कुल पेज दृश्य

216,194

रविवार, 23 मार्च 2025

B.com 2nd Sem SEP कृष्ण की चेतावनी

 

9

‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश-------------------हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

प्रसंग प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीकृष्ण में ही त्रिदेव तथा समस्त संसार की शक्तियों को दिखाया गया है।

व्याख्या – श्री कृष्ण दुर्योधन को कह रहे हैं कि देखो मेरे भीतर करोड़ों ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश हैं। करोड़ों विजेता, करोड़ो जलपति तथा धन के ईश्वर कुबेर मेरे ही भीतर समाए हुए हैं। करोड़ों रुद्र तथा काल अर्थात् मृत्यु एवं दण्डधारी लोकपाल आदि सब कुछ मेरे ही भीतर समाए हुए है। अर्थात् कवि यह दर्शाना चाहते हैं कि इस संसार की संरचना करोड़ों वर्षों से हो रही है। इस संसार की रचना स्वयं श्रीकृष्ण के द्वारा ही हुई है। अतः उनके ही भीतर संसार के समस्त तत्व समाए हुए हैं। सृष्टि के संचालन के लिए करोड़ों वर्षों से ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश की आवश्यकता थी जो कि स्वयं श्री कृष्ण से ही उपजे हैं। इसी प्रकार सभी मनुष्य, देवता, कुबेर तथा रुद्र एवं मृत्यु सबकुछ ही श्रीकृष्ण की ही संरचना है। श्री कृष्ण दुर्योधन को ललकारते हुए कह रहे हैं कि – हे दुर्योधन यदि तुझमें शक्ति है तो अपनी जंजीर बढ़ा और इन समस्त करोड़ों ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा लोकपालों को बांध सकते हो तो बांध कर दिखाओ। हाँ दुर्योधन इन सभी को बाँध कर दिखाओ।

10

‘भूलोक, अतल, पाताल देख---------------------पहचान, इसमें कहाँ तू है।

प्रसंग—प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीकृष्ण दुर्योधन को महाभारत का वास्तविक दृश्य दिखाते हैं।

व्याख्या – श्रीकृष्ण अपने विराट रूप में दुर्योधन को दिखाते हुए कह रहैं हैं कि यह सम्पूर्ण सृष्टि उन्हीं में समाहित है। भूलोक अर्थात् पृथ्वी, अतल अर्थात् पाताल का एक भाग और पाताल भी सभी उनकी सत्ता के अधीन है। वे ही इनके स्वामि है। कृष्ण आगे कहते हैं कि यहाँ समय की मनुष्य तो केवल वर्तमान को देख सकता है परन्तु वे चाहे तो उसे अतीत(बीता हुआ समय) और भविष्य यानि आने वाला कल दोनों ही दिखा सकते हैं। इस जगत का सृजन उन्हीं से हुआ है। वे दुर्योधन को पहले ही महाभारत के युद्ध का दृश्य दिखा रहे हैं, जिसमें विनाश का तांडव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। युद्ध के बाद की भयानक दृश्य का वर्णन करते हुए वह दुर्योधक को दिखाते हैं कि देख धरती मरे हुए लोगों के शवों से ढक गयी है। उसमें अपने-आप को पहचानो, देखों तुम्हारे कारण कितना बड़ा विनाश होने जा रहा है। देख तू भी इनमें कहा है, शायद मृतकों में नहीं है। यहाँ वे दुर्योधन को चेतावनी दे रहे हैं कि उसका भी अंत होगा।

 

 

 

11

‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख-------------------------फिर लौट मुझी में आते हैं।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड के नियंत्रक हैं।

व्याख्या – श्रीकृष्ण दुर्योधन से कहते हैं कि – हे दुर्योधन! देख यह आकाश मेरे केशराशि की तरह विस्तृत है। मेरे ही पैरों के नीचे पूरा पाताल लोक है।  मेरी मुट्ठी में तीनों काल अर्थात् अतीत, वर्तमान, भविष्य तीनों ही समाए हुए हैं। मेरा विकराल अत्यंत भयानक रूप देख। यह रूप ही है जो न केवल सृजन अर्थात् जन्म देता है बल्कि संहार भी करता है। यहाँ श्रीकृष्ण का योगेश्वर रूप स्पष्ट होता है जिसमें इस संसार के सभी जीव-जन्तु उन्हीं से उत्पन्न होकर उन्हीं में ही विलीन हो जाते हैं।

12

‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन-----------------छा जाता चारों ओर मरण।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीकृष्ण अपने महाविनाशकारी रूप का वर्णन करते हैं जिसमें वे स्पष्ट कर रहे हैं कि वे  केवल सृजनकर्ता ही नहीं बल्कि संहारकर्ता भी है।

व्याख्या—श्रीकृष्ण दुर्योधन से कहते हैं कि जब मैं अपना मुँह खोलता हूँ तो अग्नि की प्रचंड लपटें निकलती हैं। मेरी ही श्वास(सांस) से वायु का जन्म होता है, जिससे प्राणी सांस ले पाते हैं। जहाँ भी मेरी दृष्टि पड़ती है वही सृष्टि निर्मित हो जाती है। अर्थात् उनकी कृपा से ही सृजन होता है। लेकिन जब मैं अपनी आँखें मूँद लेता हूँ तो सम्पूर्ण सृष्टि ही नष्ट हो जाती है। मैं ही सृष्टि का जन्मदाता हूँ और मैं ही संहार करने वाला हूँ।

13

‘बाँधने मुझे तो आया है-------------वह मुझे बाँध कब सकता है?

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में वे दुर्योधन से उसकी शक्ति का परिचय मांग रहे हैं तथा उसे बता रहे हैं कि आज तक कोई भी शून्य या सूने वस्तु को साध नहीं सका है।

व्याख्या – श्रीकृष्ण कहते हैं कि—हे दुर्योधन तू जो मुझे बाँधने आया है क्या तेरे पास इतनी बड़ी जंजीर है जिससे की तू मेरे इस विराट स्वरूप को बाँध सके? यदि मुझे तू बाँधना ही चाहता है तो पहले यह अनन्त गगन को बाँधकर दिखा। अर्थात् श्रीकृष्ण का स्वरूप अनन्त गगन की तरह है। वही वे आगे कहते हैं कि इस संसार में आज तक सूने या फिर शून्य को कोई बाँध नहीं सका है। शून्य जब किसी अंक के आगे लग जाता है तो उसका मूल्य घट जाता है परन्तु जब पीछे लगता है तो उसका मूल्य बढ़ जाता है। परन्तु जब वह अकेला रहता है तब उसे न कोई बाँट सकता है न ले सकता है न ही किसी को दे सकता है। शून्य से जब कोई टकराता है तो वह भी स्वयं शून्य में परिवर्तित हो जाता है। मैं स्वयं शून्य हूँ और मुझी से ही सृष्टि का आरंभ हुआ है। अतः मुझे आज तक कब कोई बाँध सका है?

