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सोमवार, 22 सितंबर 2025

दो नाक वाले लोग विस्तृत सारांश

 

हरिशंकर परसाई की कहानी का विस्तृत सारांश: 'दो नाक वाले लोग'

1. शीर्षक का औचित्य और केंद्रीय विचार

यह कहानी हरिशंकर परसाई का एक प्रसिद्ध व्यंग्य है, जिसमें उन्होंने भारतीय समाज की दिखावे की प्रवृत्ति, सामाजिक प्रतिष्ठा और नैतिक खोखलेपन पर तीखा प्रहार किया है। कहानी का शीर्षक 'दो नाक वाले लोग' स्वयं कथावाचक की भूमिका को दर्शाता है, जो एक बुजुर्ग व्यक्ति को सामाजिक दबाव से ऊपर उठकर व्यावहारिक और तर्कसंगत निर्णय लेने की सलाह दे रहे हैं। कहानी का केंद्रीय विचार 'नाक' है, जिसका प्रयोग लेखक ने सामाजिक सम्मान और प्रतिष्ठा के प्रतीक के रूप में किया है।

2. कहानी के प्रमुख पात्र और घटनाक्रम

कहानी में मुख्य रूप से दो पात्र हैं: कथावाचक (लेखक) और एक बिगड़ा हुआ रईस बुजुर्ग। बुजुर्ग अपनी बेटी का अंतरजातीय विवाह कर रहे हैं, जो कि एक प्रगतिशील कदम है, लेकिन वे यह शादी पुराने ठाठ-बाठ से करना चाहते हैं। इसका कारण है रिश्तेदारों के सामने अपनी 'नाक' कटने का डर।

कथावाचक बुजुर्ग को समझाते हैं कि वे अपनी हैसियत से अधिक खर्च न करें और कर्ज लेकर दिखावा न करें। वे उन्हें शादी को आर्य-समाजी रीति से सादगी के साथ करने का सुझाव देते हैं। वे तर्क देते हैं कि दूर के रिश्तेदार (जो पंजाब, दिल्ली आदि में हैं) निमंत्रण पाकर खुश नहीं होंगे, बल्कि परेशान होंगे। कथावाचक यह भी बताते हैं कि दिखावे के बजाय नैतिक मूल्यों को अपनाना अधिक महत्वपूर्ण है।

3. 'नाक' का प्रतीकात्मक प्रयोग और व्यंग्य

परसाई जी ने इस कहानी में 'नाक' का उपयोग कई प्रतीकात्मक अर्थों में किया है:

  • छोटे आदमी की नाजुक नाक: जो छोटी-सी बात पर कट जाती है।

  • बड़े आदमी की 'इस्पात की नाक': जो कालाबाजारी, भ्रष्टाचार और अनैतिक कार्यों के बाद भी नहीं कटती। ये लोग इतनी हैसियत रखते हैं कि सामाजिक आलोचना से बच जाते हैं।

  • होशियार लोगों की 'तलवे में रखी नाक': जो इतने चालाक होते हैं कि उनकी इज्जत पर कोई आंच ही नहीं आ पाती।

  • गुलाब के पौधे जैसी नाक: जो बदनामी के बाद और भी बढ़ जाती है।

  • 'कटी हुई नाक': कहानी के अंत में, जब बुजुर्ग दिखावा करने के लिए कर्ज लेते हैं और साहूकार रोज तकादा करने आते हैं, तब लेखक बताते हैं कि उनकी नाक रोज थोड़ी-थोड़ी कटने लगी है, और अंत में काटने के लिए कुछ बचता ही नहीं है।

यह प्रतीकात्मक प्रयोग भारतीय समाज में नैतिक मूल्यों के पतन और दिखावे की प्रवृत्ति पर गहरा व्यंग्य करता है।

4. कहानी का उद्देश्य और संदेश

कहानी का मुख्य उद्देश्य समाज में व्याप्त दिखावे की संस्कृति पर चोट करना है। लेखक समझाते हैं कि दिखावा और झूठी प्रतिष्ठा व्यक्ति को कर्ज और परेशानियों के दलदल में धकेल देती है। यह कहानी हमें यह संदेश देती है कि बाहरी आडंबर और सामाजिक दबावों के बजाय, हमें सादगी, ईमानदारी और अपनी हैसियत के अनुसार जीवन जीना चाहिए।

परसाई जी ने अपनी व्यंग्य शैली में हास्य और कटु सत्य का मिश्रण किया है। वे एक ओर तो 'जूते खा गए' जैसे मुहावरे पर व्यंग्य करते हैं, वहीं दूसरी ओर कर्ज और दिखावे के कारण होने वाले दुखों को भी उजागर करते हैं।

5. निष्कर्ष

'दो नाक वाले लोग' सिर्फ एक व्यंग्य नहीं है, बल्कि समाज के एक कड़वे सच का आईना है। यह बताती है कि कैसे लोग अपनी झूठी इज्जत (नाक) बचाने के लिए अपनी वास्तविक नैतिकता और आर्थिक स्थिति को दांव पर लगा देते हैं। अंत में, बुजुर्ग को अपनी गलती का एहसास तब होता है, जब उनकी नाक सचमुच कट चुकी होती है। यह कहानी हमें दिखावे से दूर रहने और यथार्थवादी जीवन जीने की प्रेरणा देती है।

दो नाक वाले लोग हरिशंकर परसाई

 

  1. बुजुर्ग ने लड़की की शादी में क्या करने से मना किया? उत्तर: टीमटाम

  2. रिश्तेदारों में क्या कटने का डर था? उत्तर: नाक

  3. किस तरह की नाक बहुत नाजुक होती है? उत्तर: छोटे आदमी की

  4. कुछ बड़े आदमियों की नाक किस चीज की होती है? उत्तर: इस्पात की

  5. जो होशियार होते हैं, वे अपनी नाक कहाँ रखते हैं? उत्तर: तलवे में

  6. कुछ नाकें किस पौधे की तरह होती हैं? उत्तर: गुलाब

  7. 'जूते खा गए' मुहावरे पर लेखक क्या कहते हैं? उत्तर: भुखमरा

  8. बुजुर्ग की नाक कैसी हो गई थी? उत्तर: लंबी

  9. बिगड़ा रईस और बिगड़ा घोड़ा किस तरह के होते हैं? उत्तर: एक तरह के

  10. लेखक किससे दूर रहने की सलाह देते हैं? उत्तर: बिगड़े रईस

  11. बुजुर्ग अपनी बेटी का कैसा विवाह कर रहे थे? उत्तर: अंतरजातीय

  12. लड़की का लड़का किस जाति का था? उत्तर: कान्यकुब्ज

  13. लेखक ने किस तरह शादी करने की सलाह दी? उत्तर: आर्यसमाज

  14. लड़के को शादी में कितना पैसा नहीं चाहिए था? उत्तर: एक पैसा

  15. बुजुर्ग के करीबी रिश्तेदार कहाँ रहते थे? उत्तर: पटियाला

  16. लेखक को निमंत्रण पत्र पाकर कैसा लगता है? उत्तर: घबराता

  17. लेखक ने किस महीने की लग्नें हटाने को कहा? उत्तर: मई और जून

  18. किस विवाह में लड़का-लड़की भागकर शादी कर लेते हैं? उत्तर: गांधर्व

  19. लेखक के अनुसार, कौन संस्कृत नहीं समझता? उत्तर: पंडित

  20. साहूकार क्यों निराश लौट जाते थे? उत्तर: नाक नहीं थी


संदर्भ प्रसंग व्याख्या वाले नोट्स

अवतरण 1: '...रिश्तेदारों में नाक कट जाएगी। नाक उनकी काफी लंबी थी। मेरा ख्याल है, नाक की हिफाजत सबसे ज्यादा इसी देश में होती है।'

        संदर्भ -- प्रस्तुत गद्यांश हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित व्यंग्य निबंध दो नाक वाले लोग से ली गयी है।

  • प्रसंग: यह कहानी का शुरुआती हिस्सा है जहाँ एक बुजुर्ग अपनी बेटी की शादी सादगी से करने के बजाय दिखावे के साथ करना चाहते हैं।

  • व्याख्या: परसाई जी यहाँ 'नाक' शब्द का प्रयोग इज्जत, प्रतिष्ठा और सामाजिक सम्मान के प्रतीक के रूप में करते हैं। वे व्यंग्य करते हैं कि भारत में लोग अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए कितना चिंतित रहते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें कर्ज ही क्यों न लेना पड़े। वे शारीरिक नाक के बहाने सामाजिक प्रतिष्ठा की रक्षा के प्रति लोगों के obsessive व्यवहार पर कटाक्ष कर रहे हैं।

अवतरण 2: 'कुछ बड़े आदमी, जिनकी हैसियत है, इस्पात की नाक लगवा लेते हैं और चमड़े का रंग चढ़वा लेते हैं। कालाबाजार में जेल हो आए हैं...'

