जी, श्री नरेश मेहता के खंडकाव्य 'शबरी' के प्रथम अध्याय 'त्रेता' के अगले दो पृष्ठों में दिए गए पद्यांशों की संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या नीचे दी गई है। Page 14-15
पद्यांश 1
"आम्र-कुञ्ज, गेहूँ-गंधों का उपजाऊ मैदान सुहाना,
ऋषियों के वे पावन आश्रम नदी-घाट के तीर्थ नाना।"
- संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के प्रथम अध्याय 'त्रेता' से ली गई हैं।
- प्रसंग: इन पंक्तियों में कवि त्रेता युग के ग्रामीण और प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन करते हुए बताते हैं कि उस समय का जीवन कितना शांत और सुखी था।
- व्याख्या: कवि कहते हैं कि उस युग में आम के बगीचे (आम्र-कुञ्ज) और गेहूँ की खुशबू से भरे हुए उपजाऊ मैदान अत्यंत सुंदर लगते थे। नदियों के तट पर ऋषियों के पवित्र आश्रम थे और कई घाट तीर्थस्थलों में बदल गए थे। यह दृश्य उस समय के आध्यात्मिक और प्राकृतिक जीवन की झलक देता है।
पद्यांश 2
"आर्य बस्तियाँ फैल रही थीं, नगर-सभ्यता लेकर
वन्य-जातियाँ भी छिटपुट थीं, आदिमता को लेकर।"
- संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के प्रथम अध्याय 'त्रेता' से उद्धृत हैं।
- प्रसंग: इस पद्यांश में कवि आर्यों की बस्तियों के फैलाव और इसके साथ ही वन में रहने वाली जातियों की स्थिति का वर्णन कर रहे हैं।
- व्याख्या: कवि बताते हैं कि आर्यों की बस्तियाँ 'नगर-सभ्यता' के साथ लगातार फैल रही थीं। दूसरी ओर, वन्य-जातियाँ (आदिवासी) अभी भी 'आदिमता' (प्राचीन जीवन-शैली) के साथ जंगलों में बिखरी हुई थीं। यह पद्यांश उस समय के समाज में आर्यों और गैर-आर्यों के बीच के अंतर को दर्शाता है, जहाँ एक तरफ शहरीकरण हो रहा था और दूसरी तरफ प्राचीन जीवन-शैली कायम थी।
पद्यांश 3
"उत्तर का मैदान आर्य था, कोल-किरात विंध्याचल,
द्रविड़ था दक्षिण का सारा प्रायद्वीप, अरुणाचल।"
- संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के 'त्रेता' अध्याय से ली गई हैं।
- प्रसंग: कवि भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाली जातियों का भौगोलिक विवरण दे रहे हैं।
- व्याख्या: कवि बताते हैं कि उत्तरी मैदानों में आर्य रहते थे, जबकि विंध्याचल के क्षेत्र में कोल और किरात जैसी जातियाँ निवास करती थीं। भारत का पूरा दक्षिण प्रायद्वीप 'द्रविड़' लोगों का था, और अरुणाचल (पूर्वी क्षेत्र) भी इन जातियों का निवास स्थान था। यह पद्यांश प्राचीन भारत की जातीय और भौगोलिक विविधता को स्पष्ट करता है।
पद्यांश 4
"यात्राएँ थीं कठिन, मार्ग भी सुगम नहीं थे,
लूट-पाट करते डाकू-दल फैले सभी कहीं थे।"
- संदर्भ: ये पंक्तियाँ उसी खंडकाव्य से ली गई हैं।
- प्रसंग: इस पद्यांश में कवि उस समय की यात्राओं की कठिनाइयों और असुरक्षा का वर्णन कर रहे हैं।
- व्याख्या: कवि कहते हैं कि उस युग में यात्राएँ बहुत कठिन थीं, और रास्ते भी आसान नहीं थे। हर जगह डाकुओं के दल फैले हुए थे जो लूट-पाट करते थे। यह पंक्तियाँ उस समय की असुरक्षित और अव्यवस्थित स्थिति को दर्शाती हैं, जहाँ व्यापार और आवागमन आसान नहीं था।
पद्यांश 5
"व्यापारी-गण सार्थ बनाकर सीमांतों तक जाते,
सिंधु तटों से माल लाद नौकाओं में ले जाते।"
- संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के प्रथम अध्याय 'त्रेता' से उद्धृत हैं।
- प्रसंग: कवि यहाँ व्यापारियों की यात्राओं और व्यापारिक गतिविधियों का वर्णन कर रहे हैं।
- व्याख्या: असुरक्षा के बावजूद, व्यापारी अपने समूह (सार्थ) बनाकर दूर-दूर की सीमाओं तक व्यापार करने जाते थे। वे सिंधु नदी के तटों से सामान नावों (नौकाओं) में भरकर ले जाते थे। यह पद्यांश बताता है कि व्यापार उस समय भी महत्वपूर्ण था, भले ही वह बहुत जोखिम भरा होता था।
पद्यांश 6
"थे समाज में वर्ण, श्रेणियाँ अधिक नहीं थीं;
बनी संहिता आचारों की सामाजिकता अधिक नहीं थी।"
- संदर्भ: ये पंक्तियाँ उसी खंडकाव्य से ली गई हैं।
- प्रसंग: कवि इस पद्यांश में उस समय की सामाजिक व्यवस्था का वर्णन कर रहे हैं, जिसमें वर्ण व्यवस्था और नियमों की स्थिति बताई गई है।
