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रविवार, 15 सितंबर 2013

ममता कालिया के उपन्यास दौड़ में आज के मानवीय सम्बन्धों का चित्रण।




          ममता कालिया के उपन्यास में आधुनिक भारतीय समाज तथा भारतीय समाज एवं जीवन में व्यवसाय जगत् के प्रभाव तथा बढ़ते दबाव को दर्शाती कथा है। पवन पाण्डे, सघन, राकेश, रेखा, स्टेला जैसे लोग आज व्यवसाय जगत् की परिस्थितियों में घिरकर यथास्थितिवादी बनकर रह गये हैं। सभी यह जानते है कि इस तेज़ दौड़ती ज़िन्दगी में किसी एक जगह बैठे रहकर अपना कैरियर और लाइफ़् सेटल करना सम्भव नहीं है। फिर भी इन चीज़ों के लिए मानवीय सम्बन्धों में जिस तेजी से बदलाव आया है और रिश्तों से अधिक महत्त्व कैरियर हो गया है इससे यही साबित होता है कि आज के आधुनिक जीवन में वास्तव में कैरियर और ऐशो-आराम की ज़िन्दगी ही सब कुछ है नई पीढ़ी के लिए बाकी सबकुछ गौण है। उपन्यास में पवन के सामंतशाही सोच और अपने माँ-बाप के साथ किए गए महाजनी बर्ताव से उसकी माँ रेखा और पिता राकेश बहुत आहत होते है। इतना ही नहीं ममता कालिया ने उपन्यास में कुछ गौण पात्रों के जरिए ऐसे प्रसंगों का वर्णन किया है जिसमें आहत होते माताओं तथा पिताओं की विवशता स्पष्ट झलकती है।
          अपने उपन्यास के बारे में स्वयं लिखते समय ममता कालिया कहती है कि भूमंडलीकरण और उत्तर औद्योगिक समाज ने इक्कीसवी सदी में युवा वर्ग के सामने एकदम नए ढंग के रोज़गार और नौकरी के रास्ते खोल दिए हैं। एक समय था जब हर विद्यार्थी का एक ही सपना था पढ़ लिखकर प्रशासनिक सेवा में चुना जाना।.... इनके अन्तर्गत डॉक्टर की बेटी डॉक्टर और इंजीनियर का बेटा इंजीनियर बनना चाहता था। तब बाज़ार इतना आकर्षक, विशाल और व्यापक नहीं हुआ था कि युवा वर्ग इसे अपने सपनों में शामिल करे। तब बाज़ार का मतलब था एक ऐसी जगह जहाँ हम अपनी ज़रूरतें पूरी करते थे और थककर घर लौटे आते थे। उस वक्त का बाज़ार इतना चमकदार और चटकीला नहीं था कि आप वहाँ अपनी पूरी जेब खाली कर आते..... आर्थिक उदारीकरण ने भारतीय बाज़ार को शक्तिशाली बनाया। इसने बाज़ार प्रबन्ध की शिक्षा के द्वार खोले और छात्र वर्ग को व्यापार प्रबन्धन में विशेषता हासिल करने के अवसर दिए। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने रोज़गार के नए अवसर प्रदान किए। युवा-वर्ग ने पूरी लगन के साथ इस सिमसिम द्वार को खोला और इसमें प्रविष्ट हो गया। वर्तमान सदी में समस्त अन्य वाद के साथ एक नया वाद आरम्भ हो गया, बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद। इसके अन्तर्गत, बीसवीं सदी का सीधा-सादा खरीददार एक चतुर उपभोक्ता बन गया। जिन युवा-प्रतिभाओं ने यह कमान सँभाली उन्होंने कार्यक्षेत्र में तो खूब कामयाबी पायी पर मानवीय सम्बन्धों के समीकरण उनसे कहीं ज्यादा खिंच गए, तो कही ढीले पड़ गए। दौड़ इन प्रभावों और तनावों की पहचान कराता है।......व्यावसायिकता से आजीविकावाद (कैरियरिज़्म) पैदा होता है और यह आजीविकावाद पारिवारिक सम्बन्धों को और सम्बन्धों की भावात्मकता आदि को नष्टप्राय कर देता है।1 (5-6) चन्द संतरें...
