शेतोरपाड़ा
गांव में विभाष रंजन गांगुली और उनका परिवार रहता था। गांव में उनके अलावा और 5-6 घर
ब्राह्मणों के थे। सभी निम्न मध्यम वर्ग के लोग थे। मामूली खेती-बाड़ी और पुरोहिताई
से जो आय होती, उसी में इनका गुज़ारा चलता। गांगुली जी का परिवार ईश्वर कृपा से काफी बड़ा था।
खर्चा भी उतना ही था,
इसलिए खेती-बाड़ी और पुरोहिताई के अलावा भी उन्होंने दूसरे
गांव के एक धनाढ्य ब्राह्मण ज़मींदार के यहां उनके पुत्र को शास्त्र की शिक्षा
देनी प्रारंभ कर दी थी। इससे अच्छी आमदनी हो जाती। इस बात से उनके गांव के कुछ
लोगों को आपत्ति थी।
गांव के
अन्य ब्राह्मण परिवार गांगुली महाशय को ज़मींदार के घर नौकरी करने के कारण निकृष्ट
मानने लगे थे। लेकिन गांगुली महाशय को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। घर में पाँच
बेटियाँ और तीन लड़के थे। इनकी माता जी और पत्नी के ज़िम्मे घर की बागडोर थी।
बेटे-बेटियों को इन्होंने गांव के स्कूल में शिक्षा दिलवाने के लिए भर्ती करवा
दिया था। हालाँकि अब देश में राजा राममोहन राय की कृपा से अंग्रेजों द्वारा सती
प्रथा, दहेज प्रथा और बाल विवाह का उन्मूलन हो चुका था, फिर भी
अपने सामाजिक दायित्व को समझते हुए गांगुली बाबू ने समझा कि बेटियों की शादी में
रुपयों का इंतज़ाम करना ही पड़ेगा। बड़ी लड़की मात्र 13 वर्ष की
हुई थी। उसके विवाह में अभी और समय था,
सो गांगुली बाबू ने पत्नी से कह रखा था कि ज़मींदार के घर
से आने वाली रकम वह अलग से छुपाकर संभाल कर रखे। बाकी घर का खर्च जैसे चलता है, वैसे ही
चलाने की कोशिश करते रहेंगे।
दिन भर गांगुली बाबू गांव
में आमदनी अधिक बढ़ाने की कोशिश में लगे रहते। गांव में कायस्थों और शूद्रों का
परिवार था। मध्यम आय वाले सभी लोग पूजा-पाठ,
शादी या अन्नप्राशन में उन्हें बुलाते। गांगुली बाबू अच्छे
ब्राह्मण थे। कहते हैं कि जब भी पूजा-पाठ करने बैठते तो श्लोक के उच्चारण में कोई
त्रुटि नहीं होती,
विधिवत शास्त्र सम्मत पूजा करते, यजमान के
घर इसका फल भी बहुत होता। सो,
खुश होकर वे गांगुली महाशय को दान-दक्षिणा से निहाल कर
देते। परंतु आठ-आठ संतानों का पालन-पोषण फिर भी बड़ी मुश्किल से हो पाता।
गांगुली महाशय ने सोच रखा था
कि भले ही अपने तीनों बेटों को ब्राह्मणों का रहन-सहन एवं शास्त्र की शिक्षा देंगे, परंतु
उन्हें इस गांव में उनके जैसे पुरोहिताई नहीं करने देंगे। अच्छी शिक्षा दिलवाकर
उन्हें शहर भेज देंगे ताकि वे उचित शिक्षा लेकर कोई ढंग की नौकरी कर लें और
अपना-अपना जीवन सुधार लें। इसीलिए उनकी पढ़ाई-लिखाई में कोई कोताही नहीं बरतते।
बेटियों के लिए भी यही सिद्धांत तय कर रखा था। जब तक ससुराल नहीं चली जातीं, तब तक
बेटियों को खिला-पिला कर तृप्त कर देना चाहते थे ताकि ससुराल में उन्हें कोई मलाल
न रहे। वहीं गहनों के लिए भी रात-दिन पति-पत्नी में गोलमेज़ मीटिंग चलती। सोने का
