भारत का स्वाधीनता आन्दोलन सबसे लम्बा तथा सबसे
बड़ा आन्दोलन है। इस आन्दोलन में न जाने कितने लोगों ने अपनी जान देकर भारत को
आज़ाद कराने में अपना महान योगदान दिया। यह अन्याय होगा यदि हम कुछेक बड़े नेताओं
का ही नाम ले तो। बल्कि बड़े-बड़े नेताओं को यह सफलता नहीं मिलती यदि उनकी एक
पुकार पर भारत की आम जनता, युवा वर्ग, किसान, स्त्रियों ने यदि भाग न लिया होता
तो। कालापानी की अमानुषिक यातनाओं तथा अंग्रेज़ों के लाठियों की बौछार यदि इन
लोगों ने न सही होती तो स्वतंत्रता आन्दोलन कोई रंग नहीं ला पाता। फाँसी पर यदि
क्रान्तिकारी नहीं होते तो किसी को भी स्वतंत्रता का महत्त्व नहीं समझ में आता।
सार रूप में कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता आन्दोलन में उन सभी भारतीयों का समान
योगदान है जिन्होंने नेताओं का साथ दिया है। इसी प्रकार लेखकों का योगदान भी बहुत
महत्त्वपूर्ण है। फिर चाहे वह किसी भी भाषा के लेखक हो।
स्वतंत्रता
आन्दोलन में बांग्ला उपन्यासों का बहुत बड़ा तथा महान योगदान रहा है। बंकिमचन्द्र
चट्टोपाध्याय जी द्वारा लिखित आनन्दमठ, कपालकुण्डला, दीनबन्धु मित्र रचित
नीलदर्पण, रविन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखित गोरा, घरे बाइरे उपन्यास आदि इसी श्रेणी
में आते हैं। तत्कालीन भारत में जिस प्रकार पूरा देश ब्रिटिशों के अन्याय एवं
अत्याचार को सहन कर रहा था। सभी लोग त्रस्त थे। गरीबी, अशिक्षा, जातिवाद, धार्मिक
कट्टरता, नारी समस्याओं आदि से जूझ रहा भारतीय समाज ब्रिटिशों द्वारा और अधिक
सताएँ जा रहे थे। वही ब्रिटिशों ने अपनी ताकत बढ़ाने की एक नयी योजना बना दी। फूट
डालों और राज करो की नीति के साथ-साथ भारत में रहने वाले हिन्दुओं में उनके ही
धर्म के कुछ रीति-रिवाज, मान्यताएँ तथा आचार-व्यवहार को सदियों पुराना एवं जर्जर
बताना शुरू किया, उसे कई प्रकार के तर्कों द्वारा अवैज्ञानिक करार दे दिया। वैसे
भी भारतीय समाज में कुछ ऐसी परम्पराएँ थी जो काफी पुरानी एवं समाजोद्धार के रास्ते
आढ़े आ रही थी। फलतः हिन्दू धर्म के प्रति आस्था रखने वाले हिन्दू धर्म का
बहिष्कार करने लगे और एक नए धर्म की खोज में लग गए। यह सब कुछ उन्नीसवी से बीसवीं
सदी के शुरूआती वर्षों में होने लगा। नारी समस्या, दहेज प्रथा, जातिप्रथा तथा
धार्मिक मान्यताओं तथा परम्पराओं को चुनौतियाँ दी जाने लगी। परिणाम स्वरूप
समाज-सुधार आन्दोलन होने लगे, लोगों में देशभक्ती की भावना जगाने की कोशिश की जाने
लगी, तथा बाकी सभी समस्याओं को भी जड़ से मिटाने की चेष्टा होने लगी और इसमें
बंगाली उच्च वर्गीय हिन्दू समाज के लोगों में ही यह बदलाव होने लगा। फिर भी इसका
प्रचार-प्रसार खूब हुआ तथा इसे बंगाल के नवजागरण की संज्ञा दी गयी।
इसमें सबसे आगे थे बंगाल के राजा राममोहन राय जिन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना
की। हिन्दू समाज में फैली कुरीतियों के प्रति लोगों के अवगत कराना इसका मुख्य
उद्देश्य था। साथ ही साथ ब्रह्म समाज में वेदों और उपनिषदों के अध्ययन पर और एक
