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शनिवार, 4 जुलाई 2020

मान अपमान



आखिर कौन हो तुम?
क्या हो तुम?
तुम जो कोई भी हो मुझे फ़र्क नहीं पढ़ता
तुम्हें कोई अधिकार नहीं
तुम्हारी कोई औकात नहीं
ऐसे शब्दों से आहत होता है मन मेरा।
जो मान अपने लिए मन में लेकर रहती हूँ,
टूट कर बिखर जाता है अपनी की वाणी से
जो मान अपनों के लिए मन में लेकर रहती हूँ.
टूट कर बिखर जाता है अपनों के ही शब्दों से।
घर वाले कहते हैं बाहर वालों को त्याग दो
अपमान जो मेरा करते हैं
बाहर वाले कहते हैं घर वालों को त्याग दो
अपमान जो मेरा करते हैं।
अपमान फिर भी दोनों मेरा करते हैं
मगर चुप चाप दुख सहे जा रही हूँ मैं,
छुपाकर अपने आँसूओं को मुस्कुरा रही हूँ मैं,
मुझसे तो सभी अच्छे हैं सोच कर
खुद को रोज़ बदलते-बदलते,
खुद को ही खोते जा रही हूँ मैं।
ना दोष देना मुझे यदि एक दिन मैं चली जांऊ इस तरहा
ना कहना कि मैं कि मैं हार मान कर चली गयी किस तरहा
बस याद करना अपने उन बातों को
दुबारा ना दोहराना कभी उन लम्हों को
बस जीने की आस थोड़ी सी बची है ज़िन्दगी
मान अपमान में शायद अभी भी फ़सी है ज़िन्दगी।

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