मिनती एक
सिलेठी गरीब ब्राह्मण परिवार की विधवा बहू थी। उसकी शादी के महज साल भर में ही पति
की अचानक एक अप्रत्याशित घटना में मृत्यु हो गई। ससुराल वालों ने मिनती को इसका
दोषी तो नहीं माना,
लेकिन कुछ परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि उसे अपने साथ रखना भी
उचित नहीं समझे। जवान लड़की,
वह भी विधवा। उसे समझा-बुझाकर उसके पिता के घर वापस जाने के
लिए राज़ी कर लिया। सास ने उसे समझा दिया कि जिस आधार पर वह इस घर में आई थी, वह तो अब
रहा नहीं। अब यहां उसका क्या ही बचा है?
बेचारी मन में दुखों का बोझ लेकर पिता के घर चली आई। जो कुछ
साथ ले गई थी, वह भी उसकी सास ने उसके साथ वापस कर दी,
उसकी शादी का जोड़ा और गहने भी।
पिता का
घर इतना सचचल तो नहीं था,
फिर भी उसके भरण-पोषण की समस्या नहीं थी। लेकिन माता-पिता
और छोटे भाई पर बोझ बन बनकर रहना मिनती को स्वीकार न था। पिता के घर रहकर वह शीतल
पाटी बुनने का निश्चय करती है। यही अब उसकी दिनचर्या और जीने का मुख्य आसरा था। ये
शीतल पाटी सिलेठी परिवारों की शादी का अहम हिस्सा होती है। ससुराल में चतुर्थ-मंगल
के अनुष्ठान के बाद घर में पति-पत्नी इसे साथ लेकर उल्टा-सुलटा लपेटते हुए प्रवेश
करते हैं। मिनती पाटी बुने जा रही थी और रह-रह कर उसे भी अपना चतुर्थ मंगल
अनुष्ठान याद हो आया।
कैसे
उसका पति देवव्रत उसकी तरफ प्रेम से देख रहा था और शीतल पाटी को धीरे-धीरे लपेट
रहा था। उसका विवाह गर्मियों के मौसम यानी बैसाख में हुआ था। रात में उन्होंने इसी
शीतल पाटी में ही शयन किया था। मिनती अपने पति को इसी शीतल पाटी में गर्मियों के
दिनों में बिठाकर चाय तथा मूड़ी के लड्डू दिया करती थी। कभी-कभी दोपहर को देवव्रत
अपने यजमानों के घर से पूजा करके लौट आता था तो इसी शीतल पाटी में सोकर अपनी गर्मी
और थकान दूर किया करता था।
लेकिन
हाय री किस्मत! मिनती को भी क्या पता था कि ऐसी ही एक दोपहर उसके पति की जान चली
जाएगी। हुआ कुछ यूं था कि देवव्रत अपने एक यजमान के घर से सावन सोमवार की पूजा
सम्पन्न करा कर घर लौट आया। मिनती ने उसे घर आने के बाद पानी पीने को दिया तथा
रसोई में चाय बनाने चली गयी। देवव्रत यजमान के घर में खाना खाकर ही आया था। घर
लौटने में उसे लगभग घण्टे भर का समय लग गया था। इसलिए उसने सोचा कि चाय पीकर आराम
कर लिया जाए। बाद में संध्या समय में आरती करके वह जल्दी खाना खा लेगा। बराक-घाटी
में संध्या भी बहुत जल्दी हो जाया करती है। इसी बीच न जाने कहा से एक साँप कमरे के
कोने में से चला आया और शीतल पाटी पर लेटकर आराम कर रहे देवव्रत को डंस देता है।
देवव्रत ठीक से न तो मिनती को पुकार पाता है न ही अपने माता-पिता को पुकार पाता
है। वह वही पर दम तोड़ देता है। मिनती जब रसोई से वापस आती है तो उसका संसार उजड़
चुका था। वह देवव्रत की लाश के पास पछाड़ खा-खाकर रोने लगती है। देवव्रत के
माता-पिता का भी हाल बुरा था। माँ लगभग अपने बेटे का नाम लेकर बेहोश हो जाती थी।
पड़ोस के लोगों की मदद से देवव्रत के पार्थिव शरीर को उसी शीतल पाटी समेत लपेट कर
श्मशान ले जाया जाता है तथा उसका अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। उसके बाद किसी
प्रकार खबर पाकर देवव्रत के कुछ दूर के रिश्तेदार आते हैं और श्राद्ध तथा अन्य
क्रियाकर्म सम्पन्न हो पाती है। मिनती के पिता को भी जब इसकी खबर मिलती है तो उनपर
जैसे आकाश टूट पड़ा था। जिस बेटी को बड़े जतन से सजा-धजा कर सुहागिन भेजा था उसे
विधवा के कपड़ों में कैसे देखते?