भाव जो आसमान पर चढ़ रहा था।
इसी प्रकार जीवन की नैया
खिंचती चली जा रही थी। देखते-देखते लड़के-लड़कियाँ बड़ी हो गई थीं। गांव के स्कूल
की शिक्षा पूरी कर वे शहर में पढ़ने लगे थे। गांगुली महाशय अभी भी ज़मींदार साहब
के यहाँ लगे हुए थे। अब उनकी ज़मींदारी चली गई थी। वे अब व्यवसाय करके अपनी साख
बनाए हुए थे। आमदनी कुछ अच्छी हो रही थी। आज़ाद भारत में वे सांस ले रहे थे। वहीं
बंगाल के विभाजन के बाद उनका गांव अब पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) की
सीमा के करीब हो गया था। लिहाज़ा ज़मींदार बाबू ने अपने परिवार को लाकर करीमगंज
शहर में बसाने का मन बना लिया था। उन्होंने अपने कारोबार को वहीं पर जमा रखा था।
आज़ादी से पहले भारत-विभाजन और दंगे-फसाद की खबरें उन्हें अपने कई विश्वसनीय
सूत्रों से मिलती रही थीं। इसलिए उन्होंने अपने और परिवार की सुरक्षा हेतु पहले से
ही करीमगंज शहर में कोठी बनवा ली थी। बांग्लादेश में अपनी बची-कुची ज़मीन-जायदाद
भी बेच आए थे। घर का सारा किमती माल-असबाब और गहने वगैरह उन्होंने अपने एक
रिश्तेदार के पास शहर में रखवा लिया था। केवल पत्नी और बच्चों के साथ वे गांव में
रह रहे थे। उनका बड़ा लड़का गांगुली महाशय से विद्या पाकर अब काशी चला गया था।
वहीं पर उसका विवाह भी हो चुका था,
पत्नी समेत वहीं रहता। पिता से कभी-कभार मिलने परिवार समेत
आया करता। इधर उनका छोटा बेटा बचपन से पोलियो ग्रस्त होने के कारण बैसाखियों के
सहारे गांव में घूमा करता। उसने महज़ दसवीं पास की थी। लेकिन बुद्धि-विवेक उसमें
भी कम न था। ज़मींदार साहब की पत्नी कई बार कह चुकी थीं कि अब इस गांव में कुछ
नहीं रखा है। आये दिन गांव में दंगे का भय बना रहता है, क्यों न
सब कुछ छोड़कर करीमगंज ही जाकर रह लिया जाए। आखिर इतनी बड़ी कोठी किसलिए बनवाई है।
ज़मींदार साहब इस बात पर मौन रह जाते। उन्हें न जाने किस बात का इंतज़ार रहता।
लेकिन वे न कुछ कहते,
न ही किसी की सुनते।
वहीं
गांगुली महाशय का हाल अब बहुत बुरा था। गांव में दंगे में उनके सबसे छोटे बेटे की
जान चली गई। आधी खेती पर एक मुसलमान ने कब्जा कर लिया। उनका गांव भी भारतीय सीमा
से उस पार था। अब वे बंगाली कहलाने लगे। बरसों से जिस बंगाल में सब लोग रियाया
मिल-जुल कर रहते थे,
आज कुछ राजनीतिज्ञों के कारण विभाजन में बंट गए थे। गांगुली
जी के बच्चे अब ढाका शहर में पढ़ रहे थे जब गांव में दंगे हुए। सभी अब अपनी जान का
खतरा समझकर घर वापस लौट आए। अब गांव में मुसलमानों का कब्जा था। जो हिन्दू परिवार
थे, या तो दंगे में मारे गए या फिर वे भारत की ओर भाग गए। गांगुली जी भी भागना
चाहते थे, मगर पूर्वजों की मिट्टी छूट जाने का दुख उनके मुख पर साफ़ झलकता था।
लेकिन
किस्मत भी कब तक साथ देती। एक दिन गांव में फिर से ऐलान हुआ कि जितने हिन्दू गांव
