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मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

आलोंग से गुवाहाटी तक का सफ़र

 

मैं लगभग 14-15 साल की थी। पिताजी तब असम रायफल्स में काम करते थे। मेरी बाहरवी की पढ़ाई चल रही थी। या यू कह लिजीए किसी तरह घिसट रही थी। विज्ञान की छात्रा थी मगर दिल में शायरी गूंजती थी। पहाड़ी, नदियाँ, पेड़-पौधे देख-देख कर मैं मन-ही-मन कहानी लिखा करती थी।

            हम सभी अरुणाचल प्रदेश के पश्चिम सियांग के आलोंग में रहते थे। मेरे पिताजी अक्सर अपनी यूनिट के स्कूल के लिए जरूरी चीज़े लेने के लिए वहाँ से लम्बा-चौड़ा पहाड़ियों का दुर्गम सफ़र तय करके गुवाहाटी आते थे और फिर वहाँ से किताबे, खिलौने और स्कूल की हर ज़रूरत का सामान लेकर फिर वापस जाते थे। उनकी यूनिट ने उन्हें आने-जाने की सुविधा के लिए आर्मी की बड़ी-बड़ी ट्रकों या आर्मी की बस का इन्तज़ाम कर दिया था। साथ में कुछ गार्ड्स भी होते।

            पिताजी का अभी ट्रान्सफ़र होना बाकी था। लेकिन माँ बहुत अधिक दिनों तक अरुणाचल में रहना नहीं चाहती थी। पिताजी चाहते थे कि हमारी बारहवी की पढ़ाई के बाद हम तीनों भाई-बहन अपने गाँव हाईलाकान्दी(असम) में जाकर पढ़ें। हमारी परीक्षा के बाद पिताजी ने तय कर लिया था कि वे हम तीनों को और माँ को हाईलाकान्दी ले आएंगे। हम सभी पहले तो काफी दुखी हुए कि पिताजी के बिना कैसे हम अकेले रहेंगे। क्योंकि उस वक्त तक कुछ तय नहीं हो पाया था कि कहा रहेंगे और कैसे रहेंगे। लेकिन आर्मी केम्पस में रहने वाले बच्चों के लिए ये इतनी बड़ी मुश्किल नहीं होती क्योंकि हम जहाँ कही भी जाते हैं वहाँ जाकर अपना बसेरा तुरंत तैयार कर पाते हैं। दूसरी बात ये कि एक पोस्ट से दूसरी पोस्ट जाते वक्त जिन रास्तों से होकर गुज़रते हैं वहाँ का अनुभव ही कुछ निराला होता है। फिर हमने तो ऐसी-ऐसी परिस्थितियों में सफ़र किया है कि आज भी उनकी याद ताज़ा होती है तो जैसे रोमांच हो आता है।

            खैर हम सबने पिताजी के समझाने पर तैयारी शुरु कर दी। पिताजी की ज़रूरत का सारा सामान तय हो जाने के बाद बाकी बची सभी चीज़े पैक होनी शुरु हुई। मैं अपनी सभी पसंद की चीज़े समेट रही थी। किताबे, अपने पसंद की फ्रॉक, एक मोती की माला और मेरी और मेरी बहन की गुड़ियाँ भी थी। जिस क्वाटर में हम रह रहे थे उससे जुड़ी बहुत सी यादें थी जिन्हें उस दिन हम तीनों भाई-बहन समेटे चले आ रहे थे। इधर तैयारियाँ चल रही थी, उधर पिताजी ने यूनिट के सी.ओ से बात करके हमे आर्मी के कॉन्वॉय के साथ भेजने का प्रबन्ध कर लिया था। ये आर्मी कॉन्वॉय हमें गुवाहाटी तक पहुँचा कर अपने गन्तव्य तक जाने वाला था। पिताजी उसके बाद हमें अपने गाँव रखकर वापस यूनिट ज्वॉइन करने वाले थे। गुवाहाटी से उन्हें फिर से स्कूल के लिए ज़रूरी सामान भी ले जाना था।

