मीन को बिना बेचे भी पैसों की जरूरतों
को पूरा कर सकता है। सरपो पैसों की सही गिनती भर तक जानता है परन्तु व्यापारियों से
कैसे निपटा जाता है इस मामले में उसका अनुभव बिलकुल नहीं है। यही कारण है कि उनपर
कर्ज़ का बोझ भी अधिक चढ़ जाता है। सरपो जैसे गरीब, अशिक्षित एवं उदासीन किसान तब
ऐसे में किसी भी प्रकार से कर्ज़ के बोझ से छुटकारा पाने की सोचते हैं। सरपो के
शब्दों में ----अब मैं कहाँ मरूँ और कैसे ज़िंदा रहूँ? मुझे आपको भी उधार की एक मोटी रक़म चुकानी है। अगर मैं ज़मीन नहीं बेचूँ
तो आपका क़र्ज़ कैसे चुका पाऊँगा? और बच्चों के कपड़े कैसे
आएँगे?2 समझदार और शिक्षित होने से शायद वह ऐसे
क़र्ज़ के गर्त में नहीं फँसता। सुबीर भौमिक ने अपने शोध में Trouble Periphery—Crisis of India’s
Northeast में
बताया है
कि असम के कार्बी आंग्लांग तथा उत्तर कछार जिले में जनजातीय लोगों की ज़मीने कई
बार तरह-तरह के बंधकों के जरिए दूसरे लोगों के पास चले जाया करते थे जिससे की
उन्हें बाद में खेती करने लायक ज़मीने नहीं बचती थी। ये ज़मीने बाद में गैर
आदिवासियों द्वारा जोती जाती थी और इसकी आमदनी भी उन्हीं के हिस्से आता था। यथा The report authored by the tribal
research institute, indicates that through the system of Pakis, Sukti Bandhak,
Koi Bandhak and Mena, large swathes of the tribal lands had temporarily passed
in the hands of non-tribals. Tribals continue to practise jhum or shifting
cultivation in these two districts, taking advantage of which the non-tribals
have grown crops in their lands and earned a much better surplus income that is
subsequently used to corner more landed assets.3
सरपो जैसे लोगों की एक
और कमजोरी को कहानीकार ने स्वाभाविक रूप से उजागर किया है, वह शराब के लत की। हर
अरक कार्बी खान-पान का एक प्रमुख हिस्सा होता है। ये देसी शराब उनके जीवन शैली का
एक अभिन्न हिस्सा है। उनके यहाँ किसी को मान जताने का तरीका यही है कि उन्हें शराब
भेंट में दी जाए। यह हर अरक उनके पारम्पारिक जीवन का एक ऐसा अभिन्न अंग है कि ये
भगवान की पूजा में भी इसे चढ़ाते हैं। ये हर अरक दवा के रूप में भी इस्तेमाल किए जाते
हैं। परन्तु इस पेय पदार्थ विधान अलग-अलग रहता है। साधारणतः ये प्रतिदिन के भोजन
या अलग-अलग अवसरों पर पान किया जाता है।
इस कहानी में सरपो तथा उसके मित्र हर
अरक पीते है परन्तु उसे पीते हुए इतना नशा चढ़ता है कि उन्हें नशा चढ़ने के बाद
किए गए किसी भी काम के बारे में याद नहीं रहता है। सरपो को जब उसके मित्र हर अरक
की एक बोतल देते हैं तो वह उसे तुरन्त पीने लग जाता है जिससे उसे नशा चढ़ने लगता
है। उस समय उसके पास महाजन के दिए पैसे रहते हैं जिसे वह यह कहकर लाया था कि इससे
वह अपने बच्चों के लिए कपड़े लेगा। परन्तु देसी शराब के नशे में वह पूरी तरह से
सबकुछ भूल जाता है। उसके पास जो पैसे होते हैं वह उन्हीं को ही खर्च करने लग जाता
है। जब सार्थे रांग्पी शराब बेचने वाली से एक और बोतल लेने के लिए दस रुपये
निकालता है तो सरपो भी अपने जेब में रखे पैसों को देखता है। तब उसकी क्या
प्रतिक्रिया होती है उसे कहानीकार ने कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है --- यह कहकर
उसने पॉकेट से दस रुपये का एक चीकट नोट निकाला और फ़ौरन उसकी ओर बढ़ा दिया। ठीक
इसी समय सरपो एंग्जाई ने भी अपनी जेब की तरफ़ देखा और उसके नथुने सौ-रुपयों के
ताज़े नोटों की ख़ुशबू से भर गए। इस पर उसकी उत्तेजना भड़क उठी और उसने दूसरी बोतल
का ऑर्डर दे डाला।4 इतना ही
नहीं जब उसका बेटा धनसिंह जब अपने पिता को अपने मित्रों के साथ शराब पीने में मग्न
देखता है तो उसे शर्मिंदगी महसूस होती है। वह अपने पिता से प्रश्न करता है लेकिन
सरपो शराब के नशे में यह भी भूल जाता है कि उसका कोई बेटा भी है। “यहाँ कौन मुझे पापा कहने वाला निकल आया भला? कमाल
है।”5 सरपो का बेटा उसे समझाने
की कोशिश करता है परन्तु सरपो शराब के नशे में धनसिंह को पैसे दिखाकर अपनी बढ़ाई
करने लगता है। होश न रहने के कारण वह नोटों की गड्डी को कोरकंथी नदी की ओर उछाल
देता है। आधी रात को जब उसे होश आता है तब उसे एहसास होता है कि वह कड़ाके की
सर्दी में बीज बाज़ार में सड़क पर पड़ा हुआ है। शराब दरअसल एक ऐसी बुरी लत है
जिसमें एक बार यदि कोई फँस जाए तो उसका इससे बच निकलना मुश्किल हो जाता है। समाज
के ज्यादातर गरीब लोगों में यह बुरी लत लगी होती है। यही कारण है कि वे अक्सर अपनी
जमा पूँजी या अचानक मिले पैसे गवां बेठते हैं। सरपो को जो पाँच हजार रुपए मिलते
हैं वह कम नहीं है। सरपो उससे अपने घर के लिए महीने भर का राशन और अन्य व्यवस्थाए
कर सकता था। परन्तु वह सबकुछ इस नशे की लत में स्वाहा कर देता है। धनसिंह सरपो से
कहता है कि वह महिने भर का राशन लेने घर आया है परन्तु सरपो बाज़ार में शराब पीने
में मस्त है तो वह कहाँ से राशन लाएगा?
