9
‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश-------------------हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीकृष्ण में ही त्रिदेव तथा समस्त संसार की
शक्तियों को दिखाया गया है।
व्याख्या – श्री कृष्ण
दुर्योधन को कह रहे हैं कि देखो मेरे भीतर करोड़ों ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश हैं।
करोड़ों विजेता, करोड़ो जलपति तथा धन के ईश्वर कुबेर मेरे ही भीतर समाए हुए हैं।
करोड़ों रुद्र तथा काल अर्थात् मृत्यु एवं दण्डधारी लोकपाल आदि सब कुछ मेरे ही
भीतर समाए हुए है। अर्थात् कवि यह दर्शाना चाहते हैं कि इस संसार की संरचना
करोड़ों वर्षों से हो रही है। इस संसार की रचना स्वयं श्रीकृष्ण के द्वारा ही हुई
है। अतः उनके ही भीतर संसार के समस्त तत्व समाए हुए हैं। सृष्टि के संचालन के लिए
करोड़ों वर्षों से ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश की आवश्यकता थी जो कि स्वयं श्री
कृष्ण से ही उपजे हैं। इसी प्रकार सभी मनुष्य, देवता, कुबेर तथा रुद्र एवं मृत्यु
सबकुछ ही श्रीकृष्ण की ही संरचना है। श्री कृष्ण दुर्योधन को ललकारते हुए कह रहे
हैं कि – हे दुर्योधन यदि तुझमें शक्ति है तो अपनी जंजीर बढ़ा और इन समस्त करोड़ों
ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा लोकपालों को बांध सकते हो तो बांध कर दिखाओ। हाँ
दुर्योधन इन सभी को बाँध कर दिखाओ।
10
‘भूलोक, अतल, पाताल देख---------------------पहचान, इसमें कहाँ तू है।
प्रसंग—प्रस्तुत पंक्तियों
में श्रीकृष्ण दुर्योधन को महाभारत का वास्तविक दृश्य दिखाते हैं।
व्याख्या – श्रीकृष्ण अपने
विराट रूप में दुर्योधन को दिखाते हुए कह रहैं हैं कि यह सम्पूर्ण सृष्टि उन्हीं
में समाहित है। भूलोक अर्थात् पृथ्वी, अतल अर्थात् पाताल का एक भाग और पाताल भी
सभी उनकी सत्ता के अधीन है। वे ही इनके स्वामि है। कृष्ण आगे कहते हैं कि यहाँ समय
की मनुष्य तो केवल वर्तमान को देख सकता है परन्तु वे चाहे तो उसे अतीत(बीता हुआ समय)
और भविष्य यानि आने वाला कल दोनों ही दिखा सकते हैं। इस जगत का सृजन उन्हीं से हुआ
है। वे दुर्योधन को पहले ही महाभारत के युद्ध का दृश्य दिखा रहे हैं, जिसमें विनाश
का तांडव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। युद्ध के बाद की भयानक दृश्य का वर्णन करते
हुए वह दुर्योधक को दिखाते हैं कि देख धरती मरे हुए लोगों के शवों से ढक गयी है।
उसमें अपने-आप को पहचानो, देखों तुम्हारे कारण कितना बड़ा विनाश होने जा रहा है। देख
तू भी इनमें कहा है, शायद मृतकों में नहीं है। यहाँ वे दुर्योधन को चेतावनी दे रहे
हैं कि उसका भी अंत होगा।
11
‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख-------------------------फिर
लौट मुझी में आते हैं।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों
में श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड के नियंत्रक हैं।
व्याख्या – श्रीकृष्ण दुर्योधन
से कहते हैं कि – हे दुर्योधन! देख यह आकाश मेरे केशराशि की तरह विस्तृत
है। मेरे ही पैरों के नीचे पूरा पाताल लोक है।
मेरी मुट्ठी में तीनों काल अर्थात् अतीत, वर्तमान, भविष्य तीनों ही समाए
