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शनिवार, 25 अप्रैल 2020

मोइदा-ओइ-दे


कभी-कभी लगता है कि ज़िन्दगी यू ही बिना किसी झंझट के गुज़र जाती तो कितना अच्छा होता। पुरानी यादें जो बार-बार नज़रों के सामने आती है वह यह एहसास दिला जाती है कि आज जो ज़िन्दगी है या जो हुआ करती थी उसमें से कौन सी सबसे ज्यादा अच्छी है? क्योंकि आज सबकुछ होते हुए भी लोगों के पास कुछ नहीं है। घड़ियाँ है पर वक्त नहीं है, अनाज बहुत है पर भूख नहीं है, लोग बहुत है पर रिश्तें कही खो से गये हैं। बीते वक्त से चुनकर कुछ एक ऐसी ही घटनाएँ मुझे याद आती हैं। मैं बारवी कक्षा की छात्रा थी। पिताजी के साथ हम सभी अलोंग अरुणाचल प्रदेश के असम-रायफल्स केम्पस में रहा करते थे। रोज का टाईम-टेबल था पिताजी नहा-धोकर तैयार होकर असम-रायफल्स स्कूल पढ़ाने चले जाते। पिंकी (मेरी छोटी बहन) भी तैयार होकर पिताजी के साथ स्कूल चली जाती। मैं और भाई आलोक भी तैयार होकर आलोंग हाइयर सेकेन्डरी स्कूल चले जाते। माँ घर के कामों से फुर्सत पाकर सिलाई के काम में बैठती थी। उनको सिलाई बहुत अच्छी तरह आती है। क्रोशिये पर जब उनकी ऊंगलियाँ चलती तो इतने सुन्दर-सुन्दर मेज़-पोश बनते, हमारे लिए सुन्दर-सुन्दर स्वेटर बनाती थी जो देखने लायक होते थे। फ्रॉक तो ऐसे बनती थी जैसे कि रेडीमेड खरीदी हो। हम दोपहर को स्कूल से घर लौटते थे तो माँ के साथ ही भोजन करते थे। शाम का वक्त खेलने का होता या फिर पढ़ने के लिए बैठ जाते। घर की दिनचर्या हमारी बिलकुल साधारण सी थी। शाम को पिताजी के पास उनके कई स्टूडेन्ट पढ़ने आते। हफ्ते में तीन दिन वे दूसरी जगह पढ़ाने भी जाते थे। उनके आने के बाद हम सब अपने-अपने डाउट लेकर बैठ जाते थे। ज्यादातर गणित और विज्ञान के विषयों से सम्बन्धित होते थे। मेरी गणित तथा विज्ञान में कोई विशेष रुची नहीं थी। कल्पना की दुनिया में उन दिनों उड़ान भरा करती थी। अपने क्वाटर के आस-पास के दृश्यों के देख-देख कर न जाने क्या-क्या सोचती रहती थी। क्वाटर के आस-पास के नज़ारे भी तो इतने सुन्दर थे कि क्या कहने!! हमारे क्वाटर का मुख्य दरवाजा उत्तर दिशा की ओर खुलता था। बाहर एक बहुत छोटा सा आँगन था। जैसे कि सरकारी और विशेष कर आर्मी बटालियन में रहने वालों के घर होते हैं। वैसे हम जहाँ थे वहाँ गिनती के सिर्फ छः क्वाटर थे। सभी जाने पहचाने। आँगन के दाहिने तरफ खुली बड़ी सी जगह और उसके बाद नर्स अंकल का क्वाटर पड़ता था। उनके क्वाटर की तरफ देखने पर दूर पहाड़ी और घने जंगल दिखते थे। ये पूर्व दिशा की ओर था। रोज वहाँ से सूर्योदय का नज़ारा दिखता था। पश्चिम की दिशा की ओर भी उससे भी ऊँचा पहाड़ था। उस पहाड़ में स्थानीय लोगों के घरों तथा तरह-तरह के पेड़ पौधे, केले के पेड़, फूलों की क्यारियाँ तथा गमले और भी न जाने क्या-क्या। उनमें सूरज की रोशनी पड़ती थी तो सबकुछ कितने रंगीन हो जाते थे। आँगन के बाये तरफ एक सफेद जबाकुसुम का पौधा था। सावन के महिने तथा अन्य बारीश के दिनों में उसमें बहुत सारे सफेद जबाकुसुम फूल खिलते थे। साथ ही रेन ग्रास लिली के फूल भी खिलते थे।