- व्याख्या: कवि बताते हैं कि समाज में वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) तो थे, लेकिन 'श्रेणियाँ' (कठोर सामाजिक वर्ग) ज्यादा नहीं बनी थीं। जीवन-शैली और नियमों (आचारों की संहिता) का कठोरता से पालन नहीं होता था, और सामाजिकता भी आज की तरह जटिल नहीं थी। यह दर्शाता है कि उस समय का समाज अपेक्षाकृत सरल और लचीला था।
पद्यांश 7
"अभी सरल ही था समाज औ’ राजनीति भी क्रूर नहीं थी,
नगर-सभ्यता जैसा कहो, यह धन-धरनी से दूर नहीं थी।"
- संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के 'त्रेता' अध्याय से उद्धृत हैं।
- प्रसंग: इस पद्यांश में कवि समाज की सादगी और राजनीति की प्रकृति का वर्णन कर रहे हैं।
- व्याख्या: कवि कहते हैं कि उस समय का समाज सरल था और राजनीति भी अत्यधिक क्रूर नहीं थी। यह 'नगर-सभ्यता' उतनी भौतिकवादी नहीं थी, जैसा कि आज है। यह 'धन और धरनी' (भौतिक सुख और धरती से लगाव) से अधिक दूर नहीं थी। इसका अर्थ है कि लोग अपनी जड़ों से जुड़े हुए थे और धन-दौलत के पीछे भागने की प्रवृत्ति कम थी।
पद्यांश 8
"धर्म और नैतिकता की तब नींव पड़ी जन-मन में,
थे ब्राह्मण सिरमौर, तपस्या के कारण सब जन में।"
- संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य से ली गई हैं।
- प्रसंग: कवि धर्म और नैतिकता के महत्व को बताते हुए ब्राह्मणों की तत्कालीन सामाजिक स्थिति का उल्लेख कर रहे हैं।
- व्याख्या: कवि कहते हैं कि उस समय धर्म और नैतिकता की नींव लोगों के मन में पड़ रही थी। समाज में ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊंचा (सिरमौर) था, क्योंकि वे अपनी तपस्या और ज्ञान के कारण सभी लोगों में सम्मान पाते थे। यह पद्यांश आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों के महत्व को दर्शाता है।
पद्यांश 9
"रक्षक औ पालक क्षत्रिय थे, वैश्य बने व्यापारी,
श्रमिक शूद्र थे, थी समाज को यही व्यवस्था सारी।"
- संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य से उद्धृत हैं।
- प्रसंग: इस पद्यांश में कवि उस समय की वर्ण-व्यवस्था और उसके कार्यों का स्पष्टीकरण दे रहे हैं।
- व्याख्या: कवि बताते हैं कि उस समय के समाज में क्षत्रिय लोगों के रक्षक और पालक थे, वैश्य व्यापार का काम करते थे और शूद्र श्रमिक थे। यह पद्यांश उस समय की समाज व्यवस्था को दर्शा रहा है, जहाँ हर वर्ण का अपना विशिष्ट कार्य निर्धारित था।
पद्यांश 10
"जिन्हें न थे स्वीकार धर्म-नैतिकता के बंधन
आर्य-जाति के होने पर भी राक्षस गण।"
- संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के प्रथम अध्याय 'त्रेता' से उद्धृत हैं।
- प्रसंग: कवि उन लोगों का वर्णन कर रहे हैं जो तत्कालीन सामाजिक और नैतिक नियमों का पालन नहीं करते थे।
- व्याख्या: कवि कहते हैं कि कुछ लोग ऐसे भी थे, जो 'आर्य जाति' के होते हुए भी धर्म और नैतिकता के नियमों को नहीं मानते थे। ऐसे लोगों को 'राक्षस गण' कहा जाता था। यह पद्यांश बताता है कि उस समय 'राक्षस' का अर्थ केवल राक्षस जाति नहीं था, बल्कि उन लोगों से था जो सामाजिक और नैतिक नियमों को तोड़ते थे।
पद्यांश 11
"यज्ञों को विध्वंस, सताया करते आश्रम-वासी,
रक्त-मांस से दूषित कर जाते सब सत्यानाशी।"
- संदर्भ: ये पंक्तियाँ उसी खंडकाव्य से ली गई हैं।
- प्रसंग: इस पद्यांश में कवि 'राक्षस गणों' के क्रूर और विध्वंसक कार्यों का वर्णन कर रहे हैं।
- व्याख्या: कवि कहते हैं कि ये 'राक्षस गण' यज्ञों को नष्ट कर देते थे और आश्रम में रहने वाले ऋषि-मुनियों को सताते थे। वे यज्ञ-स्थलों को रक्त और मांस से अपवित्र (दूषित) कर जाते थे, जिससे सब कुछ नष्ट हो जाता था। यह पद्यांश उस समय के समाज में फैले अधर्म और हिंसा को दर्शाता है।
पद्यांश 12
"वन्य जातियाँ अब भी थीं आखेट आदि ही करतीं,
पशु-पक्षी-मछली पर अपना जीवन-यापन करतीं।"
- संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य से उद्धृत हैं।
- प्रसंग: कवि यहाँ जंगल में रहने वाली जातियों की जीवन-शैली का वर्णन कर रहे हैं।
- व्याख्या: कवि कहते हैं कि वन्य जातियाँ (वनवासी) अभी भी शिकार (आखेट) करके ही अपना जीवन चलाती थीं। वे अपना जीवन-यापन पशु, पक्षी और मछली पर ही निर्भर रहकर करती थीं। यह पद्यांश शहरी और ग्रामीण समाज के विपरीत वनवासियों के प्राचीन और प्रकृति-निर्भर जीवन को दर्शाता है।