उषा
प्रियंवदा हिन्दी कथा जगत् में विशिष्ट कथाकार के रूप में जानी जाती है। 1961 में
इनका पहला कहानी-संग्रह ‘फिर बसंत आया’ पाठक जगत् के
सामने आया और उसके बाद उनकी कई कहानी एवं उपन्यास पाठक जगत् को मिलते गए। उषा
प्रियंवदा की इन सभी कथाओं में यथार्थ युगबोध निहित है। बदलते आधुनिक भारतीय समाज
में पारिवारिक रिश्तों में बदलाव, बेकारी, अकेलापन, उदासी, नारी अस्मिता जैसी कई
महत्त्वपूर्ण विषय उनकी कथाओं में अभिव्यक्त हुई है। वैसे तो उनकी कहानियाँ विभिन्न
प्रकार के मुद्दों को लेकर होते है लेकिन सभी कहानियों में कुछेक तत्व समान रूप से
दिखायी पड़ते है। वे है अकेलापन, उदासी, निराशा इत्यादि जो कि आज के आधुनिक
भौतिकवादि जगत् की देन है। लोग आज अपने जीवन में भौतिक सुखों की तलाश में सबसे
ज्यादा भटकते है, साथ में यह भी कह सकते हैं कि वे अन्य सुखों की तलाश में भी
भटकते रहते है जिसके कारण वे अपने आस-पास की ज़िन्दगी में जो कुछ भी है या जो कोई
भी है उनसे दूर हो जाते है या कट जाते है जिससे साथ वाला अकेला हो जाता है। अतः
उषा जी ने अपनी कहानियों में जो कुछ भी व्यक्त किया है वह हमारे सामने कई सवाल
विचार के लिए छोड़ जाती है। इसलिए उनकी कहानी इस दौर में ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो
जाती है। उनके कहानी लिखने की एक विशेष कला है कि वे अपने मुद्दों को सीधे-सीधे
बयान नहीं करतीं बल्कि एक विशेष वातावरण तैयार करती हैं जिसमें पात्र चढ़ता-उतरता
रहता है। उनके मानसिक उतार-चढ़ाव, उनके व्यवहार, उनकी बात-चीत आदि से ही सारी
स्थिति स्पष्ट हो जाती है। उनकी कहानियों की विशेषता की चर्चा करते विजयमोहन सिंह
का कहना है कि – उनकी कहानी एक
विशेष प्रकार का मानसिक तथा परिवेशगत वातावरण रचती है, जिसमें उदासी, अकेलापन और
बाहर या दूसरे से न जुड़ पाने की एक अभिशप्त स्थिति अंकित की जाती है। वह प्रायः
उच्च शिक्षा प्राप्त कामकाजी आधुनिक स्त्री की नियति बन जाती है। खासतौर पर एक ऐसी
स्त्री जो स्वतन्त्र, निजी और लीक से तनिक हटकर जीना चाहती है। यद्यपि उनकी
सर्वाधिक चर्चित कहानी वापसी एक भिन्न प्रकार की कहानी है। उसमें एक सेवानिवृत
व्यक्ति का अभिशप्त रूप व्यक्त किया गया है। वह वापस उसी दुनिया में (परिवार) नहीं
जा सकता जहाँ वह जाना चाहता है, या जा सकता है। आधुनिक पारिवारिक संरचना की यह
अनिवार्य नियति है।1
उषा प्रियंवदा की कहानियों
में जो निहित युगबोध है उसमें सबसे अधिक स्वर जो उभरकर आता है वह है अकेलापन और
उदासी। आज इस भाग-दौड़ की ज़िन्दगी में व्यक्ति चाहे कितना भी अपने मित्र, परिचित,
प्रेमी या परिवार के साथ रह ले लेकिन कही-न-कही से कभी-न-कभी वह अपने-आप को अकेला
महसूस करता है उदास रहने लगता है और अकेलेपन की ओर अग्रसर होता है। क्योंकि उसके
मन में वर्तमान परिस्थिति में जो कुछ भी घटित होता है उसे वह स्वीकार नहीं कर
पाता। उसके प्रतिकूल यदि कोई बात हो जाए तो वह जैसे उससे भागता फिरता है। साथ ही
व्यक्तिगत जीवन में हर प्रकार की सुख-सुविधा की चाह की भाग-दौड़ में वह या तो सबको
