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रविवार, 21 जुलाई 2019

कुलवन्त सिंह की कविताएँ।




             हिन्दी साहित्य के विकास के बाद से आधुनिक युग में कई कवियों का उद्भव हुआ जिन्होंने आज तक अपनी अभूतपूर्व रचनाओं द्वारा हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। वर्तमान युग में हिन्दी के नये कवियों का जन्म हो रहा है जिनकी कविताओं में पुराने काव्यशास्त्रीय गुणों के साथ-साथ नये कलेवर से साथ दिखते हैं। साथ-ही-साथ आधुनिक युग के समय के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक पहलुओं को लेकर कवियों की विचारधारा भी हिन्दी काव्य जगत् को प्रभावित कर रही है। ऐसे ही एक कवि है कवि कुलवन्त सिंह।

            कवि कुलवन्त सिंह भाभा अटोमिक रिसर्च सेन्टर में कार्यरत वैज्ञानिक है। साधारणतः वैज्ञानिकों के प्रति आम लोगों की यह सोच होती है कि वे लोग केवल विज्ञान की दुनियाँ में सिमट कर रह जाते हैं, उनका वास्विक संसार से भी यदि नाता है तो भी उसके सांस्कृतिक पक्ष से दूर ही रहते होंगे। परन्तु यह सत्य नहीं है। वस्तुतः देखा जाए तो वैज्ञानिक ही होते हैं जो वास्तव में संसार के सृजनात्मक पक्ष की ओर अधिक रुचि रखते हैं। सृजन जहाँ होता है वहाँ एक तरफा सृजन नहीं होता बल्कि वहाँ उसका सामुहिक विकास भी होता है। उसी के साथ उसकी संस्कृति भी विकसित होती है जिसका एक सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है साहित्य। साहित्य समाज की पूरी छवि को अपने में समेट कर हमारे सामने उसके सार रूप में पेश करती है। साहित्य हमारे मानव समाज के सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसके साथ जो भी जुड़ता है वह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समाज के हर पक्ष से जुड़ जाता है। कवि कुलवन्त सिंह जी की रचना में उपरोक्त सभी विशेषताएँ पायी जाती है। उसकी रचनाओं की सुन्दरता ऐसी है कि लगता ही नहीं है कि वे केवल वैज्ञानिक है बल्कि उसकी रचनाशीलता में एक उत्कृष्ट कवि के सारे तत्व मौजूद है।

            इनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार है – निकुंज, चिरंतन, शहीद-ए-आजम भगत सिंह, बाल-गीत इन्द्रधनुष। इनकी कविताओं में नीति सम्बन्धी बातें भी है तो छायावादी कविताओं की विचारधारा भी है। इन्होंने दोहों में भी रचनाएँ लिखी है तो मुक्त छन्द में भी कविताएँ लिखी है। सबसे पहले इनकी निकुंज की बात की जाए तो उनकी सबसे पहली कविता आत्मज्ञान मानव समाज के सामने एक सच्चा आदर्श प्रस्तुत करती है। कविता के बोल कुछ इस प्रकार है –