माँ का भी रो-रोकर बुरा हाल था। वे उसे अपने यहाँ बुला लाने
के लिए पति को भेजती है। जब मिनती के पिता श्राद्ध वाले दिन पहुँचते हैं तो
पिता-पुत्री एक-दूसरे को देखकर रोने लगते हैं। मिनती के पिता भी बेटी को सफेद धोती
में देख लगभग अचेत से होने लगते हैं। वे उसी दिन उसे अपने साथ ले जाने की कहते हैं
लेकिन ससुराल वाले तब उसे नहीं छोड़ पाते हैं क्योंकि देवव्रत की जगह अब वही उनकी
संतान थी। पड़ोस में रहने वाले बाबू शंकर रायचौधरी जी पंचायत के दफ्तर में काम
करते थे जिनकी मदद से मिनती को देवव्रत की मृत्यु प्रमाण पत्र मिल जाता है जो कि
कई अन्य जरूरी कामों के लिए जरूरी था।
अब
उसके तथा सास-ससुर के लिए मुश्किलें शुरु होती है। जवान विधवा बहू घर से बाहर क्या
ही उसे काम के लिए भेजते,
उन्हें रह-रह कर कई चिन्ताएँ सताती रहती। साथ ही वे भी
बूढ़े हो चले थे तो उन्हें भी कोई काम मिले यह तो सवाल ही नहीं उठता था। मिनती को
देखकर उन्हें रात-दिन अपने बेटे की याद सताती रहती थी। सास दिन-रात रोती ही रहती।
मिनती उन्हें जब खाना देने जाती तो कई बार उस पर वे झल्ला उठती थी। पर अगले ही
क्षण अपनी भूल तथा बहू की बेबसी समझकर उसे पास बुला लेती। मिनती अपनी सास को अपने
हाथों से कौर खिलाने जाती तो सास उसे गले से लगाकर रोती रहती। मिनती भी अपनी सास
से लिपटकर रोती। कुछ दिनों तक तो यह सिलसिला चला। लेकिन घर तो चलाना था ही। अतः
मिनती के ससुर जी ने ही यजमानी का काम शुरु कर दिया। एक समय ससुर देवज्योति
भट्टाचार्या जी अपने गाँव में अच्छे यजमानी ब्राह्मण हुआ करते थे। देवव्रत को भी
उन्होंने ही हर प्रकार की पूजा तथा अनुष्ठानों की शिक्षा दी थी।
मिनती के
ससुर जी बहुत बूढ़े हो चले थे। एक मात्र कुलदिपक के चले जाने से जैसे कुछ और ही
अधिक दुखी भी रहने लगे थे। अपने गठिया रोग के चलते वे अक्सर लंगड़ा कर चला करते
थे। चेहरे पर झुर्रीयों से अधिक दुख और निराशा की झलक आ गयी थी। थोड़ा बहुत भूलने
की बिमारी ने भी घेर लिया था। लेकिन जीवन की इस डूबती नांव को किसी प्रकार वे
बचाने में जुट गए। गाँव में ज्यादातर लोग इतने सम्पन्न तो न थे मगर छोटी-मोटी पूजा, अनुष्ठान
इत्यादि में अब उन्हें ही बुला लिया करते थे। बदले में थोड़ी सी धन राशी के साथ
ब्रह्म भुज्जी(चावल,
दाल,
आलू,
तेल,
नमक,
चीनी इत्यादि जो कि एक डाली में सजाकर अपनी क्षमता अनुसार
ब्राह्मण पुजारी को दिए जाने वाला दान) उन्हें मिल जाया करती थी। वे यही सब घर ले
आया करते थे। इसी से अब उन तीनों का गुज़ारा चल जाता था। वही मिनती की सास ने
मिनती से कह दिया था कि वह सफेद साड़ी पहनना छोड़ दे और मामूली रंग की साड़ियाँ
पहना करे। सफेद साड़ी में उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का दुख बार-बार सताता है। वे