14

‘हित-वचन नहीं तूने माना----------------जीवन-जय या कि मरण होगा।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीकृष्ण दुर्योधन को अपना अन्तिम संकल्प की युद्ध होगा और विनाशकारी युद्ध हो जिसमें करो या मरो की स्थिति होगी के बारे में बताते हैं।

व्याख्या – श्रीकृष्ण कहते हैं कि – हे दुर्योधन मैंने तुम्हें समझाने का प्रयास किया। मैंने तुम्हारे हित कई बात कही परन्तु तुम्हें हित वचन अच्छे नहीं लगे। इसलिए तुमने मेरे हित वचनों को नहीं माना। मित्रता का मूल्य तुमने नहीं पहचाना। तो लो अब मैं जाता हूँ। परन्तु जाते-जाते अपनी अन्तिम चेतावनी सुना जाता हूँ। अब कोई याचना नही की जाएगी, अर्थात् कोई भी तुमसे आकर मित्रता करने की बार-बार भीख नहीं माँगेगा। अब सीधे युद्ध होगा। या तो इस युद्ध में कौरव की जीत हो या फिर पाण्डवों की। या तो वे मरेंगे या फिर तुम परन्तु युद्ध होगा ही।

15

‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर--------------------फिर कभी नहीं जैसा होगा।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीकृष्ण भयंकर युद्ध की स्थिति के बारे में दुर्योधन को पहले से ही सावधान कर रहे हैं।

व्याख्या – हे दुर्योधन! देखना अब इतना भयंकर युद्ध होगा ऐसा लगेगा कि तारे आपस में टकरा रहे हैं। इस धरती पर आग की तरह एक-एक अस्त्र बरसेंगे। शेषनाग रूपी मृत्यु का फण खुलेगा जिसमें सभी समा जाएंगे। दुर्योधन ऐसा युद्ध होगा जिसमें इतना विनाश होगा कि भविष्य में फिर कभी दुबारा इतना विनाशकारी युद्ध नहीं होगा।

16

‘भाई पर भाई टूटेंगे--------------------हिंसा का पर, दायी होगा।’

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीकृष्ण न्याय के लिए कौरव-पाण्डव जो कि वास्तव में एक-दुसरे के भाई थे उनमें युद्ध होने एवं स्वजनों के भाग्य फूटने का दुख की स्थिति के बारे में बता रहे हैं।

व्याख्या – हे दुर्योधन तुम्हारे कारण इस महाभारत के युद्ध में भाई-भाई आपस में एक-दूसरे से लड़ पड़ेंगे। एक-दूसरे को मारने के लिए जहर से भरे बाण उनपर छोड़ेंगे। जो लोग मरेंगे उनके अपने घर वालों पर दुख का पहाड़ तो टूटेगा ही साथ ही स्त्रियों का सौभाग्य फूट जाएगा। लोगों के मरने पर मरे हुए लोगों का भक्षण करने के लिए बाघ और सियारी आएंगे। उन्हें सुख मिलेगा। अर्थात् एक तरफ मनुष्य दुखी होगा तो दूसरी तरफ नरभक्षी पशु सुखी होंगे। अंत में एक दिन तू भी हार कर मृत्यु को गले लगाएगा और भूमि पर तू भी गिरेगा। हे दुर्योधन इतनी बड़ी हिंसा का तू ही दायी होगा।

17

थी सभा सन्न, सब लोग डरे-------निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में हस्तिनापुर की राजसभा का दृश्य वर्णित है जिसमें श्रीकृष्ण की चेतावनी से पूरी सभी सन्न रह जाती है तथा सभी को आभास हो जाता है कि श्रीकृष्ण कोई राजदूत नहीं बल्कि स्वयं ईश्वर का अवतार है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि जब श्रीकृष्ण ने अपना विराट रूप सबके सामने प्रकट किया और अपनी शक्ति दिखाई तो दरबार में बैठे सभी लोग भयभीत हो जाते हैं। कुछ लोग तो उनके विराट रूप को देखकर लोग या तो बिल्कुल चुप हो जाते या फिर बेहोश ही हो जाते थे। केवल पूरी सभा में दो ही ऐसे व्यक्ति थे जो न तो भयभीत थे न ही हतप्रभ। वे थे धृतराष्ट्र और विदुर। दोनों की मनःस्थिति यहाँ पर अलग थी। धृतराष्ट्र जो कि जन्मान्ध थे वे अपनी आँखों से कुछ नहीं देख पा रहे थे लेकिन उनकी आत्मा कृष्ण की दिव्य शक्ति को अनुभव कर पा रही थी। वही विदुर जो हमेशा धर्म और सत्य के मार्ग पर थे, श्रीकृष्ण के इस दिव्य रूप को देखकर अपार आनंद और संतोष प्राप्त कर रहे थे। जहां सभी लोग भयभीत थे वही धृतराष्ट्र और विदुर ही हाथ जोड़े खड़े थे। दोनों ही श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप से प्रसन्न थे एवं बिना किसी डर के दोनों ने उनके विराट स्वरूप पर स्वीकार कर लिया था। वे धृतराष्ट्र जो कि पुत्र प्रेम में अंधे होने के बावजूद भी उन्होंने सच्चाई को समझ लिया था अतः वे उनकी जय-जय कर रहे थे। वही विदुर जो कि श्रीकृष्ण के भक्त थे अतः उनके लिए यह ईश्वरीय सत्य अत्यंत सुखकारी था। इसलिए वे भी जय-जय कर रहे थे।

शनिवार, 22 मार्च 2025

B.com 2nd Sem SEP कृष्ण की चेतावनी व्याख्या

 

कृष्ण की चेतावनी

4

दुर्योधन वह भी दे ना सका------पहले विवेक मर जाता है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में दुर्योधन की ईर्ष्या एवं विवेकहीन कृत्य की वर्णना की जा रही है।