                        मिटाकर अहंकार

                        करो परोपकार

                        मिथ्या है संसार

                        सत्य है परमार्थ1

            इस कविता में अहंकार को मिटाकर परोपकार की ओर अग्रसर होने की बात कही गयी है। यह संसार मिथ्या है पर परमार्थ सत्य है। वैसे देखा जाए तो उपरोक्त कथन पहले थोड़ा असमंजस में डाल देती है फिर बार-बार पढ़ा जाए तो इसका गूढ़ अर्थ निकलकर यह आता है कि जहाँ अहंकार है वहाँ संसार मिथ्या है पर जहाँ अहंकार मिटाकर परमार्थ की ओर चले तो वही संसार सत्य दिखाई देता है। वस्तुतः कवि यह बताना चाहते हैं कि अहंकार के कारण व्यक्ति प्रायः यह भूल जाता है कि एक दिन प्रकृति के विधि के फेर में पड़कर उसका अहंकार अपने-आप ही टूट जाएगा। फिर इस अहंकार को व्यर्थ में पाल कर रखना क्यों? कवि आगे अपनी कविता में कहते हैं कि हमें अपने अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करना चाहिए। जब व्यक्ति का अज्ञान दूर होगा तब हम अच्छे कर्म कर सकेंगे। नये-नये कीर्तिमान स्थापित कर सकेंगे। हमारे कर्म ही हमारे समाज की सेवा होगी। तभी कवि जीवन के सेवा के अर्थ मानते हैं। मन के सारे विकार, लोभ तथा स्वार्थ को दूर करके परमात्मा से एक हो जाना ही मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य है। वस्तुतः यह कविता नीतिपरक पढ़ने में लगती है परन्तु इसके गूढ़ अर्थ में मानवतावादी मूल्य छिपा हुआ है। मानवतावादी मूल्यों का होना ही हमारे समाज के लिए सबसे बड़ा वरदान है जो आज के व्यस्त समय में लोग भूल चुके हैं। कवि उसी बात को लोगों के सामने रख रहे हैं।

            उसी प्रकार उनकी एक ओर कविता है नमन इस कविता की भावना देशप्रेम से भरी हुई है। कवि ने कविता के प्रत्येक छन्द में भारतवर्ष की एक-एक खूबी को उजागर किया है। देश की संस्कृति उसके वैभव तथा वेद-वेदांत की, संतों एवं महापुरूषों की, साहित्यिक समृद्धि की, देवतुल्य नदियों के परम्परा की, रणभूमि में पराक्रम दिखाने वाले वीरों की, भारत को आज़ाद करने के लिए अपना बलिदान देने वाले महान बलिदानियों आदि सभी का गुणगान करती हुई यह कविता एक ही धारा में भारत के सम्पूर्ण स्वर्णिम इतिहास को हमारे सामने लाकर रख देती है। कविता की भाषा जितनी सरल है, भाव उतने ही सुन्दर तथा देशप्रेम की भावना को जन-जन तक सम्प्रेषित करनी की क्षमता रखती है। इस कविता की शब्द-शक्ति उस प्रसिद्ध उक्ति को सिद्ध करती है जिसमें रीतिकालीन आचार्य देव कहते थे कि अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणालीन, अधम व्यंजना रस विरस, उलटी कहत नवीन।2 वस्तुतः शब्दों के प्रयोग पर ही कविता के भावनाओं तथा सौन्दर्य निर्भर करता है। छन्दों का मिलना जितना जरूरी होता है उतना ही छन्दों के मध्य भाव का बना रहना भी उतना ही महत्व रखता है। अपनी कविता माली में फूलों के जरिए नए हिन्दुस्तान के निर्माण की बात कह रहे हैं। यहाँ बहुरंगी पुष्प का अर्थ विभिन्न प्रकार की प्रतिभा वाले लोग। जब समाज में सभी वर्गों लोगों को  फूल की भांति खिलने तथा सुगंध के रूप में अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका दिया जाएगा तो जैसे एक बागीचा सुन्दर रंग-बिरंगे फूलों के खिलने से सुन्दर लगता है वैसे ही भारत देश भी सुन्दर और विकसित हो जाएगा। कवि अपनी कविता में माली बनकर वह इस बागीचे को तत्परता से तैयार करना चाहते हैं जहाँ प्रत्येक कुसुम रूपी अधरों पर मुस्कान बिखरी हो, प्रत्येक हृदय में प्रेम, सौहार्द, एकता, उन्नत एवं समृद्ध विचारधारा भरी हो। किसी प्रकार की ईर्ष्या तथा अमंगल की ओर ले जाने वाले विचारधारा कही भी न पनपने पाये। वह एक ऐसे प्रेम के वृक्ष को सींचना चाहते हैं जिसके लिए धरती ही स्वयं माली बन जाए। इसी प्रकार अपनी अगली कविता जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान में उन्होंने भारत देश के वीर जवानों तथा किसानों द्वारा निःस्वार्थ भाव की सेवा को अपनी कविता का विषय बनाकर भारतीय सेना के जवानों तथा किसानों को मान प्रदान किया ही है। साथ ही जय जवान जय किसान के साथ जय विज्ञान को जोड़कर न केवल नए प्रकार का प्रयोग किया बल्कि वैज्ञानिकों के प्रति भी लोगों के मन में सकारात्मक सोच जगे इसका भी प्रयास किया है। भारत देश को आज वास्तव में उपदेश देने वाले योगियों से अधिक कर्म योगियों की आवश्यकता है। जिसका ज़िक्र वे अपनी कविता के अंतिम पंक्तियों में करते हैं। अगली कविता भारत में वर्तमान भारत की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों तथा विषमताओं आदि को कविता में कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है –