        संदर्भ -- प्रस्तुत गद्यांश हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित व्यंग्य निबंध दो नाक वाले लोग से ली गयी है।

  • प्रसंग: लेखक समाज के उन प्रभावशाली लोगों पर व्यंग्य कर रहे हैं जो नैतिक रूप से भ्रष्ट हैं, लेकिन फिर भी समाज में उनका सम्मान बना रहता है।

  • व्याख्या: यहाँ 'इस्पात की नाक' उन लोगों की प्रतिष्ठा का प्रतीक है जो गलत काम करने के बावजूद अप्रभावित रहती है। लेखक कहते हैं कि ये लोग इतने शक्तिशाली होते हैं कि उन्हें किसी भी बात का फर्क नहीं पड़ता। उनकी नाक स्टील की होती है, जिसे कोई काट नहीं सकता। यह टिप्पणी बताती है कि समाज में नैतिकता और सम्मान अक्सर आर्थिक और राजनीतिक हैसियत से तय होता है, न कि कर्मों से।

अवतरण 3: 'जूते खा गए' अजब मुहावरा है। जूते तो मारे जाते हैं। वे खाए कैसे जाते हैं? मगर भारतवासी इतना भुखमरा है कि जूते भी खा जाता है।

        संदर्भ -- प्रस्तुत गद्यांश हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित दो नाक वाले लोग व्यंग्य निबंध से ली गयी है।

  • प्रसंग: लेखक 'नाक' से जुड़ी एक घटना का जिक्र करते हुए 'जूते खा गए' मुहावरे पर अपनी सोच प्रकट करते हैं।

  • व्याख्या: यह एक गहरा व्यंग्य है। लेखक इस मुहावरे के शाब्दिक अर्थ को लेते हुए भारतीयों की गरीबी और अपमान सहने की आदत पर कटाक्ष करते हैं। वे कहते हैं कि लोग शारीरिक रूप से इतने भूखे हैं कि वे अपमान (जूते) को भी सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं, मानो वह कोई भोजन हो। यह दर्शाता है कि कैसे सामाजिक और आर्थिक मजबूरियाँ व्यक्ति के आत्मसम्मान को नष्ट कर देती हैं।

अवतरण 4: 'मैंने कहा-लड़का उत्तर प्रदेश का कान्यकुब्ज और आप पंजाब के खत्री-एक दूसरे के रिश्तेदारों को कोई नहीं जानता... लड़के के पिता की मृत्यु हो चुकी है... आप एक सलाह मेरी मानिए... हम आपको शादी में नहीं बुला सके।'

        संदर्भ -- प्रस्तुत गद्यांश हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित दो नाक वाले लोग व्यंग्य निबंध से ली गयी है।

  • प्रसंग: लेखक बुजुर्ग को दिखावे से बचने के लिए एक काल्पनिक कहानी गढ़ने की सलाह देते हैं, जिसमें लड़के के पिता की मृत्यु को एक बहाने के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

  • व्याख्या: यह हिस्सा लेखक की धोखेबाजी और हास्य का अद्भुत मिश्रण है। लेखक यहाँ यह दिखाना चाहते हैं कि दिखावे से बचने के लिए लोग किस हद तक जा सकते हैं। वे बुजुर्ग को एक झूठ बोलने की सलाह देते हैं ताकि वे रिश्तेदारों के सामने अपनी प्रतिष्ठा बचा सकें और शादी का खर्च भी कम हो जाए। यह अंततः कहानी के केंद्रीय विषय - 'सामाजिक दबाव' और 'दिखावा' - को पुष्ट करता है और बताता है कि लोग अपनी नाक बचाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं।

B.com SEP Kedarnath Badrinath ki Yatra Long Question Answer

अनीता गांगुली द्वारा लिखित 'केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा' पाठ का विस्तृत सारांश

प्रस्तावना:

अनीता गांगुली द्वारा लिखित यात्रा-वृत्तांत 'केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा' एक विस्तृत और भावपूर्ण संस्मरण है, जिसमें लेखिका ने अपनी सात दिवसीय हिमालयी तीर्थयात्रा का वर्णन किया है। यह पाठ न केवल धार्मिक महत्त्व को उजागर करता है, बल्कि हिमालय की प्राकृतिक सुंदरता और यात्रा की चुनौतियों को भी दर्शाता है। यह सारांश पाठ के प्रमुख बिंदुओं और अनुभवों को विस्तृत रूप से प्रस्तुत करता है।


1. यात्रा की शुरुआत और प्रारंभिक पड़ाव:

यात्रा की शुरुआत देहरादून से होती है, जहाँ से लेखिका 14 मई 1993 को अपनी यात्रा पर निकलती हैं। शुरुआती दिनों में वे बस से यात्रा करती हैं और उनका पहला रात्रि-विश्राम कोटद्वार में होता है। इस दौरान, वे पहाड़ी रास्तों, नदियों और मनमोहक दृश्यों का आनंद लेती हैं। यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव रुद्रप्रयाग है, जहाँ लेखिका अलकनंदा और मंदाकिनी नदियों के संगम को देखती हैं। वे इस संगम को एक पवित्र और अविस्मरणीय दृश्य मानती हैं।


2. केदारनाथ की चुनौतीपूर्ण यात्रा:

केदारनाथ की यात्रा इस संस्मरण का सबसे चुनौतीपूर्ण हिस्सा है। लेखिका ने पैदल 14 किलोमीटर की चढ़ाई का वर्णन किया है। इस यात्रा के प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:

चुनौतीपूर्ण मार्ग: मार्ग में बर्फ की मोटी परतें जमी हुई हैं, जिसे पार करना बहुत कठिन है। लेखिका इस ठंड का अनुभव करते हुए लिखती हैं कि उनके हाथ-पैर काँप रहे थे।

उच्चावचन: केदारनाथ का मंदिर समुद्र तल से 11,075 फुट की ऊँचाई पर स्थित है, जो इस यात्रा को और भी कठिन बनाता है।

आध्यात्मिक अनुभव: इन सभी कठिनाइयों के बावजूद, मंदिर पहुँचने पर उन्हें एक गहरी आध्यात्मिक शांति और दिव्यता का अनुभव होता है। वे केदारनाथ मंदिर के शांत और शक्तिशाली वातावरण से मंत्रमुग्ध हो जाती हैं।


3. बद्रीनाथ का आध्यात्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य:

केदारनाथ के बाद, यात्रा बद्रीनाथ की ओर बढ़ती है, जहाँ का वातावरण थोड़ा अलग है। यहाँ लेखिका प्राकृतिक और आध्यात्मिक सुंदरता का अद्भुत मिश्रण पाती हैं:

प्रमुख दर्शनीय स्थल: लेखिका बद्रीनाथ मंदिर, तप्त कुंड, और बद्री ताल (बद्रीबाद की झील) का वर्णन करती हैं। वे बद्री की प्रतिमा को काले पत्थर से बनी बताती हैं, जो धार्मिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।

मनमोहक दृश्य: बद्री ताल को वे "बहुत ही सुंदर" बताती हैं, जो वहाँ के स्वच्छ और शांत वातावरण को दर्शाता है।


4. यात्रा का समापन:

यह यात्रा-वृत्तांत ऋषिकेश में समाप्त होता है, जहाँ लेखिका कनखल में गंगा स्नान करती हैं और स्वर्गाश्रम में रुकती हैं। यह पड़ाव उनकी यात्रा को एक पवित्र और शांत अंत देता है। यह गंगा नदी और आध्यात्म से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अनुभव था।


निष्कर्ष:

यह पाठ केवल एक यात्रा का वर्णन नहीं है, बल्कि यह एक गहरी आध्यात्मिक और व्यक्तिगत खोज का भी प्रतीक है। अनीता गांगुली ने अपनी यात्रा के अनुभवों को इस तरह से प्रस्तुत किया है कि पाठक भी हिमालय की विशालता, नदियों की पवित्रता और तीर्थस्थलों के आध्यात्मिक महत्त्व को महसूस कर सकें।

B.com SEP Kedarnath Badrinath ki Yatra notes

 एक शब्द वाले लघु प्रश्नोत्तर :


1. लेखिका का नाम क्या है?

उत्तर: अनीता गांगुली



2. यात्रा कहाँ से शुरू हुई?

उत्तर: देहरादून



3. केदारनाथ की यात्रा किस नदी के किनारे थी?

उत्तर: मन्दाकिनी



4. गौरीकुंड से केदारनाथ कितने किलोमीटर था?

उत्तर: 14 कि.मी.



5. लेखिका ने कितने दिनों की यात्रा का वर्णन किया है?

उत्तर: सात दिन



6. अलकनंदा और मन्दाकिनी का संगम कहाँ होता है?

