हँसते रहे मुझ पर तुम हर बार
जब से जताया मैंने अपना प्यार।
तुम समझे नहीं मेरे दिल की पुकार
दुतकारते रहे तुम मुझे प्यार से बार-बार।
बातें हर रोज हुआ करती थी हममें,
तुम सुनाते थे अपनी परेशानियाँ,
तुम्हारी परेशानियाँ सुन मुझे दुख होता था,
सोचती थी कैसे दूर करु तुम्हारी मुश्किलें,
तुम्हारी हँसी, तुम्हारी खुशी मेरे लिए सब कुछ था,
तुम्हारा दुखी चेहरा मुझे कभी न भाता था।
क्या करके तुम्हें सुख दे सकू,
ये सोचकर कितनी रातें गवाई।
क्या करके तुम्हें पा सकू,
ये सोचकर इबादतों में मंदिर गई।
जब भी कोई और तुम्हारे साथ होती थी,
मैं जलती, परेशान होती, कष्ट पाती थी।
तुम चिढ़ाते थे मुझे ऐसा देखकर,
फिर भी अपनी कुढ़न न दिखाती थी,
क्या पता तुम नाराज़ हो जाओ?
तुम्हें तारीफ पसंद नहीं है अपनी,
न मेरी, न किसी और की,
तुम्हें बनावटीपन नहीं भाता,
तुम कहते थे।
पर तुमने बनावटी दुख और परेशानी,
बयां की मेरे सामने,
गवां बनाया अपनी हर चालाकी का,
मज़ाक बनाया मेरा दुनिया के सामने।
स्वीकार न किया मेरी अस्मिता को कभी,
तुम्हारे बहकावे में मैं बह चली,
और किया वही जो न करना था कभी।
आज तुम सुखी हो,
और मैं तिल-तिल कर मर रही हूँ,
रोज सवेरे उठती हूँ,
ये सोचकर कि नहीं रोऊँगी,
लेकिन जब भी याद आती है,
उन लम्हों की जो बीते थे साथ-साथ,
रोना आता है मुझे,
रोना आता है मुझे,
हँसना भूल गयी हूँ,
तुम समझे नहीं कभी-भी मुझे,
कितना प्यार था इस दिल में तुम्हारे लिए।
जब से जताया मैंने अपना प्यार।
तुम समझे नहीं मेरे दिल की पुकार
दुतकारते रहे तुम मुझे प्यार से बार-बार।
बातें हर रोज हुआ करती थी हममें,
तुम सुनाते थे अपनी परेशानियाँ,
तुम्हारी परेशानियाँ सुन मुझे दुख होता था,
सोचती थी कैसे दूर करु तुम्हारी मुश्किलें,
तुम्हारी हँसी, तुम्हारी खुशी मेरे लिए सब कुछ था,
तुम्हारा दुखी चेहरा मुझे कभी न भाता था।
क्या करके तुम्हें सुख दे सकू,
ये सोचकर कितनी रातें गवाई।
क्या करके तुम्हें पा सकू,
ये सोचकर इबादतों में मंदिर गई।
जब भी कोई और तुम्हारे साथ होती थी,
मैं जलती, परेशान होती, कष्ट पाती थी।
तुम चिढ़ाते थे मुझे ऐसा देखकर,
फिर भी अपनी कुढ़न न दिखाती थी,
क्या पता तुम नाराज़ हो जाओ?
तुम्हें तारीफ पसंद नहीं है अपनी,
न मेरी, न किसी और की,
तुम्हें बनावटीपन नहीं भाता,
तुम कहते थे।
पर तुमने बनावटी दुख और परेशानी,
बयां की मेरे सामने,
गवां बनाया अपनी हर चालाकी का,
मज़ाक बनाया मेरा दुनिया के सामने।
स्वीकार न किया मेरी अस्मिता को कभी,
तुम्हारे बहकावे में मैं बह चली,
और किया वही जो न करना था कभी।
आज तुम सुखी हो,
और मैं तिल-तिल कर मर रही हूँ,
रोज सवेरे उठती हूँ,
ये सोचकर कि नहीं रोऊँगी,
लेकिन जब भी याद आती है,
उन लम्हों की जो बीते थे साथ-साथ,
रोना आता है मुझे,
रोना आता है मुझे,
हँसना भूल गयी हूँ,
तुम समझे नहीं कभी-भी मुझे,
कितना प्यार था इस दिल में तुम्हारे लिए।
आज बहुत दिनों बाद मौका मिला है तो अपनी एक पुरानी कविता इसमें दे रही हूँ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर. मार्मिक कविता. बहुत सी भारतीय नारियों की दास्तान. इसीलिए आवश्यकता है. अपनी गर्विता, अपनी अस्मिता, अपना दर्प, अपना स्वाभिमान जिंदा रखना और किसी भी गलत बात पर तुरन्त विरोध करना.
जवाब देंहटाएंBahut hi अदभुत
जवाब देंहटाएंभारतीय नारी का प्रेम समर्पण के साथ होता है। खास बात यह है कि वह खुद समर्पण करके भी अपने संगी का समर्पण नही मांगती। किन्तु जब उसका स्वत्व चोटिल हो उठता है, तब वह अपने को टूटने से बचा भी नही पाती। मधुछन्दा जी की कलम इसी पोर पोर टूटन की असहनीयता से व्यथित है।
जवाब देंहटाएंvery nice
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