            फूँकना है यदि देश में प्राण

            बनाना है यदि भारत महान

            जीवन में सबके भरना होगा प्रकाश

            मुट्ठी भर देना होगा सबको आकाश

              X x x x x x x

            महलों की चाह नहीं सबको

            एक छत तो देनी होगी सबको,

            दो वक्त की रोटी खाने को मिल जाये,

            इज़्ज़त से इंसान जी पाये3

            उपरोक्त पंक्तियों में वर्तमान भारत की दशा तथा उसको किस दिशा में ले जाना है इस ओर भी संकेत किया गया है। वर्तमान भारत की दशा और दिशा दोनों की भ्रमात्मक है। एक तरफ ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ है जहाँ भारत का संपूर्ण मध्यम वर्गीय परिवार रहता है। परन्तु समाज के अन्य निम्नवर्ग के लोग तथा दरिद्रों की दशा इतनी दयनीय है कि उनके पास रहने के लिए घर नहीं है। विभत्स रूप तो ऐसा है कि बड़े-बड़े शहरों में गगनचुंभी इमारतें है तो वही उसके नीचे, किनारे तथा शहर के किनारे झोपड़ियाँ तथा खप्पर बांधे भी लोग गुज़र-बसर कर रहे हैं। बड़े-बड़े राजनेताओं द्वारा भारत को विश्व की महान शक्ति बना देने की विचारधारा सुनने में जितनी अच्छी लगती है उतनी वास्तविकता में बहुत बुरी और विभत्स लगती है। कुलवन्त सिंह जी वास्तव में वर्तमान भारत की इस छवि को उदासीन लोगों के सामने आइने की तरहा स्पष्ट रूप से दिखा रहे हैं ताकि पाठक समाज को वास्तविकता का बोध हो।

             राष्ट्र, बलिदान, शहीद, अनेकता में एकता, देश के दुश्मन, स्वर्ण जयंती आदि सभी कविताओं में कुलवन्त सिंह जी की राष्ट्रवादी विचारधारा भरी हुई है। वे भारत के इतिहास, उसके स्वतंत्रता संग्राम के महत्व को अच्छी तरह जानते हैं। इसीलिए वे अपनी इन कविताओं में देश की महान संस्कृति तथा देश के लिए बलिदान देने वालों को न भुलाकर उनके दिखाए मार्ग पर चलने बात कहते हैं। वास्तव में वर्तमान समय में स्वार्थी राजनैतिज्ञों की वजह से हम केवल सजे-सजाए नेता को याद करते रहे है। परन्तु जो क्रान्तिकारी थे जिन्होंने देश के लिए वास्तव में फाँसी, तोप तथा गोलियों की बौछार को भी हँसते-हँसते झेला है। हमारी भारतीय संस्कृति हमेशा से शान्त प्रकृति वाली रही है। न तो हम कभी दूसरे देशों में गये उनपर अनाधिकार अपनी सत्ता स्थापित करने। परन्तु सुदूर पश्चिम देश तथा मध्य यूनानी देशों के स्वार्थी तथा नृसंश लुटेरे लोगों ने बार-बार देश पर आक्रमण करके उसके धर्म तथा संस्कृति को नुकसान पहुँचाया। अंत में ब्रिटिश आये जाकर अचानक लोगों में पराधीनता के प्रति स्वाधीनता के भाव जग गये जबकि यह बहुँत पहले होने चाहिए थे। इसके बाद देश ने आजादि के लिए लगातार 1857 से लेकर 1947 तक संघर्ष किया। परन्तु इतना सबकुछ होने के बावजूद आज भारतीय नौजवान तथा सभी अन्य लोग सबकुछ भूल चुके हैं। जिसे कवि कुलवन्त सिंह जी अपनी कविताओं द्वारा याद दिलाना चाहते हैं।

