सुमित्रानंदन
पंत के द्वारा लिखित यह कविता एक अद्भुत रचना है। इसमें उन्होंने संसार के सभी
शिल्पियों को सार्थक माना है साथ ही साथ उनके समान कविता लिखने वाले कवि को भी
शिल्पी बताया है। उन्होंने कवियों के द्वारा जगत-जीवन में भावनाओं,संवेदनाओं,
राग-अनुराग जिससे मानव जीवन सार्थक होता है ऐसे तत्वों को निर्मित करने के लिए
उन्हें जग-जीवन का शिल्पी कहा है।
उनकी
कविता एक छोटे से प्रश्न से शुरू होती है और अंत कविता के द्वारा अमर सत्य की
स्थापना में जाकर होता है। इसमें उन्होंने मानव जीवन में जितनी महत्ता रोटी, कपड़ा
या मकान को माना है उतनी ही महत्ता भावना, संवेदना, प्रेम, सत्य को भी माना है। वे
प्रश्न करने लगते है—
इस
क्षुद्र लेखनी से केवल
करता
मैं छाया लोक सृजन?
पैदा
हो मरते जहाँ भाव,
बुद्-बुद्
विचार ‘औ’ स्वप्न सघन?
अर्थात्
कवि अपनी इस लेखनी को क्षुद्र मानते है और अपने-आप से ही प्रश्न करने लग जाते है
कि क्या में सिर्फ अपनी इस लेखनी से मात्र एक छाया लोक का सृजन करता हूँ? क्या ऐसे छाया लोक का
सृजन करता हूँ जहाँ भावनाएँ जन्म लेती हैं और मर जाती हैं, जहाँ बुलबुले के समान
विचार जन्म लेते हैं और सपने बनते है और मिट जाते हैं। क्या मेरी यह लेखनी केवल
यही काम करती है? उन्हें
अपनी यह लेखनी तभी सार्थक लगती है जब उनकी भावनाएँ दूसरों के मन में भी घर कर सके।
दूसरों में भी भावनाएँ जगा सके। उन्हें मात्र किसी छाया लोक का सृजन कर संतुष्टी
नहीं प्राप्त होती है।
इसी प्रकार वे संसार के एक शिल्पी जो
घर का निर्माण करता है उससे पूछते है कि हे शिल्पी तुम जिस जग का निर्माण कर रहे
हो। जिसमें ईंट, चूना, पत्थर जोड़ रहे हो, बार-बार हथौड़े मार-मार कर इन्हें
मजबूती से जोड़ रहे हो, क्या इससे तुम्हारे इस जग का निर्माण हो जाएगा, क्या इससे
तुम जीवन से भरा हुआ घर बना सकोगे? कवि पंत के अनुसार घर न तो ईंट, चूना, पत्थर या दीवारों से नहीं बनती है।
उससे तो केवल एक मकान बनता है। घर तो तब बनता है जब उसमें जीवन से भरे लोग हो।
उनमें आपसी प्रेम, समझ, संवेदना, एक-दूसरे के प्रति त्याग और सम्मान करने की भावना
हो, जो किसी भी परिस्थिति में एक-दूसरे का साथ न छोड़े। वे आगे मानव जीवन के दूसरे
शिल्पी किसान पर प्रश्न करते हैं। पूछते है कि ये जो कठिन हलों को बिना रूके, बिना
थके जो धरती पर चलाएँ जा रहे हो, जिससे फल, फूल तथा अन्न उग रहे हैं क्या इस पर
मानव जीवन वास्तव में निर्भर हैं? मनुष्य को जीने के लिए तो खाने की आवश्यकता है। परन्तु यदि मनुष्य मनुष्य
की तरहा न रहकर केवल पशु की भांति खाता-पीता ही रहे तो क्या उससे उसका जीवन चल
जाएगा। मनुष्य को जिस प्रकार भोजन की आवश्यकता है उसी प्रकार उसमें इस बात की भी
चेतना होनी चाहिए कि उसे दूसरों को भी भोजन खिलाना चाहिए। भूखे लोगों के प्रति यदि
दया न हो तो फिर वह कैसा मनुष्य, किसी के मुख से यदि मधुर वाणी न निकले तो फूलों
की क्या आवश्यकता है, यदि केवल फल की आशा लेकर काम किया तो क्या किया, यही सारे
विचार कवि पंत ने लोगों के सामने अभिव्यक्त किया है। वे चाहते है कि जिस प्रकार
मनुष्य के शरीर के लिए भोजन की आवश्यकता है उसी प्रकार मनुष्य की आत्मा के लिए
चेतना की आवश्यकता है। वह कहते है कि –
इस अमर लेखनी
से प्रतिक्षण
मैं करता
मधुर अमृत वर्षण,
जिससे मिट्टी
के पुतलों में
भर जाता,
प्राण, अमर जीवन।
अर्थात् कवि अपनी मधुर-मधुर लेखनी से
संसार में प्रतिक्षण अमृत की मधुर वर्षा करते रहता है। जिससे माटी के पुतलों में
जान आ जाती है। वह चेतना से भर उठता है। यदि मनुष्य की चेतना जगी हुई हो तो वह
संसार के लिए बहुत कुछ कर सकता है। वह समाज को नई दिशा दिखा सकता है। लोगों में
चेतना को जगा सकता है। इसीलिए कवि को सृजनकार कहा जाता है। क्योंकि उसकी रचना में
वह शक्ति होती है जिससे गहरी-से-गहरी नींद में सोया व्यक्ति भी जाग उठता है, उसमें
जीवन के सारे रस भर जाते हैं, वह एक जागरूक व्यक्ति बन जाता है। कवि की रचना न
केवल व्यक्ति के लिए ही कल्याणकारी होती है बल्कि समाज के लिए भी कल्याणकारी होती
है। वह क्रान्ति ला सकती है, अन्याय का विरोध करती है, नवीन सृष्ट का निर्माण भी
कर सकती है क्योंकि कवि की रचना कवि के मन में समाज तथा उसमें रहने वाले लोगों के
प्रति प्रेम और संवेदना से ही निर्मित होती है।
कवि पंत आगे कहते है कि वे ऐसे जग का
निर्माण कर रहे हैं जिसमें वे मनुष्य के मन को जोड़ रहे हैं। उनके भीतर जो कलह है,
घृणा है, एक-दूसरे के प्रति कटुता है उसे काट कर फेंक रहे है और उसकी जगह प्रेम,
सत्य, श्रद्धा, भक्ति, समर्पण, संवेदना, चेतना आदि जैसे तत्वों को भरकर आत्मा के
लिए मन का भवन बना रहे है। एक ऐसा भवन जिसमें सभी के लिए समान रूप से स्थान हो। वे
खरे एवं कोमल शब्दों को चुन-चुन कर मनुष्य के मन में अंकित कर रहे हैं। क्योंकि
उनके अनुसार मानव आत्मा का खाद्य प्रेम है और यही प्रेम जगत का आधार है। इसी पर
जगत के जीवन निर्भर करता है।
अंत में वे कहते हैं कि वे जग-जीवन के
शिल्पी हैं, उनकी वाणी के स्वर जीवित है
क्योंकि वे अभी-भी निरंतर मनुष्य के मन में प्रेम और भावना को जगाने का काम कर रहे
हैं। वे कहते हैं कि वे लोगों के मन जो मांस-खण्ड से बना है उसमें अमर सत्य को
मुद्रित कर रहे हैं।