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शुक्रवार, 8 मई 2020

रस परिचय – रस किसे कहते हैं? रस कैसे उत्पन्न होता है?


रस – भारतीय जीवन में रस एक सर्वव्यापक वस्तु है और सर्वव्यापक होने के कारण इसका सर्वत्र प्रयोग होता है। रस का इन सभी जगहों में अलग-अलग प्रयोग अर्थ आदि है। अर्थ निर्भर करता है लेने वाले पर। अर्थात् कोई किसी प्रसंग में अर्थ किस प्रकार लेता है उसी पर अर्थ निर्भर करता है। रस शब्द सबके लिए अलग-अलग अर्थ लेकर आता है। जैसे कि –

(क) प्राकृत्तिक वस्तु के रूप में रस का अर्थ है काठ का रस, फूल का रस, पत्ते का रस, फल का रस इत्यादि।

(ख) आयुर्वेद में रस का अर्थ है रसायन अथवा औषधि। उसे रस रसायन के नाम से कहा जाता है। आयुर्वेद में ही शरीर का मूल तत्व(वीर्य) को जो कि जीवन-मृत्यु का मूल है उसे भी रस कहा गया है।

(ग)  स्वाद के अर्थ में रस जैसे मधु रस, तीक्त रस, झाल रस इत्यादि।

(घ)  मधु के अर्थ में रस को लिया जाता है।

(ङ)  आध्यात्म के क्षेत्र में भी रस को भक्ति रूप में लिया जाता है। उसे मुक्ति भी कहते हैं।

(च) आनन्द के अर्थ में भी रस को लिया जाता है। इसे काव्यानन्द कहते है। जैसे संगीत सुनने से, नृत्य देखने पर, मूर्ति देखने पर भी आनन्द को प्राप्ति होती है। काव्य और सभी प्रकार के कलाओं को देखने से हमें आनन्द की प्राप्ति होती है।

उपरोक्त सभी रस का प्राथमिक परिचय है। उपरोक्त सभी बातों से स्पष्ट है कि रस हमारे संपूर्ण जीवन के प्रत्येक क्षण में, प्रत्येक तत्व में, प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त है। रस के बिना हमारा जीवन अधूरा है।

            साहित्य में रस का अर्थ है जब हम कोई साहित्यिक विधा पढ़ते है, सुनते है तो हमारे मन में उस विधा में वर्णित कथा या विचार पढ़कर जो अनुभूति होती है तथा उस अनुभूति से जो भाव जन्म लेता है जो कि हमारे चेहरे तथा शरीर में दिखायी देता है या जो हमारी अवस्था होती तो रस की उत्पत्ति होती है। जैसे कि हम कोई वीर रस से भरी कविता पढ़ते हैं तो हमारे शरीर में स्फूर्ति उत्पन्न होती है, हमारी आँखों में गर्व दिखायी देता है। उसी प्रकार यदि हम कोई ट्रेजेडी वाला साहित्य पढ़ते हैं तो हम रोते हैं। इस स्थिति को हम काव्यानन्द कहा जाता है। उसी आनन्द को हम रस कहते हैं।

रस की उत्पत्ति कैसे होती है?  कोई कार्य या कोई परिणाम अपने-आप नहीं हो जाता है, जिसके पीछे कोई घटना या वस्तु होती है जिसे कारण कहा जाता है। घटना या वस्तु के बिना कार्य या परिणाम नहीं होगा। रस के उत्पादान कारण इस प्रकार –

            विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पतिः  -- (आचार्य भरतमुनि)

आचार्य भरतमुनि के अनुसार रस की उत्पत्ति विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस का आदि कारण है भाव। एक प्राणी किसी घटना, वस्तु, व्यक्ति, विचार आदि में से किसी एक के संपर्क में आने पर उसके चित्त(मन, heart) में एक प्रतिक्रिया होगी। इसका एक परिणाम होगा और यही परिणाम भाव कहलाएगी। यह परिणाम अनुकूल(favourable) भी हो सकता है या प्रतिकूल(adverse) भी हो सकता है। अनुकूल हुआ तो सुख होगा अर्थात् सुखात्मक भाव या प्रतिकूल हुआ तो दुख अर्थात् दुखात्मक भाव। किसी क्रिया का हमारी चेतना पर जो परिणाम होता है वही भाव है। क्योंकि चेतना का जगत काफी सूक्ष्म होता है इसीलिए भाव का स्वरूप भी काफी सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म (प्रत्यक्ष रूप से दिखायी नहीं देगा बल्कि उसकी अनुभूति होती है।) भाव की अवस्था में मनुष्य संसार में नहीं रहता। वह ममत्व और परत्व के बन्धन से मुक्त हो जाता है।



भाव को दो भागों में बाँटा गया है।

अस्थायी भाव
स्थायी भाव
अल्प अवधी अर्थात् थोड़े समय के लिए जिसका अस्तित्व होता है।
कुछ भाव ऐसे है जो कुछ दीर्घ काल तक शुष्क रूप से हमारे भीतर बने रहते हैं, इनको मिटाया नहीं जा सकता उनको स्थायी भाव कहते हैं। ये सदा शाश्वत बने रहने वाला भाव।



रस सिद्धान्त में रस नौ प्रकार के बताए गए हैं। परन्तु भक्तिकाल में भक्तिपरक रचनाओं में दो नयी प्रकार का भावों को भक्तिकाव्य में लक्ष्य किया गया तथा उसे रस के अंतर्गत जोड़ा गया। ये नए भाव थे (भक्ति एवं वात्सल्य)।

रस के प्रकार एवं उनके स्थायी भाव

स्थायी भाव                                                        निष्पन्न होने वाले रस

रति                                                                   श्रृंगार रस

हास                                                                  हास्य रस

शोक                                                                 करूण रस

क्रोध                                                                  रौद्र रस

उत्साह                                                               वीर रस

भय                                                                   भयानक रस

जुगुप्सा                                                              वीभत्स रस

विस्मय                                                              अद्भुत रस

निर्वेद                                                                शान्त रस

पुत्र विषयक रति                                                 वात्सल्य रस



विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव किसे कहते हैं?