            स्वतंत्रता संग्राम में भाग ले चुके सेनानियों के परिवार वालों की वर्तमान दशा पर भी उन्होंने कविता लिखी है। कैसी विडम्बना की बात है कि पिता ने जिस देश को अंग्रेजों की गुलामी से आज़ाद करने के लिए अपने जीवन का बलिदान दे दिया वही देश स्वतंत्र होने के बाद उसी स्वतंत्रता सेनानी के आदर्शों को ताक पर रख कर जैसे-तैसे चलने लगा। जिस देश के लोगों ने एक साथ स्वराज के लिए बड़े-बड़े आदर्शों के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी वही लोग देश के स्वतंत्र होते ही स्वराज की जगह स्वार्थ के लिए आपस में ही लड़ने लगे। इस बीच वे उन स्वतंत्रता सेनानियों के परिवार तथा उनके आदर्शों को भूल गए। उन स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों की उपेक्षा के कारण उनके परिवार एक प्रकार से बर्बाद ही हो गए। उनके बेटे आज इसी स्वार्थपरता से लड़ रहा है। देश में खराब हुए सिस्टम से लड़ रहा है, भ्रष्टाचार से लड़ रहा है, हार रहा है और अपने देश से प्यार करने की सज़ा उसे उसके अपने ही देश के लोग ही दे रहे हैं –



                                                लड़ता रहा दीवानगी की हद तक,

                                                लोग देख उसे हँसते जब-तब।

                                                साथ देने न आया कोई उसका,

                                                लेकिन वह डटा रहा, जिगर था उसका।

                                                .........

                                                मगर वो अकेला ही था-

                                                हार गया, सब कुछ गंवा कर भी!

                                                इस सिस्टम के आगे उसकी कुछ न चली,

                                                टूट कर बिखर गया, सजा अपनों से मिली।4



            वास्तव में ही इस देश की यह हालत देख कर लगता है कि देश को आज़ाद जिस स्वराज के लिए करवाया गया था वह तो केवल कुछ लोगों के लिए ही पूर्ण हुआ है। केवल नाम के लिए लोग अपने बहुमूल्य मत देकर नेताओं को चुनते हैं पर वह नेता जनता की सेवा के बदले उन्हें लूट कर, उनपर अत्याचार कर, उन्हीं पर ही अपना शासन जमा कर उसी जनता को गुलाम बनाकर रख दिया है। स्वर्ण जयंती अपने देश के वर्तमान दुर्दशा को दर्शाती हुई कविता है। कवि कुलवन्त जी ने अपनी कविताओं द्वारा देश के पराधीन भारत के समय के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर वर्तमान भारत की परिस्थितियों की बहुत सजीवता है उकेरा है।



            इनकी कविताओं में जिस प्रकार देश के प्रति समर्पित राष्ट्रीय भावना भरी है उसी प्रकार समाज के अन्य पहलुओं के प्रति भी वे इतनी ही तत्परता से चिन्तन करते हैं। एक अच्छे कवि की यही पहचान होती है कि वह न केवल अपने देश के प्रति समर्पित हो बल्कि उस देश के समाज के प्रति भी सजग रहे, तथा समाज की दिशा और दशा में किसी भी प्रकार के परिवर्तन लाने वाले प्रत्येक विचारधाराओं के जन्म देने वाले उन सूत्रों से भी जुड़ा रहे। क्योंकि कवि कोई साधारण व्यक्ति नहीं होता बल्कि वह पूरे संसार पर अपनी संवेदनशील तथा गहन विचारधारा एवं चिन्तन से परिवर्तन लाने वाला एक प्रेरक होता है। उसकी रचनाएँ उतनी ही महत्वपूर्ण होती है जितनी की अन्य मानव निर्मित जन-कल्याण में लगी हुई रचनाएँ होती हैं। वह भी एक निर्माता होता है जो कि अपनी रचनाओं में एक अच्छे समाज का निर्माण करता है, अच्छे संसार का निर्माण करता है। कलम, परिवर्तन, आदर्श, मानव-जीवन, खोना और विसंगतियाँ, प्रेरणा, दिशा और लड़ाई  जैसी कविताएँ सामाजिक मुद्दों से जुड़ी कविताएँ है। इन कविताओं ने कवि ने हर प्रकार के पहलुओं पर पाठकों का ध्यानाकर्षित किया है।

