“सुनो!”
“क्या
है?”
“तुमसे
कुछ कहना चाहती हूँ। अ अपने बारे में..........”
“प्रतिमा
तुमसे कितनी बार कहा है, जब भी मैं ऑफिस के काम कर रहा होता हूँ तब तुम अपनी
बेसिर-पैर की बातें लेकर मत बैठा करो। काम करने दिया करो मुझे।” कहकर नरेन्द्र तेढ़ी
नज़रों से प्रतिमा की ओर देखने लगा।
“फिर
तुमसे कब बात करू? ह! तुम सारा दिन ऑफिस में
रहते हो, देर रात घर आते हो और थककर खाना खाकर सो जाते हो। छुट्टी के दिन भी
तुम्हारा ऑफिस का काम लेकर बैठे रहते हो। मेरे लिए तो तुम्हारे पास वक्त ही नहीं
है।”
“प्रतिमा!!!तुम जानती हो न यह सब
में किसके लिए कर रहा हूँ। हमारे फ्यूचर के लिए ही न। इतना अच्छा फ्लेट ले दिया है
तुम्हें। इतनी लेविश लाइफ है तुम्हारी। जो कुछ यहाँ तुम्हें मिल रहा है शायद ही
तुम वह अपने पापा के यहाँ रहते कर पायी होगी। फिर किस बात की शिकायत है तुम्हे?”
“नरेन्द्र
मैं तो तुमसे सिर्फ बात करना चाहती थी। पर तुमने तो वक्त मांगने पर ही ताना सुना
दिया। और फिर ये भी कोई ज़िन्दगी है मेरी? सारा दिन में अकेली ही रहती हूँ....” इससे पहले की प्रतिमा
कुछ और कहती नरेन्द्र उसे प्यार से हंसकर गले लगा लेता है और चूमते हुए उसे मनाने
लगता है।
प्रतिमा की दिन
चर्या यही थी। सुबह नौ-साड़े नौ बजे नरेन्द्र ऑफिस के लिए निकल जाता और शाम को
उसके घर आने का कोई समय तय नहीं होता। वह आने से पहले फोन जरूर कर देता। प्रतिमा
उसके जाने के बाद घर का सारा काम निपटा लेती और फिर नन्हे से बालक को लेकर आराम करती।
शादी के बाद भी कुछ दिनों तक यही सिलसिला था उसका। कभी मन होता तो कुछ पढ़ लेती जो
वह अपने घर से लाई थी।
उसे पढ़ने का
बहुत शौक था। बचपन से ही उसे अपने कैरियर बनाने की इच्छा थी। पिता ने भी उसकी
इच्छा देख कर खूब आज़ादी दी थी। यद्यपि उसे बहुत शान-ओ-शौकत की ज़िन्दगी नहीं दे
पाए थे मगर आत्म-सम्मान से भरे जीवन का रास्ता खोल कर दिया था। उसकी दूसरे बहने और
भाभियों में इस बात की जलन थी कि प्रतिमा, पूर्णिमा और अरुणाभ तीनों भाई बहन पढ़ाई
में भी अव्वल थे और सब-के-सब अच्छी नौकरी में लग चुके थे। शादी भी बहुत अच्छे घर में
हो गई थी। परन्तु जीवन का सबसे तीक्त पढ़ाव शादी के जैसे मीठे मोड़ पर आएगा उसकी
इसे उम्मीद नहीं थी। प्रतिमा को रह-रहकर अपने पुराने दिन याद आते जब उसकी रचनाओं
की प्रशंसा हुआ करती थी। बड़े गुरूजनों ने उससे कहा था कि वह अपने लेखनी जारी रखे।
लड़के वाले जब आए थे तो उन्होंने भी बड़ी तारीफ की थी और भरपूर प्रोत्साहन दिया
था। पर कहा पता था उसे कि शादी का जोड़ा ओढ़ते ही उसके हाथ से कलम छूटेगी और छूट
ही जाएगी। शादी के कुछ महिने बाद ही उसे नौकरी मिली मगर एक छोटे से कॉलेज में। वह