इस दुख को भुलाने की कोशिश में लगी थी।
एक दिन
ऐसी घटना घटी की उन्हें न चाहते हुए भी मिनती को अपने घर से दूर उसके पिता के पास
ही भेज देना पड़ा। हुआ ये कि मिनती गाँव के पास बह रही भांगा नदी में कुछ कपड़े
धोने जाया करती थी। गाँव में जो पानी की सप्लाई थी वह केवल घण्टे भर के लिए आती
थी। जिससे सिर्फ गांव वाले पीने का पानी ही ले जा सकते थे। मिनती जब कपड़े धो रही
थी तो वहाँ रफीक नाम का मछुवारा उसके पास आकर के उसे छेड़ने लग जाता है। वह उसे
अपने साथ चलने के लिए कहता है। रफीक उसे छेड़ते हुए कहता है कि वह उसे कई दिनों से
घाट पर कपड़े धोते हुए और कभी-कभी नहाते हुए भी देखा करता था। मिनती अपना मान
बचाने के लिए वही पर सारा सामान छोड़ घर की तरफ दौड़ पड़ती है। रफीक भी उसके
पीछे-पीछे दौड़ता है लेकिन यह वाक्या गाँव वालों की आँखों में पड़ जाता है। मिनती
का वह पीछा करना छोड़ तो देता है लेकिन वह धमकियाँ और गालियाँ देकर वहाँ से चला
जाता है। इधर मिनती जब घर पहुँचती है तो पड़ोसी शंकर बाबू उसके सास-ससुर को इसकी
खबर देते हैं। वे दोनों ही इस घटना से बहुत आहत हो जाते हैं। उसी दिन वे निर्णय ले
लेते हैं। वृद्ध दम्पति मिनती को रात में खाने के समय बात करने के लिए बुलाते हैं।
इधर मिनती इस घटना से काफी भयभीत हो गयी थी। वह लगातार डर के मारे कांपे जा रही
थी। वह बार-बार इस घटना के बारे में सोच-सोच कर रोए जा रही थी। शंकर बाबू की पत्नी
भी उस समय वहाँ उसके साथ थी। रसोई में रोते-रोते काम करता देख शंकर बाबू की पत्नी
का भी जी दुख से भरने लगा था। उधर शंकर बाबू भी मिनती के सास-ससुर को दिलासा देने
में लगे थे। जब मिनती को वे अपना निर्णय सुनाने के लिए बुलाते हैं तो वह उनके
सामने बड़ी मुश्किल से जाती है। साथ में शंकर बाबू की पत्नी भी आती है। मिनती
अपराधी की मुद्रा में जाकर अपनी सास के पैरों से लिपट जाती है और रोते हुए माफी
मांगने लगती है। तब उसकी सास उसे उठाते हुए अपने पास बिठाती है। उसकी सास उससे
कहती है—‘देखो माँ। हम जानते हैं कि तुमने कोई अपराध नहीं किया है। लेकिन अब हमने
सोच लिया है कि तुम्हें अब अपने साथ नहीं रख पाएंगे।’ मिनती – ‘माँ अगर मैंने
अपराध नहीं किया है तो फिर क्यों तुम मुझे अपने से अलग कर रही हो। आपसे अलग होकर
मैं कैसे रहूँगी?
एक आप ही तो हो जो उनसे जुड़े हुए थे। उनकी यादें और आप ही
लोगों का सहारा है तभी तो मैं जी रही हूँ।’
सास—‘माँ रे, जिसके
सहारे तुम इस घर में आयी थी,
वह तो अब रहा नहीं और आज जो घटना हुई है उससे हम दोनों का
मन बहुत विचलित हो गया है। पहले तुम हमारे देबु की अमानत थी, लेकिन
उसके जाने के बाद अब तुम हमारी अमानत भी हो और सम्मान भी। तुम्हें कुछ हो गया तो
तुम्हारे पिता को हम क्या मुँह दिखाएंगे?