ईश्वर के सिद्धांत पर जोर दिया गया। ब्रह्म समाज में तीर्थयात्रा,
मूर्तिपूजा, कर्मकाण्ड आदि की आलोचना की गयी।
इसके अलावा बहु- विवाह, बाल- विवाह, सती
प्रथा आदि के वेदों के विरुद्ध एवं त्याज्य माना गया। ब्रह्म समाज में ईसाई धर्म
की भी प्रशंसा की गयी, परन्तु इसे किसी भी तरह हिन्दू धर्म
से श्रेष्ठ नहीं माना गया। राजा राम मोहन रॉय ने कोई नया धर्म नहीं चलाया, बल्कि प्राचीन भारतीय वैदिक धर्म को ही मान्यता दी।[1]
परन्तु इसमें उन्हें काफी विरोध का सामना करना पड़ा। क्योंकि वर्षों से जो लोग इसी
सामाजिक व्यवस्था तथा धार्मिक मान्यताओं को मानते आए है वह अचानक कैसे अवैज्ञानिक
हो सकता है किसी के समझ में नहीं आ रहा था। परन्तु बदलाव फिर भी होने लगे थे।
ब्रह्म समाज की स्थापना हो चुकी थी और उससे कई लोग जुड़ चुके थे। वही प्रकाडं
पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने बाल विवाह तथा बहुविवाह के खिलाफ आन्दोलन चलाया
तो इसे और बल मिला। अंततः अंग्रेजों ने सती प्रथा तथा बहुविवाह आदि कुप्रथाओं पर रोक
लगा दी। इन्हीं आन्दोलनों में बांग्ला साहित्यकारों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया
तथा अपनी रचनाओं द्वारा बंगाल की आत्मा को जगाने का प्रयास किया। जिसमें श्री
रविन्द्रनाथ ठाकुर का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। गोरा उपन्यास इसी बंगाल
के नवजागरण तथा ब्रह्म समाज की स्थापना एवं उसके विरोध में उठते परम्परावादी
हिन्दू लोगों की कथा है। अब इसे देश के स्वाधीनता आन्दोलन तथा राष्ट्रीय चेतना से
कैसे जोड़ा जाए यह प्रश्न उठता है जो कि स्वाभाविक है। इसके उत्तर में दो-तीन बाते
सामने रखी जा सकती है।
1)
पहली बात यह कि यह
ब्रिटिश शासनाधीन भारत के समय की कहानी है जिसमें रविन्द्रनाथ जी ने
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में भारतीयों के साथ हो रहे अन्याय को उजागर किया है।
2)
दूसरा भारतीय समाज
में ब्रिटिशों के आने से पहले ही काफी सारी कुरीतियाँ एवं कुप्रथाएँ फैल चुकी थी
जो स्वयं ही भारत की दुश्मन हो गयी थी। एक कमजोर समाज फिर कैसे बाहरी ताकतों का
सामना कर सकता है। उसकी आंतरिक ताकत को जगाने हेतु यह उपन्यास सबसे सशक्त है। विनय
के चरित्र में यह दिखता है।
3)
नारी समाज की
समस्याओं को भी अभिव्यक्त किया है। जिस देश में नारी की कोई स्वतंत्र अस्मिता नहीं
वह देश कैसे स्वाधीन हो सकेगा। जहाँ एक
पूरा वर्ग ही घर के चार दिवारी में कैद हो, उसकी कोई इच्छा न हो, सम्मान न हो,
मान्यता न हो, शिक्षित न हो वह स्वाधीन नहीं है। सुचरिता एवं ललिता के द्वारा इसे
प्रस्तुत किया गया है। वे दोनों शिक्षित है तथा हर चुनौति का वह सामना करती है।
4)
ब्रह्म समाज की
स्थापना जिस उद्देश्य से की गयी थी, उससे यही साबित होता है कि भारत को फिर से
वैदिक धर्म की शिक्षा दी जा सके जिसके जरिए भारत की महानता की सबसे बड़ी पहचान सभी
धर्मों के प्रति श्रद्धा एवं सबको साथ लेकर चलने की कला फिर से पूरी दुनिया के