उत्तर: रुद्रप्रयाग



7. यात्रा की पहली रात लेखिका कहाँ रुकी?

उत्तर: कोटद्वार


8.लेखिका ने बद्रिबाद की झील का वर्णन कैसे किया है?

उत्तर: सुंदर झील


9.बद्रीनाथ में कौन सी नदी बहती है?

उत्तर: अलकनंदा


10. बद्री की मूरत किस पत्थर से बनी है?

उत्तर: काली पत्थर


11.बद्रीनाथ मंदिर किस स्थान पर है?

उत्तर: तप्त कुंड


12.लेखिका ने कहाँ रुककर गंगा स्नान किया?

उत्तर: कनखल


13.ऋषिकेश में लेखिका कहाँ रुकी?

उत्तर: स्वर्गाश्रम


14.यात्रा का आखिरी स्थान क्या था?

उत्तर: ऋषिकेश




सन्दर्भ-प्रसंग-व्याख्या



“समुद्र तल से 11,075 फुट की ऊँचाई पर स्थित है केदारनाथ। बर्फ, बर्फ, बर्फ, रास्ते में जमी हुई बर्फ...”


सन्दर्भ:

ये पंक्तियाँ अनीता गांगुली द्वारा लिखित यात्रा-वृत्तांत "केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा" से ली गई हैं।


प्रसंग:

इस अंश में लेखिका केदारनाथ पहुँचने के बाद वहाँ के दृश्यों और अनुभवों का वर्णन कर रही हैं, जो बहुत ऊँचाई पर स्थित है।


व्याख्या:

लेखिका बताती हैं कि केदारनाथ समुद्र तल से 11,075 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। वहाँ के रास्ते बर्फ से ढके हुए हैं, जिसे वे “बर्फ, बर्फ, बर्फ” दोहराकर उसकी महत्त्वपूर्णता और विशालता को दर्शाती हैं। वहाँ की सर्दी और बर्फीली हवाओं के बारे में बताते हुए लेखिका कहती हैं कि उनके हाथ-पैर तक काँप रहे थे। इसके बावजूद, वे वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता—जैसे पहाड़ों, मंदिर और आकाश की शोभा—का आनंद लेती हैं। यह अंश यात्रा के दौरान आने वाली कठिनाइयों और उनके आध्यात्मिक तथा प्राकृतिक अनुभवों का एक सुंदर चित्रण है।




अवतरण 2: “हमने बद्रीबाद की झील देखी, जिसे बद्री ताल भी कहा जाता है, बहुत ही सुंदर थी।”


संदर्भ: यह पंक्तियाँ अनीता गाँगुली द्वारा लिखित यात्रा-वृत्तांत "केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा" से ली गई हैं।


प्रसंग: इस अंश में, लेखिका बद्री ताल की सुंदरता का वर्णन कर रही हैं।

व्याख्या: लेखिका ने बद्रीबाद की झील को बहुत ही सुंदर बताया है। इस झील को बद्री ताल भी कहते हैं। इस वर्णन से पता चलता है कि बद्रीनाथ के आस-पास के प्राकृतिक दृश्य बहुत ही मनमोहक हैं।


अवतरण 3: "अलकनंदा और मंदाकिनी का संगम होता है रुद्रप्रयाग, जहाँ दोनों नदियां मिलकर एक धारा में बहने लगती हैं।"


संदर्भ: यह पंक्तियाँ लेखिका अनीता गांगुली द्वारा लिखित यात्रा-वृत्तांत "केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा" से ली गई हैं।


प्रसंग: इस अंश में, लेखिका दो प्रमुख नदियों, अलकनंदा और मंदाकिनी, के मिलन स्थल रुद्रप्रयाग का वर्णन कर रही हैं।


व्याख्या: लेखिका बताती हैं कि रुद्रप्रयाग एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है जहाँ अलकनंदा और मंदाकिनी नदियाँ मिलती हैं। यह संगम इन दोनों नदियों की यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है, जहाँ वे एक होकर आगे बढ़ती हैं। यह स्थान प्राकृतिक सुंदरता के साथ-साथ धार्मिक महत्व भी रखता है।


अवतरण 4: "केदारनाथ समुद्र तल से 11,075 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। बर्फ़, बर्फ़, बर्फ़, रास्ते में जमी हुई बर्फ़..."


संदर्भ: यह पंक्तियाँ भी "केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा" नामक पाठ से ली गई हैं।


प्रसंग: इस अंश में, लेखिका केदारनाथ पहुँचने के बाद वहाँ के मौसम और वातावरण का वर्णन कर रही हैं।

व्याख्या: लेखिका बताती हैं कि केदारनाथ बहुत ऊँचाई पर स्थित है, जिसकी वजह से वहाँ का मौसम बेहद ठंडा है। "बर्फ, बर्फ, बर्फ" का दोहराव वहाँ की अत्यधिक ठंड और रास्तों पर जमी हुई बर्फ को दर्शाता है। यह वर्णन दिखाता है कि वहाँ की यात्रा कितनी चुनौतीपूर्ण हो सकती है, लेकिन इसके बावजूद वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता मन को मोह लेती है।



पाठ पर आधारित संक्षिप्त सारांश

यह पाठ लेखिका अनीता गांगुली की केदारनाथ और बद्रीनाथ की सात दिवसीय यात्रा का विस्तृत वर्णन है। यह यात्रा देहरादून से शुरू होती है। लेखिका ने अपनी इस यात्रा में आने वाली चुनौतियों, अनुभवों और प्राकृतिक सौंदर्य का बहुत ही सुंदर चित्रण किया है।

यात्रा की शुरुआत देहरादून से होती है, जहाँ से वे कोटद्वार पहुँचते हैं। इस यात्रा में उन्हें विभिन्न नदियाँ, जैसे मंदाकिनी और अलकनंदा, और उनके संगम स्थलों को देखने का अवसर मिलता है। लेखिका ने रुद्रप्रयाग के संगम का विशेष रूप से उल्लेख किया है।

केदारनाथ की यात्रा पैदल चढ़ाई वाली है, जहाँ रास्ते में बहुत बर्फ जमी होती है। लेखिका ने इस यात्रा की कठिनाइयों और वहां के ठंडे मौसम का वर्णन किया है, जिससे उनके हाथ-पैर तक काँप रहे थे। उन्होंने गौरी कुंड से केदारनाथ तक की 14 किलोमीटर की पैदल यात्रा का अनुभव भी साझा किया है।

बद्रीनाथ पहुँचने पर, लेखिका वहाँ के मंदिर, तप्त कुंड, और बद्री ताल जैसी सुंदर झीलों का वर्णन करती हैं। वे बद्री की मूरत के काले पत्थर से बनी होने का उल्लेख करती हैं। इसके अलावा, उन्होंने कनखल में गंगा स्नान और ऋषिकेश में स्वर्गाश्रम में रुकने का भी अनुभव साझा किया है।

यह यात्रा धार्मिक और आध्यात्मिक अनुभव के साथ-साथ प्राकृतिक सौंदर्य का भी एक सुंदर मिश्रण है, जिसमें लेखिका ने अपने अनुभवों को बहुत ही सहज और आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया है।







बुधवार, 17 सितंबर 2025

शीतल पाटी

मिनती एक सिलेठी गरीब ब्राह्मण परिवार की विधवा बहू थी। उसकी शादी के महज साल भर में ही पति की अचानक एक अप्रत्याशित घटना में मृत्यु हो गई। ससुराल वालों ने मिनती को इसका दोषी तो नहीं माना, लेकिन कुछ परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि उसे अपने साथ रखना भी उचित नहीं समझे। जवान लड़की, वह भी विधवा। उसे समझा-बुझाकर उसके पिता के घर वापस जाने के लिए राज़ी कर लिया। सास ने उसे समझा दिया कि जिस आधार पर वह इस घर में आई थी, वह तो अब रहा नहीं। अब यहां उसका क्या ही बचा है? बेचारी मन में दुखों का बोझ लेकर पिता के घर चली आई। जो कुछ साथ ले गई थी, वह भी उसकी सास ने उसके साथ वापस कर दी, उसकी शादी का जोड़ा और गहने भी।

पिता का घर इतना सचचल तो नहीं था, फिर भी उसके भरण-पोषण की समस्या नहीं थी। लेकिन माता-पिता और छोटे भाई पर बोझ बन बनकर रहना मिनती को स्वीकार न था। पिता के घर रहकर वह शीतल पाटी बुनने का निश्चय करती है। यही अब उसकी दिनचर्या और जीने का मुख्य आसरा था। ये शीतल पाटी सिलेठी परिवारों की शादी का अहम हिस्सा होती है। ससुराल में चतुर्थ-मंगल के अनुष्ठान के बाद घर में पति-पत्नी इसे साथ लेकर उल्टा-सुलटा लपेटते हुए प्रवेश करते हैं। मिनती पाटी बुने जा रही थी और रह-रह कर उसे भी अपना चतुर्थ मंगल अनुष्ठान याद हो आया।