में बचे हैं, या तो घर छोड़ दें या फिर इस्लाम कबूल कर लें। गांगुली जी घबराए और भीतर जाकर
पत्नी से सामान बाँधने को कह देते हैं। जितने रुपए इतने वर्षों की मेहनत से जमा थे
उन्हें एक पोटली में बांध उन्होंने अन्य सामान में छिपा दिया। इसके बाद अपने आधे
खेत पर कब्जा जमाए हुए मुसलमान पड़ोसी से कह कर उसको बाकी का घर और खेत सौंप दिया
ताकि कोई उपद्रव न हो। फिर रातों-रात में पत्नी और बच्चों समेत भारत की ओर निकल
पड़े। यह समय था 1950 का। गांगुली महाशय अन्य शरणार्थियों के साथ असम के बदरपुर जिले पहुंचे।
पड़ोसी देश में दंगों में सताएँ लोगों के लिए भारत ने अपने द्वार खोल दिये थे।
वहाँ पहले से ही मौजूद सरकारी लोगों के पास जाकर जो भी ज़रूरी कागज़-पत्र थे, सब दिखाए
और पहचान लिखवाई। परिवार में पाँच बेटियाँ और दो बेटे थे। माँ तीन साल पहले गुजर
चुकी थीं।
नए स्थान
पर आकर गांगुली जी को तकलीफ़ हुई। लड़कों की पढ़ाई छूट गई थी, बेटियाँ
माँ के पास ही रहतीं और काम-काज कर उनकी मदद करतीं। विभाजन के कारण आए शरणार्थियों
को भारत सरकार ने दया दिखाते हुए गांव में ज़मीन देकर बसा तो लिया था, लेकिन
रोज़गार की व्यवस्था नहीं कर पाए थे। फिर भी कुछ लोगों ने अपनी पहचान और गुण से
थोड़ा-बहुत कारोबार और अन्य रोज़गार की व्यवस्था कर ली थी। गांगुली जी अच्छे
ब्राह्मण थे तो उन्होंने यही काम जारी रखा। पहले से बदरपुर गांव में रह रहे कुछ
अच्छे लोगों से उनकी पहचान हुई और थोड़ा-बहुत काम मिलने लगा। परंतु भाग्य जब पलटता
है तो मनुष्य की परीक्षा कठिन से कठिनतर लेता है। गांगुली जी की सारी जमा पूंजी अब
परिवार के भरण-पोषण में ही खर्च हो रही थी। दोनों बेटे दिन-रात काम की तलाश में
मारे-मारे फिरते। दोनों डिग्री की परीक्षा भी पूरी न कर सके थे कि ये मुसीबत आ गई
थी। लिहाज़ा कोई ढंग का काम मिलता नहीं था। वे सिलचर जाकर काम ढूंढ़ने लगे थे। इधर
बड़ी लड़की भी शादी के योग्य हो चुकी थी। इसलिए उसकी शादी की चिंता खाए रहती थी।
एक दिन
उन्हें किसी ने कहा कि वे करीमगंज में चले जाएं। वहाँ कई अच्छे व्यापारी लोग हैं
जिन्हें अपने यहां घर में नियमित पूजा के लिए पुजारी चाहिए होता है। गांगुली महाशय
ने सोचा कि वे जाकर कोशिश करेंगे। मगर रास्ता उन्हें मालूम न था। करीमगंज बस से
जाएं या रेल से, कुछ उन्हें मालूम न था। सो उन्होंने लोगों की सहायता मांगी। किसी तरह वे
करीमगंज एक ट्रक के सहारे पहुँच गए। काम की तलाश में उन्होंने इधर-उधर खोज-ख़बर
ली। बहुत पता करने पर उन्हें किसी ने एक सज्जन का नाम बताया। नाम सुनते ही वे चौंक
पड़े। ये वही ज़मींदार साहब हैं जिनके घर वे पढ़ाने आते थे। दंगे के कारण उन्होंने
अपना गांव छोड़ दिया था। अब वे करीमगंज में ही आकर रहने लगे थे। वे मन में पशोपेश
लिए उन्हीं के घर पहुँच गए। ज़मींदार साहब पुराने दिनों के आदमी थे तो गांगुली