तुम्हारे पिता तो देबु के श्राद्ध के दिन ही तुम्हें लेकर
चले जाना चाहते थे,
लेकिन तुमसे हम इतना घुल-मिल गये थे कि हम तुम्हें भेज ही
नहीं पाए, लेकिन लगता है कि वह हमारी भूल थी। अगर तुम्हें हम तभी भेज देते तो हमें भी ये
दिन नहीं देखना पड़ता।’
मिनती – ‘माँ एक तरफ तुम
कहती हो कि मेरा कोई अपराध नहीं है। वही दूसरी तरफ तुम ही कह रही हो कि मेरे यहाँ
रहने के कारण ही ये घटना हुई है।’ मिनती के ससुर सास-बहू की बात देर से सुन रहे
थे। तब उनसे न रहा गया और वे कहने लगे –‘ देख माँ इसमें तुम्हारा कोई अपराध नहीं
है। परन्तु बात को समझो। तुम एक जवान लड़की हो। अभी-अभी विधवा हुई हो। आगे
तुम्हारा लम्बा जीवन पड़ा है। अगर तुम अपने पिता के साथ उसी समय चली गयी होती तो
फिर तुम अपने पिता के घर सुरक्षित रहती। हम तो आज है कल नहीं। हमारे पीछे तुम्हारा
क्या होगा यही सोच कर ही हमने निर्णय लिया है कि तुम्हें तुम्हारे पिता के घर भेज
दिया जाय। अगर तुम्हें कुछ हो गया तो हम तुम्हारे पिता को क्या मुँह दिखाएंगे। तुम
हमारे बेटे की पत्नी हो और उसकी अमानत हो। तुम्हारे साथ कुछ गलत होगा तो हम अपने
बेटे को ऊपर जाकर क्या कहेंगे।’
मिनती
अपने ससुर की बात सुनकर चुप रह जाती है। वह कोई जवाब नहीं देती। परन्तु कुछ देर
चुप रहकर बहुत विनत स्वर में कहती है –‘बाबा मैं अगर चली गयी तो आपकी सेवा कौन
करेगा? आप घर से जब यजमानी के लिए जाएंगे तब पीछे माँ को कौन देखेगा? यदि मुझे
इस गाँव से जाना ही है तो फिर मैं आप लोगों को अकेला नहीं छोड़ सकती। आप लोग भी
मेरे साथ चलेंगे। नहीं तो मैं यही पर रहूंगी। जो होगा ईश्वर की मर्जी समझ कर रह
लूंगी या फिर इस मुसीबत का सामना करूंगी।’ मिनती के कहने पर वे लोग थोड़ा चिन्तित
होते हैं और फिर वे अपनी बहू के मायके में जाकर रहने की बात को मना कर देते हैं।
मिनती के ससुर पुनः उसे समझाते हुए कहते हैं कि ‘देखो माँ हमसे ज्यादा तूम्हारे
जीवन पर संकट है। हम दो बूढ़ा-बूढ़ी इस उमर में इस गाँव को छोड़ कर कही और बसने की
सोच नहीं सकते। हमारे लिए ये संभव नहीं है। फिर बेटे की यादें भी जुड़ी है। अपने
घर को छोड़ पराए घर में रहना वही मरना हमसे नहीं होगा। हम तो अब अंतिम समय तक यही
रहेंगे। बहुत चिन्ता होती है तुम्हें तो शंकर बाबू तो है ही। तुम हमारे पीछे अपना
जीवन क्यों नष्ट करती हो?
तुम नए सिरे से अपना जीवन शुरु करो।’
मिनती
अपने ससुर की बात सुनकर आश्चर्यचकित रह जाती है। वही शंकर बाबू तथा उनकी पत्नी भी।
परन्तु वे भी समझ चुके थे कि इसी में मिनती की भलाई है। मिनती अंत में कुछ और नहीं
कह पाती है तथा अपने पिता के घर वापस जाने के लिए तैयार हो जाती है। अगले ही दिन
उसकी सास मिनती को उसके विवाह के समय मिले कपड़े तथा थोड़े से गहने एक बक्से में
बांध कर देती है। मिनती अपनी सास से मिलती है तथा नम आँखों से उनके चरण स्पर्श
करती है। भारी मन से अपने ससुर को भी प्रणाम करती है। शंकर बाबू ने इस बीच एक ऑटो
रिक्शा वाले को बुला लिया था। शंकर बाबू के साथ वह रिक्शा में बैठ रवाना हो जाती
है।
वे दोनों बदरपुर घाट पहुँचते हैं जहाँ से कुछ दूर उसके पिता
का गाँव कालाडूमरा था। वे लोग घाट के किनारे से पैदल ही चलकर गाँव जाते हैं।
रास्ते में मिनती शंकर बाबू से कहती है,