पीछे छोड़ आता है और फिर अकेला हो जाता है या साथ वाले को अकेला बना देता है। उषा
प्रियंवदा की कुछ ऐसी ही कहानी है जिसमें आज के युग की सबसे बड़ी चुनौति अकेलेपन
की समस्या जो या तो परिस्थितियों ने खड़ी की है या व्यक्ति ने स्वयं चाहा है। इस
समस्या को उनकी कुछ प्रमुख कहानियों में देखा जा सकता है जो हे वापसी, सम्बन्ध,
नींद, ज़िन्दगी और गुलाब के फूल, स्वीकृति। इन सभी कहानियों
के स्त्री या पुरूष पात्र किसी-न-किसी कारण से अकेले नज़र आते हैं। इन सभी
कहानियों में पात्र अपने अकेलेपन से छुटकारा भी पाने की कोशिश करते है तो कही वे
अकेलेपन में ही जीना चाहते है। सभी कहानियों में परिवेश भिन्न है, परिस्थिति भिन्न
है परन्तु समस्या एक ही। वापसी कहानी की बात की जाए तो इसका पात्र गजाधर
बाबू पैंतीस साल की नौकरी से रिटायर्ड होकर घर लौटता है लेकिन परिवार के लोगों की
उनके प्रति व्यवहार तथा उदासीनता ने उन्हें अकेले कर दिया है। जहाँ वे एक तरफ अपने
परिवार से जुड़ना चाहते है वही उनके परिवार वालों को उनकी उपस्थिति खटकती रहती है।
अंततः हारकर वे वापस अपनी उसी अकेलेपन की दुनियाँ में चले जाते हैं जहाँ से वह
लौटे थे। यहाँ तक कि उनके चले जाने के बाद उनकी चारपाई तक को भी कमरे से बाहर
निकाल देने के लिए उनकी पत्नी कह देती है। जिसके लिए गजाधर बाबू जो कि उसके पति है
उससे कोई नाता नहीं बल्कि कमरे और डिब्बे-बर्तनों से है। एक दूसरी जगह छोटी-सी
नौकरी करके वह अपने जीवन के इर्द-गिर्द घिरे अकेलेपन को भरना चाहते हैं।2
सम्बन्ध
कहानी की मुख्य पात्र है श्यामला। श्यामला एक पढ़ी-लिखी महिला है। जो कि विदेश
में रहती है। एक समय उसका भी भरा-पूरा परिवार था जिसकी जिम्मेदारियाँ उसे उठानी
पड़ती थी, लेकिन जब उसके परिवार के सभी लोग अपने-अपने जीवन में स्थिर हो जाते हैं
तो वह उन्हें छोड़कर विदेश चली आती है। उसके परिवार वाले बीच-बीच में उसे वापस लौट
आने के लिए कहते हैं लेकिन वह उन सबसे कटकर अकेले अपनी इच्छानुसार जीवन बीताना
चाहती है। विदेश में रहकर वह फ्रीलांस काम करती है। वह सर्जन नामक एक व्यक्ति से
सम्बन्ध रखती है जो कि एक डॉक्टर है। सर्जन जहाँ काम करता है उसी अस्पताल के पास
वाली पहाड़ी के एक कॉटेज में अकेले रहती है। सर्जन नियमित रूप से उससे मिलने उसके
कॉटेज आता-जाता रहता है। सर्जन उससे प्यार करता है और श्यामला भी उससे प्यार करती
है। लेकिन उसे किसी भी प्रकार की कमिटमेंट वाली ज़िन्दगी नहीं चाहिए। सर्जन ने जब
उससे एक बार अपने प्यार का ज़िक्र करते हुए कहा था कि वह अपने परिवार को छोड़कर
उसके पास आ जाएगा तब श्यामला कह उठती है –क्या
हम ऐसे ही नहीं रह सकते, प्रेमी, मित्र, बन्धु। क्या वह सब छोड़ना ज़रूरी है ? मैं तो कुछ नहीं
माँगती।3 वस्तुतः
श्यामला सर्जन के मुताबिक जीती नहीं। श्यामला सबसे कटकर रहती है जिसे वह देख नहीं
पाता। उषा प्रियंवदा ने श्यामला के अकेलेपन की चाह तथा उसकी अपने प्रति की
उदासीनता को सर्जन के मन में उठ रही भावनाओं के माध्यम से इस प्रकार व्यक्त किया
है – वह लेटा-लेटा श्यामला