व्याख्या – जब कृष्ण ने दुर्योधन से आधे राज्य के बदले केवल पाँच गाँव माँगे तो दुर्योधन क्रोधित हो जाता है और वह कृष्ण से कहता है कि वह पाण्डवों को सुई की नोक के बराबर की भूमि भी नहीं देगा। कवि आगे कहते हैं कि दुर्योधन यह भी न दे सका पाण्डवों को। यदि वह देता तो समाज उसे आशीर्वाद देता परन्तु उसके मना करने पर समाज को भी बुरा लगा। उलटे दुर्योधन ने मूर्खता दिखाते हुए वह कृष्ण को ही बन्दी बनाने लगा। जो कि असाध्य है क्योंकि कृष्ण  स्वयं भगवान है, उन्हें बांधना असंभव है। असाध्य को जब दुर्योधन साधने चला तो कवि कहते हैं कि मनुष्य का नाश जब सिर पर चढ़ता है तो पहले विवेक नाश हो जाता है।

 

5

हरि ने भीषण हुंकार किया --------हाँ, हाँ दुर्योधन बाँध मुझे।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कृष्ण के क्रोध एवं उनकी शक्ति का वर्णन करते हैं।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि जैसे ही दुर्योधन कृष्ण को बन्दी बनाने के लिए उनकी तरफ बढ़ता है तो कृष्ण भीषण हुंकार करते हैं तथा अपना स्वरूप विस्तार करते हुए विश्वरूप धारण करते हैं। उनके विस्तृत रूप देखकर सारे दिग्गज अर्थात् दिग्विजयी योद्धा भी डर के मारे डग-मग होकर डोलने लगते हैं। भगवान कृष्ण तब क्रोधित होकर दुर्योधन को बोलते हैं – हे दुर्योधन अपनी जंजीर लेकर आओ और आगे बढ़ो और साध मुझे। हाँ दुर्योधन मुझे बाँध। भगवान कृष्ण यहाँ दुर्योधन को चुनौति देते हैं।

 

6

यह देख गगन मुझमें लय है--------संहार झूलता है मुझमें।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि कृष्ण के विराट स्वरूप के बारे में बता हैं।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि जब दुर्योधन को कृष्ण चेतावनी देते हैं तथा उसे अपने को बाँधने के लिए ललकारते है तब वे कहते हैं – यह देख दुर्योधन यह सम्पूर्ण गगन(आकाश) मुझमें समाया हुआ है।  यह देख दुर्योधन यह पवन भी मुझमें मिला हुआ है। सारे झंकार अर्थात् संसार में जितना नाद (आवाज़) ताल, लय, शब्द सबकुछ मुझमें विलीन है अर्थात् समाया हुआ है। कवि कहते हैं कि समस्त ध्वनियाँ, कंपन और संसार की समस्त चहल-पहल उनके भीतर समायी हुई है। यह उनकी आत्मा की व्यापकता और अखंडता को दर्शाता है। कृष्ण दुर्योधन से यह भी कहते हैं कि उनमें ही अमरत्व एवं विनाश(संहार) दोनों समाया हुआ है। अर्थात् सृष्टि के सृजन तथा विनाश दोनों ही वे स्वयं है।

 

7

उदाचल मेरा दीप्त भाल------------सब हैं मेरे मुख के अन्दर

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप का चित्रण करते हुए बताते हैं कि कृष्ण दुर्योधन को अपने दिव्य, अनंत और व्यापक रूप को दर्शा रहे हैं, जो सम्पूर्ण सृष्टि को अपने भीतर समाहित किए हुए है।

व्याख्या – यहाँ उदयाचल(पूर्व दिशा की ओर सूर्य का उदित होना) को श्रीकृष्ण के चमकते हुए मस्तक(भाल) की उपमा दी गई है जो तेज और ज्ञान का प्रतीक है। इसका अर्थ है कि भगवान का मुख मण्डल सूर्य की तरह प्रकाशवान और दिव्य है। कवि कहते हैं कि कृष्ण का वक्षस्थल(छाती) संपूर्ण पृथ्वी के समान विशाल बताया गया है। जिससे यह संकेत मिलता है कि वे समस्त ब्रह्माण्ड को धारण किए हुए हैं।  आगे कि पंक्ति में कृष्ण की भुजाओं की अपार को दर्शाया गया है। उनकी भुजाएँ इतनी विशाल है कि वे पूरी सृष्टि को अपने घेरे में ले सकते हैं।

 

8

दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख---शत कोटी

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने श्रीकृष्ण के विश्वरूप को दर्शाया है जो कि दुर्योधन को चुनौति दे रहा है।

व्याख्या – कृष्ण दुर्योधन को ललकारते हुए कह रहे है कि यदि तेरी आँखें है, यदि उन आँखों में शक्ति है तो देख दुर्योधन। यह देख सारा ब्रह्माण्ड मुझमें समाया हुआ है। संसार के समस्त चर-अचर अर्थात् चलने वाले और एक ही स्थान पर रह जाने वाले अचल जीव-जन्तु, पूरा संसार, नष्ट होने वाले जीव हो अथवा अविनाशी जीव जो कभी नष्ट नहीं होते ऐसे सभी जीव मेरे ही अंदर है। मनुष्य हो चाहे देवता हो चाहे सुर या असुर, राक्षस सब मेरे ही भीतर है। इस पूरे ब्रह्माण्ड में करोड़ो सूर्य और चन्द्रमा, करोड़ो समुद्र, नदियाँ, झरने सबकुछ मेरे ही भीतर समाया हुआ है।

मंगलवार, 11 मार्च 2025

शंबूक व्याख्या

 व्याख्या: जगदीश गुप्त द्वारा लिखित 'शंबूक' की इन पंक्तियों में समाज में व्याप्त विषमता, अन्याय और शोक का सजीव चित्रण किया गया है। 

"लगी पड़ने स्याह गोरी देह, हो रहा विष दंश का संदेह" इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि ब्राह्मण पुत्र की देह स्याह अर्थात् नीला पड़ने लगा है। ऐसा लग रहा है जैसे कि किसी सर्प से उसे कांटा है। विष के प्रभाव से उसका शरीर नीला पड़ गया है।

"कौन जाने कहां कैसा नाग, बुझा मेरा वंश दीपक आज" न जाने ये नाग कैसा है कहा से आया है एवं इसके काटने से आज मेरे पुत्र की मृत्यु हो गई है। इसके वजह से मेरे वंश का दीपक बुझ गया है। अर्थात् ब्राह्मण का पुत्र उसके वंश के दीपक के समान था जो कि आगे उसका वंश बढ़ाता परन्तु सांप के काटने से उसकी मृत्यु हो गई है। 