‘काकू,
आप लोगों ने तो मुझे क्षण भर में पराया कर दिया, पर मैं
आप लोगों को नहीं भूलूँगी। पिताजी और माँ का खयाल रखिएगा। वे लोग तो अब पूरी तरह
से अकेले हो चुके हैं।’
शंकर बाबू – ‘माँ रे, तू
चिन्ता मत कर। तू अपना जीवन देख संवार। जो कुछ भी हुआ वह तो विधाता का लिखा है।
इसमें हम सब क्या कर सकते हैं। कहते हैं न जन्म, मृत्यु तथा विवाह तीन विधाता का करा होता है। मैं जानता हूँ
तू दुखी है लेकिन अब ये ही नियती है।’
मिनती
शंकर बाबू की बात सुनकर चुपचाप सोचने लगती है। इस बीच वे लोग घर पहुँच जाते हैं।
मिनती को घर पहुँचाने पर शंकर बाबू को यथोचित आथित्य करके मिनती के पिता वापस भेज
देते हैं। इसके बाद वे मिनती के साथ पूरा समय बिताते हैं। उसे दुखी होने का कोई
अवसर नहीं देना चाहते थे। उसकी माँ भी उसे उसकी पसन्द का खाना बनाकर खिलाती है।
उसका छोटा भाई तथा बहू भी मिनती को हमेशा किसी-न-किसी तरह कोई काम-काज या फिर
बातों में उलझाये रखते ताकि उसे अपने ससुराल तथा देवव्रत की बातें याद न आने पाए।
लेकिन मिनती को वे खोया-खोया देख वे भी दुखी हो जाया करते थे। उसे इस तरह देखकर
पड़ोस की ही एक दादी ने सोचा कि मिनती के किसी काम में व्यस्त रखा जाए तो शायद उसे
इतना सोचने का अवसर न मिले।ये दादी मिनती को बचपन से ही बहुत प्यार करती थी तथा
अपनी पोती के समान ही मानती थी। वह आकर एक दिन मिनती से मिलती है तथा अपने साथ
पाटी बुनने का प्रस्ताव रखती है। दादी उसे बताती है कि उसकी बनाई पाटी गाँव के
साथ-साथ शहर वाले भी खरीद लेते हैं जिससे उनका गुज़ारा हो जाता है। मिनती को वह
समझाती है कि उसे इस प्रकार दुखी होकर रहने के बजाए कोई काम में व्यस्त रहना चाहिए
ताकि वह अपना सहारा खुद बन सके। मिनती दादी की बात सुनकर पहले तो मना करती है।
परन्तु माता-पिता के बहुत समझाने पर वह उनके घर जाकर शीतल पाटी बुनने के लिए राज़ी
हो जाती है। वह वहाँ दिन भर पाटी बुन लेती तथा कुछेक पाटी उसकी बिक भी गयी थी
जिससे दादी खुश होकर उसे उसकी कमाई का हिस्सा दे देती थी। लेकिन मिनती पाटी बुनते
समय अक्सर देवव्रत के साथ हुए हादसे को याद कर रोने लग जाती थी जिससे अब दादी भी
परेशान हो चुकी थी। परन्तु वे धैर्य से काम ले रही थी। जानती थी कि मिनती के लिए
ये सब इतना आसान नहीं है।
कुछ
दिनों बाद उनके घर दूर की एक मासी आती है। ये मिनती की माँ की ममेरी बहन लगती थी।
मगर बचपन में ये एक ही मोहल्ले में रहती थी सो दोनों में बहुत ही अच्छी दोस्ती थी।
मासी जब मिनती को देखती है तो वे बहुत दुखी हो जाती है। विशेषकर मिनती का दिन भर
उदासी और चुप्पी साधे घर के काम-काज करते रहना या फिर पाटी बुनना और शाम को खाना
खाकर जब वह सोने जाती को मासी को उसकी सिसकियाँ सुनाई देती। ऐसे ही एक दिन जब मासी
और मिनती की माँ घर के पीछे के बरामदे में बैठ कर कुछ कामों में लगी हुई थी। मासी
सुपारी काट रही थी तो मिनती की माँ काथा सिलाई में लगी हुई थी तब मासी बात छेड़ती
है –‘क्यों रे मनोरमा,
तेरी बेटी क्या सारा जीवन ऐसे ही बिता देगी। उसके भविष्य का
भी कुछ सोचा है। देख जवान लड़की है। रात-दिन इस तरह रो-रोकर गुजार रही है। अच्छा
नहीं लगता। सुन अगर तुझे बुरा न लगे तो मैं एक दो जगह बात चलाऊ?’