मैं मन-ही-मन बहुत खुश थी। बचपन से कितनी ही बार पिताजी का तबादला कई अलग-अलग उत्तरपूर्वी राज्यों में हुआ है। मगर सभी स्थान या तो निर्जन या फिर घनी पहाड़ियों के बीच ही हुआ है। दुर्गम रास्तों का तय सफ़र और साथ ही उग्रपंथियों के हमले का भय भी हमारे सफ़र का हिस्सा रह चुकी थी। वही बचपन से ही पिताजी कई बार हमें मामा और बड़े ताऊ जी के घर घुमाने भी ले जाते रहे हैं। जब भी हम उनके घर जाते तो बहुत मस्ती करते। हाँ हमारी दिनचर्या में और उनकी दिनचर्या में बहुत फ़र्क होता था लेकिन मज़ा बहुत आता था। मुझे आज भी याद है कि मामा जी का घर मिट्टी का बना हुआ लेकिन काफ़ी बड़ा मकान था। मिट्टी के फ़र्श बहुत ही अच्छी तरह से लिपे-पुते होते थे। गर्मियों के दिन होते थे तो बिस्तर पर बांस की चटाई जिसे पाटी भी कहा जाता है वह बिछि होती थी। कभी-कभी गांवों में बारिश के दिन बहुत ही रोमांचक होते थे। तेज बहती हवा में झूलते बड़े-बड़े पेड़, टीन की छत पर गिरती बारिश की बंदों की टप-टप आवाज़ और मिट्टी के चूल्हे से उठता धूआं और उसमें पकने वाले खाने की खुशबू सब कुछ मिल कर एक अनोखा एहसास होता था। तूफ़ान के दिनों में यही नज़ारा होता था। इन दिनों गांवों में घूमने जाना यानी के मुसीबत क्योंकि पूरे रास्ते पानी और कीचड़, साथ में आपका सामान। कही फिसल गए तो फिर कीचड़ से अलग परेशानी और चोट लगने का दुख अलग। रात का मंजर हो तो और भी मज़ेदार। रात की काली घनी अंधरी में बड़े-बड़े पेड़ मामा जी के घर के आँगन से नज़र आते थे। शाम होते ही लालटेन या टिबरी की रोशनी में घर के सभी सदस्य एक साथ बैठ कर बातें करते या भोजन करते। फिर हम बच्चों को बिस्तर पर लिटाकर घर के बड़े आपस में बात-चीत करते रहते। बांस की खपच्चियों के बीच से दूर कही से रोशनी आती दिखाई देती थी। गांव होने के कारण घर एक-दूसरे के इतने नज़दीक नही होते थे। बीच में पेड़ों का झुरमुट या पोखर या फिर बागीचा हुआ करता है। और भी न जाने कितनी ही स्मृतियाँ मेरे स्मृति पटल पर उभरने लगी और मैं मन-ही-मन सोचने लगी कि अब ये सब दुबारा देख सकूंगी।

            हमारे अरुणाचल से असम जाने की बात हमारी लाईन में फैल चुकी थी। आस-पास की सभी लोगों ने हमें विदा किया। साथ ही हमारे बगल वाले क्वार्टर के शर्मा अंकल से मम्मी की बात-चीत हुई। पिताजी का खयाल रखने की बात हो रही थी क्योंकि अब वह अगले तबादले से पहले यहाँ कुछ समय के लिए अकेले रहे थे।

            हमारी यात्रा शुरु हुई। मेरी माँ आर्मी के अन्य ऑफिसरों की पत्नियों के साथ छोटी सी जिप्सी में बैठ गई और हम तीनों भाई-बहन आर्मी की बड़ी वाली ट्रक में बैठ गए। पहली बार मैंने असम रायफल्स के जवानों के काफीले को बहुत नज़दीक से देखा। बड़े-बड़े बक्सों में उनका सामान भरा हुआ था और एक जवान हर वक्त ट्रक की छत पर खड़ा अपनी बंदूक लिए रहता तैनात रहता था। मैं जिस ओर बैठी थी ठीक उसकी विपरीत एक जवान बैठा हुआ था। वह काफी देर से मुझे और मेरी बहन को देखे जा रहा था। मुझे उसका घूरना अच्छा महसूस नहीं हुआ। काफी देर तक वह मुझे और मेरी बहन को घूरता रहा था। मैं उस वक्त ज्यादा कुछ नहीं कर पायी बस गुस्से से उसकी ओर एक नज़र डाली और फिर बाहर सड़कों की तरफ देखने लगी। उस वक्त पहाड़ी खूबसूरती और घने बादलों का झुण्ड जैसे हमें विदा करने आया हो लग रहा था। मैं एक-एक पेड़, पौधे, पहाड़ी और दूर घने बादलों को देखती जा रही थी। सारे रास्ते हरियाली देखते-देखते हम आखिरकार अरुणाचल की दुर्गम पाहाड़ी रास्तों का सफ़र खत्म कर चुके थे। इस बीच हम मेघालय होकर भी गुज़रे। क्या कहना वहाँ की खूबसूरती का। छोटे-छोटे घर, घरों के बरामदे में लगे फूलों के गमले। ठण्ड का मौसम हमेशा वहाँ बना रहता है इसलिए लोग धूप निकलने पर अपने-अपने घरों के आगे रस्सियों पर गरम कपड़े टांग देते है ताकी धूप में ये कपड़े सूख जाए और अच्छे बने रहे।

