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बुधवार, 16 जुलाई 2025

सब कुछ खत्म हो गया दादा...


(एक सच्ची घटना पर आधारित लघु कथा)


सिलचर के एसबीआई बैंक के बगल में बने बस स्टैंड पर उस दोपहर एक अजीब सी खामोशी थी। भीड़ थी, भागदौड़ थी, लेकिन उनके बीच एक बदहवास आदमी अलग ही दुनिया में खोया नज़र आ रहा था। उसके अस्त-व्यस्त कपड़े, जिन पर कई दिनों की धूल जमी थी, उसका बिखरा हुआ चेहरा और आंखों में डर और घबराहट—ये सब किसी गहरे हादसे की कहानी कह रहे थे।


वह आदमी इधर-उधर दौड़ता फिर रहा था, जैसे किसी को ढूंढ रहा हो, पर खुद को भी नहीं जानता। राह चलते लोगों को देखकर वह रोते हुए कुछ कहने की कोशिश करता, पर आवाज़ जैसे गले में ही अटक जाती। कोई रुकता नहीं, कोई पूछता नहीं — सभी को अपनी जल्दी थी।


अचानक वह ज़मीन पर गिर पड़ा। और फिर फूट-फूट कर रोने लगा, जैसे उसका कलेजा चीरकर दर्द बाहर आ रहा हो। अब लोग ठिठकने लगे थे।

"क्या हुआ दादा? आप ऐसे क्यों रो रहे हैं?" — एक सज्जन ने पास जाकर धीरे से पूछा।


उसकी कांपती आवाज़ में बस इतना निकला —

"सब कुछ खत्म हो गया दादा... सब कुछ..."

इसके बाद वह और ज़ोर से रोने लगा।


बहुत देर तक समझाने-बुझाने और पानी पिलाने के बाद उसने जो बताया, वह सुनकर लोगों की रूह कांप उठी।


तीन महीने पहले, इसी बैंक से उसने अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए तीन लाख रुपये निकाले थे। जैसे ही वह बाहर निकला, दो मोटरसाइकिल सवार लुटेरे उसकी ताक में थे। उन्होंने उसका बैग छीना, वह भिड़ा, गिरा, घिसटा... लेकिन लुटेरे भाग निकले। पुलिस वहीं पास थी, पर कुछ कर न सकी।


उस दिन न सिर्फ रुपये लुटे, बल्कि उम्मीद, सपने और जीवन की धड़कन भी छिन गई। पैसों के बिना इलाज न हो सका और उसकी पत्नी ने तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया। उसके जीवन में कोई और नहीं था — वह अकेला रह गया। इस अकेलेपन ने उसके होश भी छीन लिए। और तब से वह यूँ ही सड़कों पर भटकता रहा — कभी बैंक के पास जाकर रो पड़ता, कभी भीड़ में खो जाता।


किसी ने धीरे से कहा, "ये वही हैं... सुभोजित रॉय। तीन महीने पहले की वही लूट की घटना... अखबारों में खबर भी छपी थी।"


थोड़ी देर बाद एक गाड़ी आई और सुभोजित को लेकर चली गई। पता चला कि किसी दूर के रिश्तेदार ने उनके मानसिक इलाज की व्यवस्था की है।


बैंक के बगल में खड़े वे सभी लोग कुछ देर तक निःशब्द रहे।

"हमें कभी किसी की पीड़ा को यूँ ही नजरअंदाज़ नहीं करना चाहिए..." — किसी ने धीरे से कहा।


और सभी उस भीड़भरे बस स्टैंड से कुछ थके-थके कदमों से आगे बढ़ गए, पर भीत

र कहीं कुछ भारी-सा छोड़ आए।



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