मनोरमा को जैसे थोड़ा झटका सा लगा। वह बोली— नमिता दी, तुम तो
जानती हो कि वह विधवा है। साल भर अपने पति के साथ तो रही है। ऐसे में उसका विवाह
हो जाएगा क्या? फिर लड़की की मर्जी भी तो जाननी है। मैं भी जानती हूँ कि इस तरह उसका भविष्य
तो नष्ट ही हो जाएगा।
नमिता—सुन,
मैं एक लड़के को जानती हूँ। बड़ा ही अच्छा लड़का है। उसकी
उम्र थोड़ी सी ज्यादा है,
लेकिन अपनी मिनती उसके साथ सुखी रहेगी। मेरे ही घर के बगल
में रहता है। उनकी माँ को गुज़रे बहुत समय हो गया है। पिता है। दोनों अच्छे
ब्राह्मण हैं। कमाई हो जाती है। वह पुर्णिमा ताई याद है तुझे? उन्हीं
के किसी दूर के रिश्तेदार लगते हैं। सुन,
बात चला लेने में बुराई नहीं है।
मनोरमा—अच्छा लड़का है तो उसकी इतने दिनों से शादी क्यों
नहीं हुई, दीदी?
नमिता—अरे गरीबी के चलते कहाँ हमारे यहाँ लड़के-लड़कियों की
शादी समय पर हो पाती है। लड़के की माँ को सास का रोग हो गया था। उसी के इलाज में
काफी पैसा खर्चा हो गया। फिर घर की हालत भी ठीक नहीं थी। वह तो भला हो हमारे निताई
राय का। उन्हीं के घर में अब पुजारी लगा है। पिछली बैसाख को उन्होंने एक बड़ा सा
दुर्गा मंदिर बनवाया था। उनकी कुल देवी है न। सो उन्हें कोई ब्राह्मण तो चाहिए था
ही पूजा-पाठ के लिए तो इन्हें रख लिया। अब खाने-पीने की कोई कमी नहीं है। बस एक
घरवाली की कमी है। वह पूरी हो जाए तो बस।
मनोरमा—क्या उन्होंने तुमसे कुछ कहा है क्या?
नमिता: अरे नहीं रे। वह तो लड़के का बाप मुझसे कह रहा था कि
अब लड़की एक देख ली जाए। जब से उनकी पत्नी गुज़री है, दोनों
बाप-बेटे बहुत मुश्किल में हैं। खाने की कमी नहीं है, लेकिन
पुरुष मानुष के लिए तीनों समय खाना पकाकर खाना कोई आसान काम है क्या?
मनोरमा – सुनो। मैं तो बात नहीं करूंगी। उसे देख कर ही मेरा
जी घबराने लगता है। बात करते डर लगता है। तुम ही बात करो। उसके पिता को भी तुम ही
मनाना। जानते तो हो कि लाडली बेटी है।
नमिता—तू अगर चाहे तो मैं जमाई बाबू से बात कर लूंगी। पीछे
हटना नहीं। मुझसे तो मिनती की ये हालत देखी नहीं जा सकती। बेचारी।
दो-तीन
दिन में नमिता लड़के के बारे में सारी बातें अच्छी तरह से पता लगा लेती है। वह
मिनती के पिता से इस बारे में बात करती है। इधर लड़के वालों को भी वही मिनती के
बारे में बताती है। लड़के के पिता पहले तो मिनती के विधवा होने की बात से रिश्ते
को मानने से इनकार कर देते हैं,
लेकिन जब नमिता उन्हें मिनती के गुणों के बारे में बताती है
तथा उन्हें समझाती है कि बड़ा उम्र का लड़का है, उसे अब दूसरी कोई कन्या नहीं मिलेगी, तो वे भी
मान जाते हैं। दोनों पक्षों में बातों का सिलसिला शुरू होता है। इधर मिनती को इसकी
खबर तक न थी। वह तो अपने दिवंगत पति की यादों को समेटे शीतल पाटी बुनने में लगी
हुई थी।
एक दिन
उसकी माँ ने समय देखकर दोपहर के खाना खाने के बाद सोते समय उससे पूछा तो मिनती ने
पुनःविवाह से साफ-साफ मना कर दिया। मिनती की माँ को जिस बात का भय था इतने दिनों
से वह होता देख उन्हें आशंका होने लगी कि कही लड़की के मना कर देने पर बात बिगड़
गयी तो जग हसाई हो जाएगी। वह मिनती को बहुत स्नेह के साथ समझाते हुए कहती है कि
उसका पूरा जीवन इस प्रकार बर्बाद हो जाए तो सही न होगा। मिनती अपनी माँ की बात
सुनकर पूछती है कि –‘माँ क्या ज़रूरी है कि एक स्त्री को किसी पुरुष का ही सहारा
लेकर पूरा जीवन गुज़ारना होगा?’