          इस उपन्यास में ममता कालिया ने पवन, शरद, अभिषेक जैसे पात्रों के जरिए बाज़ार तथा मार्केटिंग की नीतियों का परिचय दिया है। उपन्यास के प्रारम्भिक अध्यायों में सभी के कम्पनियों के प्रोडक्ट्स तथा उन्हें बेचने की चुनौतियों तथा अन्य व्यवसाय जगत् की समस्याओं का चित्रण किया है। मानवीय सम्बन्धों के टूटन एवं खिंचाव को पवन, सघन तथा स्टेला के जरिए उन्होंने बखूबी चित्रित किया है। जब पवन इलाहबाद अपने माँ-बाप से मिलने जाता है तो वे लोग उसे  इलाहाबाद के आस-पास ही कही जॉब ढूंढने को कहते हैं। उन्हें आशा थी कि इस तरह वे अपने बेटे के कैरियर में रूकावट भी नहीं बनेंगे और पवन भी उनके पास रह सकेगा। लेकिन पवन की सोच और दृष्टिकोण कुछ अलग ही होते है। वह अपने पिता के कलकत्ते जाकर बसने के सलाह पर कहता है ..पापा मेरे लिए शहर महत्त्वपूर्ण नहीं है, कैरियर है। अब कलकत्ते को ही लिजिए। कहने को महानगर है पर मार्केटिंग की दृष्टि से एकदम लद्धड़। कलकत्ते में प्रोड्यूसर्स का मार्केट है, कंज्यूमर्स का नहीं। मैं ऐसे शहर में रहना चाहता हूँ जहाँ कल्चर हो ने हो, कंज्यूमर कल्चर जरूर हो। मुझे संस्कृति नहीं उपभोक्ता संस्कृति चाहिए, तभी मैं कामयाब रहूँगा।2 (40-41) उसके इस एक जवाब ने माता-पिता को स्तंभित कर दिया। वह आदर्श से ज्यादा यथार्थ की ओर झुका हुआ था। इतना ही नहीं जितने दिन वह घर पर रहता है उतने दिन उसका व्यवहार अपने माता-पिता से, विशेषकर माँ से एक पराए व्यक्ति जैसा रहता है। यहाँ तक कि धोबी से इस्त्री होकर आए कपड़ों के लिए पवन ज्यादा पैसे दे देता है तो उसकी माँ उसे समझाती है कि यदि वह टूरिस्ट की तरह पैसे देता रहेगा तो ये लोग सिर चढ़ जाएंगे। लेकिन पवन अपनी माँ की इस बात पर हंगामा खड़ा कर देता है। अपने दफ्तर में मिल रही इज़्ज़त का हवाला देकर माँ को ताने दे बैठता है। साथ ही वह यह भी कहता है कि उसके जन्मदिन पर उसे ग्रीटिंग कार्ड नहीं भेजा गया जिससे उसके ऑफिस के लोग उसकी हँसी उड़ाते है। पवन जानता था कि उसकी माँ किस प्रकार उसका जन्मदिन मनाती है लेकिन उसके ताने से माँ को लगा उन्हें अपने बेटे को प्यार करने का नया तरीका सीखना पड़ेगा।3(43) पवन इस बात से भी उखड़ा हुआ था कि अब उसके कोई भी दोस्त शहर में नहीं रहे, सब-के-सब कैरियर के लिए बाहर जा चुके है। वह स्वयं यथार्थवादी है परन्तु उसी के जैसा व्यवहार दूसरो से मिले ये उसे मंजूर नहीं। अपने पिता से भी वह बिना बात के बहस करता है। उसके पिता के विचार उससे मेल नहीं खाते। धर्म, आध्यात्मिकता, दर्शन, अर्थशास्त्र जैसी बातों पर पवन और उसके पिता के विचार अलग-अलग हो जाते है। उसके पिता जहाँ नई और पुरानी चीज़ों और व्यवस्थाओं की तुलना करते हुए पुराने के समर्थन में बोलने लगते है तो पवन उन्हें यह कहकर आलोचना कर देता है कि उसके पिता नई चिज़ों का फायदा भी उठाते है और उसकी आलोचना भी करते है। धर्म के विषय में तो वह अपने पिता से बिलकुल भी सहमती नहीं जताता। उसके पिता बचपन से शंकर के अद्वैतवाद के बारे में उसे बताते आ रहे थे लेकिन पवन अपने नए आधुनिक आध्यात्मिक गुरू को ही अधिक मान्यता देता है तो उसके पिता आहत हो देखते रह गए। उनके बेटे के व्यक्तित्व में भौतिकतावाद, अध्यात्म और यथार्थवाद की कैसी त्रिपथगा बह रही थी।