कुल पेज दृश्य

शनिवार, 3 मई 2025

रांगा मामा से एक बातचीत

                                                 रांगा मामा का नाम सुनते ही मेरे ज़हन में हमारे सबसे प्यारे छोटे मामा जी की तस्वीर उभर आती है। मेरे रांगा मामा का पूरा नाम है श्री पिनाकपाणी चक्रवर्ती जिन्हें हम सभी जुनु मामा(घर का नाम) के नाम से भी जानते हैं। रांगा शब्द बांग्ला भाषा में परिवार के सबसे छोटे सदस्य को कहा जाता है। मंझली कद-काठी, बैसाखी के सहारे धीरे-धीरे मुस्कुराते हुए अपना और अपने संसार का भार उठाकर पोस्ट ऑफ़िस से घर की ओर लौटते हुए। हमारे रांगा मामा परिवार में नौ भाई-बहनों में सबसे छोटे भाई है। उनके बाद सबसे छोटी बहन है अपु मासी। मेरे मामा जी को पोलियो के कारण दाहीने पैर और कमर से नीचे तक लकवा मार गया था सो वे बैसाखी के सहारे चलते हैं। रांगा मामा का जन्म सन् 1961, 31 मार्च असम के बदरपुर जिले के श्रीगौरी ग्राम में हुआ। उनकी शादी मेरी बुआ जी की ननद अजंता चक्रवर्ती देवी से हुई जिन्हें हम सभी प्यार से इति मामी के नाम से पुकारते हैं। उनकी दो संताने है। अद्वितीया चक्रवर्ती तथा सौम्य चक्रवर्ती। रांगा मामा सन् 31 मार्च 2021  को पोस्ट ऑफिस की नौकरी से रिटायर हुए। अपनी शारीरिक अक्षमता के बावजूद भी वे सदैव हंसते-मुस्कुराते हुए तथा हम सभी भांजे-भांजियों पर प्यार लुटाते रहे। उनकी वाकपटुता तथा मज़ाकीया अंदाज़ सदैव ही हमारे लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। बचपन में जब कभी भी हम ननीहाल जाते थे तो उनसे चुटकुले सुनाने की मांग करते थे। फिर वे चुटकुले सुनाते जाते और हम सभी भाई-बहन हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते। अपने दिव्यांग शरीर की पीड़ा जैसे उनके मन में कभी घर ही नहीं कर पाई। हम उनसे जब भी मिलते वे सदैव ही हंसते-मुस्कुराते ही दिखते रहे हैं।