सामने रखी जा सके जो कि इस उपन्यास में दिखता है। गोरा का कट्टर हिन्दू से बदलकर
ब्रह्म समाज में जाकर मिलना और अपने आप को पूरे देश का ही मान लेना यह दर्शाता है।
गोरा
उपन्यास में रविन्द्रनाथ जी ने ऐसी और कई समस्याओं तथा परिस्थितियों का चित्रण
किया है जिससे पाठकों के मन में यह बात उठती है कि जो कुछ भी इस भारतीय समाज में
चलता रहा है यदि इसमें ज़रा भी बदलाव नहीं होता तो देश शायद स्वतंत्र होता किन्तु
किसी नवीन भारत के निर्माण की कोई उम्मीद न होती।
गोरा
उपन्यास में उद्धृत बातें जिनसे उसकी राष्ट्रीय चेतना झलकती है वह इस प्रकार है।
जैसे पहले बिन्दु में कहा गया है कि रविन्द्रनाथ जी ने ब्रिटिशों द्वारा किए जा
रहे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अन्याय को कुछ इस प्रकार से वर्णन किया है । प्रसंग है
ग्रहण के स्नान का। ग्रहण के स्नान के समय
एक स्टीमर-कम्पनी द्वारा जहाज यात्री लेकर त्रिवेणी जा रहा था। उस समय बड़ी संख्या
में लोग स्टीमर पर चढ़ रहे थे। परन्तु अत्यधिक भीड़ तथा हड़बड़ी के कारण लोग सही
ढंग से न तो जहाज पर चढ़ पा रहे थे न उतर पा रहे थे। गोरा भी उस जहाज में सवार था।
लोगों के बैठने का स्थान भी कीचड़ से भर गया था तथा बारिश की बौछारों से लोग भीग
रहे थे। गोरा उन लोगों की मदद कर रहा था। ऐसे में स्टीमर के पहले दर्जे के डेक पर
एक अंग्रेज तथा एक आधुनिक बंगाली बाबू खड़े थे जो यह तमाशा देख कर बार-बार हंस रहे
थे। जब गोरा से सहन नहीं हुआ तो वह तुरंत वहाँ जाकर उन्हें कह उठता है – (“धिक् तोमादेर! लज्जा नाई!” इन्गरेजटा
कठोर दृष्टिते गोरार आपामस्तक निरीक्खन करिल। बांगालि उत्तर दिल – “लज्जा! देशेर एई-समस्त पशुबत् मूढ़ेर जन्नई लज्जा।”.....गोरा मुख लाल करिया कहिलॉ –“ मूढ़ेर चेये बडॉ पशु
आछे – जार हृदय नेई।”)[2]
इसके
बाद बंगाली उससे कहता है कि यह उसकी जगह नहीं है तो गोरा भी प्रत्युत्तर में कहता
है कि उसकी जगह यात्रियों के बीच है परन्तु उसे दुबारा वहाँ आने को मजबूर न करे
अर्थात् इस प्रकार मजबूर लोगों की मजबूरियों पर हँसकर अपमान करने की चेष्टा न
करें। तत्कालीन भारत में ब्रिटिशों ने अपने लिए हर स्थान पर फर्स्ट क्लास की
व्यवस्था करवा ली थी तथा भारतीय को वे द्वितीय श्रेणी में ही रखते थे। ये एक
प्रकार से अपमान ही हुआ भारतीयों का जिसकी निन्दा स्वयं रविन्द्रनाथ जी करते हैं
तथा यही बात वह गोरा के जरिए करवाते हैं। वही दूसरी उदाहरण हम ले सकते हैं जब
विनय, सुचरिता तथा गोरा एक दिन सुचरिता के घर बातचीत में लगे हुए थे तब सरकारी
नौकरी को लेकर विनय और गोरा के बीच हुए विवाद के बारे में गोरा कह रहा था कि क्यों
उसे पसंद नहीं है कि विनय सरकारी नौकरी करे। इसमें भी दरअसल अंग्रेज़ो द्वारा
भारतीय समाज में भारतीयों के बीच ऊँच-नीच की भावना को प्रकट किया गया है। गोरा एक
डेपुटी के बारे में बताता है कि कैसे उसके अदालत में आने वाले लोग जैल जाने से बरी
हो जाते थे तथा उससे जब उसी के अंग्रेज अफ्सर ने डिस्ट्रिक्ट मेजिस्ट्रेट ने पूछा
था तो उसके बदले में वह जवाब देता है – “ साहेब,