4(46) पवन अपने विचारों से न केवल माता-पिता को आहत करता है बल्कि उसके जीवन साथी के चयन तथा उसके साथ वैवाहित जीवन के एक अजीब तरीके से भी वह उन्हें दुख पहुँचाता है। पवन स्टेला के अमदाबाद में मिला था, तब से दोनों के सम्बन्ध घने होने लगते है। जब रेखा और राकेश को इसका पता चलता है तो राकेश रेखा को अमदाबाद में ही देख आने को कह आता है। रेखा को स्टेला बिलकुल पसन्द नहीं आती। इतना ही नहीं जब स्टेला के दिए गए उपहार को भी रेखा अस्वीकार कर देती है तो पवन कहने लगता है कि वह बहुत मंहगा उपहार था जो अब व्यर्थ जा रहा है। पवन स्टेला के मामले में अपनी माँ से यहा तक कह देता है कि जब उसके पिता ने उनसे विवाह करने की ठानी थी तब उसकी दादी ने भी रेखा को पसन्द नहीं किया था तब क्या उसके पिताजी रूके थे। रेखा को अपने ही बेटे से यह बात सुनकर धक्का लगता है। किसी प्रकार पवन स्टेला के मामले में अपने अभिभावकों को मना लेता है फिर अपने स्वामी जी द्वारा लगाए गए रामकृष्णपुरम में सामुहिक विवाह आयोजन में विवाह कर लेता है। रेखा और राकेश को इससे थोड़ा दुख भी पहुँचता है। पवन और स्टेला मुश्किल से कुछ दिन घर पर रहते है कि तभी पवन के चैन्ने जाने और स्टेला के राजकोट और अमदाबाद में बिजनेस की बागडोर सम्भालने की बात सामने आती है। रेखा और राकेश दोनों पवन को समझाते लगते है कि शादी के बाद साथ रहना जरूरी होता है। उसे विवाह के वचनों का भी वास्ता देते है पर पवन फिर से अपने आधुनिक यथार्थवादी विचार उनके सामने यह कहकर रखता है कि पापा आप भारी-भरकम शब्दों से हमारा रिश्ता बोझिल बना रहे हैं। मैं अपना कैरियर, अपनी आज़ादी कभी नहीं छोड़ूँगा। स्टेला चाहे तो अपना बिजनेस चैन्ने ले चले।5(65) पवन के लिए कैरियर इतना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि वह शादी की ज़िम्मेदारियों को भी परे हटा देना चाहता है। वह स्टेला के व्यस्थता की बात करता है। रेखा और राकेश को यह अजीब सा लगता है कि उनका दाम्पत्य जीवन सेटेलाइट और इंटरनेट के जरिए चलेगा। पवन और स्टेला के चले जाने के बाद सघन (पवन का छोटा भाई) भी अचानक उन्हें यह सूचना देता है कि उसे ताइवान में नौकरी लग गई है और वह भी चला जाता है। रेखा और राकेश अब अकेले हो जाते है। रेखा और राकेश जिस बात से घबरा रहे थे आखिर वही बात होती है। वे जिस गली में रहते थे उसे बुढ्ढा-बुढ्ढी गली कहा जाता है क्योंकि सभी के घरों के चिराग अपने माँ-बाप को छोड़कर कैरियर बनाने के लिए दूसरे शहरों तथा विदेश चले जाते है। रह जाते है तो सिर्फ बूढ़े माँ-बाप, एक कार, एक कुत्ता और उनके घरों में उनके बच्चों द्वारा भेजी गए महंगी चीज़े। रेखा को भी पवन माइक्रोवेब और वीसीडी दे जाता है लेकिन रेखा को इन चीज़ों की कोई जरूरत नहीं थी। जरूरत थी तो बस इस बात की कि उसके घर में बसे सन्नाटे को तोड़ने की, खालीपन और अकेलेपन के ऊब से वह बाहर आना चाहती थी। फिर दोनों बच्चों के चले जाने पर इतना काम नहीं रह गया था कि वह किसी में व्यस्त रहकर अपना समय काट लेती। उसे इस बात के लिए अब खुद पर ही जैसे एक क्षोभ सा होने लगा था कि बचपन में उसी ने बच्चों को आगे बढ़ने की शिक्षा दी थी और आज जब वे आगे निकल गए है तो उसे उनसे दूर होने का गम सता रहा है। वह अजीबों-गरीब उलझनों में फंसी हुई थी। उसे अब रह-रहकर अपने बच्चों के बचपन और उनके किस्से याद आ रहे थे। उसका मन बार-बार बच्चों के बचपन और लड़कपन की यादों में उलझ जाता। घूम-फिरकर वही दिन याद आते जब पुन्नू छोटू धोती से लिपट-लिपट जाते थे।.....