"राम यह कैसा ’तुम्हारा राज’" यहाँ कवि ने रामराज्य की आदर्श छवि पर प्रश्न उठाया है। जिस रामराज्य को न्याय और समानता का प्रतीक माना जाता था, वहीं पर एक ब्राह्मण के बेटे की इस प्रकार से मृत्यु होना सही नहीं है। 

"शोक से ब्राह्मण हुआ निःशब्द, घट गये ज्यों आयु के सब अब्द" यहाँ ब्राह्मण वर्ग का मौन रहना और उसकी आयु का घटना यह दर्शाता है कि समाज के संरक्षक और मार्गदर्शक वर्ग भी इस अन्याय के कारण हतप्रभ और लज्जित हैं। नैतिक मूल्यों का पतन हो चुका है।

"प्रजा पर यदि गिरे कोई गाज, ’दोष राजा का’, उठी आवाज" 

कवि कह रहे है कि ब्राह्मण उलाहना देते हुए राम को लक्ष्य करके कह रहा है कि जब प्रजा पर कोई विपत्ति या मुसीबत आती है तो इसमें राजा का ही दोष होता है। क्योंकि राजा पर ही प्रजा की सुरक्षा और पालन पोषण का भार होता है। यहां पर कवि ने सामाजिक जागरूकता को दर्शाया है। प्रजा यह समझने लगी है कि शासक की नीतियों और निर्णयों का प्रभाव समाज पर पड़ता है। रामराज्य में हुए अन्याय का दोष अब राम पर ही मढ़ा जा रहा है।

"जगे पुरजन, लगा होने भोर, मच गया चारों तरफ यह शोर"  ब्राह्मण की करुण पुकार एवं उलाहना सुनकर सारे नगरवासी जागने लगते हैं तथा चारों ओर ये बातें फैल जाती है।यहाँ जनचेतना के जागरण का संकेत है। अन्याय के प्रति लोगों में असंतोष और आक्रोश पनप रहा है। रामराज्य की आदर्श छवि खंडित हो रही है।

"राम–राज नहीं रहा अकलंक, इस कमल में भी सना है पंक" रामराज्य, जिसे निष्कलंक और आदर्श माना जाता था, अब उसमें भी दोष उत्पन्न हो गए हैं। 'कमल में पंक' का अर्थ है कि रामराज्य की निर्मलता और शुद्धता अब कलुषित हो गई है।

शंबूक विस्तृत व्याख्या BA 4th sem

 व्याख्या:

जगदीश गुप्त द्वारा लिखित शंबूक काव्य की इन पंक्तियों में रामराज्य की भव्यता, राजमहल की दिव्यता, और शासन की संरचना को चित्रित किया गया है।

आगे ज्योति मंडित, दीर्घ उन्नत, दिव्य राजद्वार – इन पंक्तियों में राजमहल के द्वार की विशालता और दिव्यता का वर्णन किया गया है। "ज्योति मंडित" से तात्पर्य है कि यह द्वार प्रकाशमय और अलौकिक तेज से युक्त है। "दीर्घ उन्नत" से द्वार की ऊँचाई और भव्यता का संकेत मिलता है।

पीछे शक्ति शाली, लोक रक्षक, राम का दरबार – इस पंक्ति में यह बताया गया है कि इस दिव्य राजद्वार के पीछे वह दरबार है जहाँ राजा राम न्याय करते हैं। यह केवल एक साधारण दरबार नहीं, बल्कि एक ऐसा स्थान है जहाँ शक्ति (सत्ता) और लोक रक्षा (जनता की सुरक्षा) का संतुलन बना हुआ है। राम का शासन धर्म और न्याय पर आधारित है।

ऊपर तोरणों, आच्छादनों, कलशों, ध्वजों की भांति – यहाँ महल की शिल्पकला और उसकी अद्वितीय बनावट का वर्णन किया गया है। "तोरण" यानी महल के प्रवेश द्वार पर बने सजावटी द्वार, "आच्छादन" यानी छतों पर की गई विशेष सजावट, "कलश" यानी शिखर पर रखे गए पवित्र कलश, और "ध्वज" यानी झंडे, जो महल की दिव्यता को और बढ़ाते हैं।

जितने रूप, उतने रंग, जितने रंग, उतनी भांति – यह वाक्य महल की विविधता और उसकी सौंदर्यपूर्ण भव्यता को दर्शाता है। यहाँ पर यह संकेत दिया गया है कि महल का हर कोना अलग-अलग रंगों, रूपों और शैलियों से सजा हुआ है, जो उसे अत्यंत आकर्षक और राजसी बनाता है।

समग्र रूप से, इन पंक्तियों में राम के दरबार की अद्वितीय भव्यता और न्यायपरायणता का चित्रण किया गया है, जो एक आदर्श शासन व्यवस्था का प्रतीक है।



व्याख्या:

इन पंक्तियों में अयोध्या की भव्यता, सामाजिक व्यवस्था, और ब्राह्मण के पुत्र  की मृत्यु से उपजे शोक व आक्रोश का चित्रण किया गया है।

पहला खंड: अयोध्या का वैभव और व्यवस्था

"सहज प्रहरी, दंडधारी हर प्रहर, हर दिशा उल्लास की उठती लहर" यहाँ अयोध्या की सुरक्षा व्यवस्था और अनुशासन का वर्णन किया गया है। "सहज प्रहरी" से तात्पर्य उन सैनिकों से है जो स्वाभाविक रूप से नगर की रक्षा में तैनात हैं। "दंडधारी" शब्द प्रशासनिक शक्ति और अनुशासन का प्रतीक है, जो अयोध्या में हर समय सक्रिय है। "हर दिशा उल्लास की उठती लहर" इस बात को इंगित करता है कि यह नगर समृद्ध, सुव्यवस्थित और उत्सवपूर्ण वातावरण से भरा हुआ है।

"यह अयोध्या का हृदय प्रत्यक्ष है, कौन इससे अधिक है समकक्ष है" इस पंक्ति में अयोध्या की श्रेष्ठता का चित्रण किया गया है। इसे आदर्श राज्य और न्याय का केंद्र माना गया है। प्रश्न के रूप में पूछे गए इन वाक्यों में गर्व और आत्मविश्वास झलकता है कि इस नगर की बराबरी करने वाला कोई अन्य राज्य या नगर नहीं है।

दूसरा खंड: एक विषादपूर्ण घटना

"चीर कर शाहनाइयों का नाद, बेधता किसका असीम विषाद" यहाँ विपर्यय (विरोधाभास) का चित्रण किया गया है। एक ओर तो अयोध्या में उल्लास और आनंद का वातावरण है, दूसरी ओर किसी के "असीम विषाद" (अत्यधिक दुःख) को वह खुशी भेद रही है। "शाहनाइयों का नाद" यानी उत्सवों और राजकीय वैभव की ध्वनि को किसी करुण क्रंदन ने चीर दिया है। यह संकेत करता है कि अयोध्या में कोई ऐसा अन्याय हुआ है जो इसके हर्षोल्लास पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है।