तार एकटि कारण आछे, तूमि जादेर जेले दाओ तारा तोमार पक्षे कूकूर-बिड़ाल-मात्र, आर
आमि जादेर जेले दिई तारा जे आमार भाई हये।”[3] इतना उदाहरण स्पष्ट है कि तत्कालीन भारतीयों की क्या स्थिति रही थी
अंग्रेजों के सामने। साथ ही लोग भी अंग्रेजों के प्रसन्न करने और स्वयं की ही केवल
उन्नति होती रहे इसकी होड़ में थे जिसके कारण भारतवर्ष का यह बुरा हाल था।
अब
हम दूसरे बिन्दु पर चर्चा करते है। भारतीय समाज में ब्रिटिशों के आने से पहले ही
काफी सारी कुरीतियाँ एवं कुप्रथाएँ फैल चुकी थी जो स्वयं ही भारत की दुश्मन हो गयी
थी। एक कमजोर समाज फिर कैसे बाहरी ताकतों का सामना कर सकता है। उसकी आंतरिक ताकत
को जगाने हेतु यह उपन्यास सबसे सशक्त है। साथ ही अंधविश्वास तथा नारी अशिक्षा जैसी
समस्याएँ भी भारत को भीतर तक कमजोर बनाए हुए थी। रविन्द्रनाथ स्त्री शिक्षा के
हमेशा से पक्षधर रहे हैं। तभी विनय द्वारा ही इन सारी बातों को बारम्बार उपन्यास
में उजागर करवाया गया है। विनय जब गोरा से मिलने उसके घर आता है तो वह अनायास ही
गोरा से कहता है कि नंद नामक एक लड़के की माँ ने किसी ओझा को बुलाकर नन्द की
बिमारी ठीक करने के बदले उसकी जान ही ले ली। यह बात दरअसल सुचरिता एवं विनय के बीच
हुई थी जिसे विनय गोरा को बता रहा था। दरअसल विनय से यह बात सुचरिता ही कह रही थी
कि “आपनारा मने करेन घरेर मध्ये आबद्ध करे मेयेदेर राँधते-बाड़ते आर घर निकाते
दिलेई तादेर समस्त कर्तव्य हए गेल। एक दिके एमनि करे तादेर बुद्धिशुद्धि समस्त
खाटो करे रेखे देबेन, तार परे जखन तारा भूतेर उझा डाके तखनो आपनारा राग करते
छारबेन ना। जादेर पक्खे दूटि-एकटि परिबारेर मध्येई समस्त विश्वजगत् तारा कखनोई
सम्पूर्ण मानूष हते पारे ना – एवं तारा मानूष ना हलेई पुरूषेर समस्त बड़ो काजके
नष्ट करे असम्पूर्ण करे पुरूषके एमन करे भाराक्रान्त करे निजेदेर दुर्गतिर शोध
तूलबेई। नन्देर माके आपनारा एमन करे गड़ेछेन...”[4]
वासत्व में सुचरिता बिलकुल सही ही कहती है कि
पुरूष समाज ने ही हमेशा से नारी को घर की चार दिवारी में सीमित सोच के साथ बन्द
करके रखा हुआ है फिर उनसे किसी प्रकार की उन्नत विचारधारा की अपेक्षा करना गलत है
वही उनपर अंधविश्वासी होने के आरोप लगाकर उनपर क्रोध करना भी अन्याय से कम नहीं
है। वही सुचरिता एवं ललिता की सोच के जरिए
दिखाया गया है कि शिक्षित नारी का समाज में होना कितना आवश्यक है। ललिता की भी
विचारधारा यही है कि स्त्रियाँ केवल घर पर रहे तो यह सही नहीं है। यही उपन्यास का
तीसरा बिन्दु भी है। नारी शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण है। विनय हमेशा से ही नारी
शिक्षा के पक्ष में बात करता रहा है जबकि गोरा के मन में अभी भी नारी के प्रति
रूढ़िवादी विचारधारा बनी हुई है। दरअसल गोरा नारी शिक्षा के विरुद्ध नहीं है
परन्तु उसके मन में शिक्षित नारी के प्रति जो भ्रमित भावना है उसके कारण वह नारी
की छवि को ही लेकर भ्रमित है। बाद में जब वह सुचरिता को देखता है तो उसकी सारी गलत