कैसे उसका पति देवव्रत उसकी तरफ प्रेम से देख रहा था और शीतल पाटी को धीरे-धीरे लपेट रहा था। उसका विवाह गर्मियों के मौसम यानी बैसाख में हुआ था। रात में उन्होंने इसी शीतल पाटी में ही शयन किया था। मिनती अपने पति को इसी शीतल पाटी में गर्मियों के दिनों में बिठाकर चाय तथा मूड़ी के लड्डू दिया करती थी। कभी-कभी दोपहर को देवव्रत अपने यजमानों के घर से पूजा करके लौट आता था तो इसी शीतल पाटी में सोकर अपनी गर्मी और थकान दूर किया करता था।

लेकिन हाय री किस्मत! मिनती को भी क्या पता था कि ऐसी ही एक दोपहर उसके पति की जान चली जाएगी। हुआ कुछ यूं था कि देवव्रत अपने एक यजमान के घर से सावन सोमवार की पूजा सम्पन्न करा कर घर लौट आया। मिनती ने उसे घर आने के बाद पानी पीने को दिया तथा रसोई में चाय बनाने चली गयी। देवव्रत यजमान के घर में खाना खाकर ही आया था। घर लौटने में उसे लगभग घण्टे भर का समय लग गया था। इसलिए उसने सोचा कि चाय पीकर आराम कर लिया जाए। बाद में संध्या समय में आरती करके वह जल्दी खाना खा लेगा। बराक-घाटी में संध्या भी बहुत जल्दी हो जाया करती है। इसी बीच न जाने कहा से एक साँप कमरे के कोने में से चला आया और शीतल पाटी पर लेटकर आराम कर रहे देवव्रत को डंस देता है। देवव्रत ठीक से न तो मिनती को पुकार पाता है न ही अपने माता-पिता को पुकार पाता है। वह वही पर दम तोड़ देता है। मिनती जब रसोई से वापस आती है तो उसका संसार उजड़ चुका था। वह देवव्रत की लाश के पास पछाड़ खा-खाकर रोने लगती है। देवव्रत के माता-पिता का भी हाल बुरा था। माँ लगभग अपने बेटे का नाम लेकर बेहोश हो जाती थी। पड़ोस के लोगों की मदद से देवव्रत के पार्थिव शरीर को उसी शीतल पाटी समेत लपेट कर श्मशान ले जाया जाता है तथा उसका अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। उसके बाद किसी प्रकार खबर पाकर देवव्रत के कुछ दूर के रिश्तेदार आते हैं और श्राद्ध तथा अन्य क्रियाकर्म सम्पन्न हो पाती है। मिनती के पिता को भी जब इसकी खबर मिलती है तो उनपर जैसे आकाश टूट पड़ा था। जिस बेटी को बड़े जतन से सजा-धजा कर सुहागिन भेजा था उसे विधवा के कपड़ों में कैसे देखते? माँ का भी रो-रोकर बुरा हाल था। वे उसे अपने यहाँ बुला लाने के लिए पति को भेजती है। जब मिनती के पिता श्राद्ध वाले दिन पहुँचते हैं तो पिता-पुत्री एक-दूसरे को देखकर रोने लगते हैं। मिनती के पिता भी बेटी को सफेद धोती में देख लगभग अचेत से होने लगते हैं। वे उसी दिन उसे अपने साथ ले जाने की कहते हैं लेकिन ससुराल वाले तब उसे नहीं छोड़ पाते हैं क्योंकि देवव्रत की जगह अब वही उनकी संतान थी। पड़ोस में रहने वाले बाबू शंकर रायचौधरी जी पंचायत के दफ्तर में काम करते थे जिनकी मदद से मिनती को देवव्रत की मृत्यु प्रमाण पत्र मिल जाता है जो कि कई अन्य जरूरी कामों के लिए जरूरी था।

 

            अब उसके तथा सास-ससुर के लिए मुश्किलें शुरु होती है। जवान विधवा बहू घर से बाहर क्या ही उसे काम के लिए भेजते, उन्हें रह-रह कर कई चिन्ताएँ सताती रहती। साथ ही वे भी बूढ़े हो चले थे तो उन्हें भी कोई काम मिले यह तो सवाल ही नहीं उठता था। मिनती को देखकर उन्हें रात-दिन अपने बेटे की याद सताती रहती थी। सास दिन-रात रोती ही रहती। मिनती उन्हें जब खाना देने जाती तो कई बार उस पर वे झल्ला उठती थी। पर अगले ही क्षण अपनी भूल तथा बहू की बेबसी समझकर उसे पास बुला लेती। मिनती अपनी सास को अपने हाथों से कौर खिलाने जाती तो सास उसे गले से लगाकर रोती रहती। मिनती भी अपनी सास से लिपटकर रोती। कुछ दिनों तक तो यह सिलसिला चला। लेकिन घर तो चलाना था ही। अतः मिनती के ससुर जी ने ही यजमानी का काम शुरु कर दिया। एक समय ससुर देवज्योति भट्टाचार्या जी अपने गाँव में अच्छे यजमानी ब्राह्मण हुआ करते थे। देवव्रत को भी उन्होंने ही हर प्रकार की पूजा तथा अनुष्ठानों की शिक्षा दी थी।

मिनती के ससुर जी बहुत बूढ़े हो चले थे। एक मात्र कुलदिपक के चले जाने से जैसे कुछ और ही अधिक दुखी भी रहने लगे थे। अपने गठिया रोग के चलते वे अक्सर लंगड़ा कर चला करते थे। चेहरे पर झुर्रीयों से अधिक दुख और निराशा की झलक आ गयी थी। थोड़ा बहुत भूलने की बिमारी ने भी घेर लिया था। लेकिन जीवन की इस डूबती नांव को किसी प्रकार वे बचाने में जुट गए। गाँव में ज्यादातर लोग इतने सम्पन्न तो न थे मगर छोटी-मोटी पूजा, अनुष्ठान इत्यादि में अब उन्हें ही बुला लिया करते थे। बदले में थोड़ी सी धन राशी के साथ ब्रह्म भुज्जी(चावल, दाल, आलू, तेल, नमक, चीनी इत्यादि जो कि एक डाली में सजाकर अपनी क्षमता अनुसार ब्राह्मण पुजारी को दिए जाने वाला दान) उन्हें मिल जाया करती थी। वे यही सब घर ले आया करते थे। इसी से अब उन तीनों का गुज़ारा चल जाता था। वही मिनती की सास ने मिनती से कह दिया था कि वह सफेद साड़ी पहनना छोड़ दे और मामूली रंग की साड़ियाँ पहना करे। सफेद साड़ी में उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का दुख बार-बार सताता है। वे इस दुख को भुलाने की कोशिश में लगी थी।

 

एक दिन ऐसी घटना घटी की उन्हें न चाहते हुए भी मिनती को अपने घर से दूर उसके पिता के पास ही भेज देना पड़ा। हुआ ये कि मिनती गाँव के पास बह रही भांगा नदी में कुछ कपड़े धोने जाया करती थी। गाँव में जो पानी की सप्लाई थी वह केवल घण्टे भर के लिए आती थी। जिससे सिर्फ गांव वाले पीने का पानी ही ले जा सकते थे। मिनती जब कपड़े धो रही थी तो वहाँ रफीक नाम का मछुवारा उसके पास आकर के उसे छेड़ने लग जाता है। वह उसे अपने साथ चलने के लिए कहता है। रफीक उसे छेड़ते हुए कहता है कि वह उसे कई दिनों से घाट पर कपड़े धोते हुए और कभी-कभी नहाते हुए भी देखा करता था। मिनती अपना मान बचाने के लिए वही पर सारा सामान छोड़ घर की तरफ दौड़ पड़ती है। रफीक भी उसके पीछे-पीछे दौड़ता है लेकिन यह वाक्या गाँव वालों की आँखों में पड़ जाता है। मिनती का वह पीछा करना छोड़ तो देता है लेकिन वह धमकियाँ और गालियाँ देकर वहाँ से चला जाता है। इधर मिनती जब घर पहुँचती है तो पड़ोसी शंकर बाबू उसके सास-ससुर को इसकी खबर देते हैं। वे दोनों ही इस घटना से बहुत आहत हो जाते हैं। उसी दिन वे निर्णय ले लेते हैं। वृद्ध दम्पति मिनती को रात में खाने के समय बात करने के लिए बुलाते हैं। इधर मिनती इस घटना से काफी भयभीत हो गयी थी। वह लगातार डर के मारे कांपे जा रही थी। वह बार-बार इस घटना के बारे में सोच-सोच कर रोए जा रही थी। शंकर बाबू की पत्नी भी उस समय वहाँ उसके साथ थी। रसोई में रोते-रोते काम करता देख शंकर बाबू की पत्नी का भी जी दुख से भरने लगा था। उधर शंकर बाबू भी मिनती के सास-ससुर को दिलासा देने में लगे थे। जब मिनती को वे अपना निर्णय सुनाने के लिए बुलाते हैं तो वह उनके सामने बड़ी मुश्किल से जाती है। साथ में शंकर बाबू की पत्नी भी आती है। मिनती अपराधी की मुद्रा में जाकर अपनी सास के पैरों से लिपट जाती है और रोते हुए माफी मांगने लगती है। तब उसकी सास उसे उठाते हुए अपने पास बिठाती है। उसकी सास उससे कहती है—‘देखो माँ। हम जानते हैं कि तुमने कोई अपराध नहीं किया है। लेकिन अब हमने सोच लिया है कि तुम्हें अब अपने साथ नहीं रख पाएंगे।’ मिनती – ‘माँ अगर मैंने अपराध नहीं किया है तो फिर क्यों तुम मुझे अपने से अलग कर रही हो। आपसे अलग होकर मैं कैसे रहूँगी? एक आप ही तो हो जो उनसे जुड़े हुए थे। उनकी यादें और आप ही लोगों का सहारा है तभी तो मैं जी रही हूँ।’