"शब्द कर्कश बोलता है कौन, अमृत में विष घोलता है कौन" यहाँ कवि प्रश्न करता है कि इस आदर्श राज्य में, जहाँ सब कुछ शांति और न्याय से संचालित होता है, यह कठोर और कटु शब्द कौन बोल रहा है? "अमृत में विष घोलता है कौन" – यह संकेत है कि रामराज्य की पवित्रता और न्यायप्रियता को किसी घटना ने कलंकित कर दिया है।

तीसरा खंड: ब्राह्मण का शोक

"शिखा खोले, क्षुब्द ब्राह्मण एक, दे रहा अभिशाप, बाँहें फेंक" यहाँ एक ब्राह्मण का चित्रण किया गया है जो अत्यधिक क्रोधित और क्षुब्ध है। "शिखा खोले" का तात्पर्य यह है कि वह शोकग्रस्त और व्याकुल है, क्योंकि शास्त्रों में किसी ब्राह्मण के खुले शिखा (चोटी) को अपशकुन और अनर्थ का संकेत माना जाता है। वह किसी को (संभवत: समाज या व्यवस्था को) अभिशाप दे रहा है, जिससे उसके आक्रोश और वेदना का पता चलता है।

"भूमि पर उसका तरुण प्रतिरूप, भग्न, निश्चल, यज्ञ का ज्यों यूप" यहाँ बताया गया है कि ब्राह्मण का युवा पुत्र मृत पड़ा है। "तरुण प्रतिरूप" यानी उसका जवान पुत्र, जो अब निष्प्राण है। "भग्न, निश्चल" से उसके शव की दशा का वर्णन है—वह टूटा हुआ और निष्क्रिय पड़ा है, जैसे यज्ञ में उपयोग किया गया "यूप" (बलि के लिए स्थापित लकड़ी का खंभा) बलि के बाद बेकार पड़ा रहता है।

भावार्थ:

जहाँ एक ओर अयोध्या में उल्लास और शांति का माहौल है, वहीं दूसरी  ओर ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु से उत्पन्न दुख के कारण स्थिति बहुत दुखद हो गई है जिससे ब्राह्मण को क्रोध होता है।ब्राह्मण के क्रोध और उसके मृत पुत्र के चित्रण के माध्यम से यह बताया गया है कि समाज को शिक्षा तथा ज्ञान देने वाले को ही यदि सुरक्षा नहीं मिलती है तो फिर इतने उल्लास और हर्ष मनाने की क्या आवश्यकता है।


व्याख्या:

प्रथम खंड: अतीत, वर्तमान और भविष्य की जटिलता

"विगत के आस्तित्व से अनजान, स्वप्न में होता भविष्यत ज्ञान" यहाँ यह बताया गया है कि मनुष्य अक्सर अपने अतीत को भुला देता है, लेकिन भविष्य को लेकर आशंकित और जिज्ञासु रहता है। यह पंक्तियाँ दर्शाती हैं कि समाज अपने इतिहास में हुए अन्यायों से सीख नहीं लेता, बल्कि भविष्य को लेकर स्वप्नों में खोया रहता है।

"रात्रि के पिछले पहर, निस्तब्ध व्यक्ति से ज्यों बोलता प्रारब्ध" रात्रि का अंतिम पहर एक विशेष प्रतीक है, जो परिवर्तन और चेतना का संकेत देता है। जब सब कुछ शांति में डूबा होता है, तब "प्रारब्ध" (भाग्य) व्यक्ति से संवाद करता है। इसका अर्थ यह है कि जब समाज मौन हो जाता है, तब उसके भीतर छिपी नियति या उसके कर्मों का प्रभाव प्रकट होने लगता है।

द्वितीय खंड: ब्राह्मण की करुण पुकार और उसकी गूंज

"उस तरह उसका करुण चीत्कार, पैठ जाता चेतना के पार" यहाँ ब्राह्मण की पुकार को दर्शाया गया है, जो केवल एक सामान्य मृत्यु नहीं बल्कि एक ऐतिहासिक अन्याय की घोषणा है। उसका करुण क्रंदन केवल सतही तौर पर नहीं सुना जाता, बल्कि वह चेतना के उस स्तर तक पहुँच जाता है जो व्यक्ति और समाज दोनों को झकझोर सकता है।

तृतीय खंड: रामराज्य का मौन और उसकी विडंबना

"शांत फिर भी राम का दरबार, मौन फिर भी भव्य राजद्वार" यह पंक्तियाँ गहरी विडंबना प्रकट करती हैं। ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु के बावजूद, राम का दरबार शांत है, कोई प्रतिरोध नहीं, कोई हलचल नहीं। यह मौन उस सामाजिक तंत्र को दर्शाता है जो अन्याय को देखकर भी प्रतिक्रिया नहीं देता। "भव्य राजद्वार" का "मौन" रहना यह संकेत करता है कि सत्ता और शासक वर्ग इस घटना से प्रभावित नहीं हुआ, वह अपनी गरिमा और प्रतिष्ठा बनाए रखने में ही व्यस्त रहा।

भावार्थ:

इन पंक्तियों में कवि ने नियति, अन्याय और सामाजिक व्यवस्था की निष्क्रियता को रेखांकित किया है। ब्राह्मण पु की मृत्यु केवल एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरी सामाजिक चेतना पर एक आघात थी। उसका चीत्कार एक प्रश्न की तरह इतिहास में दर्ज हो गया, लेकिन राम का दरबार और अयोध्या की सत्ता उस पर मौन बनी रही। यह मौन केवल शारीरिक नहीं, बल्कि एक गहरी सामाजिक और राजनीतिक चुप्पी को दर्शाता है, जो अन्याय को अनदेखा कर देती है।



व्याख्या:

इन पंक्तियों में ब्राह्मण पुत्र की मृत्यु  के बाद उत्पन्न हुई विक्षोभ, वेदना और सामाजिक संतुलन पर पड़ने वाले प्रभाव को दर्शाया गया है। कवि ने अन्याय के परिणामों को अत्यंत प्रभावशाली रूपकों के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