            रांगा मामा का पूरा जीवन एक आदर्श जीवन रहा है। ग्रामीण परिवेश जहाँ शहरी सुख-सुविधाएँ हमेशा उपलब्ध होना असंभव है वही उन्होंने प्रत्येक कठीन-से-कठीन परिस्थिति में भी तटस्थ रहकर अपने जीवन को जिया है। मामा जी से बातचीत को दौरान पता चला कि उनके दाहीने पैर में पोलियों ढाई साल की ही उम्र में हो गयी थी। उस घटना के बारे में मैंने पहले एक बार माँ से सुना था लेकिन पूरा विवरण मामा जी से ही सुना। बचपन में जब गाँव में बच्चे सुपारी के बड़े-बड़े खोल को नौका बनाकर उसमें बैठकर खीचते हुए खेलते हैं तो बड़ा ही आनन्द का माहौल बन जाता है। इस तरह का खेल एक दिन मामा, मौसी और माँ भी खेल रहे थे कि मामा जी अचानक खेल-खेल में गिर पड़े और उन्हें हल्कि चोट आ गयी। उस वक्त बात आयी-गयी हो गयी। लेकिन उसी रात मामा जी को बुखार आ गया। मामा जी इतने बीमार पड़े कि लगभग सात दिन तक उनका खाना-पीना तो जैसे बंद ही हो गया था। उन्हें उन दिनों मल-मूत्र त्यागने में भी कष्ट हो रहा था। हमारे नाना जी स्वर्गीय उपेन्द्र कुमार चक्रवर्ती तब डिगबोई में अपना होमियोपेथी का दवाखाना चलाते थे। वे स्वयं होमियोपेथी के चिकित्सक थे। उन्हें जब इस बात का पता चला तो उन्होंने तुरंत ही मामा जी के लिए दवा भेजी। लेकिन उस समय डिगबोई से बदरपुर तक के यातायात की व्यवस्था इतनी अच्छी नहीं थी, सो दवाई पहुँचने में करीब दो दिन का समय लग गया था। मामा जी को उस दवा से कुछ फायदा हुआ और सांतवे दिन उन्होंने थोड़ा मल-मूत्र त्यागा और अपने पैरों पर कुछ देर के लिए खड़े हो सके। घर वालों को लगा कि मामा जी स्वस्थ हो चले हैं। लेकिन जल्द ही घरवालों की यह आशा निराशा में बदल गयी। मामा जी अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पा रहे थे। नाना जी की  दी हुई दवाई के साथ-साथ कई अन्य उपाय किये जाने लगे। यहाँ तक कि उन्हें अपने पैरों पर सीधे खड़े होने में मदद के लिए मिट्टी में गड्डा खोद कर उन्हें कमर तक गाड़ कर भी रखा गया। मगर उसका कुछ असर न हो सका। अंत में नाना जी उन्हें लेकर डिगबोई के ही एलोपेथी डॉक्टर के पास लेकर गए जहाँ उन्हें पता चला कि मामा जी को पोलियो हो गया है और ये रोग उनके पूरे शरीर में फैल सकता है। परन्तु भगवान की कृपा से मामा जी के पूरे शरीर में पोलियो नहीं फैला, केवल पैरों तक ही सीमित रह गया। उसके बाद उनके जीवन का संघर्ष शुरु हुआ।

