सिलचर हमारा प्यारा शहर सिलचर, असम का एक छोटा सा मगर खुद्दार और शांति का शहर
सिलचर अपनी कई विशेषताओं के लिए यहाँ रहने वाले प्रत्येक सिलचर वासियों के मन में
एक खास जगह लिए रहता है। कह सकते हैं कि आप सिलचर के बाहर तो जा सकते हैं मगर
सिलचर आपके अंदर से बाहर नहीं निकलेगा।
आज जिस विषय के बारे में हम
बात करने वाले हैं वह है सिलचर की दुर्गा पूजा के बारे में। जी हाँ अब कुछ ही दिन
बाकी है दुर्गा पूजा आने में और सिलचर एक ऐसा शहर है जहाँ की दुर्गा पूजा बहुत सारे
बातों में मायने रखता है। विशेष कर आर्थिक रूप एवं आध्यात्मिक दृष्टि से। दुर्गा
पूजा एक ऐसा पर्व है जो प्रत्येक बंगाली के जीवन में विशेष स्थान रखता है। महालया
से शुरु कर विजया दशमी तक हर बंगाली इस उत्सव का आनंद मनाता है। प्रत्येक व्यक्ति
चाहे वह अमीर हो या गरीब हो इस उत्सव में विशेष रूप से प्रसन्न होकर अपनी तरह से
मनाने की तैयारी करता है। फिर जब ये उत्सव पारिवारिक न होकर सार्वजनीन हो तो इसकी
बात ही अलग होती है। बड़े-बड़े सुन्दर ढंग से सजाए पूजा पंडालों में माँ के भक्तों
की भीड़ लग जाती है। तब न जाति देखी जाती है न ही वर्ण। सभी माँ के भक्त है। सभी
माँ को प्रसन्न करने के लिए अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार तैयार होकर सुबह-सुबह
उनके चरणों में अंजली देने को चले आते हैं। ये उत्सव इस लिए और खास बन जाता है
क्योंकि इसमें जातिय दिवारें नहीं होती है।
इन सुनहरे पलों की शुरुआत ही महालया से हो जाती है। महालया
के दिन सुबह चार बजे उठना फिर और रेडियो पर बंगाल के प्रसिद्ध गायक विरेन्द्र
कृष्ण भद्र की आवाज़ में महिषासुर मर्दिनी का यादगार गायन और चंडी पाठ को सुनना एक
ऐसा काम होता था जिसे करने के बाद गर्व की अनुभूति होती। सचमुच ये पाठ है कि इतना
महान की आज भी हर बंगाली जब भी इसे सुनता है तो उसके मन में आनंद का संचार तो होता
ही है फिर रोंगटे भी खड़े हो जाते हैं। फिर तो कुछ दिन बीतते ही दुर्गा पूजा शुरु
हो जाती है। चारों तरफ जोर-शोर से तैयारी होने लगती है। पंडाल बनने लगते हैं, सड़कों
के इर्द-गिर्द लाइटों की सजावट, माँ दुर्गा की मूर्तियों को लेने जाने वालों का
जयकारा लगाते हुए जाना। घर-घर चंदा मांगने के लिए समूह में आते लोगों का तांता।
चारों तरफ श्यामा संगीत और ढाकी का ढाक बजाना। बाज़ार में दुकानों में लोगों की
भीड़ लग जाती है नए कपड़ों के लिए। नए-नए फैशन के कपड़े तो आज लोग खरीद कर खूब सज
लेते हैं। लेकिन एक समय था जब लोग विशेष कर महिलाएँ और लड़कियाँ सलवार कमीज के
अनसीले कपड़े लाकर दर्जी से अपने हिसाब से अपने फैशन की पसंद के अनुसार सिवालती
थी। पुरुषों में धोती और कुर्ता या फिर सिंपल शर्ट के लिए शर्ट के पीस खरीदने का
दौर था। पूजा के एक-दो महीने से पहले ही दर्जियों की व्यस्तता का अंदाज लगाना
मुश्किल होता था। महालया के बाद यदि कपड़े सीलने के लिए दर्जी के पास ले जाओ तो वह
कभी-कभी मना तक कर देता था। कई बार समय पर नए कपड़े मिलते तक नहीं थे। फिर कई बार
तो लोगों को पिछले साल के पुराने लेकिन जिन्हें एक ही बार पहना गया हो उन्हीं
कपड़ों में सप्तमी और अष्टमी निकालनी पड़ती थी। फिर नवमी में बिलकुल नए कपड़े। ये
तो निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों की बात है। गरीब परिवारों में दुर्गा पूजा में नए
कपड़े पहनना एक सपने जैसा होता था। तब वे किन-किन माध्यमों से नए कपड़े लाते थे ये
तो वे जाने या फिर उनके भगवान। लेकिन उनमें भी पूजा के प्रति इतना उत्साह था कि वे
अपने सबसे अच्छे कपड़े पहन कर पूजा देखने आते थे। उनमें इस बात की फ़िक्र नहीं थी
कि कोई क्या सोचता होगा। विडम्बना की बात है कि आज लोगों में इन सब बातों का कोई मोल नहीं रह गया है। लोग एक-दूसरे के कपड़ों
से उन्हें मान देते हैं। वही महिलाओं ने भी अपनी शालीनता को त्याग कर अजीबो-गरीब ब्लाउज,
छोटे -छोटे कपड़े पहनकर स्वयं को स्वतंत्र नारी का तमगा देकर इस उत्सव की मर्यादा
को ही गिरा दिया है। जबकि एक समय था कि बंगाली स्त्रियों का मर्यादित आचारण एक
मिसाल की तरह था। भले ही फैशन किया जाए पर उसके लिए अंग प्रदर्शन करना वह भी ऐसे
पवित्र अवसर पर वह पूजा का आनन्द नहीं बल्कि स्वयं के वैचारिक पतन और दुर्दशा को
दर्शाता है।