 

सास—‘माँ रे, जिसके सहारे तुम इस घर में आयी थी, वह तो अब रहा नहीं और आज जो घटना हुई है उससे हम दोनों का मन बहुत विचलित हो गया है। पहले तुम हमारे देबु की अमानत थी, लेकिन उसके जाने के बाद अब तुम हमारी अमानत भी हो और सम्मान भी। तुम्हें कुछ हो गया तो तुम्हारे पिता को हम क्या मुँह दिखाएंगे? तुम्हारे पिता तो देबु के श्राद्ध के दिन ही तुम्हें लेकर चले जाना चाहते थे, लेकिन तुमसे हम इतना घुल-मिल गये थे कि हम तुम्हें भेज ही नहीं पाए, लेकिन लगता है कि वह हमारी भूल थी। अगर तुम्हें हम तभी भेज देते तो हमें भी ये दिन नहीं देखना पड़ता।’

 

मिनती – ‘माँ एक तरफ तुम कहती हो कि मेरा कोई अपराध नहीं है। वही दूसरी तरफ तुम ही कह रही हो कि मेरे यहाँ रहने के कारण ही ये घटना हुई है।’ मिनती के ससुर सास-बहू की बात देर से सुन रहे थे। तब उनसे न रहा गया और वे कहने लगे –‘ देख माँ इसमें तुम्हारा कोई अपराध नहीं है। परन्तु बात को समझो। तुम एक जवान लड़की हो। अभी-अभी विधवा हुई हो। आगे तुम्हारा लम्बा जीवन पड़ा है। अगर तुम अपने पिता के साथ उसी समय चली गयी होती तो फिर तुम अपने पिता के घर सुरक्षित रहती। हम तो आज है कल नहीं। हमारे पीछे तुम्हारा क्या होगा यही सोच कर ही हमने निर्णय लिया है कि तुम्हें तुम्हारे पिता के घर भेज दिया जाय। अगर तुम्हें कुछ हो गया तो हम तुम्हारे पिता को क्या मुँह दिखाएंगे। तुम हमारे बेटे की पत्नी हो और उसकी अमानत हो। तुम्हारे साथ कुछ गलत होगा तो हम अपने बेटे को ऊपर जाकर क्या कहेंगे।’

मिनती अपने ससुर की बात सुनकर चुप रह जाती है। वह कोई जवाब नहीं देती। परन्तु कुछ देर चुप रहकर बहुत विनत स्वर में कहती है –‘बाबा मैं अगर चली गयी तो आपकी सेवा कौन करेगा? आप घर से जब यजमानी के लिए जाएंगे तब पीछे माँ को कौन देखेगा? यदि मुझे इस गाँव से जाना ही है तो फिर मैं आप लोगों को अकेला नहीं छोड़ सकती। आप लोग भी मेरे साथ चलेंगे। नहीं तो मैं यही पर रहूंगी। जो होगा ईश्वर की मर्जी समझ कर रह लूंगी या फिर इस मुसीबत का सामना करूंगी।’ मिनती के कहने पर वे लोग थोड़ा चिन्तित होते हैं और फिर वे अपनी बहू के मायके में जाकर रहने की बात को मना कर देते हैं। मिनती के ससुर पुनः उसे समझाते हुए कहते हैं कि ‘देखो माँ हमसे ज्यादा तूम्हारे जीवन पर संकट है। हम दो बूढ़ा-बूढ़ी इस उमर में इस गाँव को छोड़ कर कही और बसने की सोच नहीं सकते। हमारे लिए ये संभव नहीं है। फिर बेटे की यादें भी जुड़ी है। अपने घर को छोड़ पराए घर में रहना वही मरना हमसे नहीं होगा। हम तो अब अंतिम समय तक यही रहेंगे। बहुत चिन्ता होती है तुम्हें तो शंकर बाबू तो है ही। तुम हमारे पीछे अपना जीवन क्यों नष्ट करती हो? तुम नए सिरे से अपना जीवन शुरु करो।’

मिनती अपने ससुर की बात सुनकर आश्चर्यचकित रह जाती है। वही शंकर बाबू तथा उनकी पत्नी भी। परन्तु वे भी समझ चुके थे कि इसी में मिनती की भलाई है। मिनती अंत में कुछ और नहीं कह पाती है तथा अपने पिता के घर वापस जाने के लिए तैयार हो जाती है। अगले ही दिन उसकी सास मिनती को उसके विवाह के समय मिले कपड़े तथा थोड़े से गहने एक बक्से में बांध कर देती है। मिनती अपनी सास से मिलती है तथा नम आँखों से उनके चरण स्पर्श करती है। भारी मन से अपने ससुर को भी प्रणाम करती है। शंकर बाबू ने इस बीच एक ऑटो रिक्शा वाले को बुला लिया था। शंकर बाबू के साथ वह रिक्शा में बैठ रवाना हो जाती है।

 

वे दोनों बदरपुर घाट पहुँचते हैं जहाँ से कुछ दूर उसके पिता का गाँव कालाडूमरा था। वे लोग घाट के किनारे से पैदल ही चलकर गाँव जाते हैं। रास्ते में मिनती शंकर बाबू से कहती है, ‘काकू, आप लोगों ने तो मुझे क्षण भर में पराया कर दिया, पर मैं आप लोगों को नहीं भूलूँगी। पिताजी और माँ का खयाल रखिएगा। वे लोग तो अब पूरी तरह से अकेले हो चुके हैं।’

 

शंकर बाबू – ‘माँ रे, तू चिन्ता मत कर। तू अपना जीवन देख संवार। जो कुछ भी हुआ वह तो विधाता का लिखा है। इसमें हम सब क्या कर सकते हैं। कहते हैं न जन्म, मृत्यु तथा विवाह तीन विधाता का करा होता है। मैं जानता हूँ तू दुखी है लेकिन अब ये ही नियती है।’

मिनती शंकर बाबू की बात सुनकर चुपचाप सोचने लगती है। इस बीच वे लोग घर पहुँच जाते हैं। मिनती को घर पहुँचाने पर शंकर बाबू को यथोचित आथित्य करके मिनती के पिता वापस भेज देते हैं। इसके बाद वे मिनती के साथ पूरा समय बिताते हैं। उसे दुखी होने का कोई अवसर नहीं देना चाहते थे। उसकी माँ भी उसे उसकी पसन्द का खाना बनाकर खिलाती है। उसका छोटा भाई तथा बहू भी मिनती को हमेशा किसी-न-किसी तरह कोई काम-काज या फिर बातों में उलझाये रखते ताकि उसे अपने ससुराल तथा देवव्रत की बातें याद न आने पाए। लेकिन मिनती को वे खोया-खोया देख वे भी दुखी हो जाया करते थे। उसे इस तरह देखकर पड़ोस की ही एक दादी ने सोचा कि मिनती के किसी काम में व्यस्त रखा जाए तो शायद उसे इतना सोचने का अवसर न मिले।ये दादी मिनती को बचपन से ही बहुत प्यार करती थी तथा अपनी पोती के समान ही मानती थी। वह आकर एक दिन मिनती से मिलती है तथा अपने साथ पाटी बुनने का प्रस्ताव रखती है। दादी उसे बताती है कि उसकी बनाई पाटी गाँव के साथ-साथ शहर वाले भी खरीद लेते हैं जिससे उनका गुज़ारा हो जाता है। मिनती को वह समझाती है कि उसे इस प्रकार दुखी होकर रहने के बजाए कोई काम में व्यस्त रहना चाहिए ताकि वह अपना सहारा खुद बन सके। मिनती दादी की बात सुनकर पहले तो मना करती है। परन्तु माता-पिता के बहुत समझाने पर वह उनके घर जाकर शीतल पाटी बुनने के लिए राज़ी हो जाती है। वह वहाँ दिन भर पाटी बुन लेती तथा कुछेक पाटी उसकी बिक भी गयी थी जिससे दादी खुश होकर उसे उसकी कमाई का हिस्सा दे देती थी। लेकिन मिनती पाटी बुनते समय अक्सर देवव्रत के साथ हुए हादसे को याद कर रोने लग जाती थी जिससे अब दादी भी परेशान हो चुकी थी। परन्तु वे धैर्य से काम ले रही थी। जानती थी कि मिनती के लिए ये सब इतना आसान नहीं है।