धारणा बदल जाती है। रविन्द्रनाथ जी ने इसे इस प्रकार से अभिव्यक्त किया है –“हारानबाबू चलिया गेले सूचरिता एकटा कोन सूगभिर लज्जाए मूख जखन रक्तिम ओ नत
करिया बशिया छिल, की करिबे, की बलिबे किछुई भाबिया पाईतेछिल ना, शेई समये गोरा
ताहार मूखेर दिके भालो करिया चाहिया लईबार अवकाश पाईयाछिल। गोरा शिक्षित मेयेदेर
मध्ये जे उद्धत्य, जे प्रगल्भता कल्पना करिया राखियाछिल, सूचरितार मूखश्रिते ताहार
आभासमात्र कोथाये! ताहार मूखे बुद्धिर एकटा उज्ज्वलता
निःसंदेह प्रकाश पाईतेछिल, किन्तु नम्रता अ लज्जार द्वारा ताहा की सून्दर कोमल
हईया आज देखा दियाछे!”[5]
सुचरिता के मुख की लज्जा एवं कोमलता ने गोरा के मन में पढ़ि-लिखी स्त्रियों की छवि
को ही बदलकर रख दिया। रविन्द्रनाथ जी भी जानते थे कि भारतीय समाज में नारी की क्या
स्थिति रही है। तभी उनके उपन्यासों के नारी पात्रों में समाज की इन बिना सिर-पैर
की रीति-रिवाज़ों के प्रति कोई श्रद्धा नहीं है जो कि व्यक्ति स्वतंत्रता के लिए
बाधा उत्पन्न करता हो। तभी वे बंगाल नवजागरण के पक्षधर रहे है। इस उपन्यास में
उन्होंने दिखाया है कि किस प्रकार परेशबाबू की स्त्री बरदासुन्दरी अपनी तीनों
बेटियों को शिक्षित करने तथा उनके द्वारा किए गए प्रत्येक कार्यों को सराहती रहती
है। विनय जब उनके घर में आता है तो वह एक-एक करके अपनी सभी बेटियों का गुणगान करती
है। बरदासुन्दरी का बेटा था जो कि नौ साल की उम्र में गुज़र जाता है। उसे इस बात
का हमेशा ही दुख रहता है। वह जब भी किसी लड़के को देखती है तो अपने बेटे को याद
करती है। परन्तु अब उसकी बेटियाँ ही है जिनको लेकर वह गौरव करती है। उनकी बेटी
लावण्य को स्कूल में पुरस्कार वितरण में लेफ्टेनेन्ट गवर्नर तथा उनकी स्त्री के
सत्कार के लिए उसे ही चुना जाता है तथा गवर्नर की स्त्री लावण्य को बहुत
प्रोत्साहन करती है इसकी चर्चा विनय से करना नहीं भूलती। लावण्य को जिस सिलाई के
लिए पुरस्कार मिलता है वह सिलाई भी विनय को दिखाती है। इतना ही नहीं बरदासुन्दरी
अपनी बेटियों को गवर्नर के जन्म दिन में होने वाले कृषिप्रदर्शनी के दिन जब गवर्नर
अपनी स्त्री के साथ रहेंगे तो उनको प्रसन्न करने के लिए एक अंग्रेज़ी काव्य नाकट
करने के लिए भी प्रशिक्षित करती है। परेशबाबू भी अपनी सभी बेटियों को इन सभी
चिज़ों में बहुत प्रोत्साहित करते है। यहाँ तक कि अंत में ललिता जब विनय से विवाह
कर लेती है तब भी अपनी बेटियों का साथ देते हैं तथा सुचरिता का भी साथ देते हैं जब
वह हारानबाबू से विवाह के लिए असहमति दिखाती है तो। इन सभी प्रसंगों से यह ज्ञात
होता है कि रविन्द्रनाथ ठाकुर स्त्री की स्वतंत्रता को लेकर कितने गम्भीर थे।
वस्तुतः उनके लिए भारती की स्वतंत्रता का मतलब ही यही था कि व्यक्ति अपनी संकीर्ण
भावनाओं से निकल कर जब तक आगे नहीं आएगा तब तक न तो उसका समाज में आदर होगा, न
समाज का ही उद्धार होगा। अतः जो समाज ऐसी संकीर्णताओं से जकड़ा हुआ हो वह कभी भी
बाहरी ताकतों का मुकाबला नहीं कर सकता। इसलिए रविन्द्रनाथ ठाकुर राष्ट्रीय चेतना
तथा उसकी स्वतंत्रता के लिए मानते थे कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र हो और