            मामा जी से जब मेरी बात हुई तो उन्होंने मुझे बताया कि मेरी माता जी श्रीमति अनिता चक्रवर्ती जिन्हें वे प्यार से दीदीभाई बुलाते वही प्रतिदिन स्कूल लेकर जाया करती थी। उन्हीं की ही मुख्य भूमिका थी स्कूल और कॉलेज तक की पढ़ाई करने में। उनके अलावा बड़े मामाजी रांगा मामा को पढ़ाया करते थे। घर से स्कूल तक की दूरी लगभग एक किलोमिटर की थी। लेकिन आने-जाने का रास्ता नहीं था। गाँव की पगडंडी हो कर जाना पड़ता था। आज भी वह स्कूल मौजूद है। मैंने बचपन से लेकर अभी तक कई बार श्रीगौरी ग्राम की यात्रा की है। आज भी मुख्य राजमार्ग से गाँव को जोड़ती सड़क से जब मामा जी के घर जाती हूँ तो गांव का हाल जैसे 20 साल पहले था आज भी करीब-करीब वैसा ही है। टेढ़े-मेढ़े कच्चे रास्तें, कई घरों के किनारों से होकर, कई घरों के पीछे बने तालाब के किनारों से होकर, जगह-जगह जंगली घासों और बेलों से लदे ये रास्तें उनके घर तक जाती है। इन्हीं रास्तों को मामा जी ने अपने नित्य जीवन में पार करके स्कूल से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई पूरी की है।1976 में एच.एस एल.ली की परीक्षा पास की। उन दिनों स्कूल की पढ़ाई दसवीं तक ही सीमित होती थी। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने करीब 5 कि.मि. दूर बदरपुर के नवीनचन्द्र कॉलेज से प्री-यूनिवर्सिटी पास की। फिर आपने घर से छः-सात किलोमिटर दूर चतुष्पाती संस्कृत टूल से संस्कृत में शास्त्री उपाधि की परीक्षा पास करी। मामा जी ने मुझे यह भी बताया था कि बरसात के दिनों में ये रास्ते बहुत खतरनाक होते थे जिसका अनुभव मुझे भी बचपन से कई बार हो चुका है। विशेषकर गर्मियों के दिनों में साँप-बिच्छू के निकलने का भय होता तो रात को सियार के निकलने का भय रहता। मामा जी ने बताया कि इन्हीं रास्तों से होकर उन्होंने तथा उनके बाकि सभी भाई-बहनों ने स्कूल तथा कॉलेज की शिक्षा भी पूरी की एवं अपने जीवन में वे सफल हो सके। उनके लिए सफलता का मतलब था एक अच्छा मनुष्य बनना जिसके पास इतना विवेक अवश्य हो जिससे वह अपना जीवन तो संभाल ही पाए  साथ ही औरों का जीवन भी संभाल पाए। उन्होंने अपनी विचारधारा को सार्थक भी कर दिखाया। क्योंकि उनके दौर में एक साधारण ग्रामीण व्यक्ति जो कि विक्लांग हो उसके लिए सरकारी नौकरी करना तथा विवाह कर अपनी गृहस्थी बसाना एक कठीन कार्य ही नहीं लगभग असंभव ही समझा जाता था। विशेषकर विक्लांग पात्र को लोग अपनी कन्या देने में हिचकते थे। यदि कोई विशेष कन्यादाय ग्रस्त दरिद्र पिता हो तो ही उसके लिए कई विकल्पों में ये एक विकल्प रहता है। परन्तु मामा जी ने न केवल स्वयं को शिक्षित ही किया बल्कि उन्होंने पोस्ट ऑफिस में नौकरी भी पायी तथा प्रेम विवाह भी किया। मामा जी बहुत अच्छा भजन-कीर्तन करते हैं। तबला, मृदंग, हारमोनियम बजाने में काफी उस्ताद है। उनके पास संस्कृत एवं बांग्ला भाषा का जितना ज्ञान है शायद ही आज के दौर के किसी पढ़े-लिखे व्यक्ति के पास हो। भागवत् से लेकर संस्कृत के कई ग्रन्थों का उन्होंने गहन अध्ययन किया है। पूजा करने बैठते हैं तो उनके मुख से श्लोक इस प्रकार से निकलते हैं मानो सव्यं माँ सरस्वती बोल रही हो। शायद इसी कारण हमारी प्यारी मामीजी मामाजी को दिल दे बैठी और 9 फरवरी 1989 में दोनों ने विवाह कर लिया।

            विवाह के बाद जिम्मेदारी बड़ जाती है। उस समय नौकरी पाना इतना सहज नहीं था। पर उन्होंने होसला नहीं त्यागा और 1 मई 1992 को ग्रामीण डाक सेवा के तहत एक्सट्रा डिपार्टमेंटल पोस्ट ऑफिस में उन्हें अस्थायी नौकरी मिल गयी। धीरे-धीरे डिपार्टमेंटल परीक्षा पास करके स्थायी नौकरी पायी। फिर 31 मार्च 2021 को सब-पोस्ट मास्टर के पद से सेवा निवृत्त हुए। मामा जी कहते है कि उनकी नौकरी पाने में मेरे पिताजी का बहुत अवदान है।

             