हमारा भारतीय समाज कई प्रकार के लोगों
से भरा हुआ है। इस समाज में अमीर भी है और गरीब भी है। समाज में सभी लोगों की
राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार उनका वर्गीकरण यदि किया जाए तो
तीन वर्ग स्पष्ट रूप से सामने आते हैं – उच्चवर्ग, मध्यमवर्ग, निम्नवर्ग। इन सभी
वर्गों में आने वाले लोगों की अपनी विशेषताएँ होती है। सबसे बड़ी बात यह है कि ये
सभी वर्ग अपनी-अपनी विशेषताओं, कर्मों तथा जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोणों के कारण
अलग-अलग वर्ग में आते हैं। इनमें से कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने जीवन को सुन्दर और
सफल बनाकर सबसे आगे भी निकल जाते हैं। यह कहना सर्वथा अनुचित है कि समाज में जो
गरीब है या निम्नवर्ग के लोग है उन्हें हमेशा से दबाया या कुचला जा रहा है। वास्तव
में प्रस्तुत कहानी से यह बात सामने आती है कि समाज में जिन लोगों की स्थिति दयनीय
है उसके लिए कई बार वे ही लोग स्वयं जिम्मेदार होते हैं। यदि सरपो जैसे लोग
वर्तमान समाज में आए बदलाव के प्रति सजग रहते, आधुनिक समाज के परिवर्तनों की बहती
धारा में स्वयं को भी थोड़ा बदलने का प्रयास करते, अपनी शिक्षा तथा पारिवारिक
जिम्मेदारियों की सही दिशा में रखने का प्रयास करते तो फिर उसे न तो सड़क पर रात
बितानी पड़ती, न ही ऐसे लोगों की आने वाली अगली पीढ़ी को ही किसी प्रकार की
कठिनाईयों का सामना करना पड़ता। वही जनजातीय लोगों की समस्या यह भी है कि वे अभी
तक भारतीय समाज में हो रहे परिवर्तनों, मुख्यधारा के लोगों की विचारधारा या सोच
आदि के साथ पूरी तरहा से जुड़ नहीं पाए हैं। यद्यपि जनजातीय लोगों के जीवन शैली,
उनकी सरलता, उनका भोलापन, उनकी संस्कृति के प्रति गैर जनजातीय समाज में काफी हद तक
सजगता आयी है। वही विडम्बना की बात यह भी है कि कुछ लोग समाज में ऐसे भी हैं जो
अपनी बुरे विचारों तथा स्वार्थपरक नीतियों तथा लोभ के कारण दूसरों के जीवन को
कष्टदायक बनाने में लगे हुए हैं। ये समाज के किसी भी वर्ग से हो सकते हैं परन्तु
इनका लक्ष्य केवल यही रहता है कि कैसे अपने स्वार्थ की पूर्ति करे। यह बात हम
सिकंदर महाजन जैसे लोगों के जरिए भली-भाँति समझ सकते हैं। कहानीकार धनेश्वर इंग्टी
ने अपनी इस छोटी सी कथा के जरिए समाज के एक बहुत बड़े विरोधाभास को दर्शाया है। जो
कि वर्तमान भारतीय समाज की समस्या बन गयी है। आज दलित वर्ग या निम्न तबके के लोग,
गरीब आदिवासी जनता समाज की मुख्यधारा के साथ जुड़ना तो चाहते हैं परन्तु सिकंदर
महाजन जैसे न जाने कितने ऐसे धूर्त लोग हैं जो कि इनके साथ बुरा करके इनके मन में
गैर-आदिवासी समाज के प्रति नफरत की भावना को भर रहा है तथा बढ़ा भी रहा है। अतः
सबका यही प्रयास रहना चाहिए कि ऐसे लोगों के प्रति सावधान रहा जाए तथा यह भी
प्रयास करना चाहिए कि अपनी कमजोरियों को दूर करे ताकि कोई उसका फायदा न उठा सके।
संदर्भ
ग्रन्थ
1)
पूर्वजों की धरती –
धनेश्वर इंग्टी, समकालीन भारतीय साहित्य – अंक 164, साहित्य अकादेमी पत्रिता,
पृ.सं – 165
2)
वही, पृ,सं – 166
3)
Trouble Periphery – Crisis of
India’s North-east – Subir Bhaumik, SAGE Publication,
4)
वही, पृ, सं – 168
5)
वही, पृ,सं –168
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