उसमें नारी सबसे महत्त्वपूर्ण अंग थी।
अंतिम
बिन्दु है कि ब्रह्म समाज की स्थापना जिस उद्देश्य से की गयी थी, उससे यही साबित
होता है कि भारत को फिर से वैदिक धर्म की शिक्षा दी जा सके जिसके जरिए भारत की
महानता की सबसे बड़ी पहचान सभी धर्मों के प्रति श्रद्धा एवं सबको साथ लेकर चलने की
कला फिर से पूरी दुनिया के सामने रखी जा सके। इस उपन्यास के अंत में गोरा द्वारा यह
दिखाया गया है। गोरा जो कि शुरुआत में ब्रह्म समाज की ओर उन्मुख था, फिर किसी
अंग्रेज द्वारा हिन्दु समाज की बुराई करने पर वह कट्टर रूप से हिन्दु आचार-व्यवहार
का पालन करना शुरू कर देता है। अपने हिन्दु होने पर वह गौरव महसूस करता है तथा
अपनी माँ के हाथ का भोजन भी इसलिए त्याग देता है क्योंकि उसकी माँ अभी भी अपनी
ईसाई धर्म को मानने वाली नौकरानी लछमिया को रखे हुए है। परन्तु जब गोरा के पिता के
मृत्यु के बाद उसे अपनी माँ से उसके वास्तविक आइरिश माता-पिता के बारे में पता
चलता है तब उसकी सारी कट्टरवादिता चली जाती है। वास्तव में रविन्द्रनाथ जी यह
दिखाना चाहती है कि कैसे आनन्दमयी ने ब्राह्मण होते हुए भी गदर के समय बिना कुछ
सोचे समझे एक आइरिश दम्पति के नन्हे से शिशु को गोद लेकर अपने पुत्र समान बड़े जतन
से पालन-पोषण करके अपने विश्व मातृ स्वरूप की पहचान करायी है उसी से गोरा के मन की
संकीर्णता दूर होती है। साथ ही उसके पिता भी तो हमेशा उसे यही समझाते रहे है कि
हिन्दु होना कोई सहज कार्य नहीं है, बाकि सभी धर्मों को आसानी से अपनाया जा सकता
है परन्तु हिन्दु होना बहुत कठिन है। क्योंकि वास्तविक हिन्दुत्व क्या है यह किसी
के समझ से परे है। अतः अंत में गोरा को रविन्द्रनाथ उसी रास्ते पर ले जाते हैं
जिसमें गोरा जाना चाहता था। गोरा के मन में शुरू से ही अपने राष्ट्र के प्रति असिम
श्रद्धा एवं प्रेम भरा हुआ था परन्तु वह स्वयं कई सारे विचारों में उलझा हुआ होने
के कारण स्वयं ही भ्रमित था। उसका मन किसी प्रकार भी खुला या उदार नहीं हो पा रहा
था। परन्तु अपनी वास्तविकता को जानने के बाद उसमें परिवर्तन होता है जिसे वह स्वयं
परेशबाबू के सामने कुछ इस प्रकार स्वीकार करता है – “आमार कथा कि आपनि ठिक बूझते पारछेन? आमि जा
दिनरात्री हते चाच्छिलुम अथच हते पारछिलुम ना, आज आमि ताई हएछि। आमि आज
भारतबर्षीय। आमार मध्ये हिन्दु, मुसलमान, खृस्टान कोनो समाजेर कोनो बिरोध नेई। आज
एई भारतबर्षेर सकलेर जातेई आमार जात, सकलेर अन्नई आमार अन्न। देखुन, आमि बांलार
अनेक जेलाय भ्रमण करेछि, खुब नीचू पल्लीतेअ आतिथ्य नियेछि – आमि केबल शहरेर सभाय
बक्तृता करेछि ता मने करबेन ना – किन्तु कोनोमतेई सकल लोकेर पाशे गिये बसते पारि
नि – एतदिन आमि आमार संगे संगेई एकटा अदृश्य व्यवधान निये घूरेछि – किछुतेई शेटाके
पेरोते पारि नि। सेजन्य आमार मनेर भितरे खूब एकटा शून्यता छिल। एई शून्यताके नाना
उपाय केबलई अस्वीकार करते चेष्टा करेछि –एई शून्यतार ऊपरे नानाप्रकार कारूकार्य
दिये ताकेई आरो विशेषरूप सुन्दर करे तूलते चेष्टा करेछि!