को देखता है, दुबली-पतली साँवली श्यामला, अविवाहित शरीर अभी भी गठा हुआ है, उसमें
युवावस्था की लचक है, चेहरे पर लावण्य आकर थम गया है, कभी-कभी नींद में उसकी
बाँहें सर्जन को ऐसे कस लेती हैं, जैसे कभी अलग न होने देंगी और वह कहती है कि मन
में कुछ नहीं बचा। कभी-कभी वह उसके कन्धे झिंझोड़कर कहना चाहता, जागो श्यामला, यह
वैरागीपन तुम्हारा सहज स्वभाव नहीं है। हँसो, बोलो, आकंठ डूबकर प्यार करो, पर वह
अब कहता नहीं। सिर्फ़ उस दिन की आशा में है जब श्यामला अपने आप जागेगी। अपने को काटकर
रखने की बजाय जुड़ना चाहेगी। पर कभी ऐसा होगा भी?4
श्यामला के इस प्रकार अकेले स्वतंत्र रूप से रहने के पीछे उसके स्वार्थ-भरे सुख की
चाह है। लेकिन यह अकेलापन उसकी भटकन है जो उसने खुद चुनी है। वह अपनी भावनाओं को
भी मन में गहरे अंधेरे में छोड़कर जीने लगती है तभी कहानी में एक मोड़ आता है।
कहानी की शुरूआत में एक लड़की जो कि सर्जन के चिकित्साधीन थी वह मर जाती है जिससे
सर्जन को बहुत दुख होता है। वह लड़की वासत्व में भारतीय थी और श्यामला से उसके
कॉटेज में मिलती है जिससे श्यामला की मित्रता होती है। श्यामला को जब पता चलता है
कि वह लड़की वही है तो वह अपने-आपको रोक नहीं पाती और रोने लगती है और तब सर्जन
उसे नहीं रोकता क्योंकि वह चाहता है कि श्यामला में फिर से भावनाओं का स्त्रोत
उमड़ आए।
वही नींद कहानी की नायिका अपने
पति से अलग हो जाने का दर्द पाती है। वह विदेश में उसके पति के साथ आकर रहती है
लेकिन दोनों अलग हो जाते है। उसे यह अकेलापन बहुत खटकता है वह उससे डरती है – मैं बहुत कम चीज़ों से
डरती हूँ –
न रोग से, न गरीबी से, न ठंड से, डरती हूँ तो बस एक लम्बी, अँधेरी रात के अकेलेपन
से। और, उसके त्राण के लिए ही इधर-उधर भटकती हूँ।5 वह अकेलापन दूर करना
चाहती है। उसे रात को अकेले नींद नहीं आती है। डॉक्टर उसे बचाना चाहता है। डॉक्टर
के मुताबिक यह उसकी मानसिक बिमारी है जिससे उभरकर वह यदि आ जाए तो फिर से अपना घर
बसा सकती है। लेकिन वह नहीं मानती कि वह बीमार है । वह कहती है भी है कि – नहीं, मैं रूग्ण नहीं
हूँ, न मुझमें कोई मानसिक विकृति है। वह डॉक्टर, मेरा मनोविद् झूठ कहता है। मैं
पूर्णतया स्वस्थ हूँ। मैं केवल साथ ढूँढती हूँ, कम्पेनियनशिप, तुम्हें जिलाए रखने
के लिए।6 कहानी के अंत में
नायिका अपने पुराने घर जहाँ वह और उसका पति आकर रहा करते थे वहाँ जाती है। उसकी
पति के साथ बीते वक्त को तलाशने। उसे इस अकेलेपन ने बहुत सताया है जिससे उसे नींद
नहीं आती और वह नींद की गोलियाँ लेती है। वह उसी टूटे घर के कमरे में अंत में
बैठकर उन गोलियों के सहारे सो जाती है।
ज़िन्दगी और गुलाब के फूल कहानी में सुबोध भी इसी प्रकार के
अकेलेपन, खालीपन तथा उदासी की ओर अग्रसर होता है। सुबोध कभी अच्छी नौकरी किया करता
था। तब उसके परिवार में उसकी अच्छी स्थिति थी। परन्तु जब सुबोध ने आत्मसम्मान के
खातिर नौकरी छोड़ दी तो उसकी स्थिति खराब हो जाती है। उसकी बहन वृन्दा की नौकरी लग
जाने के बाद उसके साथ परिवार में नौकरो जैसा बर्ताव होने लगता है। उसके कमरे से