महाशय को देख तुरन्त पहचान गए। गांगुली महाशय ने अपनी आपबीती बताई। साहब ने उन्हें
दुबारा अपने घर पुरोहित बनाकर रख लिया।
गांगुली
महाशय वापस बदरपुर पहुँचे और परिवार को सुखद ख़बर दी और वे वापस काम के लिए अगले
दिन रवाना हो लिए। पर नियति की परीक्षा अभी बाकी थी। बेटों को सिलचर में नौकरी
नहीं मिली थी। वे दुबारा वापस आ गए। अब गांव में ही रहकर पिता के आदेश से खेती का
काम करने लगे। किसी प्रकार पटरी पर जीवन की गाड़ी चल ही रही थी कि अचानक गांव भर
में हैजा फैल गया। दंगे में बेटे को खोने का दुःख और विभाजन में अपने पुरखों का घर
खोने का दुःख पहले ही पत्नी को बीमार कर गया था। वे हैजा से ग्रसित हो गईं।
बेटियों ने माँ की खूब तीमारदारी की लेकिन उन्हें बचा न सकीं, बल्कि और
दो लड़कियों को भी हैजा हो गया। बस क्या था,
देखते ही देखते परिवार की तीन सदस्याओं की मृत्यु हो गई।
गांगुली महाशय की कमाई भी इनके इलाज में चली गई। अब तीन बेटियाँ और दो बेटे बचे रह
गए। माँ के बिना बच्चों को अकेले गांव में छोड़ना सही न लगा सो बेटियों को अपने
साथ करीमगंज लेकर चले आए। दोनों लड़के गाँव में खेती संभालने के लिए रह गए। पड़ोस
की एक भद्र महिला से उनके भोजन की व्यवस्था भी महिने के दस रुपयों में तय कर आए । लड़कियाँ
अपने पिता के पास करीमगंज में रहकर पिता की सेवा करने लगी। दोनों बड़ी लकड़ियाँ
दिनभर घर के काम से फुर्सत लेकर सिलाई-कढ़ाई का काम करती वही छोटी को गाँगुली
महाशय ने जमींदार की पहचान से वही के एक कॉलेज में दाखिला दिलवा दिया था। आस-पास
के पड़ोसियों ने जब गाँगुली जी के परिवार की बेटियों को देखा तो उन्हें आश्चर्य
होने लगा कि इतनी बड़ी-बड़ी लड़कियाँ अभी तक उनका विवाह नहीं हुआ है। वे पिता के
घर बड़ी स्वच्छन्दता से रह रही है। वास्तव में भारत में तब तक बाल-विवाह का पूरी
तरह से उन्मूलन नहीं हो सका था। बंगाल की जो व्यवस्था थी वही भारत में ही थी केवल
कुछ बड़े शहरों तक ही लोगों ने प्रगतिशीलता दिखाते हुए नए बदलाव को स्वीकार किया
था। गाँगुली महाशय तो स्वयं ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के ननिहाल के गाँव से ताल्लुक
रखते थे लिहाजा उन्होंने अपनी बेटियो की शिक्षा का वे भी समर्थन करते थे। हालांकि
भीतर से वे घोर हिन्दु थे। इसलिए बेटियों की शादी वे जल्द-से-जल्द कर देना चाहते
थे।
इसलिए अब
नई मुसीबत थी। नया देश,
नई व्यवस्था,
कोई विशेष जान-पहचान नहीं। तीन-तीन बेटियों की शादी कोई खेल
नहीं। वे दिन भर बड़ी लड़की के लिए ऐसा दूल्हा ढूंढने की सोचते जो इस गरीब
ब्राह्मण की बेटी को दो जोड़ी में स्वीकार कर ले। लिहाज़ा काम में मन कम लगता और
सोचने व परेशानी में दिन बिताने लगे। काम में हानि होने लगी। ज़मींदार साहब परेशान
हो गए।
एक दिन
ज़मींदार साहब ने गांगुली महाशय की परेशानी का कारण जानने की कोशिश की। बहुत पूछने