            एक जगह आने पर तो ऐसा लगा जैसे स्वर्ग ही उतर आया हो। झील का पानी इतना साफ और आसमानी नीला था। आस-पास की मिट्टी की कटाई हो रखी थी शायद वहाँ कुछ नया बनने वाला था। मगर मिट्टी के रंग में और खरे सोने में कोई फ़र्क नहीं दिखा। पाइन के पेड़ों और दूसरे पेड़ों की पत्तियों का रंग भी केसरी और हरे रंग का घुलामिला मिश्रण था। अक्सर मेघालय या शिलोंग आने पर ठण्ड लगने लगती है। लेकिन उस वक्त धूप तेज़ थी। इसी तरह जब हम आगे बढ़ते रहे तो शहर का बाहरी हिस्सा दिखा। छोटे-छोटे मगर खूबसूरत घरों की कतार थी। सामने से हो या घर का पिछला हिस्सा हो, रंगीन रंगों से सजा-धजा और स्वच्छता एहसास दिला रहा था। कई खासी औरतें अपने-अपने घरों की सफाई करते नज़र आ रही थी। लोग अपने-अपने कामों से इधर-उधर आ जा रहे थे। शिलोंग के पोलिस बाज़ार और हेप्पी वैली से होकर गुज़रते वक्त भी ऐसा ही नज़ारा दिखा। वही शहर के भीतर होटलों की भी कतार लगी हुई थी जिनमें से तरह-तरह के खाने की खुशबू आ रही थी।

            वैसे तो शिलोंग से असम जाते समय सीधा गुवाहाटी पहुँचा जा सकता है। मगर हम सब जिस काफिले से आए थे उन्हें और भी जगह पर जाना था। सो वे हमें पहले रुपाई ले गए फिर वहाँ से हमें आगे गुवाहाटी जाना था। वहाँ में ही एक माता का मंदिर आता है। ये असम रायफल्स के एक केम्प के बगल में बना हुआ था। वहाँ का भी एक किस्सा है। हम सभी लम्बे सफ़र से थक चुके थे और बाहर का खाना खाकर हमारी पाचन शक्ति ने बहुत जल्दी जवाब दे दिया था। मेरे पिताजी को उनके किसी मित्र ने बताया कि रुपाई के इस केम्प के बगल में एक मनसा माता का मंदिर है। वहाँ हमें कुछ सुविधा मिल सकती है। वहाँ जाकर हम कुछ सादा सा खाना खा सकते हैं। वैसे भी कुछ ही दिन पहले हम तीनों भाई-बहनों को हेपेटाईटिस-सी हो गया था। बाहर का खाना पचाना मुश्किल था। हम सभी वहाँ गए और मंदिर के एक प्रभारी से बात की। वह महिला प्रभारी थी। उसने हमारे लिए एक केरोसीन के चूल्हे का इंतज़ाम कर दिया था। हम अपने साथ कुछ बर्तन तो ले ही आए थे और थोड़ा सा दाल-चावल मंदिर से ही लेकर माँ ने खिचड़ी पकाई थी। वही खिचड़ी हमने पहले भगवान जी को अर्पन किया और फिर बाद में हम सभी ने वही मंदिर में ही प्रसाद के रूप में खिचड़ी खायी। जब तक माँ खाना तैयार कर रही थी। हम तीनों भाई-बहन मंदिर का चक्कर लगा रहे थे। हमने वहाँ जो कुछ भी देखा वह आज पूरी दुनियाँ के लिए जानना ज़रूरी है।