कालीन, मेज, अरामकुर्सी आदि सबकुछ वृन्दा के कमरे में भेज दी जाती है। उसका खाना
भी उसके कमरे में यू ही ठण्डा पड़ा रहता है। यहाँ तक कि उसकी शोभा नामक लड़की से
विवाह होने वाला था वह भी टूट जाता है। बार-बार अपनी बहन से आहत होते रहने पर एक
बार वह झूंझला उठता है – कितने दिनों से गन्दे कपड़े पहन रहा हूँ। पन्द्रह दिन में नालायक धोबी
आया, तो उसे भी कपड़े नहीं दिये गये। तुम माँ बेटी चाहती क्या हो ? आज मैं बेकार हूँ, तो
मुझसे नौकरों-सा बर्ताव किया जाता है। लानत है ऐसी ज़िन्दगी पर।7 अंततः
वह अपनी उदासी और खालीपन के साथ समझौता करते हुए जीने पर विवश हो जाता है। डॉ
देवेच्छा के शब्दों में – आत्मसम्मान के एक बिन्दु पर सुबोध अपनी नौकरी से त्याग-पत्र देता है। कोई
और काम न मिलने के कारण उसकी स्थिति बिगड़ने लगती है। घर में वह व्यर्थ होने लगता
है और निरन्तर उपेक्षा के क्रूर कशाघात पाने लगता है। शोभा का अन्यत्र वाग्दान हो
जाता है। यह स्थिति उसे तोड़ जाती है। शोभा का प्रस्तावित पति उसके और शोभा के बीच
तीसरा व्यक्ति बनकर आता है और उसे न केवल शोभा से ही अपदस्थ करता है प्रत्युत
संपूर्ण परिवार में स्थगित कर जाता है।8 यहाँ जो सुबोध के साथ उपेक्षा
का व्यवहार सिर्फ इसलिए किया जाता है क्योंकि वह बेकार है घर की आर्थिक जिम्मेदारी
नहीं ले सकता। निरंतर मिल रही उपेक्षा एवं क्रूर व्यवहार से सुबोध के आत्मसम्मान
को ही गहरा आघात मिलता है जिससे उसके जीवन में उदासी और अकेलापन छा जाता है। जिस
कारण वह न तो घर सही समय पर आता है न उसे घर में चल रही गतिविधियों में कोई रुचि
रह जाती है।
स्वीकृति की जपा को भी अकेलेपन
का दंश झेलना पड़ता है। जपा अपने पति के सत्य के साथ अमेरीका रहने आती है। उसके मन
में नए विवाह के बाद एक सुन्दर संसार गढ़ने की होती है कि सत्य उसे उसकी इच्छा के
विरुद्ध मिशिगन में पंद्रह सौ डॉलर नौकरी पर लगवा देता है क्योंकि सत्य को अपने
लिए एक बड़े घर की चाह है, सुन्दर फर्निचर और महंगे टाइल्स के साथ जिसके लिए वह
जपा को कड़े तेवर में समझाता है कि वर्तमान परिस्थिति में वे लोग जिस प्रकार रह
रहे हैं वहाँ इस प्रकार की नौकरी की आवश्यकता है और फिर वही उसे अकेला छोड़ आता
है। जपा जब-जब भी अपने विवाहित संसार को बसाने की बात करती है तब-तब सत्य उसे रोक
देता है। शादी की पाँचवी वर्षगांठ मनाने पहुँचे जपा के मन में किसी भी प्रकार की
उमंग या अपेक्षा के बजाए ठंडेपन और निरपेक्षता का भाव है जो उसे सत्य से बार-बार
प्राप्त होता रहा है। सत्य की इच्छानुसार ही उसे चलना पड़ता है जिस कारण वह इसी
विवाहित जीवन से ऊब सी महसूस करने लगती है। वह अपने सहकर्मी (वाल) के प्रति
आकर्षित होती है तथा उसके साथ कुछ अच्छे पल बिताती है। पाँचवी वर्षगांठ मनाने के
लिए जब सत्य उसे वाशिंटन द्वीप ले आता है और जपा उससे यहा आने का कारण पूछती है तो
सत्य का जवाब कि –
प्रोफ़ेसर साइमन ने सुझाया था। उन्होंने कहा कि यहाँ आकर या तो सम्बन्ध दृढ़ हो
