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शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

भूख गरीबी की।

कविता - भूख

अनिश्चित जीवन में

निश्चित माया।

विचार मग्न मन,

पर दुर्बल काया।

झुकी रीढ़ की हड्डी,

पर झुकी न जीवन जीने की आशा।

चले जा रहे अनिश्चित पथ पर,

पर नहीं निश्चित है ठौर-ठिकाना।

हाथ उठाकर आशीश देते है,

मांगते केवल दो मूठ चावल।

भूख की तड़पन है मुख पर,

पर वाणी है निश्छल।

सड़क का किनारा है संसार इनका,

सड़क पर व्यतीत है जीवन इनका,

साथी बना है दुर्भाग्य इनका,

पर नहीं है निर्बल मन इनका।

मुर्झाए चेहरे पर अब भी है जीने की लालसा,

पर बनाया हमने ही इन्हें भिखारी।

जो हमें आज-तक देते आए है दुआएँ इतनी,

क्यों इनके लिए हमारी मानवता हारी।

कभी जीवन इनका भी बीता होगा,

सुखमय, सुदृढ़, सुयौवन।

पर नियति का भी खेल अजीब

जाना पड़ा इन्हें ही वन।

वन कैसा ?

भीड़-भाड़ लोगों से भरे जंगल

धुआँ उड़ाते वाहन।

सिंह नाद से भी भयंकर मशीनों के गर्जन।

जहाँ मानवता पिसती जाती है जीवन के दो

पाटो की चक्की में।

जहाँ भावना, सम्मान बह जाती नयनों से

दूसरों की दी गाली से।

जहाँ पूँजीपतियों का झुण्ड है,

सत्ता पर बैठे शेर की फैकी झूठन को खाने के लिए।

जो निर्बल, कोमल सीधे मानवों को

फाँसते अपनी नीति से।

जहाँ मिल-बाँट खाते हैं रिश्वत की रोटी लिए।

वन

जहाँ केवल स्वार्थ जीता है,

मरता है परोपकार उसके पंजों के प्रहार से।

जहाँ कर्म ही कर्म से टकराता है।

जहाँ विचार ही विचार से टकराता है।

जहाँ बदलते हैं पल-पल में दल

हो जैसे वह विहगों का दल,

बदले जो मौसम में अपना घर।

ऐसे वन में आकर

इन बूढ़ी हड्डियों का जीवन संग्राम फिर शुरू होता है,

पर अब उसमें अंतर ही अंतर है।

सर से पाँव तक

परिश्रम की बूँद है साक्षी।

पर नहीं है संतुष्टि मोटे मालिकों को

जितना कर पाए इस उम्र में भी,

क्या जाएगा अगर मिल जाए उतने की ही मजदूरी।

पर दिखा रहे उन्हें काम में हुई खामियाँ,

बता रहे वे बहाना न देने का कहकर अपनी मजबूरी।

ठोकर खाते,

लड़खड़ाते कदम,

फटे कपड़े,

और मुह में दम

भिक्षा की झोली लिए,

घर-घर जाते हैं।

दो मूठ चावल की बस दया मांगते हैं।

हाथ उठाकर आशीश देते हैं।

भूख की क्या मजबूरी देखो,

क्या-क्या दिन दिखलाता है।

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