            सबसे पहले कलम कविता की बात करते हैं। कलम में कितनी शक्ति होती है इस बात को कविता में उद्धृत किया गया है। कलम से रचित कोई भी सुन्दर रचना किसी की भी दृष्टि बदल सकती है। समाज को प्रेरित करती है। साहित्य का निर्माण कर कलम ही उसे समाज का दर्पण बना देता है। कलम की ताकत से आज तक कई तख्त-ओ-ताज पलट गए हैं। कलम की धार को पहचानने वाला जब भी कलम अपने हाथों में लेता है तो उसमें शक्ति का संचार हो जाता है। इसी कलम से फिर वह नयी सृष्टि की रचना भी कर लेता है तथा फूल भी खिला देता है। लेकिन वर्तमान समय में यही कलम धारण करने वाला पथभ्रष्ट हो गया है। अब उसकी कलम पैसों के लिए सच को झूठ, झूठ को सच बना देता है। चाहे अखबार हो या कोई साहित्यिक रचना यदि लिखने वाला पथभ्रष्ट है तो उसकी रचना भी वैसी ही होगी जो समाज पर बुरा असर करेगी। सत्य ही है कि आज का लेखक पथभ्रष्ट हो रहा है। जो नहीं हुए हैं वे भी देश की भ्रष्ट-सिस्टम के आगे कुछ नहीं कर पा रहे है। ऐसे में कवि अपनी आशा नहीं छोड़ना चाहता है। वह फिर से नयी दिशा की ओर समाज को मोड़ना चाहता है ताकी नए और सुन्दर समाज की रचना हो। उसी प्रकार परिवर्तन कविता में कवि मूल्यों के बदल जाने की बात को लेकर चिन्तित हैं। परिवर्तन संसार का अटल नियम है। जो भी वस्तु इस संसार में जन्म लेती है समयानुसार उसमें परिवर्तन होता ही है। परन्तु यह परिवर्तन सृजनशील होता है। इस परिवर्तन को कोई रोक नहीं सका है आज तक। इसके महत्व को सभी ऋषियों ने भी स्वीकार किया है। लेकिन कुछ चीज़ों में परिवर्तन नहीं होता जो हमारी अनमोल धरोहर है जैसे धरती, आकाश, सूरज, चांद तारे इत्यादि। इनमें भी परिवर्तन होता है, केवल प्राकृतिक परिवर्तन जो हमारे जीवन तथा पालन-पोषण के लिए जरूरी होता है। उनका परिवर्तन सृष्टि की आवश्यकता के लिए होता है। पर मनुष्य के मूल्यों में परिवर्तन समाज के विकास के लिए यदि हो तो वह परिवर्तन स्वीकार्य हो सकता है। पर आज लोगों के मूल्यों में परिवर्तन केवल स्वार्थ के लिए होने लगा है। जिससे कवि विचलित है। जो मानवतावादी मूल्य थे आज केवल किताबों के पन्नों में सिमट कर रह गए हैं। इसी पर वे प्रश्न चिह्म लगा रहे हैं कि ऐसा क्यों हुआ।