            मामा जी को मैंने बचपन से ही देखा है कि उनका जीवन सदैव प्रेरणा दायक रहा है। यही कारण है कि हम सभी भांजे-भांजियाँ उनसे बहुत प्यार करते थे। वे भी हम तीनों भाई-बहनों से बहुत प्यार करते थे। परन्तु मेरे माता-पिता के साथ तो उनका विशेष लगाव था। मामा जी ने ही मुझे बताया था कि पिताजी ने उन्हें अपने पैरों पर सीधे खड़े होकर चलने के लिए उनके पैरों के लिए केलिपर्स लगवाकर दिया था। उस समय मेरे पिताजी मणिपुर इम्फाल में असम रायफल्स में तैनात थे। मणिपुर के रिज़नल इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस का ही एक रिहैबिलिटेशन विभाग था जो कि दिव्यांग लोगों को सक्षम करने के लिए उन्हें उनके ज़रूरत के मुताबिक चीजें उपलब्ध कराया करता था। मेरे पिताजी उन्हें अपने साथ इम्फाल ले गए और वहाँ उन्होंने उनको केलिपर्स लगवा कर दिया। वैसे तो मामा जी केलिपर्स पाकर बहुत खुश भी हुए थे क्योंकि अब बिना किसी सहारे के वे चल फिर सकते थे। लेकिन जल्द ही उन्हें केलिपर्स निकालने पड़े। क्योंकि गाँव की सड़क जो काफी कच्ची और बरसात के दिनों में कीचड़ और दलदल से भर जाया करती थी उन रास्तों में उनके लिए चलना-फिरना मुश्किल था। परन्तु उन्होंने अपने इरादों को इन मुश्किलों के सामने झुकने नहीं दिया।

            मामा जी के जीवन की कुछ दिलचस्प बातें जो उन्होंने मुझे फोन पर लिए गए साक्षात्कार के समय बताए। हालांकि ये साक्षात्कार हमने हमारी मातृभाषा सिलेटी बांग्ला में ही की। उसी का अनूदित रूप यहाँ पर रख रही हूँ।

1.सवाल --मेरा सबसे पहला सवाल उनसे यही था -मामा आपके जीवन में वह कौनसी प्रेरणा थी जिसने आपको इतनी शक्ति प्रदान की और आप हमेशा हंसते-मुस्कुराते रहते हैं?

जवाब- (मामा जी) – मैं ये जानता था कि मुझे ये करना ही है। मैं हार नहीं मान सकता था। मुझे अपने पैरों पर खड़ा ही होना था। हमारे एक काका थे। यानी की तुम्हारे दादु के छोटे भाई। उनका नाम था श्री किरणमय चक्रवर्ती। उनका एक हाथ और एक पैर नहीं था। अंग्रेजों के जमाने में उन्होंने मैट्रीक पास किया था। बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। उन्हीं से मैंने प्रेरणा ली थी।

2. सवाल-- मामा दादु के हाथ और पैर दोनों क्या दुर्घटना के कारण गए थे या कोई अन्य कारण था?

जवाब – उन्हें बचपन में टाईपॉइड हो गया था। इस वजह से उनका एक पैर खराब हो चुका था। बाद में एक दुर्घटना में हाथ भी कट गया था। वे एक ही हाथ और एक ही पैर से काम चलाते थे।

3. सवाल – मामा उनके बारे में थोड़ा और विस्तार में बताइए।

जवाब – तुम्हारे छोटे दादु बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। वे इतने तेज़ बुद्धि के थे कि लोग उनके आगे हार मान लेते थे। एक बार उनके स्कूल में एक प्रतियोगिता आयोजित हुई थी। प्रतियोगिता की शर्त थी कि एक तस्वीर को देख कर कविता लिखनी है। तस्वीर में एक तालाब में हंस, बैल और रखवाला बाँसुरी बजा रहा था, वही दूर सूरज डूब रहा था। सभी ने अपनी तरफ से कोशिश करके अच्छी से अच्छी कविता लिखी। मगर सबकी कविता उस तस्वीर से पूरी तरह से मेल नहीं खा रही थी। परन्तु उन्होंने महज तीन पंक्तियों में तस्वीर से मेल खाती कविता लिख डाली। वह कविता ऐसी थी –

            सरोबरे हंसमिथून अस्ताचले रवि,

            राखाल छेले बाजाय बांशि

            के एकेछे छवि? ( अर्थ -- सरोवर में हंस और बैल दोनों है, रवि अस्त होने वाला है वही गाय चराने वाला लड़का बाँसुरी बजा रहा है। ऐसा चित्र किसने बनाया है।)