तब मिनती की माँ उसे समझाती है कि ज़रूरी नहीं कि किसी
पुरुष का सहारा लेकर वह जीवन बिताए। लेकिन किसी का सहारा बनना भी ज़रूरी होता है।
उसके माँ के समझाने पर मिनती दुबारा कहती है कि ‘जब मैंने मेरे ससुर जी से भी यही
कहा था कि वह उनका सहारा बनेगी तो उन्होंने तो मुझे ये कहा कि मैं अपना जीवन उनके
पीछे क्यों बर्बाद करू। बल्कि वे अकेले किसी तरह अपना जीवन जी लेंगे। मुझे तो
उन्होंने इसके लायक भी नहीं समझा।’ इतना कहकर मिनती रोने लगती है। तब माँ कहती है
–‘देख तेरे ससुर जी अकेले नहीं है। उनकी पत्नी साथ है। यानी उनकी जीवन-साथी साथ
में है। लेकिन तू सोच तेरे जीवन में कोई साथी है। जिसे तूने साथ फेरे लेकर वरा वह
तो चला गया अकेला छोड़ कर। तेरा अब इस संसार में है ही कौन? देख मेरी
बच्ची। इस प्रकार की जिद छोड़ दे। इतना लम्बा जीवन जीवन-साथी के बिना बहुत मुश्किल
होगा। देख हमने जो लड़का देखा है वह भला-चंगा है। अकेला है। उसकी माँ नहीं है केवल
पिता है। तेरे बारे में सब जानते हुए भी उन लोगों ने रिश्ते के लिए हामी भरी है।
हमने बात भी कर ली है। कुछ दिनों में तुझे देखने आएंगे। तू मना मत कर। मेरी बात
मान जा। तेरे पिता का मान रख ले बेटी। इस प्रकार अपना जीवन यू ही बर्बाद मत कर।
शास्त्रों में भी विधवा विवाह का विधान है। तुझे याद है न तुलसी माता की कहानी।
मान जा मेरी लाडली।’
मिनती
अपने माँ के समझाने पर तैयार हो जाती है। तय दिन पर लड़का और लड़के का पिता उसे
देखने आते हैं। फिर दोनों पक्षों में बात होती है तथा विवाह की तारीख पक्की कर दी
जाती है। मिनती का पहला विवाह बैसाख माह में हुआ था लेकिन दूसरे विवाह के लिए जब
दुबारा कुण्डली देखी जाती है तो सावन महीने की तिथि तय होती है। इस बीच मिनती के
मन में कुछ उधेरबुन सी होने लगती है। वह देवव्रत के माता-पिता को किसी प्रकार भूल
नहीं पाती है। वह अपने पिता से उनकी खबर लेने तथा उसके पुनः विवाह की बात भी बताने
की सोचती है। उसके पिता बेटी की बात सुनकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं। लेकिन मिनती
उन्हें अपना वास्ता देकर उन्हें अपने पहले ससुराल के गाँव खिरतुआ भेज देती है।
मिनती के पिता जब गाँव जाते हैं और उसके ससुराल वालों से मिलते है। देवव्रत के
माता-पिता मिनती के पिता से मिलकर बहुत आश्चर्यचकित होते हैं। उन्हें इस बात की
आशा ही नहीं थी कि वे उन्हें इतने दिनों तक याद भी रखेंगे। देवव्रत के पिता को जब
मिनती के दूसरे विवाह का पता चलता है तो वे सजल नेत्रों से मिनती के सौभाग्य की
कामना करते हैं। वही उनकी पत्नी भी मिनती को शंख और सिन्दुर तथा आलता लाकर मिनती के
पिता को देती हुई कहती है –‘हमारे भाग्य में होता तो हम बहू को हमेशा शंख-सिन्दुर
से लदा हुआ देखते। लेकिन नियति के आगे किसका बस चलता है। खैर अच्छा ही हुआ उस
अभागिन के लिए। भगवान उसे सुखी रखे। उसने यहाँ रहते हमारी जितनी सेवा की है उसी का
पुण्य फल है।’ इतना कहते-कहते वह फूट-फूट कर रोने लगती है। देवव्रत के पिता उन्हें
किसी प्रकार दिलासा देने लगते हैं।
मिनती के
पिता को अपने पुराने समधियों की हालत देख बहुत दुख होने लगता है। वे चाहते हुए भी
उनके लिए कुछ नहीं कर सकते थे। वृद्धावस्था में उन्हें देखने के लिए कोई नहीं था।
