एकनाथ का चरित्र-चित्रण
एकनाथ बहुत ही बुद्धिमान
और मेहनती लड़का था। वह देवगढ़ के दीवान पण्डित जनार्दन पन्त को अपना गुरु
मानता था। वह अपने गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के लिए सारी मोह-माया त्याग कर आधी
रात को ही घर से निकल जाता है। उसे रास्ते में आने वाले भयानक खतरों की कोई परवाह
नहीं होती है। वह केवल अपने सुनहरे भविष्य के बारे में सोचकर आगे बढ़ जाता है।
जब एकनाथ सारे कष्ट तथा
रास्तों की कठिनाईयों को झेल कर देवगढ़ पहुँचता है और अपने गुरु को देखता है तो
उसकी सारी थकावट दूर हो जाती है। उसे अपने गुरु पर पूरा विश्वास था। एकनाथ
की गुरु-भक्ति असीम है। तभी वह देवगढ़ पहुँचने के बाद पूरी श्रुद्धा और लगन
से अपने गुरु की सेवा में लग जाता है। एकनाथ में धीरज भी बहुत था। वह देवगढ़ में
तीन वर्ष तक लगातार एक मन से अपने गुरु की सेवा में लगा रहता है। उसे गुरुमंत्र
पाने की इच्छा तो है फिर भी वह अपने गुरु के घर का हर काम यह समझकर करता है कि
गुरुदेव उसकी परीक्षा ले रहे हैं। वह धैर्य से अपने काम में लगा रहता है।
एकनाथ में गुरुभक्ति के
अलावा, साहस, चतुरता एवं बल भी बहुत होता है। जब देवगढ़ पर
अचानक एक दिन शत्रुओं का हमला हो जाता है तो वह गुरु जी की साधना भंग न होने पाये
इसका उपाय करते हुए स्वयं ही गुरु जी के युद्ध वाले वस्त्र पहनकर और तलवार लेकर
शत्रुओं से लड़ने चला जाता है। वह युद्ध जीत कर वापस आता है। परन्तु यह बात वह
किसी से नहीं कहता है क्योंकि उसमें बिलकुल भी अहंकार नहीं है। सबको लगता
है कि पण्डित जनार्दन पन्त ने ही देवगढ़ की रक्षा की है। परन्तु पण्डित जी जब यह
बात जान जाते है तो तब भी एकनाथ यह कह देता है कि यह सब कुछ उसके गुरु के ही कारण
हुआ है।
एकनाथ के युद्ध में विजय
प्राप्त करने के बाद जब उसे दीवान की पदवी देने की इच्छा प्रकट करते हैं तो एकनाथ
रो पड़ता है और दीवान की पदवी ठुकरा देता है। उसमें दीवान की पदवी का लालच
बिलकुल नहीं होता है। इस बात से उसके गुरु जी बहुत प्रसन्न होते हैं। परन्तु
फिर भी एक परीक्षा बाकी रह जाती है जो पण्डित जनार्दन पन्त लेना चाहते थे। वासत्व
में गुरु जी उसकी एकाग्रता की परीक्षा लेना चाहते थे। यदि एकनाथ इस परीक्षा
में उत्तीर्ण हो जाता है तो तभी वे उसे गुरुमंत्र दे सकते थे। एकनाथ को उस परीक्षा
के बारे में कुछ नहीं पता होता है। फिर भी वह धीरज के साथ वहाँ गुरु की हर आज्ञा
का पालन करने में लगा रहता है। अंत में वह परीक्षा का समय भी आ जाता है। नए साल की
शुरुआत में वह एकनाथ से पिछले पूरे साल का हिसाब-किताब तैयार करने को कहते हैं।
एकनाथ इस काम के लिए तैयार हो जाता है। गुरु जी उसकी परीक्षा लेने हेतु उससे कहते
हैं कि केवल एक दिन और एक रात का ही समय है। परन्तु एकनाथ बिना डरे इस काम
को करने के लिए तैयार होता है और गुरु जी को भरोसा देता है कि वह ये काम कर लेगा।
ये एकनाथ का आत्मविश्वास था। एकनाथ अपनी पूरी एकाग्रता से इस काम में लग
जाता है और उसे समय का बिलकुल भी पता नहीं चलता। जब हिसाब-किताब में एक पैसे का
फ़र्क पड़ता है तो एकनाथ उस फ़र्क को ढूँढने में इतना मगन हो जाता है कि उसे पता
ही नहीं चलता कि कब रात हो जाती है और उसके सामने बत्ती भी जलायी जाती है। उसके
गुरु जी जब उसे मगन होकर हिसाब ठीक करते हुए देखते हैं तो उसके सामने जाकर खड़े भी
हो जाते हैं। एकनाथ को इसका भी पता नहीं चलता। वह जब एक पैसे का फ़र्क निकाल कर
पूरा हिसाब तैयार करता है तब वह जान पाता है कि उसके गुरु उसके सामने खड़े है।
पण्डित जनार्दन पन्त उसकी एकाग्रता
देखकर उसे अंत में गुरुमंत्र देने को तैयार हो जाते है और उसे यह उपदेश देते
हैं कि ईश्वर की साधना में भी उसे ऐसी ही एकाग्रता दिखानी होगी और जिस प्रकार एक
पैसे के भूल को भी उसने ढूँढ कर ठीक कर दिया उसी प्रकार उसे ईश्वर की साधना में भी
छोटी-छोटी भूलों की अवहेलना नहीं करनी चाहिए।