4.सवाल-- मामा दादु तो कमाल है। वे इतनी अच्छी कविताएँ लिखते थे। शायद मुझे इसीलिए कविता लिखने की प्रेरणा विरासत में मिली है। मामा उनके बारे में कोई और बाते हों तो बताए जो आपके लिए प्रेरणा दायक रही हो।

जवाब – वे स्कूल मास्टर रहे हैं। उन्होंने हमेशा ही गाँव के गरीब तथा असहाय छात्रों की बहुत मदद की है। उन्होंने  तो अपने जैसे विक्लांग लोगों पर कविता भी लिखी थी। यही कविता मेरे लिए प्रेरणा दायक बनी।

कविता ऐसी है

आमि खंज, आमि खंज,आमि खंज,

खूड़ाईया चलि उड़ाईया धूलि,

घुरिया बेड़ाई गंज।

नगर हईते पल्ली, डिगबय हईते दिल्ली,

कत अलि-गलि, कत भिड़ ठेली

पार हई कत कूंज।

आमार गानेर शुनिया शूर,

केउ बा हाशिया खून,

केउ बा रागिया आगून।

कत हाँशि, कत विद्रूप

उठे आमारे करिया केन्द्र।

 

5. सवाल -- मामा ये कविता सुनकर तो ऐसा ही लगता है जैसे विक्लांग लोगों के प्रति दूसरों के मन में कुछ खास जगह नहीं है। फायदे के न हो तो लोग अच्छे खासे व्यक्ति का साथ छोड़ देते हैं।

 जवाब – हाँ लोग ऐसा करते हैं। लेकिन काका की इस कविता ने मुझे इतनी प्रेरणा दी कि भले ही मुझे कोई चाहे न चाहे पर अपने लिए तो जीना ही पड़ेगा। अपने लिए तो करना ही पड़ेगा।

6. सवाल -- मामा आपके साथ कभी ऐसा हुआ है जहाँ आपको लगा हो कि अन्याय हुआ है आपके साथ या आपके दोस्त स्कूल में या कॉलेज में मजाक उड़ाते हो?

जवाब – नहीं मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ। मुझे ज्यादातर लोग प्यार करते थे। मेरे स्कूल के दोस्त मेरे शिक्षक सभी। घर में भी जितना प्यार मिला है उतना ही बाहर में भी प्यार मिला है।

7. सवाल --  मामा स्कूल में जब लड़के खेलते थे तो तब आपको बुरा नहीं लगता था कि काश आप भी खेल पाते तो कितना अच्छा होता?

जवाब –देखो ये बात यदि मैं अस्वीकार कर दू तो मैं झूठा बन जाऊँगा। हाँ मुझे भी बुरा लगता था जब मैं अपने दूसरे दोस्तों को खेलते हुए देखता था। वे लोग मुझे ग्राउंड के एक साइड बिठाकर रखते थे और कहते थे कि हम खेलते हैं तू देख। तब मुझे जरूर लगता था कि काश में भी जाकर उनके साथ खेलू। मुझे जीवन से वैसे तो कोई शिकायत नहीं थी मगर कभी-कभी जरूर लगता था कि काश में भी दूसरों की तरह चल-फिर सकता तो कितना अच्छा था।

8. सवाल--  मामा आपको जब पहली बार केलिपर्स लगवाकर दिया गया था तो कब तक उपयोग किया था?

जवाब – केलिपर्स मैंने शायद 1982-83 में लगवाया था और चार से पाँच साल तक इस्तेमाल किया था।

9. सवाल -- मामा पिताजी ने मुझे बताया कि केलिपर्स लगाने के बाद आप सीधे होकर चल पाते थे, लेकिन श्रीगौरी के रास्ते खराब होने के कारण आपको निकाल देने पड़े, क्योंकि केलिपर्स आपकी उतनी मदद नहीं कर पाए?