            हम केम्पस के जिस हिस्से में रहते थे उस ओर से असम-रायफल्स के केम्पस से शहर की ओर जाने का रास्ता पड़ता था। मेन गेट के बाहर कई दुकाने थी । शहर से अक्सर एक बूढ़ी औरत लकड़ियाँ टेकते हुए भीख माँगने आया करती थी। थी तो वह वही की स्थानीय। हिन्दी भाषियों तथा अन्य प्रदेशों से आकर बसे लोगों के कारण थोड़ी बहुत हिन्दी वह भी सीख गयी थी और प्रतिदिन ‘मैदा’(रोटी बनाने के लिए) की भीख माँगती थी। पर मुँह में दांत न होने की वजह से स्पष्ट बोल नहीं पाती थी और इशारों से समझाती थी कि उसे खाने के लिए रोटी चाहिए। वह खुद अपने हाथों से रोटी बनाकर खाएगी। हम उसे भीख देते थे। भीक्षा मांगने पर भीख देना भारतीय परिवारों में बहुत महत्व रखता है। खासकर परोपकार की भावना और पुण्य कमाने की लालसा सबसे अधिक है। पर जो भी हो उस बूढ़ी औरत से हफ्ते में दो बार मिलना हो ही जाता था। उसे देखकर यह कभी पता नहीं चलता था कि वह किसी बड़े घर की औरत रही होगी। पोशाक अरुणाचली और चेहरे पर ज़िन्दगी के थपेड़े और तिरस्कार साफ पता चलते थे। पर स्वाभिमान की भावना भी उतनी ही प्रबल दिखती थी। दो एक घर से उसे जितनी भीख मिलती थी उसके लिए काफी होता था तो वह वापस लौट जाती थी। मेहनती भी बहुत थी। पर बूढ़ी होने के कारण उसे कोई काम पर नहीं रख सकता था।           

             ऐसे ही एक दिन की बात है। पाहाड़ों पर अक्सर बादल ऐसे घूमते नज़र आते हैं जैसे कि वे बादल नहीं बल्कि कोई इन्सान हो। धीरे-धीरे बादलों के झुण्ड को चीरते हुए लकड़ी टेकते हुए बूड़ी अम्मा आ रही थी। उन दिनों खूब बारीश हो रही थी। इसलिए ठण्ड भी बहुत ज्यादा थी। बूड़ी अम्मा के शरीर पर कपड़े तो थे लेकिन वे शायद ठण्ड से बचने के लिए उतने काफी नहीं थे। वह हमारी लाइन में भीख मांगने आयी थी। एक तो ठण्ड उस पर से भूख। कैसी अवस्था होती है यह तो सिर्फ वही समझ सकती थी। वह आकर अपनी अरुणाचली तथा हिन्दी भाषा के मिश्रण में कहने लगी ---“मोइदा-ओइ-दे।” । हम सब भी उन्हें मोइदा-ओइ-दे बूढ़ी ही बुलाते थे। उसकी आवाज़ में भूख की पीढ़ा तथा आर्द्रता थी। हमारे क्वाटर के बायी तरफ जो कि मेन रोड से सटा था उसमें रहने वाली ऑन्टी ने उन्हें खाने के लिए कुछ दिया। फिर शायद उनसे कुछ कहने को हुई लेकिन बूढ़ी अम्मा कुछ न सुनते हुए दुबारा हम सभी के क्वाटर्स के सामने आकर भीख माँग रहीं थीं। जब वह हमारे घर के सामने आयी तो हमने भी अन्नदान दिया। लेकिन मन में न जाने किसी प्रकार का कोई संतोष नहीं हुआ। क्योंकि उन्हें जब भी मैं देखती तो लगता था कि उनके बारे में सबकुछ जान लू। उनका किचमिचाया हुआ चेहरा, दाँत को नाम पर केवल दो ही बचे है, सर पर एक कपड़ा पगड़ी के जैसे बांधे रहती थी। पाहाड़ी स्त्रियों के सिर पर कपड़ा माल ढोने तथा पाहाड़ी ठण्डक से बचने के लिए होता है। परन्तु यही कपड़ा उनकी पोशाक को और भी सुन्दर और विशेष बना देता है। हमारी मोइदा-ओइ-दे की पोशाक भी ऐसी ही थी। बस एक ही फ़र्क था कि कई पुराने मैले-कुचले कपड़े एक साथ पहने रखे थे उन्होंने। पहाड़ी रास्तों पर लगातार चलने की थकावट सबकुछ जैसे उन्हें अंदर से बहुत दुर्बल और दुखी कर रहा था। पर एक चीज़ थी, जब भी कोई उन्हें भीख देता तो वह उसे खुशी से आशीर्वाद जरूर देती। ये सब देखकर कभी-कभी सोचती कि विधाता की यह कैसी लीला है, जिस उम्र में उन्हें घर में आराम से रहना था, वह भिक्षा माँगकर अपना जीवन बिता रही हैं। भारत में वैसे भी भिक्षुको की कमी नहीं है। परन्तु वृद्धावस्था में किसी को भीख माँगते देख कुछ ज्यादा ही अजीब लगता है।