हुए हैं। मेरा विकराल अत्यंत भयानक रूप देख। यह रूप ही है जो न केवल सृजन अर्थात्
जन्म देता है बल्कि संहार भी करता है। यहाँ श्रीकृष्ण का योगेश्वर रूप स्पष्ट होता
है जिसमें इस संसार के सभी जीव-जन्तु उन्हीं से उत्पन्न होकर उन्हीं में ही विलीन
हो जाते हैं।
12
‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन-----------------छा
जाता चारों ओर मरण।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों
में श्रीकृष्ण अपने महाविनाशकारी रूप का वर्णन करते हैं जिसमें वे स्पष्ट कर रहे
हैं कि वे केवल सृजनकर्ता ही नहीं बल्कि
संहारकर्ता भी है।
व्याख्या—श्रीकृष्ण दुर्योधन
से कहते हैं कि जब मैं अपना मुँह खोलता हूँ तो अग्नि की प्रचंड लपटें निकलती हैं।
मेरी ही श्वास(सांस) से वायु का जन्म होता है, जिससे प्राणी सांस ले पाते हैं। जहाँ
भी मेरी दृष्टि पड़ती है वही सृष्टि निर्मित हो जाती है। अर्थात् उनकी कृपा से ही
सृजन होता है। लेकिन जब मैं अपनी आँखें मूँद लेता हूँ तो सम्पूर्ण सृष्टि ही नष्ट
हो जाती है। मैं ही सृष्टि का जन्मदाता हूँ और मैं ही संहार करने वाला हूँ।
13
‘बाँधने मुझे तो आया है-------------वह
मुझे बाँध कब सकता है?
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों
में वे दुर्योधन से उसकी शक्ति का परिचय मांग रहे हैं तथा उसे बता रहे हैं कि आज
तक कोई भी शून्य या सूने वस्तु को साध नहीं सका है।
व्याख्या – श्रीकृष्ण कहते
हैं कि—हे दुर्योधन तू जो मुझे बाँधने आया है क्या तेरे पास इतनी बड़ी जंजीर है
जिससे की तू मेरे इस विराट स्वरूप को बाँध सके? यदि मुझे तू
बाँधना ही चाहता है तो पहले यह अनन्त गगन को बाँधकर दिखा। अर्थात् श्रीकृष्ण का
स्वरूप अनन्त गगन की तरह है। वही वे आगे कहते हैं कि इस संसार में आज तक सूने या
फिर शून्य को कोई बाँध नहीं सका है। शून्य जब किसी अंक के आगे लग जाता है तो उसका
मूल्य घट जाता है परन्तु जब पीछे लगता है तो उसका मूल्य बढ़ जाता है। परन्तु जब वह
अकेला रहता है तब उसे न कोई बाँट सकता है न ले सकता है न ही किसी को दे सकता है। शून्य
से जब कोई टकराता है तो वह भी स्वयं शून्य में परिवर्तित हो जाता है। मैं स्वयं
शून्य हूँ और मुझी से ही सृष्टि का आरंभ हुआ है। अतः मुझे आज तक कब कोई बाँध सका
है?
14
‘हित-वचन नहीं तूने माना----------------जीवन-जय
या कि मरण होगा।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों
में श्रीकृष्ण दुर्योधन को अपना अन्तिम संकल्प की युद्ध होगा और विनाशकारी युद्ध
हो जिसमें करो या मरो की स्थिति होगी के बारे में बताते हैं।
व्याख्या – श्रीकृष्ण कहते
हैं कि – हे दुर्योधन मैंने तुम्हें समझाने का प्रयास किया। मैंने तुम्हारे हित कई
बात कही परन्तु तुम्हें हित वचन अच्छे नहीं लगे। इसलिए तुमने मेरे हित वचनों को
नहीं माना। मित्रता का मूल्य तुमने नहीं पहचाना। तो लो अब मैं जाता हूँ। परन्तु
जाते-जाते अपनी अन्तिम चेतावनी सुना जाता हूँ। अब कोई याचना नही की जाएगी, अर्थात्
कोई भी तुमसे आकर मित्रता करने की बार-बार भीख नहीं माँगेगा। अब सीधे युद्ध होगा।
या तो इस युद्ध में कौरव की जीत हो या फिर पाण्डवों की। या तो वे मरेंगे या फिर
तुम परन्तु युद्ध होगा ही।
15
‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर--------------------फिर
कभी नहीं जैसा होगा।
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों
में श्रीकृष्ण भयंकर युद्ध की स्थिति के बारे में दुर्योधन को पहले से ही सावधान
कर रहे हैं।
व्याख्या – हे दुर्योधन! देखना अब इतना भयंकर युद्ध होगा ऐसा लगेगा कि तारे आपस में टकरा रहे हैं।
इस धरती पर आग की तरह एक-एक अस्त्र बरसेंगे। शेषनाग रूपी मृत्यु का फण खुलेगा
जिसमें सभी समा जाएंगे। दुर्योधन ऐसा युद्ध होगा जिसमें इतना विनाश होगा कि भविष्य
में फिर कभी दुबारा इतना विनाशकारी युद्ध नहीं होगा।
16
‘भाई पर भाई टूटेंगे--------------------हिंसा
का पर, दायी होगा।’
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों
में श्रीकृष्ण न्याय के लिए कौरव-पाण्डव जो कि वास्तव में एक-दुसरे के भाई थे
उनमें युद्ध होने एवं स्वजनों के भाग्य फूटने का दुख की स्थिति के बारे में बता रहे
हैं।
व्याख्या – हे दुर्योधन
तुम्हारे कारण इस महाभारत के युद्ध में भाई-भाई आपस में एक-दूसरे से लड़ पड़ेंगे। एक-दूसरे
को मारने के लिए जहर से भरे बाण उनपर छोड़ेंगे। जो लोग मरेंगे उनके अपने घर वालों पर
दुख का पहाड़ तो टूटेगा ही साथ ही स्त्रियों का सौभाग्य फूट जाएगा। लोगों के मरने
पर मरे हुए लोगों का भक्षण करने के लिए बाघ और सियारी आएंगे। उन्हें सुख मिलेगा।
अर्थात् एक तरफ मनुष्य दुखी होगा तो दूसरी तरफ नरभक्षी पशु सुखी होंगे। अंत में एक
दिन तू भी हार कर मृत्यु को गले लगाएगा और भूमि पर तू भी गिरेगा। हे दुर्योधन इतनी
बड़ी हिंसा का तू ही दायी होगा।
17
थी सभा सन्न, सब लोग डरे-------निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!
प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों
में हस्तिनापुर की राजसभा का दृश्य वर्णित है जिसमें श्रीकृष्ण की चेतावनी से पूरी
सभी सन्न रह जाती है तथा सभी को आभास हो जाता है कि श्रीकृष्ण कोई राजदूत नहीं बल्कि
स्वयं ईश्वर का अवतार है।
व्याख्या – कवि कहते हैं कि
जब श्रीकृष्ण ने अपना विराट रूप सबके सामने प्रकट किया और अपनी शक्ति दिखाई तो दरबार
में बैठे सभी लोग भयभीत हो जाते हैं। कुछ लोग तो उनके विराट रूप को देखकर लोग या
तो बिल्कुल चुप हो जाते या फिर बेहोश ही हो जाते थे। केवल पूरी सभा में दो ही ऐसे
व्यक्ति थे जो न तो भयभीत थे न ही हतप्रभ। वे थे धृतराष्ट्र और विदुर। दोनों की
मनःस्थिति यहाँ पर अलग थी। धृतराष्ट्र जो कि जन्मान्ध थे वे अपनी आँखों से कुछ
नहीं देख पा रहे थे लेकिन उनकी आत्मा कृष्ण की दिव्य शक्ति को अनुभव कर पा रही थी।
वही विदुर जो हमेशा धर्म और सत्य के मार्ग पर थे, श्रीकृष्ण के इस दिव्य रूप को
देखकर अपार आनंद और संतोष प्राप्त कर रहे थे। जहां सभी लोग भयभीत थे वही
धृतराष्ट्र और विदुर ही हाथ जोड़े खड़े थे। दोनों ही श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप से
प्रसन्न थे एवं बिना किसी डर के दोनों ने उनके विराट स्वरूप पर स्वीकार कर लिया
था। वे धृतराष्ट्र जो कि पुत्र प्रेम में अंधे होने के बावजूद भी उन्होंने सच्चाई को
समझ लिया था अतः वे उनकी जय-जय कर रहे थे। वही विदुर जो कि श्रीकृष्ण के भक्त थे
अतः उनके लिए यह ईश्वरीय सत्य अत्यंत सुखकारी था। इसलिए वे भी जय-जय कर रहे थे।