जाते हैं, या फिर टूट ही जाते हैं, बिलकुल।9 यह सुनकर उसे आश्चर्य होने लगता है। रिश्ते में
बन्धे होकर भी इस प्रकार की बात करना वस्तुतः मन के भीतर के खालीपन को दर्शाता है।
यही एकाकीपन आगे चलकर विभिन्न रूपों में विभिन्न प्रकार की परिस्थितियाँ एवं
समस्याएँ खड़ी करता है। जिसे हम अलग-अलग समझ बैठते हैं। सम्बन्धों का विखराव या
टूटना ही या उसके प्रति उदासीनता का भाव ही व्यक्ति को पहले अपने-आप में ही अकेला
कर देता है। जो कि उषा प्रियंवदा की कहानियों में बार-बार उभरकर आती है। परिवार
में साथ रहते हुए भी एक-दूसरे के मनोभावों को न समझना, उनकी उपेक्षा करना इसी
प्रकार की समस्याओं को जन्म देता है। अपनों से पाए इस प्रकार के आघातों से व्यक्ति
परेशान होता है, अपने-आप को अकेला पाता है तथा इससे निबटने के लिए दूसरे-तीसरे
व्यक्ति का सहारा लेने की कोशिश करता है। वह पहले से नहीं जुड़ पाता तो दूसरे से
जुड़ना चाहता है लेकिन वह जुड़ाव पूर्ण नहीं हो पाता है। वह व्यक्ति स्वयं को
खालीपन से बाहर निकलने के लिए भटकता रहता है। जब वह ऐसा नहीं कर पाता तो गहरी
उदासी में डूबता चला जाता है। हालांकि उषा प्रियंवदा की कहानियों में अन्य
समस्याएँ भी स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हुई है परन्तु वह एक प्रकार से समग्र आधुनिक
समाज की समस्याएँ है। आधुनिक समाज की
समस्याएँ चाहे जैसी भी हो व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से प्रभावित करती ही है। जिसके
परिणाम इस प्रकार निकलकर आते हैं। आज के युग के भाग-दौड़ की ज़िन्दगी में लोगों के
जीवन के मूल्य एवं मान्यताएँ बदलते जा रहे हैं। आर्थिक, सामाजिक तरह-तरह की
समस्याएँ व्यक्तिगत रूप से सभी को प्रभावित करते जा रहे हैं, ऐसे में कमज़ोर या
परिस्थिति से हारा हुआ व्यक्ति अपने आस-पास से जुड़कर रहने के बजाए सबसे कटने पर
विवश हो जाता है या फिर नए रिश्तों की तलाश में भटकता रह जाता है। जब तक वह अपनी
तलाश पूरी नहीं कर लेता या उसमें असफल रह जाता है तब तक वह हताशा, निराशा, घुटन,
मृत्युबोध, मूल्य संकट, आत्मकेन्द्रियता, अजनबीपन और अकेलेपन से भर जाता है।
लिहाजा लेखिका अपनी कहानियों में इन समस्याओं से उभरकर आने के लिए जीवन के आदर्श
एवं व्यवहारिक मूल्यों पर आस्था रखने वाले पात्रों की भी संरचना की है जिनके
माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन में भटकने से बच जाए।
संदर्भ :
1. बीसवी शताब्दी का हिन्दी साहित्य – विजयमोहन सिंह, राजकमल प्रकाशन, 2005, नई दिल्ली, पृ.
सं –191.
2. वापसी और अकेली कहानी में व्यक्त अकेलापन – मधुछन्दा चक्रवर्ती, मुक्त कथन, अंक 13, RNI No 27186/75. 2009
3. सम्बन्ध(कितना बड़ा झूठ)- उषा प्रियंवदा, राजकमल प्रकाशन, 2010, पृ.सं –13.
4. वही पृ.सं –11.
5. वही (नींद कहानी) पृ.सं – 55.
6. वही (नींद कहानी) पृ.सं –57.
7. ज़िन्दगी और गुलाब के फूल (कहानी)
8. पचासोत्तरी हिन्दी कहानी- तीसरे आदमी की अवधारणा महिला कहानीकारों के
संदर्भ में –
डॉ देवेच्छा, आत्माराम एण्ड सन्स, पृ.सं –68-69.
9. स्वीकृति (कितना बड़ा झूठ)....पृ.सं –75.