पर वे बोले कि बड़ी बेटी के विवाह के लिए लड़का ढूंढ रहे हैं, मगर
पैसों की कमी के कारण कुछ नहीं कर सकते। सुनकर ज़मींदार साहब ने जो कहा, गांगुली
महाशय को यक़ीन न हुआ। उन्होंने तुला कन्या की बात कह दी।
बंगाल
में सिलहट प्रांत के सिलेटी लोगों में एक प्रथा है कि यदि कोई गरीब बाप अपनी बेटी
की शादी न कर पाए तो लड़के वाले उसे अपने साथ ले जाते हैं और अपनी ही तरफ से
गहने-कपड़े पहनाकर अपने घर में ही शादी कर देते हैं। लड़की के पिता को केवल
कन्यादान कर विदा करना होता है। इसे तुला कन्या की प्रथा कहते हैं। गांगुली महाशय
को जब ज़मींदार साहब ने तुला कन्या करने को कहा तो वे हिचकिचाने लगे। फिर वे पूछने
लगे कि लड़का है किधर,
तो ज़मींदार साहब ने अपने छोटे बेटे शुभम की बात छेड़ दी।
बात दरअसल ये थी कि अपाहिज लड़का होने के कारण कोई लड़की न देता था। लेकिन लड़के
में कोई कमी न थी। पिता बनने लायक था। रहा ससुराल भी अच्छा-खाता-पीता। किसी की
बेटी आए तो जेवरों से लदी रहेगी।
गांगुली
महाशय को सुनकर सदमा लगा। बड़ी बेटी को सोने के जेवरों के बदले जीवन भर का बोझ
देना नहीं चाहते थे। मगर परिवार की हालत कुछ ऐसी थी कि वे सोच में पड़ गए। इस समय
उन्हें अपनी पत्नी की बड़ी याद आने लगी। पत्नी जीवित होती तो शायद वह अपना मत
रखती। ज़मींदार साहब के पूछने पर उन्होंने तत्काल कोई जवाब न दिया। वे सोचने का
समय मांग कर घर चले आए। तब तक बड़ी बेटी ने पिता के आते ही गरम चाय की प्याली
तैयार कर दी और कुछ मूढ़ी के लड्डू लाकर पिता के सामने रख दिए। फिर वह रसोई में
काम करने लगी। अपनी इतनी सुंदर,
सुघड़ बेटी को देखकर पिता का हृदय जलने लगा। बेटी का विवाह
पिता का सपना होता है। सुंदर दूल्हा सिर्फ लड़की ही नहीं, माँ-बाप
भी चाहते हैं। मगर परिवार ने इतने वर्षों में जो पाकर खोया था, उससे
गांगुली महाशय का दिल भय से भर जाता। सो वे काफी देर तक सोचने लगे। फिर मन ही मन
निश्चय कर कुछ उठे। रात को खाना खाते समय बेटी का मन टटोलने के लिए उन्होंने बेटी
से ही बात छेड़ दी। बेटी पिता की बात सुन लजा जाती है। लेकिन फिर खुद को संयमित कर
कहती है कि पिता का जो आदेश होगा,
वह मन-प्राण देकर पालन करेगी। फिर क्या था। पिता की आँखें
चमकने लगीं।
अगले दिन
वे ज़मींदार साहब के घर पहुँचे और रिश्ते के लिए हामी भर आए। दिन और समय तय हुआ, तो बड़ी
लड़की पिता से विदा लेकर ससुराल चली आई। विवाह की सारी रीति अच्छे से संपन्न हुई।
कुछ दिन
बाद गांगुली महाशय अपनी बेटी से मिलने सपरिवार ज़मींदार साहब के घर पहुँचे, तो देखा
कि बेटी जेवरों और बड़ी-सी सिंदूर की बिंदी में ठकुराइन बनी सुंदर लग रही है। वहीं
उसका पति उसके साथ मनोविनोद करते हुए उसे हँसा-हँसा कर थका रहा है। बेटी को अपने
ससुराल में खुश देखकर पिता के मन को संतोष पहुँचता है।
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