            एक दिन मैंने हमारे पास के क्वाटर के एक अंकल से यू ही इन बूढ़ी अम्मा के बारे में पूछ लिया था। तो पता चला कि आलोंग टाउन के ये कभी सबसे अमीर परिवार से हुआ करती थी। इनके चार-चार बेटे हैं, बड़ा घर है, गाड़ियाँ है। फिर एक दिन इनके पति ने किसी दूसरी महिला से शादी कर ली और इन्हें घर से निकाल दिया था। तब से ये भीख माँगकर अपना जीवन गुज़ार रही है। बस इतना ही पता है उनके बारे में। लेकिन जो भी हो उनको देखे बिना चैन नहीं आता था। हर हफ्ते न सही पर हर महीने का यही क्रम था। पर कभी-कभी सोचती थी कि एक बार कभी मौका मिले तो उन्हें पेट भर कर भोजन करता जरूर देखू। विधाता ने हमें यह मौका भी दिया। हमारी दादी माँ गुज़र चुकी थी। हर साल पिताजी घर पर उनकी बरसी मनाते थे और पूजा करते थे। सिलेठी परिवारों में एक रिवाज यह है कि दादी या नानी का यदि देहान्त हो तो उनके पोते या नाती द्वारा उनके श्राद्ध के समय पर एक छाता देना पड़ता है ताकि दिवंगत को स्वर्ग जाने में कोई कठिनाई न हो। उस दिन घर में जब पूजा हो रही थी तो यही बूड़ी अम्मा संयोग से भीख माँगने आयी। माँ ने उस दिन शुद्ध निरामिश भोजन बनाया था। पूजा लगभग समाप्त होने को आयी थी। हमने बूड़ी अम्मा को रोक लिया। वह भीख माँगने कही और जाना चाहती थी लेकिन हमने उन्हें किसी तरहा अपने घर पर रोक लिया। फिर पूजा समाप्त होते ही उन्हें केले के पत्ते पर भोजन परोसते हैं। उन्होंने इतना सारा भोजन कई शायद दिनों बाद देखा था। शायद इसीलिए वह इतना भोजन नहीं कर पा रही थी। उन्होंने जितना भोजन करना था सो किया लेकिन बाकी का उन्होंने अपनी थैली में भर लेना चाहा था। बेचारी क्या करती? कपड़े की मैली सी थैली में क्या-क्या भरती। फिर हमने किसी तरहा उन्हें कुछ डब्बों में भरकर भोजन बांध दिया। उसके बाद मुझे अचानक खयाल आया कि मेरा एक पुराना सलवार-सूट है जो मैं अब नहीं पहनती। मैंने उन्हें ले जाकर दिया तो उन्होंने उसे तुरंत पहन लिया। अपने बाकी मैले कपड़ों के ऊपर उस पुराने कुर्ते को पहन भी वह बहुत खुश हुई। आलोक ने उन्हें छाता भी दिया। उन्होंने ये सारी चिजे खुशी-खुशी ले ली। उसके बाद वह कई बार हमारे यहाँ भीख माँगने आती रही। शायद उन्हें ये लगता रहा होगा कि हम उन्हें खाने के लिए कुछ-न-कुछ देंगे। पर रोज-रोज हमारे लिए भी यह सम्भव नहीं हो पाता था। क्योंकि हम सभी घर से बाहर रहते थे और माँ घर के काम में व्यस्त या फिर क्वाटर के पीछे बने बागान में सब्जियों के पौधों में पानी डाल रही होती थी। इसलिए जब सम्भव होता उन्हें खाने के लिए हर रोज कोई-न-कोई  कुछ-न-कुछ ज़रूर दे देता था।  पर बहुत दिनों तक ये सिलसिला भी नहीं चला। दादी माँ की बरसी वाले दिन के बाद कुछ दिनों तक वे दिखी पर उसके बाद फिर वे हमें नहीं दिखी। विधाता जाने क्या हुआ? हमारी मोइदा-ओइ-दे बूढ़ी से दुबारा मुलाकात नहीं हुई। पर दादी माँ की बरसी के दिन जो अच्छे से मिले थे उतना आज तक याद है। 

            ये समृति कथा 1999-2000 के समय की है। अतः प्रकृति के नियम के अनुसार शायद वह अब इस लोक में नहीं है। प्रार्थना करती हूँ कि जहाँ भी वह रहे ईश्वर उनको शान्ति दे।

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