क्या दिन थे वे। तब इनकी दुनिया की धुरी माँ थी, उसी में था इनका ब्रह्मांड और ब्रह्म। ...... रेखा के कलेजे में हूक-सी उठती , कितनी जल्दी गुजर गए वे दिन अब तो दिन महीने में बदल जाते हैं और महीने साल में, वह अपने बच्चों को भर नजर देख भी नहीं पाती। वैसे उसी ने तो उन्हें सारे सबक याद कराए थे। इसी प्रक्रिया में बच्चों के अन्दर तेजी, तेजस्विता और त्वरा विकसित हुई प्रतिभा, पराक्रम और महत्त्वकांक्षा के गुण आए। वही तो सिखाती थी उन्हें जीवन में हमेशा आगे-ही-आगे बढ़ों, कभी पीछे मुड़कर मत देखो।6(76)ममता कालिया ने पवन, सघन और स्टेला के जरिए जहाँ पारिवारिक सम्बन्धों में आए विवशता को दर्शाया है तो वही एक ऐसे कटु सत्य के भी दर्शन कराए है जिससे प्राय वे सभी परिवार भुगत रहे है जिनके बच्चे प्रवासियों के तरह हो गए है। जिनके लिए पराया देश और वहा की सुख-सुविधा तथा नौकरी के झमेलों में फंसे हुए है। मिस्टर और मिसेज सोनी ऐसे ही दो मजबूर माता-पिता है। उनका बेटा सिद्धार्थ विदेश में जा बसा है। मिस्टर सोनी को अचानक दिल का दौरा पड़ता है और वे गुज़र जाते है। जब सिद्धार्थ को उसके फ़र्ज़ के लिए बुलाया जाता है तो बहाने बनाता है कि उसके घर तक आने में हफ्ते भर से अधिक लगेगा। वह अपनी माँ को समझाते हुए कहता है हम सब तो आज लुट गए ममा। लोग बता रहे हैं मेरे आने तक डैडी को रखा नहीं जा सकता। आप ऐसा कीजिए, इस काम के लिए किसी को बेटा बनाकर दाह-संस्कार करवाइए। मेरे लिए तेरह दिन रुकना मुश्किल होगा। मिन्हाज साहब के समझाने पर वह यह भी कहता है कि विदेश के मुर्दा घरों में माँ-बाप के शव महिनों पड़े रहते है और जब बच्चों को फुर्सत होती है तभी वे जाकर उनका अंतिम संस्कार करते है।
          वस्तुतः यह एक कटु सत्य है समाज की कि जब से बाज़ारवाद ने पूरे विश्व में अपना वर्चस्व कायम किया है तब से लेकर अब तक उसकी चमक-धमक में लोगों की ज़िन्दगी को पूरी तरहा से अपने में समेटता चला गया है। पहले लोग अपनी आजीविका के लिए नौकरी करते थे, लेकिन आज लोग अपनी आजीविका के लिए नौकरी से अधिक आजीविका के अधिन एक मशिन बन चुके है और पहले जहाँ वे आजीविका के लिए अपनी नैतिकता, जिम्मेदारी या मनुष्यत्व को खोना नहीं चाहते थे। लेकिन आज बाज़ारवाद ने लोगों के इन सब से कोसो दूर कर दिया है। आधुनिक समाज में चलते बाजारवाद तथा उपभोक्तावाद में सिमटती ज़िन्दगियों का परिचय कराता हुआ ये एक ऐसा उपन्यास है।

रविवार, 1 सितंबर 2013

सम्प्रेषण सिद्धान्त

          पश्चिमी आलोचकों में आई. ए. रिचर्डस का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्हें मनोवैज्ञानिक आलोचना पद्धति का प्रवर्तक माना जाता है। सम्प्रेषण सिद्धान्त उन्हीं के द्वारा प्रतिपादित है।
         सम्प्रेषण शब्द दो शब्दों के योग से बना है। सम् तथा प्रेषण। सम् का अर्थ है भली भांति और प्रेषण का अर्थ है किसी संदेश या वस्तु को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजना या भेजने की क्रिया। इस प्रकार सम्प्रेषण शब्द का अर्थ होगा किसी संदेश अथवा वस्तु को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भली भांति पहुँचाना और सम्प्रेषण तभी होगा जब वस्तु उचित स्थिति में उचित स्थान पर पहुँच जाए।
           