खुश थी लेकिन कही-न-कही उसे डर था कि कुछ उसका छूट रहा है। वह क्या समझ नहीं पायी
थी। फिर वह इतनी खुदग़र्ज़ नहीं थी कि अपने बारे में सोचे वह भी अलग। अब नरेन्द्र
उसका जीवन था और जीवन साथी के साथ सुख के दिन जीना भी उसकी इच्छा ही नहीं बल्कि
अधिकार और कर्तव्य भी था। उसने उसे निभाने में अपनी पूरी कसर लगा दी। इसी बीच वह
नन्हा सा जीवन उनके बीच प्यार की निशानी और कड़ी बनकर आया और वह अब नई दुल्हन से,
एक उभरती लेखिका से माँ बन गई। अपनी सारी प्रतिभा, कौशल मातृत्व में लुटाने लगी।
अभी रात के साड़े
दस हुए थे। नरेन्द्र ने खाना लगा देने का फरमान जारी किया। प्रतिमा उठकर काम पर लग
गई। टेबल लगाते हुए उसने नरेन्द्र को पुकारा
“बस
में दो मिनट में आ रहा हूँ। तुम तब तक सलाद काट लो।” दोनों खाने बैठ जाते है।
“क्या
तुमसे अभी कुछ कह सकती हूँ? अभी तो तुम फ्री हो।”
“ज़रा
वह पापड़ पास करना।”
“नरेन्द्र मुझे तुमसे कुछ जरूरी बात करनी है।”
“नरेन्द्र मुझे तुमसे कुछ जरूरी बात करनी है।”
“ओके
बाबा!बोलो
न मैं सुन रहा हूँ। क्या कहना है कहो।”
“नरेन्द्र
मैं सोच रही थी कि मुझे कुछ करना चाहिए। आइ मिन की मैं कोई ऐसा काम... जो मेरे लिए
स्वीटेबल हो और साथ ही साथ बिट्टू की देखभाल में भी कोई बाधा न आए।”
“करो
न बाबा। मैंने तुम्हे कभी नहीं रोका है कुछ करने से।”
प्रतिमा सुनकर थोड़ी सी हिम्मत जुटाती है। वह नरेन्द्र
के हाथ पर हाथ रखकर कहती है “अच्छा है तब तो फिर मैं कल ही नौकरी डॉट कॉम पर सर्च करना शुरू कर देती
हूँ।”
“हूँ” सहसा कहकर नरेन्द्र
उसकी तरफ देखता है....
“तुम
कहना क्या चाहती हो?”
“मेरे
कहने का मतलब है कि मैंने कल इण्टरनेट पर देखा है कि बहुत सी ऐसे कम्पनीज़ है जो
घर में बैठी पढ़ी-लिखी महिलाओं के लिए घर बैठे ही काम करने का मौका दे रही है।
जैसे की ट्रान्सलेशन वगेरा। फिर मैंने ट्रान्सलेशन भी किया हुआ है। जब तक बिट्टू
छोटा है तब-तक मैं भी इसके जरिए और अपनी लेखनी के जरिए अपने-आपको एन्गेज़ रखना
चाहती हूँ। ताकी भविष्य में दुबारा नौकरी पर जाने से पहले मेरे लिए कोई गेप का
झंझट न होने पाए।”
“नौकरी!” सहसा नरेन्द्र चौका। फिर वह कहने
लगा।
“तुम्हें नौकरी करने की क्या खुराफात
सुझी। तुम जानती हो कि बिट्टू अभी छोटा है। फिर घर पर अगर ऑफिस का सा माहौल रहा तो
फिर मैं पागल ही हो जाऊँगा। तुम जानती हो सारा-सारा दिन में ऑफिस में ही रहता हूँ।
फिर वापिस घर आता हूँ यही सोच कर की दुनिया में कही तो पूरे आराम की जगह है। अगर
इसे भी तुमने अपना ऑफिस बना डाला तो मैं फिर कहा रहूँगा। देख रही हो ने कितना छोटा
सा घर है हमारा। सिर्फ दो बेडरूम का है। एक में हम रहते है दूसरे मम्मी-पापा के