            कहते है जिनका कोई नहीं होता उनका भगवान होता है। ये बात सच कर दिखाया था इस मंदिर ने। यहाँ की जो देवी थी उनके बारे में लोगों का कहना है कि वह स्वयं देवी पार्वती का अवतार है। उन्होंने भगवान शिव को सपने में देखा था और उनसे उन्होंने सच में विवाह कर लिया था। उन्होंने ने ही यहाँ शिव लिंग की स्थापना की थी। उन्हें जब हमने भी पहली बार देखा था तो दंग रह गए थे। उनके बाल इतने लम्बे थे कि चोटी बनाना मुश्किल था। वे अपनी कमर में बालों के तीन-चार घेरा लगाने के बाद भी जब बालों को छोड़ती तो वह मिट्टी को छूते थे। उन्होंने अपने मंदिर की देखभाल के लिए जिन लोगों के वहाँ रखा था वे सभी दिव्यांग या फिर भिक्षुक थे। कोई-कोई मानसिक रोगी था। इन सभी लोगों को ज्यादातर उनके परिवार वालों ने त्याग दिया था। पर मंदिर की इस देवी ने उन्हें अपना लिया था। ये सभी यहाँ प्रतिदिन पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन करके अपना जीवन बिता रहे थे। दर-दर की ठोकर खाने से ये बच गए थे। मंदिर को दान में जो कुछ भी मिलता था उसी से ये अपना पेट भरते थे। मंदिर दिखने में भी ज्यादा बड़ा नहीं था। एक साधारण का घर जैसा लग रहा था। देवी दूर्गा और शिव लिंग की स्थापना जहाँ हुई थी उसके सामने एक बड़ा सा खाली बरामदा था जहाँ प्रतिदिन लोग बैठकर भजन गा सकते थे। आस-पास की थोड़ी सी भूमि में कुछ कच्चे घर बने हुए थे जिनमें ये सभी लोग रहते थे। हरेक घर के पास कोई-न-कोई पौधा लगा हुआ था। दो चार फूलों के पौधे और दो बढ़ते हुए वट वृक्ष होंगे। ये तब की बात थी आज एक दशक गुज़र गया है। आशा है कि काफी फल-फूल गया होगा। शायद आज भी वहाँ समाज द्वारा ठुकराए जाने वाले लोगों के लिए द्वार खुले हो।

            उस मंदिर की याद आती है तो सिर्फ मंदिर के अंदर के दृश्य ही दिखते हैं। उस दिन जब हम देर शाम तक मंदिर में रहे तभी हमें वापस कैम्प जाने के लिए बुलाया गया। क्योंकि हमारे साथ और दो-तीन परिवार थे जिन्हें गुवाहाटी पहुँचना था। सो हम मंदिर के भगवान को प्रणाम कर वापस कैम्प की ओर जाने लगे। तभी अचानक बारिश शुरु हो गयी थी, माँ मुझे और मेरी बहन को जल्दी-जल्दी  दौड़ने के कह रही थी। पिताजी के हाथ में टिफिन का बक्सा था जिसमें थोड़ी सी खिचड़ी बची हुई थी। साथ ही बैग था जिसमें हमारा दूसरा ज़रूरी सामान था। हम सब दौड़ कर कैम्प के नज़दीक पहुँचे। तार का बेड़ा था जिसके बगल में छोटा सा गेट बना हुआ था। अक्सर कैम्प से अन्य लोग भी मंदिर में पूजा वगैरह के लिए आते-जाते थे। खैर हम सब कैम्प के अंदर गए।

            अगले दिन हम सभी गुवाहाटी के बस अड्डे पहुँचे। वहाँ से हमने पहले बदरपुर और फिर हाइलाकान्दी के लिए सीटे बुक कर ली थी। बस का सफ़र मुझे कभी भी पसंद नहीं था। अक्सर जब टेढ़े-मेढ़े ,ऊँची-नीची रास्तों से होकर बस गुज़रती थी तो मुझे बहुत मतली आ जाती थी। सास रोककर या फिर पेट पकड़कर बैठे रहना पड़ता था। जब भी ऐसा होता तो आस-पास के लोगों को देखती थी तो गुस्सा आता था कि सारे लोग मज़े से सो कैसे रहे हैं? दरअसल बस में मतली न आने के लिए सो जाना बेहतर उपाय माना जाता था। मगर मुझे मतली भी आती थी और सर भी घूमता था। आज भी यही हाल है।

            गुवाहाटी से जब हम बस में चढ़कर निकले तो मैं आस-पास के नज़ारे देख रही थी। सुन्दर-सुन्दर घनी पहाड़ियों से घिरा शहर। पहाड़ियों के बीच-बीच में बसे घर और घरों में जलते बिजली के बल्ब। जहाँ तक देखों तो सुन्दर-सुन्दर पैड़। कुछ फूलों से ढके हैं तो कुछ-कुछ में छोटे-छोटे बीज। बस वह दिन था और आज  का दिन ये सफ़र मुझे अभी भी उतना ही सुहावना भी लगता है और रोमांचित भी।

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