            इसी प्रकार आदर्श कविता में आदर्श के महत्व तथा आदर्श से ईश्वर को पाने की बात करते हैं। मानव-जीवन में संघर्षों से न घबराते हुए आगे बढ़ने की बात कहते हैं। जैसे जीवन में नैतिक मूल्य जीवन का आधार होते हैं उसी प्रकार संघर्ष भी जीवन का आधार है। क्योंकि संघर्ष से मनुष्य का जीवन निखरता है। जिसमें मूल्य होते हैं वही विश्व में शांति को पा सकता है। जो कर्तव्यनिष्ठ होकर कर्म करता है वह अपने जीवन से अवनति तथा पतन को मिटा देता है। जिसमें जीवन दर्शन है उसमें नैसर्गिक प्रेम जग जाता है तथा सामाजिक मूल्यों द्वारा वह समाज में भाई-चारा फैलाता है। वास्तव में कवि यहाँ यह दर्शा रहे हैं कि जीवन में प्रेम, भाई-चारा, कर्तव्यनिष्ठा तथा मूल्यों का होना बहुत जरूरी है। उसी प्रकार आगे वह कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के मन में ईश्वर बसता है परन्तु हम उसे बाहर ढूँढते है। हमें केवल अपने अंतर्मन में झांक ले तो सबकुछ मिल जाता है। उनका मानना है कि मानव अनुभूति, भावना, कला, प्रेम आदि से ओत-प्रोत है पर सारी भावनाएँ गौण रूप में पड़ी हुई है क्योंकि उसे रोजी-रोटी कमाने की पड़ी है। वास्तव में इनकी यह कविता मानव जीवन के वास्तविक स्वरूप को दर्शाती है। जीवन में मनुष्य को कई प्रकार के संघर्ष करना पड़ता है, उसकी मन की मासूमियत, कोमल भावनाएँ कई बार जीवन के इस संघर्ष में बार-बार आहत होते रहता है। कठिन-से-कठिन परिस्थितियों तथा घटनाओं के कारण वह भी एक प्रकार से प्रायः कठोर सा हो जाता है। वह रोजी-रोटी की तलाश में अपने-आप को खो ही बैठता है। इसीलिए कवि चाहता है कि लोग अपने भीतर बसे ईश्वर को पहचाने तथा सुख पूर्वक जीवन जिए। उनकी आगे की कविता खोना इसी बात की ओर ईशारा करती है कि आज के समय में मनुष्य अपने जीवन से कितने बहुमूल्य चीज़ों को खोता जा रहा है जिसके कारण उसके जीवन से खुशहाली चली गयी है। दुबारा इन चीजों को प्राप्त करना भी हमारा अधिकार है ताकि हम अपने जीवन को फिर से खुलशहाल कर सके। तभी अपनी इस कविता की अंतिम पंक्तियों में वह कहते हैं –

            खुशहाली बिखेरें चारों ओर

            हर पुष्प पल्लवित हो,

            आये नित नयी भोर।5



            कवि कुलवन्त जी की निकुंज में रचित हर कविता में कवि की आशावादी दृष्टिकोण झलकती है। यही तो एक सच्चे मानव की पहचान है। वस्तुतः जीवन में आशा का संचार यदि न हो तो मनुष्य कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता है। उसे आगे बढ़ने के लिए जितना संघर्ष करना पड़ता है, कठिन परिस्थितियों से जूझना पड़ता है, उतना ही आशा वादी होकर भी रहना पड़ता है। आशा की नयी किरण उसे सदा सही रास्ता दिखाती है। तथा साहित्यकार की रचना में यदि आशा हो तो वह पाठकों को भी नया रास्ता दिखाता है। उसके जीवन को आलोकित करता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि कवि कुलवन्त जी वर्तमान युग के उन आशावादी तथा मानवीय मूल्यों से भरे कवि है जो कि समाज की आज इस विषम परिस्थिति में भी आशा की किरण दिखाकर उसे उन्नति के पथ की ओर ले जाना चाहते हैं।





संदर्भ ग्रन्थ

1 निकुंज काव्य संग्रह- कुलवंत सिंह, 2010, अहंकार कविता, पृ.सं-16


3. निकुंज, वही, पृ.सं- 22 भारत कविता

4. वही, पृ.सं- 27 देश के दुश्मन कविता

5 वही, पृ,लं –35 खोना कविता