रिचर्डस पश्चिमी जगत् के आधुनिक काल के  समीक्षक है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने काव्यशास्त्र या सामाजिक उद्देश्य आदि के स्थान पर मनोविज्ञान को अपनी आलोचना का आधार बनाया। इसलिए उन्हें मनोवैज्ञानिक आलोचक माना जाता है। यह विश्व समोलना शास्त्र में सर्वथा एक नई वस्तु है जो रिचर्डस के द्वारा दी गई। पहले रचना होती थी जिसमें काव्यशास्त्र, अभिव्यंजना, सौन्दर्य सिद्धान्त, सामाजिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक आदि तत्त्व को आधार बनाया जाता था और रिचर्डस ने इन सबको छोड़कर पाठक के मनोविज्ञान को आधार बनाया। रिचर्डस ने मनोवैज्ञानिक आलोचना में पाठक और रचनाकार दोनों के मनोविज्ञान को आधार बनाया है। क्योंकि सम्प्रेषण के लिए रचनाकार और पाठक दोनों के मन की आवश्यकता है। सम्प्रेषण में वस्तु हमेशा दो वस्तु से सम्बन्ध रखती है। यहा दो वस्तु से अर्थ है रचनाकार और पाठक जिसे रिचर्डस ने समान रूप से आधार बनाया है क्योंकि सम्प्रेषण क्रिया में दोनों सापेक्ष होते है।
             कला और साहित्य में वस्तु सम्प्रेषित होती है किन्तु वह वस्तु ठोस नहीं होती। कला और साहित्य में आवेग का सम्प्रेषण होता है। आवेग एक सूक्ष्म वस्तु है और सूक्ष्म वस्तु का केवल अनुभव होता है। इसलिए रिचर्डस ने कहा कि सम्प्रेषण का अर्थ एक वस्तु का एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना नहीं है। सम्प्रेषण में अनुभवों के सम्प्रेषण की क्रिया होती है किसी ठोस वस्तु या पदार्थ की नहीं। रिचर्डस ने अनुभूति या आवेग को मन से सम्बन्धित कहा है। मन एक ऐसी वस्तु है जो मनुष्य में एक जैसी नहीं होती। वह अखिल मन की कल्पना को निराधार सिद्ध करते है। प्रत्येक मनुष्य अलग-अलग मन रखता है और सम्प्रेषण क्रिया अलग-अलग मन में होती है। रचनाकार का एक मन अपना होता है और पाठक का निजि और स्वतंत्र मन होता है और इन दोनों में तादात्म्य नहीं होता दो मन के बीच समानता हो सकती है। समानता का अर्थ एक जैसा होना नहीं अपितु मात्रात्मक अनुकूलता।
             रिचर्डस ने सम्प्रेषण की परिभाषा इस प्रकार दी है --- सम्प्रेषण का अर्थ न तो आवेग का यथावत अंतरण(Strict transference) है और न ही व्यक्तियों के बीच अनुभूति का तादात्म्य(Identical Experience)। बल्कि कुछ अवस्थाओं में विभिन्न मनों की अनुभूतियों की अत्यंत समानता ही सम्प्रेषण है। सम्प्रेषण तब होता है जब वातावरण पर किसी मन की ऐसी क्रिया होती है कि दूसरा मन उससे प्रभावित हो उठता है और दूसरे मन की अनुभूति पहले मन की अनुभूति के समान होती है। साथ ही उस अनुभूति से अंशतः प्रेरित भी। दोनों अनुभूतियाँ थोड़ी या अधिक समान हो सकती हैं और दूसरी अनुभूति पहली पर आश्रित हो सकती है।

            इस परिभाषा में यह तीन बातें विचारणीय है------ आवेग का यथावत अंतरण नहीं होना।
                                                                             ------ आवेग की समानता
                                                                            ------- पहले मन की अनुभूति से प्रभावित होकर दूसरे मन में उठने वाली अनुभूति पहले वाले मन की अनुभूति का परिणाम है।

           इस क्रिया के दो पक्ष है रचनाकार और पाठक। रिचर्डस ने दोनों के लिए अपेक्षित गुणों की भी निर्धारणा की है। अर्थात् पाठक और रचनाकार दोनों को कैसा होना चाहिए। रचनाकार में अपूर्व अभिव्यंजना कौशल होना चाहिए। अनुभव की परिपक्वता पर ही अनुभूति की अभिव्यक्ति निर्भर करती है। अनुभूति की श्रेष्ठता ही अभिव्यक्ति की श्रेष्ठता को निर्धारित करती है। साथ ही पाठक को भी सहृदय होना चाहिए। अर्थात् किसी विषय को वह सुरूचि के साथ सुनने की समझने की, पढ़ने की ग्रहण करने की स्थिति में हो और यह स्थिति तब होती है जब वस्तु उसके मन के अनुकूल हो।  इसीलिए रचनाकार की अभिव्यंजना में यह बात भी सम्मिलित हे कि उसके द्वारा कही गयी बात दूसरों के मन के अनुकूल होनी चाहिए और उसकी ग्रहण शक्ति के सीमा के भीतर होनी चाहिए।