 जवाब – हाँ श्रीगौरी के रास्तों में केलिपर्स लेकर चलना मुश्किल था इसलिए निकाल देना पड़ा।

10. सवाल-- मामा केलिपर्स लगाने के बाद आपको कैसा लगा था जब आप सीधे खड़े होने पा रहे थे?

जवाब – अपूर्व। इम्फाल में पहली बार तुझे ही गोद में लिया था खड़े होकर। मैं तो कभी भी सीधे खड़ा नहीं हो पाता था। किसी भी बच्चे को अपने गोद में नहीं ले पाया था। केलिपर्स लगाने के बाद तुझे ही पहली बार गोद में उठा पाया था। और तुझे ही गोद में लेकर फोटो भी खिंचवाई थी। लेकिन हमारे घर में एक बार चोरी हो गयी थी उसी के बाद से ये फोटों आज तक नहीं मिली।

11. सवाल-- केलिपर्स जब आपको बाध्य होकर खोलना पड़ा तो काफी दुख हुआ होगा कि दुबारा अब झुककर लाठी के सहारे चलना पड़ेगा।

 जवाब – हाँ दुख तो हुआ था। मैं तब स्कूल जाता था। रेल लाइन के किनारे से चलकर जाना पड़ता था और केलिपर्स के कारण मुझे असुविधा होती थी। हाँ ठंड के दिनों में कोई असुविधा नहीं होती थी। रास्ता भी ठीक रहता था। लेकिन वर्षा के दिनों में हमारी गली का जो रस्ता था उसमें काफी कीचड़ हो जाया करता था। और केलिपर्स में तो जुता लगा होता था। अगर कीचड़ में ये खराब हो जाता तो ये इम्फाल के अलावा कही उपलब्ध नहीं होता था, इसलिए इसे खोलकर रख दिया था।

12. सवाल --  मामा आप अपने ऑफिस के कुछ अनुभव के बार में बताई। जब आपने पहली बार पोस्ट ऑफिस ज्वान करी तो अक्सर कुछ लोगों का रवैया रहता है कि ये तो दिव्यांग है, ये क्या काम कर सकेगा। कभी आपके दफ्तर के किसी भी सहयोगी ने आपकी कार्य-क्षमता पर संदेह प्रकट किया हो?

जवाब – ना, ऐसा किसी ने नहीं किया। कारण हमलोग, हमारे दादामाशय(नाना) भी पोस्टमास्टर थे। हमारी माँ (नानी) के पिताजी भी पोस्टमास्टर थे। मेरे मामा भी एसिस्टेंट पोस्टमास्टर जेनरल थे। उसके अलावा हमारे एक और चचेरे भाई थे वे पोस्टल इन्स्पेक्टर होकर रिटायर हुए थे। तो मेरे साथ कभी किसी ने कोई ऐसा व्यवहार नहीं किया। बल्कि सभी स्टाफ ने मुझे बहुत सपोर्ट किया। प्रथम-प्रथम बहुत डर लगता था। बहुत सारे पैसे होते थे जिन्हें मिलाना पड़ता था। तो डर लगता था कि शाम तक इन सबका ठीक से मिलान हो पाएगा की नहीं। फिर 99 को मैंने फिर से परीक्षा दी और पोस्ट मैन बन गया। तो डिपार्टमेंट वालों ने भी थोड़ी मर्सी दिखायी और मुझे गाँव के ही पोस्ट ऑफिस में पोस्टिंग कर दी। तो ये तो अपना ही गाँव है, अपने ही जाने-पहचाने लोग हैं। तो मैं खुद ही जा-जाकर अपनी ड्यूटी करता था। वहीं गाँव के लोगों ने भी मुझे काफी साथ दिया। कभी-कभार तो वह रास्ते से ही अपनी चिट्ठी ये कहकर ले जाया करते थे कि मुझे उनके घर तक आने की इतनी तकलीफ न करने की जरूरत नहीं है।

13.सवाल -- मामा आपको और किस तरह का साथ मिला जब आप पोस्ट मैन का काम करना शुरु किया?