लिए रखा गया है। अगर तुम दूसरे रूम में ऑफिस खोल लोगी तो फिर वे लोग कहा रहेंगे।”
“मैंने कब कहा कि घर में ऑफिस खुलने जा रहा है। मैं तो बस एक ट्रांस्लेशन का ही काम करूंगी। इसमें ऑफिस खोलने की बात कहा से आयी।” कहकर प्रतिमा आँखों से हलका सा क्षोभ प्रकट करती है। उसे किसी बात की परेशानी नहीं थी। अगर थी भी तो सिर्फ नरेन्द्र के बर्ताव से। नरेन्द्र उसे मारता या पीटता तो वह शायद कुछ कह सकती थी। मगर नरेन्द्र उससे बहुत प्यार भी करता है। खयाल भी रखता है। मीठे बोल बोलकर भी वह उसे खुश करता है। पर कभी-कभी उसके बर्ताव में एक रूढ़ीवादीता की गंध सी आती है। खास करके जब वह अपनी नौकरी या कैरियर से सम्बन्धित कोई बात उससे करना चाहती तो। इतने में नरेन्द्र खाना खाकर उठ चुका होता है कि तभी बालक के रोने की आवाज़ आती है। नरेन्द्र उसे गोद में लेकर चुप कराने की कोशिश करता है।
“मैंने कब कहा कि घर में ऑफिस खुलने जा रहा है। मैं तो बस एक ट्रांस्लेशन का ही काम करूंगी। इसमें ऑफिस खोलने की बात कहा से आयी।” कहकर प्रतिमा आँखों से हलका सा क्षोभ प्रकट करती है। उसे किसी बात की परेशानी नहीं थी। अगर थी भी तो सिर्फ नरेन्द्र के बर्ताव से। नरेन्द्र उसे मारता या पीटता तो वह शायद कुछ कह सकती थी। मगर नरेन्द्र उससे बहुत प्यार भी करता है। खयाल भी रखता है। मीठे बोल बोलकर भी वह उसे खुश करता है। पर कभी-कभी उसके बर्ताव में एक रूढ़ीवादीता की गंध सी आती है। खास करके जब वह अपनी नौकरी या कैरियर से सम्बन्धित कोई बात उससे करना चाहती तो। इतने में नरेन्द्र खाना खाकर उठ चुका होता है कि तभी बालक के रोने की आवाज़ आती है। नरेन्द्र उसे गोद में लेकर चुप कराने की कोशिश करता है।
“देखो प्रतिमा। मैं तुम्हें मना नहीं
करता हूँ जॉब के लिए। लेकिन तुम ही ज़रा सोचकर देखो। बिट्टू नन्हा सा बालक है।
क्या उसकी देखभाल नहीं करोगी, उसे इस वक्त माँ की ज़रूरत है। फिर घर के कितने ही
काम है जो अकेली करती हो। वक्त कहा है तुम्हारे पास”
“मैं समझती हूँ। उसकी देखभाल में कोई
कसर नहीं होगी। मेरा बच्चा है वह।”
“तब फिर तुम नौकरी या घर बैठे ही काम
कैसे कर पाओगी, क्या कभी सोचा है।”
“मैंने सोच लिया है, मैं मेनेज कर
सकती हूँ। बस किसी को घर पर रखना होगा।”
“तुम्हारे कहने का मतलब है आया?”
“तुमने ये बात सोची भी कैसे? माँ होकर तुम अपने
बच्चे की देखभाल नहीं करोगी। घर पर ही रहोगी पर फिर भी तुम्हें आया चाहिए!!”
“नहीं मैंने आया की बात नहीं की।
मैंने बस एक नौकर रख देने की बात कही है। जो मुझे घर के कामों में मदद कर दिया
करे। इससे घर के काम भी जल्दी हो जाएंगे और मुझे वक्त भी मिलेगा।”
“दो लोगों के लिए ऐसा क्या काम है जो
तुम्हें नौकर चाहिए?