केनना, भारतबर्षके आमि जे प्राणेर चेये भालोबाशि – आमि ताके जे अंशटिते देखते
पेतुम से अंशेर कोथाअ जे आमि किछुमात्र अभिजोगेर अवकाश एकेबारे सह्य करते पारतुम
ना। आज सेई-समस्त कारुकार्य बानाबार वृथा चेष्टा थेके निष्कृति पेये आमि बेचे गेछि
परेशबाबू!”[6] गोरा के मन में जो शून्यता थी
उससे वह मुक्त हो गया है तभी वह पूरे भारतवर्ष को अपना सका है। यही बात वह
परेशबाबू कहना चाहता है। यह शून्यता उसके
मन में अति कट्टर हिन्दुवादी भावना के कारण थी। यही कारण है जिसने भारतवर्ष के
लाखों नौजवानो तथा वयस्कों को घेर रखा था। इसी कारण भारत कई वर्षों तक बाहरी
ताकतों का गुलाम बना रहा था। जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, धार्मिक कट्टरता के
कारण ही भारत में जब-जब आक्रमण हुए तब-तब वह कही-न-कही हारा है। जिसे राजा राममोहन
राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, रविन्द्रनाथ जैसे लोग समझ चुके थे। वे यह समझ चुके
थे कि जब तक इन सब चिज़ों से भारत मुक्त नहीं होगा तब तक उसकी उन्नति होना सम्भव
नहीं है।
अंत
में यही बात स्पष्ट हो जाती है कि रविन्द्रनाथ ठाकुर जी अपने उपन्यास में जिन
बातों को दर्शा रहे हैं उससे यही साबित करना चाहते थे कि जब तक भारत अपनी इस
संकीर्णता से मुक्त नहीं होगा, धार्मिक कट्टरता, जातिवाद की कट्टरता, वर्ण
व्यवस्था की कट्टरता, ऊँच-नीच के भेद-भाव तथा नारी समाज को घर की चार दिवारी में
बन्द रखने की कट्टरता से मुक्त नहीं होगा तब तक भारत का स्वतंत्र होना मुश्किल
होगा। भारतीय समाज की इन्हीं कमजोरियों से मुक्ति होने पर ही जाकर भारत का
स्वतंत्रता संग्राम सफल हुआ है यह सभी को ज्ञात है। बड़े पैमाने पर जब सभी वर्गों
के लोगों ने एक साथ इस आन्दोलन में हिस्सा लिया तभी जाकर भारत की राष्ट्रीय एकता
सामने आयी जिसके आगे ब्रिटिश सरकार को हार माननी पड़ी। रविन्द्रनाथ ठाकुर यह बात
समझ चुके थे कि भारत की स्वतंत्रता के लिए यह बहुत जरूरी है कि वह इन सभी
कमजोरियों से बाहर निकले, वरना भारत तो आज़ाद शायद हो जाता परन्तु भारत
पिछड़ा-का-पिछड़ा ही रह जाता जिसे अंग्रेज हमेशा उस समय के भारतीयों को कहा करते
थे। वैसे भी जब कोई बात या सिद्धान्त मानव जाति के विकास के आड़े आता है तो वह बात
पिछड़ापन का ही एहसास दिलाता है। रविन्द्रनाथ जी उस समय न केवल भारत की स्वतंत्रता
की बात सोच रहे थे बल्कि नवीन भारत के निर्माण के भी सपने बुन रहे थे। इसी कारण
उन्होंने गोरा उपन्यास में राजा राममोहन राय के सिद्धान्त का समर्थन किया तथा इस
बात को गोरा के जरिए दिखाया की पूरा भारतवर्ष जिस व्यक्ति के मन में हो वही
राष्ट्र निर्माण के लिए सबसे उपयोगी सिद्ध हो सकता है तथा वही स्वाधीन भारत का
सच्चा अधिकारी होता है। अंत में कहा जा सकता है कि गोरा उपन्यास में सच्चे अर्थों
में भारत की स्वतंत्रता आन्दोलन की चेतना मिलती है।
[1]
http://www.vivacepanorama.com/brahmo-samaj/
[2]
रविन्द्रनाथ ठाकुर, उपन्यास समग्र, द्वितीय
खण्ड, प्रकाशक—साहित्यम, द्वितीय संस्करण, 2012, पृ,सं --36
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