 जवाब—मुझे किस तरह का सपोर्ट मिला जैसे मैं बैंक में चिट्ठी पहुँचाने जाया करता था। तो बैंक के मैनेजर ने मुझसे कह रखा था कि मैं केवल बाहर ही सूचना दे दु कि चिट्ठी आ गयी है। वे अपना पियोन भेजेंगे तथा रजिस्टर भेजेंगे जिसमें एंट्री वगैरा सब करवा दिया जाएगा।  वे लोग बाहर आकर चिट्ठी लेंगे। कभी में श्रीगौरी हॉस्पिटल जाया करता था चिट्ठी देने को तो वहाँ के डॉक्टर साहब ने कह रखा था कि मैं सिर्फ वहाँ जाऊंगा सामान लेकर और कुर्सी पर बैठूंगा। बाकि स्टाफ स्वयं आकर अस्पताल के लिए जो भी वस्तुएँ तथा चिट्ठी वगैरह आयी है वह लेकर जाएंगे। मुझे हर कमरे में चिट्ठी पहुँचाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। पियोन से ही वह सब चीजें लिवा लेंगे।

14.सवाल--   मामा आपको अपने दफ्तर के स्टाफ से तो अच्छा साथ मिला। सामाजिक रूप में आपका कैसा अनुभव रहा, विशेषकर आपके दैनिक आवागमन दफ्तर से घर, घर से दफ्तर। जहाँ तक मुझे याद है आप जब बदरपुर के पोस्ट ऑफिस में काम करते थे तो आप रोज बदरपुर से रेल पकड़कर रुपोशी बाड़ी रेलवे स्टेशन पर उतरते थे। कभी-कभी आप सिलचर वगैरह जाया करते थे तो आपको बस पकड़नी पड़ती थी। तो ऐसे में कभी आपको किसी प्रकार की दिक्कत का सामना करना पड़ा?

जवाब –बात दरअसल ये है कि पहले मेरा शरीर काफी अच्छा रहता था तो कभी भी मुझे बस या रेलगाड़ी में चढ़ने में उतनी असुविधा नहीं होती थी। बस में उठता तो मुझे कोई-न-कोई सीट दे ही देता था। वही मैं पोस्ट ऑफिस में काम करने से पहले दस साल तक एक स्कूल में काम कर चुका था। तो मेरी आदत लगभग हो चुकी थी।

15. सवाल -- मामा स्कूल के बारे में वहाँ की कुछ अनुभूतियाँ बताइए?

जवाब –ये एक वेंचर स्कूल था। 1982 में मैंने यहाँ काम करना शुरु किया था। इसका नाम था समवाय हाई-स्कूल। प्रायः समय जब भी स्कूल से घर लौटता तो कोई-न-कोई मेरे साथ काम करने वाले सहयोगी या फिर कोई छात्र या छात्रा मिल ही जाते थे। तो वे अक्सर मुझे गाड़ी में सीट दे दिया करते थे बैठने के लिए। मैं स्कूल में संस्कृत का अध्यापक था। परन्तु संस्कृत के विद्यार्थी न होने के कारण दूसरे विषय के छात्रों को पढ़ाना पड़ा। पहले-पहले छोटे बच्चे मुझसे बहुत डरते थे क्योंकि मैं अपनी दो लाठियों के सहारे कक्षा में जाता था। मगर मेरे साथ कभी किसी छात्र ने बुरा व्यवहार नहीं किया। वे सभी ग्रामीण छात्र थे और बहुत ही नम्र और भद्र स्वभाव के थे। तो वे मुझे अपने शिक्षक के रूप में बहुत सम्मान करते थे। इसलिए मुझे कभी किसी प्रकार की असुविधा महसूस ही नहीं हुई।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें