मेरे बचपन की रातें बहुत आनन्द से बीती है। विशेषकर शीर्षक में लिखे दो प्राणियों की वजह से। अक्सर हम सुहावनी रातों की बात करते हैं तो चांदनी रात, तारों वाली रात, ये रात वो रात आदि। मगर यदि कोई मुझसे पूछे तो मेरी रातें चांदनी रातों या तारों वाली रातों से कही अलग और रोमांचक तरीके से बीती है। इन रातों के साथी जो रहे हैं वह है झिंगुर, जुगनू, बारिश, कड़कड़ाती बिजली और सियार महाशय की हुआ-हुआ की आवाज़। सुनकर या पढ़कर किसी को भी अजीब लगेगा। लेकिन जो सच है उसे झुठलाना क्यों? आखिर औरत होने की वजह से मेरे जीवन में कोई घिसी-पिटी चीज़े ही होनी चाहिए क्या? चलिए बात करते हैं झिंगुरों के बारे में। आजकल के बच्चों का बचपन बेकार और बर्बाद सा बीत रहा है। क्योंकि जो 80-90 के दशक के बच्चे हैं यानी हम उनके अलावा आज की पीढ़ि ने झिंगुर नाम का कीट नहीं देखा होगा कभी। ना ही उसकी आवाज़ सुनी होगी। कुछ सुन लेते होंगे जो आज भी पहाड़ी तथा हरियाली वाली जगह पर रहते होंगे। बढ़े शहरों में अपार्टमेंट वाली जगहों में रहने वाले अधिकांश बच्चों को पता ही नहीं कि झिंगुर क्या होता होगा। नाम सुनते ही सोचेंगे कि कोई गाली है। मगर वास्तविकता इससे कही अलग है। झिंगुर एक प्यारा-सा, नन्हा सा कीट है जो रात के समय ट्री-ट्री-ट्री की आवाज़ निकालता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि रात अधिक घनी हो चुकी है। सारे जागे हुए प्राणी रात का भोजन करके सो जाओ। पुरानी फिल्मों में या पुराने दूर-दर्शन के कार्यक्रमों में झिंगुरों की खास भूमिका होती थी। किसी गरीब झोपड़े का दृश्य दिखाना हो या उसके अंदर रहने वाले प्राणियों की दयनीय दशा का वर्णन करना हो, रात में विशेषकर किसी सीन के तहत हीरो-हीरोइन का जंगल में गुम हो जाना हो और सन्नाटे का सीन दिखाना हो झिंगुरों की आवाज़ उस सीन में विशेष जान डाल देती थी। मेरा सीन ये है कि जब मैं छोटी थी तब रात के भोजन के बाद इसी झिंगुर की आवाज़ सुन-सुन कर सुकून से सोती थी। कभी-कभी तो हमारे लोहितपुर(अरुणाचल प्रदेश) असम रायफल्स वाले क्वार्टर पर ये झिंगुर घुस आते थे। रात को किसी कोने में रह-रह कर आवाज़ निकालते थे। कभी-कभी सुकून मिलता था मगर कभी-कभी नींद नहीं आने पर यही आवाज़ परेशानी का कारण बन जाती थी। कभी-कभी शाम को भी ये अपनी मधुर आवाज़ सुनाया करता था। भीषण गर्मी का मौसम हो या बारिश का मौसम हो इस कीट की आवाज़ हमेशा सुहावनी ही लगती थी। तभी तो मैं कह रही हूँ कि आज के बच्चों को ये सब नहीं पता इसलिए उनका बचपन बेकार गुज़र रहा है।
अब बात करते हैं जुगनू की। जुगनू भी एक प्यारा सा सिलेठी या भूरे रंग का कीट है। इसके शरीर के पिछले भाग में कुछ विशेष रसायन या तत्व मौजूद होते हैं जो कि वातावरण् में ऑक्सीजन के सम्पर्क में आने पर रोशनी पैदा करते हैं। खैर ये तो वैज्ञानिकों वाले तथ्य हो गए। कला की दृष्टि से देखा जाए तो जुगनू रोशनी का प्रतीक, सुकून का प्रतीक, बालपन की मस्ती का प्रतीक न जाने क्या-क्या। मेरा बचपन इनके साथ भी गुज़रा है। अरुणाचल हो या असम, मणिपुर हो या त्रिपुरा जुगनू अक्सर पहाड़ी स्थलों पर कही-न-कही मिल ही जाते हैं। मज़ेदार बात तो ये होती थी कि इन्हें पकड़ने के लिए हम बहुत उछलते थे। मुझे याद है कि हम तब अरुणाचल प्रदेश के लोहितपुर जिले में रहा करते थे। असम रायफल्स का छोटा सा कैम्पस और प्लेंकिंग वाले घर। माफ कीजिएगा! प्लेंकिंग वाले घर का विवरण दिए बिना आप लोगों को समझ में नहीं आएगा कि ये घर दिखने में कैसा होता है और इसकी क्या-क्या विशेषताएँ हैं। साथ ही इसके आस-पास की हरियाली और वही पर मिलने वाले ये कीट के साथ गुज़री रातों का विवरण अधूरा सा लगेगा। दरअसल प्लेंकिंग वाले घर का मतलब है मचांग वाले घर। सरकारी घर थे इसलिए इसे आप यू समझिए कि एक घर की बुनियाद के नीचे मिट्टी की ठोस ज़मीन के बदले ढेरों सिमेंट के मोटे खम्बें हो, उसके ऊपर लकड़ी के लम्बे-चौड़े पट्टों का बना फ़र्श हो, दिवारे बांस और लकड़ी की बनी हो जिसे सलीके से सिमेंट से अच्छी तरह से पोता गया हो और छत पर टीन लगी हो ऐसे घरों को हम प्लेंकिंग वाला घर कहते थे। अभी भी अरुणाचल प्रदेश के गांवों में ऐसे घर बांसों से बने हुए मिल जाएंगे। इन घरों की विशेषता ये होती थी कि गर्मी के दिनों में काठ की वजह से गर्मी कम लगती थी और सर्दियों में सर्दी कम। हम जिस जगह पर थे वहाँ हमारे क्वार्टर के बगल में नाशपाती का एक बड़ा सा पेड़ था। हमारे अगल-बगल के क्वार्टरों के पीछे बढ़िया बागीचा और फूलों की ढेर सारी क्यारियाँ लगी हुई थी। इसके साथ ही थोड़ा सा जंगलनुमा इलाका था फिर पीछे की तरफ के क्वार्टर होते थे। हम जिस क्वार्टर पर रहे थे वहाँ केवल एक वर्ष ही रहे। मगर मज़े बहुत किए। हमारे क्वार्टर के सामने से असम रायफल्स की मुख्य सड़क गुज़रती थी और उसके किनारे खुला मैदान था और फिर कुछ दूर जाकर हमारे स्कूल की इमारतें शुरु होती थी। आस-पास काफी झाड़ियाँ वगैरा भी थी। अक्सर चांदनी रातों में या कभी-कभी गर्मी की रातों में जुगनू बहुत दिखते थे। हम क्वार्टर के बरामदें में बैठ कर या फिर सीढ़ियों में बैठकर इसका आनन्द लेते थे। कभी-कभी उन्हें देखकर मन करता था कि इन्हें पकड़कर किसी कांच के डिब्बे में भर कर रख दूं। लेकिन ये तो कीट हैं। कही मर गए तो क्या होगा? अब बात करते हैं कि हमने इस क्वार्टर में रहते हुए क्या-क्या मस्तियाँ की है। हम तीनों भाई-बहनों को खुद से घर बनाने का बड़ा शौक था। छुट्टियों के दिनों में हम तीनों मिलकर क्वार्टर के बगल में जो नाशपाती का पेड़ था उसके नीचे बांस, घास-फूस और हमारे टेबल की मदद से घऱ बनाते थे। कभी-कभी उसके लिए हम माँ से छिपकर ट्रंक में से मोटा कपड़ा भी ले लेते थे ताकी छत पर लगा सके। पर ये हमारा खिलौना घर बनता कम था और बार-बार टूटकर गिरता बहुत था। कभी टेढ़ा हो जाता तो कभी एक तरफ से झुक जाता था। इसीलिए तीनों ने मिलकर इस घर का नाम दण्डपति हाउस रखा था। हंसी आ रही है न नाम से? हम भी बहुत हंसते थे। मगर दिन भर इसी के नीचे बैठकर हम घास-पत्तियों से किचन बनाते, छोटे पत्थरों और ईंटों के टुकड़ों से चूल्हा और न जाने क्या-क्या। मगर हम तीनों का दिल इसमें बहुत लगा रहता था। फिर बाद में हमें यहाँ से दूसरे क्वार्टर में जाना पड़ा क्योंकि यहाँ पानी की समस्या बहुत हो गयी थी और रसोईघर की काठ का फ़र्श भी टूट गया था। उसे ठीक करवाने हेतु खाली करना भी ज़रूरी था। इसके बाद हम जिस क्वार्टर में गए वहाँ तो जैसे इससे दुगनी मस्ती के दिन आ गए थे। हमारे क्वार्टर के पीछे अच्छी खासी बड़ी सी ज़मीन पड़ी थी। वहाँ एक सहजन का पेड़ भी था। इसके पत्तियों के पकौड़े उफ़ क्या स्वाद और सेहत के फायदें अलग। पिताजी ने इस पेड़ के बगल से लेकर घर के नज़दीक तक खूब सुन्दर सा बागीचा तैयार किया। तरह-तरह की सब्जियाँ लगाई। साथ ही हमने कई बतख़ें और मुर्गियाँ भी पाल ली थी। हम स्कूल से आते और दिनभर इन्हीं के साथ खेलते। सबसे मज़ेदार तो ये बात थी कि जब इन बतख़ों और मुर्गियों के दिए अण्डों से चूज़े निकले तो हमने अभिभावक वाली भावना से इन चूज़ों के नामकरण भी कर दिए थे। इन्हें जब भी हम उन नामों से पुकारते तो ये दौड़े-दौड़े चले आते थे। बड़ी मुर्गियों के नाम तो फिल्मी सितारों के नाम पर रख दिए थे। नाम नहीं बता सकती। पर दुख इस बात का है कि ये फिल्मी सितारें (मेरी मुर्गे) जल्दी ही चोरों के पेट में चले गए। बहुत दुख हुआ था हमें उस दिन। हमारे क्वार्टर के बाए तरफ दो अमरूद के पेड़ भी थे। मेरा और मेरे भाई का काम था मौका पाते ही इसमें चढ़ कर पूरा दिन वही सोना और कच्चे अमरूद तोड़ कर खाना। लगता है हमारा रिश्ता बंदरों से बहुत गहरा था। शायद इसीलिए हम दिनभर उस पेड़ में चढ़कर वक्त बिताते। कभी-कभी पिताजी को पता चलता तो उनके गुस्से के डर से हम नीचे नहीं उतरते थे। मगर नीचे तो आना ही पड़ता था। आज ये बातें याद आती है तो मन कैसा-कैसा हो जाता है और हंसी भी आती है। आज न तो बचपन जैसी फुर्ती रही न ही इतने दुबले। पेड़ पर अब चढ़ना भूल गयी हूँ। मगर ये बातें बहुत याद आती है।
इस क्वार्टर की भी कुछ यादें झिंगुरों और जुगनुओं के साथ जुड़ी है। चूंकि यहाँ पहले वाले से ज्यादा आस-पास के जगहों पर झाड़ियाँ और जंगल थे। सो यहाँ रात को झिंगुरों की आवाज़ बहुत आती थी। साथ ही एक और महाशय थे। वह थे मेंढक मामा। इनके भी टर्राने की आवाज़ बरसात के दिनों में आती थी। साथ ही बरसात के दिनों की रातों का तो कहना ही क्या। बिजली चली जाती थी अक्सर वहाँ। फिर माँ लालटेन जला देती थी जिसकी रोशनी में हम तीनों पिताजी के पास बैठकर पढ़ाई करते। कभी-कभी तेज बरसात के कारण छत पर इतनी आवाज़ होती कि कुछ सुनाई नहीं देता था। बस फिर क्या था। हम बच्चे थे सो ऐसे मौको का फायदा कैसे उठाना है हमारे शैतानी दिमाग में अच्छी तरह आ जाता था। विशेषकर इस मामले में मैं आगे थी। कभी नींद का बहाना, कभी भूख लगना, कभी बारिश देखने का बहाना। पर जो भी हो पिताजी ने कभी धैर्य नहीं छोड़ा। उन्होंने अपने धैर्य से ही मुझे इतना पढ़ाया-लिखाया, आगे बढ़ने का मौका दिया। आज भी उन्हीं का सहारा है।
चलिए अब बात करते हैं बारिश के दिनों की। बारिश के दिनों में जब बिजली चली जाती थी तो हमारी रात की पढ़ाई मुश्किल से ही पूरी हो पाती थी। पर हम किसी तरह पढ़ लेते थे। फिर माँ खाना लगा देती थी। खाने का सीन ये था कि हम सब नीचे फ़र्श पर ही बैठकर खाते। बढ़ा मज़ा आता था। बीच में लालटेन रखी होती थी। हम सब यानी माँ पिताजी भी गोलाकार होकर बैठते थे। माँ गरम-गरम भात और सब्जी हमारी थाली में परोस देती। फिर पिताजी माँ की थाली में गरम भात और सब्जी डाल देते थे। फिर सभी इखट्टे खाते थे। इस प्रकार नीचे बैठकर खाने का मज़ा ही कुछ और होता है। बीच-बीच में तेज बरसात होती रहती और कभी-कभी मैं छत की तरफ देखती। कभी-कभी खिड़की को टूटे कांच या फिर छत के किसी कोने से दूसरे कीड़े घुस आते थे। उनके आ जाने पर भोजन करना तो मुश्किल ही होता था क्योंकि ये कीड़े कही काट न ले इसी भय से हम इधर-उधर उसी पर नज़रे टिकाए हुए रहते थे। फिर माँ हमें कहती थी कि जल्दी खा लोगे तो फिर ये कीड़ा नहीं काटेगा। हम जल्दी-जल्दी खाना खा लेते थे। फिर कभी-कभी मैं माँ की मदद के लिए उनके साथ रसोईघर जाती और लालटेन लेकर खड़ी रहती। बर्तन धोने से लेकर बची सब्जी-मछली और भात को वह ढककर रख देती थी। फिर हम सोने चले जाते थे। सोते क्या थे बल्कि मैं तो चोरी से पिताजी और माँ की बातों को सुना करती थी। ज्यादातर बातें हमें लेकर या फिर किसी रिश्तेदार की चिट्ठी और दूसरी बातों के लेकर होती थी। पर सुनने में बड़ा मज़ा आता था। फिर तेज़ बारिश और कड़कती बिजली की आवाज़ में कब नींद आती थी पता ही न चलता था। एक दिन की बात है हम इसी तरहा नीचे बैठ खाना खा रहे थे। बिजली उस दिन भी गायब थी। अचानक हमें जोर-जोर से कही से चिल्लाने की आवाज़ सुनाई दी। साथ ही तेज रोशनी भी दिखाई दे रही थी। उस दिन बारिश नहीं हुई थी। हमारे क्वार्टर से निकल कर कुछ ही दूरी पर असम रायफल्स कैम्पस का दायरा समाप्त होता था। फिर एक छोटा सा हाट या बाज़ार था। वहाँ लगभग 8 से 10 दुकाने थी। हमारी अक्सर ज़रूरत की चीजे जो कैन्टीन में नहीं मिलती थी वहाँ मिल जाती थी। वहाँ हमारा एक बहुत ही पसंदीदा बनिए का दुकान था। उसे हम शंभु के दुकान के नाम से ही जानते थे। ये हमें इसलिए पसंद था क्योंकि वहाँ हमें टॉफी से लेकर खिलौने तक मिल जाते थे। शुंभ अंकल हमें बहुत प्यार करते थे। टॉफी और खिलौने के लिए हम पिताजी से जिद करते तो उनके ही दुकान पर सस्ते में मिल जाया करते थे। मुझे अभी भी याद है कि मेरी छोटी बहन को जब कोई चीज चाहिए होती थी और उसे नहीं मिलता था तो पिताजी को रो-रोकर वह तोतली बोली में बोलती थी “आमी एल्ला-एल्ला शंभु दुकानो जाइमु गिया...।” मतलब में अकेले-अकेले ही शंभु की दुकान पर चली जाऊँगी। पता नहीं आज हमारे शंभु अंकल कहा होंगे। तो बात ये है कि उस छोटे से बाज़ार में उस दिन अचानक आग लग गयी थी। आग लगी थी एक दर्ज़ी की दुकान से जो तेज हवा के चलते बाकी के दुकानों तक पहुँच गयी थी। उसमें बिचारे हमारे शंभु अंकल की दुकान भी जल गयी थी। हम सब खाना खा रहे थे जब ये सब हो रहा था। पिताजी-मम्मी और हम तीनों भाई-बहन उठ कर खिड़की में से देखने की कोशिश कर रहे थे। हालांकि दूर से केवल तेज रोशनी ही दिखाई दी मगर पिताजी समझ गए थे कि ये आग है। माँ बार-बार भगवान से बारिश की प्रार्थना कर रही थी। अगले दिन ही जाकर हम सबको पूरी घटना का पता चला मगर शंभु अंकल की दुकान के जलने के बाद हम तीनों भाई-बहन बहुत दुखी हो गए थे। उसके बाद वहाँ फिर से नए दुकान और व्यवसाय बसाए गए होंगे। लेकिन तब तक हमारे पिताजी के ट्रांस्फर ऑर्डर आ चुके थे।
अरे!! एक मज़ेदार किस्सा तो रह ही गया नए साल का जश्न। मुझे याद है कि अंग्रेजी नये साल का जश्न हमने कैसे मनाया था। लगभग देर शाम से ही हम सबने मिलकर तैयारी शुरु कर दी थी। पिताजी ने बड़े जतन से क्वार्टर के पीछे हमने सीढ़ियों के पास आर्मी वाले कम्बल के सहारे रस्सी से बांध कर टेंट बनाया था। फिर माँ के साथ मैं रसोईघर से कुछ बर्तन और खाना बनाने की सारी चीजे ला ला कर रख रही थी। आलोक और पिंकी टेंट के अंदर का सारा प्रबन्ध कर रहे थे। पिताजी ने हम सबके लिए चिकन बनाने वाले थे। उन्होंने पत्थरों की सहायता से एक टेम्पोरेरी चूल्हा बनाया, फिर लकड़ियों की उसमें रखा और केरोसीन की मदद से आग जलाई। हम तीनों ठण्ड से बचने के लिए इसी के इर्द-गिर्द मंडराने लगे। माँ ने पिताजी की सहायता के लिए मुर्गियाँ छिली और उसके टुकड़े काट कर दिए। सच लकड़ी के चूल्हे में इतना स्वादिष्ट चिकन तैयार किया पिताजी ने। फिर हमने साथ मिलकर खाया और हम तीनों अपनी-अपनी बेसुरी आवाज़ में फिल्मी गाना गा रहे थे और हंसे जा रहे थे। पिताजी ने हमें कितने सारे चुटकुले और कहानियाँ सुनाई हम रात भर हंसते रहे। इधर कोहरा घना होता रहा। फिर बारह बज़े तक हमारा जश्न पूरा हुआ और हम अंदर चले गए। ये हमारा एक छोटा से पिकनिक था। आज भी कभी-कभी याद करती हूँ तो मन करता है फिर से ऐसा घरेलु पिकनिक अपने पिताजी के साथ मना सकु तो कितना मज़ा आएगा।
अब बात करते है सियार महाशय की। कभी आपने सोचा है कि आधी रात को आपके घर के बिलकुल नज़दीक बल्कि यू कहिए कि दरवाजा खुला और सियार महाशय दिख जाए हुआ-हुआ की आवाज़ करते हुए तो कैसा लगेगा? पहले तो डर लगेगा, हाथ-पाव हिलेंगे नहीं, गला सूख जाएगा और आपके मन में ये बात ज़रूर आएगी कि यदि किसी सियार की नज़र पड़ी तो गए काम से। ये मेरे साथ हो चुका है। पिताजी के साथ हम ट्रांस्फर होकर अरुणाचल प्रदेश के आलोंग शहर रहने आए तो यहाँ आकर ये अनुभव हम सभी को मिला। हम इस बार भी असम रायफल्स के मैन गेट जहाँ से शहर जाने का रास्ता था वहाँ के नज़दीक वाले क्वार्टर में रह रहे थे। यहाँ अक्सर ठण्ड के मौसम में शाम के वक्त या फिर आधी रात को सियार घूमते हैं ये बात हमें पता नहीं थी। हमारे स्कूल के कुछ साथियों ने हमें बताया था। आस-पास ढलान-ही-ढलान थे और जंगल थे सो सियार का होना तो तय था। मगर ये कैम्पस में भी घुस सकते हैं इसका अंदाज़ा नहीं था। एक रात की बात है कि हम सब काफी देर रात तक जाग कर फिर सोने गए। अभी आँख ही ठीक से लग पायी थी कि सियारों की हुआ-हुआ की आवाज़ सुनायी पड़ी। ठण्ड की रात थी। मैंने डर कर पिताजी को पुकारा। पिताजी ने कहा कि घबराऊ नहीं क्योंकि इनको भी ठण्ड लग रही है सो ये सब चिल्ला कर अपने-आप को गरम कर रहे होंगे। आवाज़ वैसे तो दूर से आ रही थी। लगता था कि सड़क के उस पार होंगे। लेकिन जल्द ही उनका झुण्ड कब हमारी लाइन की तरफ आया पता न चला। क्वार्टर के चारों तरफ हम सभी ने बेड़ा लगाया हुआ था। मुझे लगा जैसे सियार महाशय बेड़े के बगल में ही खड़े है और बेड़ा तोड़ कर अंदर घुसकर ही दम लेंगे। क्योंकि शायद उन्हें हमारी बतख़े खानी थी। कही गंद न मिल गयी हो इन्हें। हमारी पाँच बतख़े थी। एक नर और बाकी सब मादा। सभी सफेद रंग के थे। हम प्यार से इन्हें पंच पाण्डव बुलाते थे। मेरा दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। एक तो ठण्ड, उस पर से इनकी हुआ-हुआ। हमारी सारी बतख़े खाँचे में सुरक्षित तो थी पर फिर भी डर लग रहा था। फिर इसके बाद ये सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा। बहादुर लाइन और बाकी के जगहों पर भी इसी तरह सियारों का घुसना जारी रहा। मगर किसी अप्रिय घटना की खबर नहीं आयी। पर कुछ दिनों बाद हम सबके लिए फरमान जारी कर दिया गया कि सभी लोग रात दस बजे के बाद अपने-अपने क्वार्टर के बाहर वाली रोशनी जला कर ना रखें और रात ग्यारह बजे तक भीतर की रोशनी भी बन्द हो जानी चाहिए क्योंकि शायद रोशनी की वजह से ये जंगली जानवर रात को भी खाना ढूँढते हुए आते होंगे। मगर ये जितनी रातें सियारों की हुआ-हुआ के साथ बीती है मुझे अभी भी याद है।