कुछ दिनों बाद उनके घर दूर की एक मासी आती है। ये मिनती की माँ की ममेरी बहन लगती थी। मगर बचपन में ये एक ही मोहल्ले में रहती थी सो दोनों में बहुत ही अच्छी दोस्ती थी। मासी जब मिनती को देखती है तो वे बहुत दुखी हो जाती है। विशेषकर मिनती का दिन भर उदासी और चुप्पी साधे घर के काम-काज करते रहना या फिर पाटी बुनना और शाम को खाना खाकर जब वह सोने जाती को मासी को उसकी सिसकियाँ सुनाई देती। ऐसे ही एक दिन जब मासी और मिनती की माँ घर के पीछे के बरामदे में बैठ कर कुछ कामों में लगी हुई थी। मासी सुपारी काट रही थी तो मिनती की माँ काथा सिलाई में लगी हुई थी तब मासी बात छेड़ती है –‘क्यों रे मनोरमा, तेरी बेटी क्या सारा जीवन ऐसे ही बिता देगी। उसके भविष्य का भी कुछ सोचा है। देख जवान लड़की है। रात-दिन इस तरह रो-रोकर गुजार रही है। अच्छा नहीं लगता। सुन अगर तुझे बुरा न लगे तो मैं एक दो जगह बात चलाऊ?’

 

मनोरमा को जैसे थोड़ा झटका सा लगा। वह बोली— नमिता दी, तुम तो जानती हो कि वह विधवा है। साल भर अपने पति के साथ तो रही है। ऐसे में उसका विवाह हो जाएगा क्या? फिर लड़की की मर्जी भी तो जाननी है। मैं भी जानती हूँ कि इस तरह उसका भविष्य तो नष्ट ही हो जाएगा।

 

नमिता—सुन, मैं एक लड़के को जानती हूँ। बड़ा ही अच्छा लड़का है। उसकी उम्र थोड़ी सी ज्यादा है, लेकिन अपनी मिनती उसके साथ सुखी रहेगी। मेरे ही घर के बगल में रहता है। उनकी माँ को गुज़रे बहुत समय हो गया है। पिता है। दोनों अच्छे ब्राह्मण हैं। कमाई हो जाती है। वह पुर्णिमा ताई याद है तुझे? उन्हीं के किसी दूर के रिश्तेदार लगते हैं। सुन, बात चला लेने में बुराई नहीं है।

 

मनोरमा—अच्छा लड़का है तो उसकी इतने दिनों से शादी क्यों नहीं हुई, दीदी?

 

नमिता—अरे गरीबी के चलते कहाँ हमारे यहाँ लड़के-लड़कियों की शादी समय पर हो पाती है। लड़के की माँ को सास का रोग हो गया था। उसी के इलाज में काफी पैसा खर्चा हो गया। फिर घर की हालत भी ठीक नहीं थी। वह तो भला हो हमारे निताई राय का। उन्हीं के घर में अब पुजारी लगा है। पिछली बैसाख को उन्होंने एक बड़ा सा दुर्गा मंदिर बनवाया था। उनकी कुल देवी है न। सो उन्हें कोई ब्राह्मण तो चाहिए था ही पूजा-पाठ के लिए तो इन्हें रख लिया। अब खाने-पीने की कोई कमी नहीं है। बस एक घरवाली की कमी है। वह पूरी हो जाए तो बस।

 

मनोरमा—क्या उन्होंने तुमसे कुछ कहा है क्या?

 

नमिता: अरे नहीं रे। वह तो लड़के का बाप मुझसे कह रहा था कि अब लड़की एक देख ली जाए। जब से उनकी पत्नी गुज़री है, दोनों बाप-बेटे बहुत मुश्किल में हैं। खाने की कमी नहीं है, लेकिन पुरुष मानुष के लिए तीनों समय खाना पकाकर खाना कोई आसान काम है क्या?

 

मनोरमा – सुनो। मैं तो बात नहीं करूंगी। उसे देख कर ही मेरा जी घबराने लगता है। बात करते डर लगता है। तुम ही बात करो। उसके पिता को भी तुम ही मनाना। जानते तो हो कि लाडली बेटी है।

 

नमिता—तू अगर चाहे तो मैं जमाई बाबू से बात कर लूंगी। पीछे हटना नहीं। मुझसे तो मिनती की ये हालत देखी नहीं जा सकती। बेचारी।

दो-तीन दिन में नमिता लड़के के बारे में सारी बातें अच्छी तरह से पता लगा लेती है। वह मिनती के पिता से इस बारे में बात करती है। इधर लड़के वालों को भी वही मिनती के बारे में बताती है। लड़के के पिता पहले तो मिनती के विधवा होने की बात से रिश्ते को मानने से इनकार कर देते हैं, लेकिन जब नमिता उन्हें मिनती के गुणों के बारे में बताती है तथा उन्हें समझाती है कि बड़ा उम्र का लड़का है, उसे अब दूसरी कोई कन्या नहीं मिलेगी, तो वे भी मान जाते हैं। दोनों पक्षों में बातों का सिलसिला शुरू होता है। इधर मिनती को इसकी खबर तक न थी। वह तो अपने दिवंगत पति की यादों को समेटे शीतल पाटी बुनने में लगी हुई थी।

एक दिन उसकी माँ ने समय देखकर दोपहर के खाना खाने के बाद सोते समय उससे पूछा तो मिनती ने पुनःविवाह से साफ-साफ मना कर दिया। मिनती की माँ को जिस बात का भय था इतने दिनों से वह होता देख उन्हें आशंका होने लगी कि कही लड़की के मना कर देने पर बात बिगड़ गयी तो जग हसाई हो जाएगी। वह मिनती को बहुत स्नेह के साथ समझाते हुए कहती है कि उसका पूरा जीवन इस प्रकार बर्बाद हो जाए तो सही न होगा। मिनती अपनी माँ की बात सुनकर पूछती है कि –‘माँ क्या ज़रूरी है कि एक स्त्री को किसी पुरुष का ही सहारा लेकर पूरा जीवन गुज़ारना होगा?’ तब मिनती की माँ उसे समझाती है कि ज़रूरी नहीं कि किसी पुरुष का सहारा लेकर वह जीवन बिताए। लेकिन किसी का सहारा बनना भी ज़रूरी होता है। उसके माँ के समझाने पर मिनती दुबारा कहती है कि ‘जब मैंने मेरे ससुर जी से भी यही कहा था कि वह उनका सहारा बनेगी तो उन्होंने तो मुझे ये कहा कि मैं अपना जीवन उनके पीछे क्यों बर्बाद करू। बल्कि वे अकेले किसी तरह अपना जीवन जी लेंगे। मुझे तो उन्होंने इसके लायक भी नहीं समझा।’ इतना कहकर मिनती रोने लगती है। तब माँ कहती है –‘देख तेरे ससुर जी अकेले नहीं है। उनकी पत्नी साथ है। यानी उनकी जीवन-साथी साथ में है। लेकिन तू सोच तेरे जीवन में कोई साथी है। जिसे तूने साथ फेरे लेकर वरा वह तो चला गया अकेला छोड़ कर। तेरा अब इस संसार में है ही कौन? देख मेरी बच्ची। इस प्रकार की जिद छोड़ दे। इतना लम्बा जीवन जीवन-साथी के बिना बहुत मुश्किल होगा। देख हमने जो लड़का देखा है वह भला-चंगा है। अकेला है। उसकी माँ नहीं है केवल पिता है। तेरे बारे में सब जानते हुए भी उन लोगों ने रिश्ते के लिए हामी भरी है। हमने बात भी कर ली है। कुछ दिनों में तुझे देखने आएंगे। तू मना मत कर। मेरी बात मान जा। तेरे पिता का मान रख ले बेटी। इस प्रकार अपना जीवन यू ही बर्बाद मत कर। शास्त्रों में भी विधवा विवाह का विधान है। तुझे याद है न तुलसी माता की कहानी। मान जा मेरी लाडली।’

 