प्रथम खंड: यातना और उसका व्यापक प्रभाव

"यातना उसकी दरारें खोल, ला रही थी सृष्टि में भूडोल" ब्राह्मण पुत्र की मृत्यु  की यातना केवल उसकी व्यक्तिगत पीड़ा तक सीमित नहीं थी, बल्कि वह संपूर्ण समाज और सृष्टि के लिए एक झटका थी। "दरारें खोल" से तात्पर्य यह है कि यह घटना समाज के भीतर गहरी टूटन और असंतुलन उत्पन्न कर रही थी। "भूडोल" (भूकंप) शब्द इस बात को दर्शाता है कि इस अन्यायपूर्ण हत्या से एक ऐसा हलचल पैदा हो रहा था जो पूरे सामाजिक ताने-बाने को हिला सकता था। यह संकेत करता है कि जब भी समाज में अन्याय होता है, तो वह केवल एक घटना नहीं होती, बल्कि उसकी लहरें दूर तक फैलती हैं और सत्ता की नींव तक को हिला सकती हैं।

द्वितीय खंड: प्रकृति और न्याय की चुनौती

"भूमि पर अघटित घटेगा क्या? सूर्य निज पथ से हटेगा क्या?" यहाँ कवि प्रश्न करता है कि क्या यह घटना इतनी असाधारण और अन्यायपूर्ण थी कि यह प्रकृति के नियमों को भी बदल सकती है? "अघटित घटेगा क्या?"—अर्थात् क्या ऐसा कुछ होगा जो पहले कभी नहीं हुआ? यह प्रश्न सत्ता और समाज के लिए एक चुनौती है कि क्या वे इस अन्याय को स्वीकार करके भी स्वयं को न्यायप्रिय कहेंगे?

"सूर्य निज पथ से हटेगा क्या?"—यह अत्यंत महत्वपूर्ण पंक्ति है। सूर्य के अपने पथ से हटने का अर्थ है कि सृष्टि का संतुलन ही बिगड़ जाए। यहाँ सूर्य को सत्य और न्याय का प्रतीक माना गया है। कवि संकेत करता है कि क्या यह अन्याय इतना बड़ा है कि यह सृष्टि के मूल नियमों को भी हिला देगा?

भावार्थ:

इन पंक्तियों में ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु को एक ऐतिहासिक, सामाजिक और प्राकृतिक संकट के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह अन्याय केवल एक व्यक्ति की हत्या नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज के न्याय और संतुलन पर प्रहार था। कवि ने भूकंप और सूर्य जैसे व्यापक रूपकों का उपयोग करके यह दिखाया है कि जब सत्ता अन्यायपूर्ण निर्णय लेती है, तो उसके प्रभाव केवल एक व्यक्ति तक सीमित नहीं रहते, बल्कि संपूर्ण समाज और उसकी संरचना को प्रभावित करते हैं।

शनिवार, 1 मार्च 2025

BBA 2nd sem SEP समानांतर लकीरें कविता व्याख्या

 

कविता: समानांतर लकीरें (प्रयागनारायण त्रिपाठी)

इस कविता में प्रेम, दूरी, सामाजिक बंधन, भय, और संशय जैसे तत्वों का गहरा चित्रण है। कवि ने प्रेम में आने वाली बाधाओं को "समानांतर लकीरों" के रूप में प्रस्तुत किया है, जो कभी मिलती नहीं हैं। यहाँ प्रत्येक पंक्ति की व्याख्या इस प्रकार है:


1. मैं अभी तक भी न छू पाया तुम्हें

  • यह प्रेमी की वेदना को दर्शाता है। वह अपने प्रिय से निकटता चाहते हुए भी उसे छू नहीं पाता, यानी उनके बीच कोई अदृश्य बाधा है।

**2. क्योंकि ढह पाईं नहीं

अब तक**

  • यह उन सामाजिक, मानसिक, और आत्मिक बाधाओं को इंगित करता है जो प्रेमी और प्रेमिका के बीच हैं।

**3-4. हमारे बीच की कुछ भीतियाँ—

यद्यपि बहुत झीनी**

  • "भीतियाँ" यानी दीवारें, जो उनके प्रेम में अवरोध बनी हुई हैं। ये बहुत पतली (झीनी) हैं, परंतु फिर भी टूट नहीं पाई हैं।

5. पवन-सी क्षीण।

  • यह दर्शाता है कि ये बाधाएँ बहुत हल्की और नाजुक हैं, जैसे हवा की एक हल्की परत, लेकिन फिर भी बनी हुई हैं।

6. अपरिचय की एक थी :

  • पहले अपरिचय (एक-दूसरे को न जानने) की दीवार थी, जो अब समाप्त हो गई है।

**7. वह ढह चुकी है—

कर चुकी है दृष्टि को छू दृष्टि**

  • अब वे एक-दूसरे को जान चुके हैं, एक-दूसरे की आँखों से आँखें मिला चुके हैं, यानी अब वे अजनबी नहीं रहे।

**8. परिचय ख़ूब :

पर अभी हैं और भी :**

  • प्रेमी और प्रेमिका एक-दूसरे से भली-भाँति परिचित हो चुके हैं, लेकिन अब भी कुछ और बाधाएँ शेष हैं।

**9-10. जैसे कि कायरता—

(कि आत्मा की अटल जो माँग,**

  • प्रेमिका (या प्रेमी) की कायरता एक बड़ी बाधा है। वह अपने हृदय की सच्ची भावना को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती।

**11-12. तुम बस खोजती रहती

उसी से भागने की राह)—**

  • प्रेमिका अपने भीतर के प्रेम को पहचानते हुए भी उससे बचने या भागने का रास्ता खोज रही है।

**13-14. और संशय

(यह कि पीपर-पात-सा**

  • संदेह (संशय) भी एक बाधा है। यह संशय शायद प्रेमी के मन की अस्थिरता को लेकर है।

**15-16. चल है पुरुष-मन)

और भय।**

  • पुरुष का मन पीपल के पत्ते की तरह चंचल होता है, यही संशय प्रेमिका के मन में भय पैदा करता है।

**17-18. (जग क्या कहेगा?

—क्षुद्र जग!)**

  • प्रेमिका समाज के डर से प्रेम को स्वीकार नहीं कर पाती। कवि इसे "क्षुद्र जग" कहकर इसकी संकीर्ण सोच की आलोचना करता है।

**19-20. और शायद पाप

(क्योंकि केवल**

  • प्रेमिका इस प्रेम को शायद 'पाप' मानती है, क्योंकि समाज ने प्रेम को नैतिक और धार्मिक नियमों के दायरे में बाँध रखा है।