विभाव – वि का अर्थ है विशेष अर्थात् विभाव का अर्थ है विशेष प्रकार का भाव। वास्तव में हेतु, कारण, प्रयोजन भाव को उत्पन्न करने वाले हेतु, कारण या प्रयोजन को विभाव कहते हैं।

            हमारी चेतना में स्थायी भाव, शाश्वत सनातन रूप में विद्यमान है जो अपने-आप नहीं जगते। इनको जगाने का काम कोई बाहरी क्रिया करती है। इसी प्रयोजन को विभाव कहा जाता है। क्योंकि इसके कारण भाव जैसी सूक्ष्म वस्तु का जागरण होता है इसलिए इसे विशेष भाव कहा जाता है। हमारी आत्मा में स्थायी भाव सदैव उपस्थित रहते हैं। परन्तु हम इन भावों को सदैव महूसस नहीं कर पाते हैं। ऐसे में जब कोई कारण या हेतु इन्हें प्रकट करता है तभी हमें ये स्थायी भाव महूसस होते हैं। जैसे कि किसी व्यक्ति द्वारा कही गयी कोई अटपटी बात या चुटकुले सुनकर हम सबको हंसी आती है। इसमें उस व्यक्ति द्वारा जो चुटकुला सुनाया गया है वही चुटकुला विभाव के रूप में काम करता है तथा हमारे मन में स्थित हास नामक स्थायी भाव को जगा देता है जिसे हम महसूस कर पाते हैं।

विभाव के दो मूल भेद है। एक है आलम्बन विभाव और दूसरा है उद्दीपन विभाव। भाव को जगने कोई आधार चाहिए, आधार न हो तो भाव नहीं जगेगा। जिस आधार पर भाव जगता है उस आधार को आलम्बन विभाव कहते हैं। भाव के जगने अर्थात रति नामक स्थायी भाव को रस के रूप में निष्पन्नः होने के लिए नायक और नायिका नामक आलम्बन विभाव चाहिए। जैसे रामायण में पुष्प-वाटिका प्रसंग में राम ने जानकी को देखा तो उनके हृदय में रति भाव जगा। इसलिए जानकी आलम्बन विभाव है और राम में रति भाव जगा इसलिए राम और राम का हृदय आश्रय है। जहाँ जाकर रस को आधार मिलता है, स्थायी भाव जागता है उसे आलम्बन विभाव कहते है। आल्मबन यहाँ देवी सीता है तथा उनके द्वारा की गयी चेष्टाएँ उद्दीपन विभाव कहलाएगी।

अनुभावआश्रय की चेष्टाएँ अनुभाव के अन्तर्गत आती है जबकि आलम्बन की चेष्टाएँ उद्दीपन के अन्तर्गत मानी जाती हैं। अनुभाव की परिभाषा देते हुए कहा गया है – अनुभावों भाव बोधकः अर्थात् भाव का बोध कराने वाले कारण अनुभाव कहलाते है। आश्रय की वे बाह्य चेष्टाएँ जिनसे यह पता चलता है कि उसके हृदय में कौन-सा भाव उत्पन्न हुआ है वह अनुभाव कहलाते हैं।

जैसे की राम जब देवी सीता को पुष्प-वाटिका में देखते हैं तो राम के मन में प्रेम उत्पन्न होता है। राम तब देवी सीता को एकटक देखते रहते हैं तथा मुस्कुराते हैं। उनका मुस्कुराना, एकटक देखना अनुभाव है। वही देवी सीता राम के इस प्रकार एकटक देखने पर वह भी उन्हें देखती रहती है तथा बाद में लज्जा वश अपनी पलके झुका लेती है। यहाँ देवी सीता आल्मबन है तथा उनका लजाना इत्यादि चेष्टाएँ उद्दीपन विभाव के अन्तर्गत आते हैं।

संचारी भाव – संचरणशील (अस्थिर) मनोविकारों या चित्तवृत्तियों को संचारी भाव कहते हैं। ये भाव रस के उपयोगी होकर जलतरंग की भाँति उसमें संचरण करते हैं। इससे ये संचारी भाव कहे जाते हैं। इनका दूसरा नाम व्यभिचारी है। विविध प्रकार से अभिमुख और अनुकूल होकर चलने के कारण इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहते हैं। ये स्थायी भाव के साथी है। रस के समान ही संचारी भाव भी व्यंजित या ध्वनित होते हैं। इनकी तैंतीस संख्या मानी गयी है।

ये तैंतीस भाव इस प्रकार है –1) निर्वेद 2) ग्लानि 3) शंका 4) असूया 5) मद 6) श्रम 7) आलस्य 8) दैन्य या दीनता 9) चिन्ता 10) मोह 11) स्मृति 12) धृति 13) व्रीड़ा 14) चपलता 15) हर्ष 16) आवेग 17) जड़ता 18) गर्व 19) विषाद 20) औत्सुक्य 21) निद्रा 22) अपस्मार 23) स्वप्न 24) विबोध 25) अमर्ष 26) अवहित्था 27) उग्रता 28) मति 29) व्याधि 30) उन्माद 31) त्रास 32) वितर्क 33) मरण

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