मिनती अपने माँ के समझाने पर तैयार हो जाती है। तय दिन पर लड़का और लड़के का पिता उसे देखने आते हैं। फिर दोनों पक्षों में बात होती है तथा विवाह की तारीख पक्की कर दी जाती है। मिनती का पहला विवाह बैसाख माह में हुआ था लेकिन दूसरे विवाह के लिए जब दुबारा कुण्डली देखी जाती है तो सावन महीने की तिथि तय होती है। इस बीच मिनती के मन में कुछ उधेरबुन सी होने लगती है। वह देवव्रत के माता-पिता को किसी प्रकार भूल नहीं पाती है। वह अपने पिता से उनकी खबर लेने तथा उसके पुनः विवाह की बात भी बताने की सोचती है। उसके पिता बेटी की बात सुनकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं। लेकिन मिनती उन्हें अपना वास्ता देकर उन्हें अपने पहले ससुराल के गाँव खिरतुआ भेज देती है। मिनती के पिता जब गाँव जाते हैं और उसके ससुराल वालों से मिलते है। देवव्रत के माता-पिता मिनती के पिता से मिलकर बहुत आश्चर्यचकित होते हैं। उन्हें इस बात की आशा ही नहीं थी कि वे उन्हें इतने दिनों तक याद भी रखेंगे। देवव्रत के पिता को जब मिनती के दूसरे विवाह का पता चलता है तो वे सजल नेत्रों से मिनती के सौभाग्य की कामना करते हैं। वही उनकी पत्नी भी मिनती को शंख और सिन्दुर तथा आलता लाकर मिनती के पिता को देती हुई कहती है –‘हमारे भाग्य में होता तो हम बहू को हमेशा शंख-सिन्दुर से लदा हुआ देखते। लेकिन नियति के आगे किसका बस चलता है। खैर अच्छा ही हुआ उस अभागिन के लिए। भगवान उसे सुखी रखे। उसने यहाँ रहते हमारी जितनी सेवा की है उसी का पुण्य फल है।’ इतना कहते-कहते वह फूट-फूट कर रोने लगती है। देवव्रत के पिता उन्हें किसी प्रकार दिलासा देने लगते हैं।

मिनती के पिता को अपने पुराने समधियों की हालत देख बहुत दुख होने लगता है। वे चाहते हुए भी उनके लिए कुछ नहीं कर सकते थे। वृद्धावस्था में उन्हें देखने के लिए कोई नहीं था। लेकिन दोनों दम्पति का जीवट बड़ा ही सख्त था। वे बेटे के मृत्यु को पचा तो नहीं पा रहे थे लेकिन जितना जीवन वे विधाता से लेकर आए थे उसे तो जीना ही था सो बेटे की यादों के सहारे जी रहे थे। मिनती के पिता उनसे कुछ नहीं कह पाते हैं। वे रुधे हुए कण्ठ से उनसे विदा लेकर चले आते हैं। मिनती जब अपने पिता से उनके बारे में पूछती है तो वे कुछ ढंग से कह नहीं पाते। परन्तु मिनती सबकुछ समझ जाती है। वह रसोई में जाकर फूट-फूट कर रोने लगती है। काफी देर रो लेने के बाद अपने आँसुओं को पोछ कर वह कुछ देर सोचती है। वह अपने पिता के पास दुबारा जाकर थोड़ी विरक्ति के स्वर में पूछने लगती है –‘आप सब लोग मुझे मारने पर क्यों तुले हुए हैं? क्यों मेरा विवाह कराना चाहते हैं। उनके माता-पिता की हालत देखकर भी आप लोगों को कुछ तरस नहीं आता?’ तब मिनती के पिता उसे देवव्रत की माता जी के द्वारा दिया हुआ शंख, सिंदुर तथा आलता देकर कहते हैं कि –‘देख माँ तेरी सास ने ही तुझे आशीर्वाद देकर ये सब भेजा है। अब तो वे लोग भी चाहते हैं कि तू विवाह करके नए घर चली जाए। तुझे भले ही लग रहा हो कि तेरे साथ हम सब जोर जबरदस्ती कर रहे हैं लेकिन तू ही सोच हम माँ-बाप आज है कल नहीं। तेरे सास-ससुर भी अपने बेटे की मृत्यु से इतने दुखी और निराश हो चुके हैं कि वे कितने दिन और जीएंगे इसका भी कोई ठिकाना नहीं है। तेरा जीवन तो आगे पड़ा हुआ है। क्या तू नहीं चाहती कि तेरा भी एक संसार हो जहां तू निःशंक अपना जीवन बिता सके? हमारे बाद तू तेरे छोटे भाई पर बोझ बनकर रहना चाहती है?’ मिनती को एक समय के लिए जैसे बिजली सी चुभी। क्या वह अपने भाई पर बोझ है? वह कहती है –‘बाबा क्या छोटे ने आपसे कुछ कहा है?’ तब वे कहते हैं ‘देख उसने मुझसे कुछ कहा नहीं है। लेकिन मैं भी बाप हूँ। सब समझता हूँ। वह तुझे कुछ कहेंगे तो नहीं लेकिन उनका भी परिवार बड़ा हो रहा है। छोचे की बहू के गोद में बच्चा देखकर तुझे मन नहीं होगा कि काश तेरा भी घर होता, संतान होती तो तू भी कितनी सुखी होती। पुराने जमाने में विधवा बहने अपने पिता या भाई के घर ही आकर सारा जीवन रह जाती थी लेकिन तब का समय अलग था। सामाजिक नियम कानून व्यवस्थाएँ सब बहुत कठोर थे। परन्तु आज का समय बड़ा कठिन है। इसलिए तुझे समझा रहा हूँ। तेरे पर कोई जोर-जबरदस्ती भी नहीं करूंगा। लेकिन अब तुझे निर्णय लेना होगा। ’

मिनती अपने पिता की बात अंततः मान लेती है। तय तिथि पर उसका विवाह होता है। फिर वही चतुर्थ मंगल की घड़ी आती है। वह और उसका दूसरा पति सुधाकर शीतल पाटी को उलटा-पुलटा लपेटकर घर के अंदर प्रवेश कर रहे होते हैं। मिनती अपनी पहली शादी की बात को याद करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करते हुए गृह-प्रवेश करती है कि इस बार वह किसी भी प्रकार अपने जीवन में कोई अनहोनी नहीं होने देगी। वह उसी रात को अपने बिस्तर पर बिछायी हुई शीतल पाटी को लपेटकर कमरे की छत पर बने बांस के थाक (शेल्फ) पर रख देती है। ये देख उसका पति उससे पूछता है तो वह कोई जवाब नहीं देती है, बस कहती है कि उसे इसके बिना ही सोने की आदत करनी चाहिए।

बुधवार, 3 सितंबर 2025

BA 3rd Sem SEP Shabari notes

 

जी, श्री नरेश मेहता के खंडकाव्य 'शबरी' के प्रथम अध्याय 'त्रेता' के अगले दो पृष्ठों में दिए गए पद्यांशों की संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या नीचे दी गई है। Page 14-15

पद्यांश 1

​"आम्र-कुञ्ज, गेहूँ-गंधों का उपजाऊ मैदान सुहाना,

ऋषियों के वे पावन आश्रम नदी-घाट के तीर्थ नाना।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के प्रथम अध्याय 'त्रेता' से ली गई हैं।
  • प्रसंग: इन पंक्तियों में कवि त्रेता युग के ग्रामीण और प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन करते हुए बताते हैं कि उस समय का जीवन कितना शांत और सुखी था।
  • व्याख्या: कवि कहते हैं कि उस युग में आम के बगीचे (आम्र-कुञ्ज) और गेहूँ की खुशबू से भरे हुए उपजाऊ मैदान अत्यंत सुंदर लगते थे। नदियों के तट पर ऋषियों के पवित्र आश्रम थे और कई घाट तीर्थस्थलों में बदल गए थे। यह दृश्य उस समय के आध्यात्मिक और प्राकृतिक जीवन की झलक देता है।

पद्यांश 2

​"आर्य बस्तियाँ फैल रही थीं, नगर-सभ्यता लेकर

वन्य-जातियाँ भी छिटपुट थीं, आदिमता को लेकर।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के प्रथम अध्याय 'त्रेता' से उद्धृत हैं।
  • प्रसंग: इस पद्यांश में कवि आर्यों की बस्तियों के फैलाव और इसके साथ ही वन में रहने वाली जातियों की स्थिति का वर्णन कर रहे हैं।
  • व्याख्या: कवि बताते हैं कि आर्यों की बस्तियाँ 'नगर-सभ्यता' के साथ लगातार फैल रही थीं। दूसरी ओर, वन्य-जातियाँ (आदिवासी) अभी भी 'आदिमता' (प्राचीन जीवन-शैली) के साथ जंगलों में बिखरी हुई थीं। यह पद्यांश उस समय के समाज में आर्यों और गैर-आर्यों के बीच के अंतर को दर्शाता है, जहाँ एक तरफ शहरीकरण हो रहा था और दूसरी तरफ प्राचीन जीवन-शैली कायम थी।