**21-22. ग्रंथि-बंधन-दंभ ही है

पुण्य की ध्रुव माप!**

  • समाज ने पुण्य और पाप के जो मापदंड बनाए हैं, वे केवल ग्रंथियों (मानसिक उलझनों), बंधनों और दंभ (अहंकार) पर आधारित हैं।

23. जय हो! धन्य)।

  • यह एक व्यंग्यपूर्ण कथन है। कवि कहता है कि यदि यही पुण्य है, तो "जय हो"।

**24-25. तो यही हो,

ओ सती!**

  • प्रेमिका को "सती" कहकर कवि व्यंग्य करता है कि यदि वह प्रेम को स्वीकार करने के बजाय त्याग और संयम को अपनाने में ही पुण्य मानती है, तो यही सही।

**26-27. तो नहीं छू पाए तुमको,

ओ अछूती पुण्य!**

  • कवि कहता है कि अगर तुम इतनी पवित्र (अछूती) हो कि प्रेम को स्वीकार नहीं कर सकतीं, तो मैं तुम्हें कभी छू नहीं पाऊँगा।

**28-29. मेरे स्पर्श का अंगार;

तो सदा चलती रहो तुम**

  • प्रेमी का प्रेम तीव्र और जलता हुआ है, लेकिन यदि प्रेमिका इस प्रेम को नहीं स्वीकार सकती, तो वह अपनी राह पर चलती रहे।

**30-31. तो सदा चलते रहें ये स्वप्न

तो सदा चलता रहूँ मैं :**

  • प्रेम एक असंभव स्वप्न बनकर चलता रहेगा, और प्रेमी इसी अधूरे प्रेम के साथ जीवन में आगे बढ़ता रहेगा।

**32-34. ये समानांतर लकीरें तीन

(शायद चार)।**

  • "समानांतर लकीरें" प्रेमी और प्रेमिका के रिश्ते का प्रतीक हैं। वे एक-दूसरे के बहुत करीब होते हुए भी कभी मिल नहीं पाते।

कविता का सार

यह कविता प्रेम की उन बाधाओं को दर्शाती है जो समाज, भय, संशय, और आत्म-संकोच से उत्पन्न होती हैं। प्रेमी और प्रेमिका एक-दूसरे के करीब होते हुए भी समानांतर रेखाओं की तरह कभी मिल नहीं पाते। समाज की संकीर्ण सोच और व्यक्ति के मन में बसे संदेह प्रेम को अधूरा छोड़ देते हैं।

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

BA 2nd Sem SEP विद्रोहिणी कविता व्याख्या व केंद्रीय भाव

 

व्याख्या:

सुशीला टाकभौरे की कविता "विद्रोहिणी" समाज में व्याप्त वंचना, शोषण और बाधाओं के विरुद्ध स्त्री के आत्मसाक्षात्कार एवं विद्रोह की गाथा है। यह कविता दलित स्त्री चेतना, सामाजिक अन्याय और रूढ़ियों के विरुद्ध संघर्ष की भावना को प्रकट करती है।

कविता की शुरुआत में कवयित्री यह दर्शाती हैं कि जन्म से कोई भी व्यक्ति विकलांग या सीमित नहीं होता—"माँ-बाप ने पैदा किया था गूँगा!"—बल्कि समाज और उसका परिवेश उसे विकलांगता या सीमितताओं का एहसास कराता है। यह पंक्तियाँ पितृसत्तात्मक और जातिगत शोषण को इंगित करती हैं, जहाँ व्यक्ति को उसकी इच्छाओं के अनुसार स्वतंत्रता नहीं मिलती, बल्कि उसे एक निर्धारित ढांचे में ढालने का प्रयास किया जाता है।

कवयित्री आगे जीवन को एक यात्रा की तरह प्रस्तुत करती हैं, जहाँ "बैसाखियाँ" प्रतीक हैं उन सहारों और परंपराओं का, जिन पर स्त्रियों को जबरन निर्भर किया जाता है। ये बैसाखियाँ सामाजिक नियमों, बंधनों और रूढ़ियों का प्रतीक हैं, जिनके सहारे वह अपने जीवन का सफर तय करती रही हैं। लेकिन जब वह जीवन के ऊँचे पड़ाव (संघर्ष की पराकाष्ठा) पर पहुँचती हैं, तब ये सहारे ही चरमराने लगते हैं। यहाँ यह संकेत है कि जब स्त्री अपनी शक्ति पहचानने लगती है, तो उसे एहसास होता है कि ये बैसाखियाँ अब उसके लिए बाधा बन चुकी हैं।

इसके बाद कविता का स्वर तीव्र होता है—"विस्फारित मन हुँकारता है—बैसाखियों को तोड़ दूँ!!"—यहाँ विद्रोह की घोषणा है। कवयित्री आत्मा की चटकन और दिल की आग को दिखाकर यह स्पष्ट करती हैं कि उनके भीतर दबी हुई वेदना अब एक विद्रोही स्वर में बदल रही है। यह स्त्री की आत्मस्वीकृति का क्षण है, जहाँ वह रूढ़ियों को तोड़कर अपनी असली शक्ति को पहचानती है।

कविता का अंतिम भाग सर्वाधिक सशक्त है, जहाँ कवयित्री अपने विद्रोही स्वर को और मुखर करती हैं। वे केवल प्रतीकात्मक स्वतंत्रता (छत का खुला आसमान) नहीं चाहतीं, बल्कि पूर्ण स्वतंत्रता (आसमान की खुली छत) की मांग करती हैं। यहाँ "छत" सीमित स्वतंत्रता का और "आसमान" अनंत संभावनाओं एवं असीम स्वतंत्रता का प्रतीक है। यह कविता केवल एक व्यक्ति विशेष की कहानी नहीं, बल्कि समूची स्त्री जाति और वंचित समुदायों की सामूहिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती है।


केंद्रीय भाव:

कविता "विद्रोहिणी" सामाजिक रूढ़ियों, पितृसत्ता और जातिगत बंधनों के खिलाफ स्त्री के विद्रोह की अभिव्यक्ति है। यह एक दलित स्त्री की आत्मबोध और आत्मनिर्भरता की घोषणा है। कवयित्री यह दर्शाती हैं कि स्त्री अब परंपरागत सीमाओं में बंधकर नहीं रहना चाहती, बल्कि वह अपनी शक्ति पहचानकर हर दिशा में मुक्त रूप से उड़ान भरना चाहती है। कविता न केवल स्त्री सशक्तिकरण, बल्कि व्यापक सामाजिक बदलाव की आवश्यकता को भी उजागर करती है।

शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

BA 2nd Sem SEP राम की शक्ति पूजा

 कुछ क्षण तक रहकर मौन........ मसक दंड 

पंक्तियों की व्याख्या:

यह अंश सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' द्वारा रचित महाकाव्य "राम की शक्ति पूजा" से लिया गया है। इस खंड में भगवान राम युद्ध के दौरान महाशक्ति की भूमिका पर विचार करते हैं और लक्ष्मण से संवाद करते हैं।

व्याख्या:

पहली दो पंक्तियों में राम कुछ समय तक मौन रहने के बाद अपने सहज और कोमल स्वर में अपने मित्र (लक्ष्मण) से कहते हैं कि यह युद्ध जीतना कठिन होगा। वे बताते हैं कि अब यह केवल मनुष्य-वानर और राक्षसों का युद्ध नहीं रह गया है, बल्कि स्वयं महाशक्ति (दुर्गा) रावण का पक्ष ले चुकी हैं, क्योंकि रावण ने उन्हें आमंत्रित कर लिया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि शक्ति सदैव उसी के पक्ष में होती हैं, जो उन्हें प्रसन्न कर लेता है।

इसके बाद, राम अत्यंत दुखी होकर स्वीकार करते हैं कि शक्ति अन्याय के पक्ष में खड़ी है और यही युद्ध का सबसे कठिन पक्ष है। उनके नेत्र छलक जाते हैं, कुछ अश्रु पुनः ढलकते हैं, जिससे उनके मानसिक द्वंद्व और वेदना का चित्रण होता है। यह भाव राम के संघर्ष और उनके भीतर के मानवीय पक्ष को दर्शाता है।

अगली पंक्तियों में लक्ष्मण का क्रोध और पराक्रम व्यक्त किया गया है। उनका तेज बढ़ जाता है, और वे अत्यंत क्रोध से भर उठते हैं। उनकी शक्ति इतनी प्रचंड हो जाती है कि वानर (हनुमान) अपने दोनों पैरों से धरती में धँस जाते हैं, मानो यह धरा भी इस अद्भुत तेज को सहन करने में असमर्थ हो।

मुख्य भाव:

  • राम को यह ज्ञात होता है कि शक्ति केवल धर्म या न्याय के पक्ष में नहीं होती, बल्कि जो उसे प्रसन्न करता है, उसके पक्ष में जाती है।
  • अन्याय के साथ शक्ति होने से राम के मन में चिंता उत्पन्न होती है।
  • लक्ष्मण का प्रचंड तेज दिखाता है कि वे इस परिस्थिति से लड़ने के लिए तैयार हैं।
  • यह अंश राम के मनोवैज्ञानिक द्वंद्व, शक्ति के प्रति उनकी समझ, और लक्ष्मण के युद्ध के प्रति उत्साह को प्रकट करता है।

यह पंक्तियाँ शक्ति की महत्ता, धर्म-अधर्म के संघर्ष, और राम के मानसिक द्वंद्व को अत्यंत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती हैं।

स्थिर जांबवान.......संस्कृति अपार।


पंक्तियों की व्याख्या:

यह अंश सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' द्वारा रचित "राम की शक्ति पूजा" महाकाव्य से लिया गया है। इस खंड में युद्धभूमि का वातावरण, विभिन्न पात्रों की मनोदशा और स्वयं राम के हृदय में उठ रहे द्वंद्व को दर्शाया गया है।

व्याख्या:

पहली दो पंक्तियों में जांबवान को स्थिर और गंभीर दिखाया गया है। वे अनुभवी और विवेकशील हैं, इसलिए वे पूरी परिस्थिति को समझने की चेष्टा कर रहे हैं। सुग्रीव व्याकुल हो जाते हैं, मानो उनके हृदय में कोई गहरा घाव हो गया हो। इससे स्पष्ट होता है कि स्थिति अत्यंत चिंताजनक हो गई है, जिससे वानर सेना में भी तनाव व्याप्त है।

विभीषण, जो अब राम की सेना में हैं, युद्ध को लेकर निश्चित भाव में हैं। वे आगे की रणनीति तय करने का प्रयास कर रहे हैं। किन्तु पूरे वातावरण में एक विचित्र मौन और तनाव व्याप्त है, जिससे युद्ध की भीषणता का आभास होता है।

इसके बाद, राम अपने सहज रूप में संयत होते हैं और गंभीर स्वर में कहते हैं कि उन्हें यह दैवी विधान समझ में नहीं आ रहा है। वे यह देखकर आश्चर्यचकित हैं कि रावण, जो अधर्म में लिप्त है, फिर भी शक्ति का समर्थन पा रहा है, जबकि वे स्वयं धर्म के मार्ग पर चल रहे हैं, फिर भी शक्ति उनसे विमुख है। यह स्थिति राम को गहरे मानसिक संघर्ष में डाल देती है।

राम समझते हैं कि यह मात्र एक युद्ध नहीं है, बल्कि शक्ति का एक विचित्र खेल है। वे भगवान शंकर को पुकारते हैं, मानो उनसे इस स्थिति की व्याख्या और समाधान की प्रार्थना कर रहे हों।

अंतिम पंक्तियों में, राम यह स्वीकार करते हैं कि वे बार-बार अपनी शक्ति से प्रचंड बाणों की वर्षा कर रहे हैं, जो इतने प्रबल हैं कि संपूर्ण सृष्टि को पराजित कर सकते हैं। ये बाण तेज और शक्ति का पुंज हैं, जिनमें सृष्टि की रक्षा करने की क्षमता है। इनमें ही पतनोन्मुख, अनैतिक संस्कृतियों का विनाश करने का सामर्थ्य है। परंतु फिर भी, रावण की शक्ति क्षीण नहीं हो रही, जिससे राम और भी अधिक चिंतित हो जाते हैं।

मुख्य भाव:

  • युद्ध का संकटपूर्ण और तनावपूर्ण वातावरण
  • राम का मानसिक द्वंद्व, क्योंकि शक्ति अधर्म के साथ प्रतीत हो रही है।
  • धर्म बनाम अधर्म की दुविधा—शक्ति का न्यायप्रिय न होना।
  • राम की शक्ति और उनके बाणों की महत्ता, जो सृष्टि को विनाश और रक्षा दोनों कर सकते हैं।
  • शिव का स्मरण, जो यह दर्शाता है कि राम दैवीय सहायता की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं।

यह अंश राम के भीतर के संघर्ष, युद्ध की जटिलता और शक्ति के रहस्यमय स्वरूप को प्रभावी रूप से व्यक्त करता है।