लेकिन दोनों दम्पति का जीवट बड़ा ही सख्त था। वे बेटे के मृत्यु को पचा तो नहीं पा
रहे थे लेकिन जितना जीवन वे विधाता से लेकर आए थे उसे तो जीना ही था सो बेटे की
यादों के सहारे जी रहे थे। मिनती के पिता उनसे कुछ नहीं कह पाते हैं। वे रुधे हुए
कण्ठ से उनसे विदा लेकर चले आते हैं। मिनती जब अपने पिता से उनके बारे में पूछती
है तो वे कुछ ढंग से कह नहीं पाते। परन्तु मिनती सबकुछ समझ जाती है। वह रसोई में
जाकर फूट-फूट कर रोने लगती है। काफी देर रो लेने के बाद अपने आँसुओं को पोछ कर वह
कुछ देर सोचती है। वह अपने पिता के पास दुबारा जाकर थोड़ी विरक्ति के स्वर में
पूछने लगती है –‘आप सब लोग मुझे मारने पर क्यों तुले हुए हैं? क्यों
मेरा विवाह कराना चाहते हैं। उनके माता-पिता की हालत देखकर भी आप लोगों को कुछ तरस
नहीं आता?’ तब मिनती के पिता उसे देवव्रत की माता जी के द्वारा दिया हुआ शंख, सिंदुर
तथा आलता देकर कहते हैं कि –‘देख माँ तेरी सास ने ही तुझे आशीर्वाद देकर ये सब
भेजा है। अब तो वे लोग भी चाहते हैं कि तू विवाह करके नए घर चली जाए। तुझे भले ही
लग रहा हो कि तेरे साथ हम सब जोर जबरदस्ती कर रहे हैं लेकिन तू ही सोच हम माँ-बाप
आज है कल नहीं। तेरे सास-ससुर भी अपने बेटे की मृत्यु से इतने दुखी और निराश हो
चुके हैं कि वे कितने दिन और जीएंगे इसका भी कोई ठिकाना नहीं है। तेरा जीवन तो आगे
पड़ा हुआ है। क्या तू नहीं चाहती कि तेरा भी एक संसार हो जहां तू निःशंक अपना जीवन
बिता सके? हमारे बाद तू तेरे छोटे भाई पर बोझ बनकर रहना चाहती है?’ मिनती को
एक समय के लिए जैसे बिजली सी चुभी। क्या वह अपने भाई पर बोझ है? वह कहती
है –‘बाबा क्या छोटे ने आपसे कुछ कहा है?’
तब वे कहते हैं ‘देख उसने मुझसे कुछ कहा नहीं है। लेकिन मैं
भी बाप हूँ। सब समझता हूँ। वह तुझे कुछ कहेंगे तो नहीं लेकिन उनका भी परिवार बड़ा
हो रहा है। छोचे की बहू के गोद में बच्चा देखकर तुझे मन नहीं होगा कि काश तेरा भी
घर होता, संतान होती तो तू भी कितनी सुखी होती। पुराने जमाने में विधवा बहने अपने पिता
या भाई के घर ही आकर सारा जीवन रह जाती थी लेकिन तब का समय अलग था। सामाजिक नियम
कानून व्यवस्थाएँ सब बहुत कठोर थे। परन्तु आज का समय बड़ा कठिन है। इसलिए तुझे
समझा रहा हूँ। तेरे पर कोई जोर-जबरदस्ती भी नहीं करूंगा। लेकिन अब तुझे निर्णय
लेना होगा। ’
मिनती
अपने पिता की बात अंततः मान लेती है। तय तिथि पर उसका विवाह होता है। फिर वही
चतुर्थ मंगल की घड़ी आती है। वह और उसका दूसरा पति सुधाकर शीतल पाटी को उलटा-पुलटा
लपेटकर घर के अंदर प्रवेश कर रहे होते हैं। मिनती अपनी पहली शादी की बात को याद
करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करते हुए गृह-प्रवेश करती है कि इस बार वह किसी भी
प्रकार अपने जीवन में कोई अनहोनी नहीं होने देगी। वह उसी रात को अपने बिस्तर पर
बिछायी हुई शीतल पाटी को लपेटकर कमरे की छत पर बने बांस के थाक (शेल्फ) पर रख देती
है। ये देख उसका पति उससे पूछता है तो वह कोई जवाब नहीं देती है, बस कहती
है कि उसे इसके बिना ही सोने की आदत करनी चाहिए।
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