पद्यांश 3

​"उत्तर का मैदान आर्य था, कोल-किरात विंध्याचल,

द्रविड़ था दक्षिण का सारा प्रायद्वीप, अरुणाचल।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के 'त्रेता' अध्याय से ली गई हैं।
  • प्रसंग: कवि भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाली जातियों का भौगोलिक विवरण दे रहे हैं।
  • व्याख्या: कवि बताते हैं कि उत्तरी मैदानों में आर्य रहते थे, जबकि विंध्याचल के क्षेत्र में कोल और किरात जैसी जातियाँ निवास करती थीं। भारत का पूरा दक्षिण प्रायद्वीप 'द्रविड़' लोगों का था, और अरुणाचल (पूर्वी क्षेत्र) भी इन जातियों का निवास स्थान था। यह पद्यांश प्राचीन भारत की जातीय और भौगोलिक विविधता को स्पष्ट करता है।

पद्यांश 4

​"यात्राएँ थीं कठिन, मार्ग भी सुगम नहीं थे,

लूट-पाट करते डाकू-दल फैले सभी कहीं थे।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ उसी खंडकाव्य से ली गई हैं।
  • प्रसंग: इस पद्यांश में कवि उस समय की यात्राओं की कठिनाइयों और असुरक्षा का वर्णन कर रहे हैं।
  • व्याख्या: कवि कहते हैं कि उस युग में यात्राएँ बहुत कठिन थीं, और रास्ते भी आसान नहीं थे। हर जगह डाकुओं के दल फैले हुए थे जो लूट-पाट करते थे। यह पंक्तियाँ उस समय की असुरक्षित और अव्यवस्थित स्थिति को दर्शाती हैं, जहाँ व्यापार और आवागमन आसान नहीं था।

पद्यांश 5

​"व्यापारी-गण सार्थ बनाकर सीमांतों तक जाते,

सिंधु तटों से माल लाद नौकाओं में ले जाते।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के प्रथम अध्याय 'त्रेता' से उद्धृत हैं।
  • प्रसंग: कवि यहाँ व्यापारियों की यात्राओं और व्यापारिक गतिविधियों का वर्णन कर रहे हैं।
  • व्याख्या: असुरक्षा के बावजूद, व्यापारी अपने समूह (सार्थ) बनाकर दूर-दूर की सीमाओं तक व्यापार करने जाते थे। वे सिंधु नदी के तटों से सामान नावों (नौकाओं) में भरकर ले जाते थे। यह पद्यांश बताता है कि व्यापार उस समय भी महत्वपूर्ण था, भले ही वह बहुत जोखिम भरा होता था।

पद्यांश 6

​"थे समाज में वर्ण, श्रेणियाँ अधिक नहीं थीं;

बनी संहिता आचारों की सामाजिकता अधिक नहीं थी।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ उसी खंडकाव्य से ली गई हैं।
  • प्रसंग: कवि इस पद्यांश में उस समय की सामाजिक व्यवस्था का वर्णन कर रहे हैं, जिसमें वर्ण व्यवस्था और नियमों की स्थिति बताई गई है।
  • व्याख्या: कवि बताते हैं कि समाज में वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) तो थे, लेकिन 'श्रेणियाँ' (कठोर सामाजिक वर्ग) ज्यादा नहीं बनी थीं। जीवन-शैली और नियमों (आचारों की संहिता) का कठोरता से पालन नहीं होता था, और सामाजिकता भी आज की तरह जटिल नहीं थी। यह दर्शाता है कि उस समय का समाज अपेक्षाकृत सरल और लचीला था।

पद्यांश 7

​"अभी सरल ही था समाज औ’ राजनीति भी क्रूर नहीं थी,

नगर-सभ्यता जैसा कहो, यह धन-धरनी से दूर नहीं थी।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के 'त्रेता' अध्याय से उद्धृत हैं।
  • प्रसंग: इस पद्यांश में कवि समाज की सादगी और राजनीति की प्रकृति का वर्णन कर रहे हैं।
  • व्याख्या: कवि कहते हैं कि उस समय का समाज सरल था और राजनीति भी अत्यधिक क्रूर नहीं थी। यह 'नगर-सभ्यता' उतनी भौतिकवादी नहीं थी, जैसा कि आज है। यह 'धन और धरनी' (भौतिक सुख और धरती से लगाव) से अधिक दूर नहीं थी। इसका अर्थ है कि लोग अपनी जड़ों से जुड़े हुए थे और धन-दौलत के पीछे भागने की प्रवृत्ति कम थी।

पद्यांश 8

​"धर्म और नैतिकता की तब नींव पड़ी जन-मन में,

थे ब्राह्मण सिरमौर, तपस्या के कारण सब जन में।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य से ली गई हैं।
  • प्रसंग: कवि धर्म और नैतिकता के महत्व को बताते हुए ब्राह्मणों की तत्कालीन सामाजिक स्थिति का उल्लेख कर रहे हैं।
  • व्याख्या: कवि कहते हैं कि उस समय धर्म और नैतिकता की नींव लोगों के मन में पड़ रही थी। समाज में ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊंचा (सिरमौर) था, क्योंकि वे अपनी तपस्या और ज्ञान के कारण सभी लोगों में सम्मान पाते थे। यह पद्यांश आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों के महत्व को दर्शाता है।

पद्यांश 9

​"रक्षक औ पालक क्षत्रिय थे, वैश्य बने व्यापारी,

श्रमिक शूद्र थे, थी समाज को यही व्यवस्था सारी।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य से उद्धृत हैं।
  • प्रसंग: इस पद्यांश में कवि उस समय की वर्ण-व्यवस्था और उसके कार्यों का स्पष्टीकरण दे रहे हैं।
  • व्याख्या: कवि बताते हैं कि उस समय के समाज में क्षत्रिय लोगों के रक्षक और पालक थे, वैश्य व्यापार का काम करते थे और शूद्र श्रमिक थे। यह पद्यांश उस समय की समाज व्यवस्था को दर्शा रहा है, जहाँ हर वर्ण का अपना विशिष्ट कार्य निर्धारित था।

पद्यांश 10

​"जिन्हें न थे स्वीकार धर्म-नैतिकता के बंधन

आर्य-जाति के होने पर भी राक्षस गण।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के प्रथम अध्याय 'त्रेता' से उद्धृत हैं।
  • प्रसंग: कवि उन लोगों का वर्णन कर रहे हैं जो तत्कालीन सामाजिक और नैतिक नियमों का पालन नहीं करते थे।
  • व्याख्या: कवि कहते हैं कि कुछ लोग ऐसे भी थे, जो 'आर्य जाति' के होते हुए भी धर्म और नैतिकता के नियमों को नहीं मानते थे। ऐसे लोगों को 'राक्षस गण' कहा जाता था। यह पद्यांश बताता है कि उस समय 'राक्षस' का अर्थ केवल राक्षस जाति नहीं था, बल्कि उन लोगों से था जो सामाजिक और नैतिक नियमों को तोड़ते थे।

पद्यांश 11

​"यज्ञों को विध्वंस, सताया करते आश्रम-वासी,

रक्त-मांस से दूषित कर जाते सब सत्यानाशी।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ उसी खंडकाव्य से ली गई हैं।
  • प्रसंग: इस पद्यांश में कवि 'राक्षस गणों' के क्रूर और विध्वंसक कार्यों का वर्णन कर रहे हैं।
  • व्याख्या: कवि कहते हैं कि ये 'राक्षस गण' यज्ञों को नष्ट कर देते थे और आश्रम में रहने वाले ऋषि-मुनियों को सताते थे। वे यज्ञ-स्थलों को रक्त और मांस से अपवित्र (दूषित) कर जाते थे, जिससे सब कुछ नष्ट हो जाता था। यह पद्यांश उस समय के समाज में फैले अधर्म और हिंसा को दर्शाता है।

पद्यांश 12

​"वन्य जातियाँ अब भी थीं आखेट आदि ही करतीं,

पशु-पक्षी-मछली पर अपना जीवन-यापन करतीं।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य से उद्धृत हैं।
  • प्रसंग: कवि यहाँ जंगल में रहने वाली जातियों की जीवन-शैली का वर्णन कर रहे हैं।
  • व्याख्या: कवि कहते हैं कि वन्य जातियाँ (वनवासी) अभी भी शिकार (आखेट) करके ही अपना जीवन चलाती थीं। वे अपना जीवन-यापन पशु, पक्षी और मछली पर ही निर्भर रहकर करती थीं। यह पद्यांश शहरी और ग्रामीण समाज के विपरीत वनवासियों के प्राचीन और प्रकृति-निर्भर जीवन को दर्शाता है।