तुम भी न कैसी बातें करती हो। देख रही हो न कितनी महंगाई है। उसपर से तुम्हें नौकर
रखना है। सारा दिन घर बैठे-बैठे न जाने क्या-क्या सोचती रहती हो।”
“पर नेरन्द्र अभी तो तुम मुझे कह रहे
थे कि घर के कितने सारे काम होते है जो मैं अकेली ही करती हूँ। तुम्हें नहीं लगता
कि मेरे लिए तुम एक हाथ बटाने वाले का जुगाड़ कर दो।”
“प्रतिमा तुम समझती क्यों नहीं।”
“नरेन्द्र सच मैं तुम्हें समझ नहीं
पाती। एक तरफ जहाँ तुम मेरे लिए सोचते हुए नज़र आते हो वही तुम्हारी बातें कुछ और
ही इशारा करती है।”
“बिट्टू की देखभाल और घर का काम क्या
यही मेरी ज़िन्दगी रह गयी है। तुम मुझे कुछ करने से न रोकने की बात करते हो और जब
मैं कुछ करना चाहती हूँ तो रोक देते हो। ये सब क्या है। आखिर तुम चाहते क्या हो? क्या घर की इस चार
दिवारी के भीतर भी मेरी कोई मर्जी या मेरी कोई इच्छा-आकांक्षाएँ न हो। शादी से
पहले तक तुमने मुझे नौकरी करने की इजाजत दी तो भी सिर्फ इसीलिए कि कुछ पैसे आ सके।
उस वक्त तुमने मुझे कैरियर बनाने के सपने भी दिखाए। और अब जब से बिट्टू आया है तब
से देख रही हूँ तुम्हारा बर्ताव दिन-ब-दिन अजीब ही हो रहा है। तुम अब रूढ़िवादी
बनते जा रहे हो।”
“देखो प्रतिमा। मैं तुमसे कोई बहस नहीं
करना चाहता। तुम्हारी बातें मेरी समझ के परे है। बस तुम मेरी इतनी सी बात समझ लो।
अगर तुम्हें घर बैठ कर अच्छा नहीं लगता है तो लगाना पड़ेगा। तुम्हारी नौकरी की बात
बाद में सोची जाएगी। पहले बिट्टू को बड़ा हो जाने दो और इस वक्त में नौकर अफोर्ड
नहीं कर सकता। घर की इ.एम. आइ में सबकुछ चला जाता है।”
“तो जब घर की इ.एम. आइ में सबकुछ चला
जा रहा है तो मैं कुछ काम करके पैसे कमा कर तुम्हारी मदद ही तो करूंगी।”
“नहीं बाबा। मुझे तुम्हारे पैसे नहीं
चाहिए। जितना में कमा रहा हूँ उससे सबकुछ चल रहा है न।”
“नरेन्द्र तुम्हें नहीं लगता कि तुम कुछ ज्यादा ही
ओवर रियेक्ट कर रहे हो। आखिर तुम मुझे साफ-साफ कहते क्यों नहीं कि तुम क्या चाहते
हो। मैं जो कुछ भी कहती हूँ तुम उसका उलटा ही कहकर हर बात को काट देते हो। साफ-साफ
कहो न मुझसे तुम्हारी क्या राय है?”और कहकर वह नरेन्द्र की तरफ देखने लगती है।
“प्रतिमा मैं चाहता हूँ कि तुम नौकरी
न ही करो तो अच्छा है।”
“क्यों जान सकती हूँ?”
“बस मैं नहीं चाहता।”
“तुम नहीं चाहते का क्या मतलब है।
शादी से पहले तो तुम मेरी बहुत तारीफ करते थे। मेरी कविताएँ भी पढ़ी थी और कहते थे
कि मैं इसी तरहा लिखा करू। तुमने तब तो मेरे नौकरी करने के फैसले पर कुछ नहीं कहा।
अब क्या हो गया है तुम्हें?”
“प्रतिमा यू बात-बात पर सवाल मत पूछा
करो। मैं नहीं चाहता बस नहीं चाहता। शादी से पहले ये सब तुम्हें सोचना चाहिए था।
उस वक्त बात कुछ और थी। तुमसे शादी करने की इच्छा थी मेरी इसलिए शादी की और
तुम्हें भी पता था कि मैं प्राइवेट कम्पनी में काम करता हूँ। जितना अच्छा पैसा है
उतना काम भी होता है। तुम्हें सारी बातें सोच-समझकर मुझसे शादी करने के लिए हाँ
करनी चाहिए थी।”
“तुम्हारी प्राइवेट कम्पनी में काम
करने और मेरे नौकरी दुबारा करने में क्या कनेक्शन है। और फिर शादी करने से मैं तो
मना ही कर रही थी। तुमने मुझे ज़िन्दगी के रंगीन सपने दिखाकर शादी करने को राज़ी
किया और अब तुम मुझे घर की चार दिवारी में कैद रहने को कह रहे हो। नरेन्द्र आर यू
आउट ऑफ योर माइन्ड?”
“देखो प्रतिमा मुझे तुमसे कोई बहस
नहीं करनी है। मुझे निंद आ रही है मैं सोने जा रहा हूँ। बहुत रात हो चुकी है।” इससे
पहले की प्रतिमा उसे समझाती या बात करती नरेन्द्र कमरे में जा चुका होता है।
प्रतिमा वही खड़ी रह जाती है छलकती आँखों के साथ।