जादू का कालीन दरसल एक ऐसा नाटक है जिसमें समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, अशिक्षा, राजनीतिक अनैतिकता, ग़रीबी, भुखमरी जो कि अपनी जड़े गहरी जमा चुकी है उसे ही एक व्यंग्यात्मक शीर्षक के जरिये मृदुला गर्ग जी ने दर्शाया है। भारत देश का गाँव देश की वास्तविक छवि को दर्शाता है। गाँव जहाँ हरे-भरे खेत-खलिहान हो, जहाँ आस-पास घने जंगल, तालाबों और नदियों और कूवों में पानी हो एक शहरी के मन में गाँव कि यही तस्वीर झलकती है। लेकिन जादू के कालीन में सभी गाँव सुखा और अकाल की चपेट में हैं। वहाँ गाँव के लोग पारंपरिक खेती के काम को छोड़ कर मजदूरी कर रहे हैं। लेकिन मजदूरी भी भ्रष्टाचार पर निर्भर करती है। अगर ठेकेदार अच्छी सड़कें बनायेगा तो वह बारिश में नहीं बहेगा न धसेगा। पर अच्छी सड़क बनती है तो गाँव के लोगों को नयी सड़क बनाने का काम कहाँ से मिलेगा? ये एक व्यंग्यात्मक उदाहरण है समाज में फैले भ्रष्टाचार की। रमई और माई के संवाद से यही पता चलता है। वही सरकार की गाँव के प्रति उदासीन दृष्टिकोण के कारण अब गाँव वाले जो की जंगलों पर निर्भर है वह भी अब गाँव वालों के हाथ से चला गया है और वह सरकार के कब्जे में है। उसे सरकार ने रिज़र्व कर लिया है। अब गाँव वाले बिना मजदूरी, बिना खेती, बिना पानी के मजबूरी में अपने बच्चों को ही काम पर भेजने के लिए तैयार हो जाते हैं। भूख से बिलबिलाते बच्चे आखिर उनके माता पिता का भी क्या दोष। उन्हें भी पता है कि कालीन कारखानों में बच्चों की दुर्गती हो सकती है। लेकिन कमाई का जरिया ना हो और सिर पर ग़रीबी और भुखमरी की तलवार लटकी हो तो इंसान परिस्थिति का शिकार हो ही जाता है। वही कारखाने के मालिक द्वारा यह दिखाया गया है कि कैसे निचले दफ्तर के कर्मचारी, लेबर ऑफिसर और नेता तक इस कुचक्र में शामिल होकर पैसों के लालच में कालीन का व्यवसाय गलत तरीके से चलाने दे रहे हैं और कारखाने के मालिक जैसे लोग खुद लाभ कमा रहे हैं। उन्हें किसी मुसीबत का सामना नहीं करना पड़ता है। बल्कि वे कमिशन देकर अपना काम सुचारु रूप से चला रहे है। बच्चों की सेहत, उन्हें भरपेट भोजन, शिक्षा इत्यादि की किसी को फिकर नहीं है। बच्चे गेहूँ में घुन की तरह पीस रहे है। यद्यपि उनके मन में आजादी का सपना है, शिक्षा और अच्छे भोजन का सपना भी देखते है लेकिन वास्तविकता इससे उलट है। बच्चों की माओं के मन में चिन्ता जहाँ दिखती है वही उनके पिता बच्चों से ही आमदनी करने की सोचते है। केशो का बाप और संतो का बाप दोनों पैसे लेकर अपने बच्चों को दलालो के हाथ बेच देना यही दर्शाता है।
वही सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार भी जब बच्चों को कारखाने से मुक्त करवाते है तो उन्हें दुबारा सही जीवन मिले इसका कोई व्यावहारिक उपाय या तरीका नहीं ढूंढ पाते हैं। गाँव के बच्चों को गाय और सिलाई मशीन देकर वे जैसे अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है। वही केशो जो कि पढ़ना चाहता था उसे भी शहर में घरेलू नौकर ही बनना पड़ता है। जब संतो कि दादी गाँव की वास्तविक आवश्यकता जंगल और पानी की मांग करती है तो उसे चुप करा दिया जाता है। सुखा के कारण उनको दी गयी गायें भी सुख कर अधमरी हो जाती है जिस पर कलेक्टर गाँव वालों पर ही नाराज़ होता है। लाखन जैसे बच्चे जो कि क्षणिक समाधान और क्षणिक लाभ के चक्कर में आकर इस बाल मजदूरी के कुचक्र में फँसा रहना ही चाहता है। काम काज और अन्न के अभाव में रमई और तीसरा गाँव वाला अपनी बेटियों की शादी कर देना चाहते हैं जो कि समाज में बाल विवाह की समस्या को उजागर करता है। वे दोनों लड़के के बाप से महज साड़े सात सौ- आठ सौ रुपए लेकर बच्चियों को बेचने के लिए राज़ी हो जाते है।