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बुधवार, 17 सितंबर 2025

शीतल पाटी

मिनती एक सिलेठी गरीब ब्राह्मण परिवार की विधवा बहू थी। उसकी शादी के महज साल भर में ही पति की अचानक एक अप्रत्याशित घटना में मृत्यु हो गई। ससुराल वालों ने मिनती को इसका दोषी तो नहीं माना, लेकिन कुछ परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि उसे अपने साथ रखना भी उचित नहीं समझे। जवान लड़की, वह भी विधवा। उसे समझा-बुझाकर उसके पिता के घर वापस जाने के लिए राज़ी कर लिया। सास ने उसे समझा दिया कि जिस आधार पर वह इस घर में आई थी, वह तो अब रहा नहीं। अब यहां उसका क्या ही बचा है? बेचारी मन में दुखों का बोझ लेकर पिता के घर चली आई। जो कुछ साथ ले गई थी, वह भी उसकी सास ने उसके साथ वापस कर दी, उसकी शादी का जोड़ा और गहने भी।

पिता का घर इतना सचचल तो नहीं था, फिर भी उसके भरण-पोषण की समस्या नहीं थी। लेकिन माता-पिता और छोटे भाई पर बोझ बन बनकर रहना मिनती को स्वीकार न था। पिता के घर रहकर वह शीतल पाटी बुनने का निश्चय करती है। यही अब उसकी दिनचर्या और जीने का मुख्य आसरा था। ये शीतल पाटी सिलेठी परिवारों की शादी का अहम हिस्सा होती है। ससुराल में चतुर्थ-मंगल के अनुष्ठान के बाद घर में पति-पत्नी इसे साथ लेकर उल्टा-सुलटा लपेटते हुए प्रवेश करते हैं। मिनती पाटी बुने जा रही थी और रह-रह कर उसे भी अपना चतुर्थ मंगल अनुष्ठान याद हो आया।

कैसे उसका पति देवव्रत उसकी तरफ प्रेम से देख रहा था और शीतल पाटी को धीरे-धीरे लपेट रहा था। उसका विवाह गर्मियों के मौसम यानी बैसाख में हुआ था। रात में उन्होंने इसी शीतल पाटी में ही शयन किया था। मिनती अपने पति को इसी शीतल पाटी में गर्मियों के दिनों में बिठाकर चाय तथा मूड़ी के लड्डू दिया करती थी। कभी-कभी दोपहर को देवव्रत अपने यजमानों के घर से पूजा करके लौट आता था तो इसी शीतल पाटी में सोकर अपनी गर्मी और थकान दूर किया करता था।

लेकिन हाय री किस्मत! मिनती को भी क्या पता था कि ऐसी ही एक दोपहर उसके पति की जान चली जाएगी। हुआ कुछ यूं था कि देवव्रत अपने एक यजमान के घर से सावन सोमवार की पूजा सम्पन्न करा कर घर लौट आया। मिनती ने उसे घर आने के बाद पानी पीने को दिया तथा रसोई में चाय बनाने चली गयी। देवव्रत यजमान के घर में खाना खाकर ही आया था। घर लौटने में उसे लगभग घण्टे भर का समय लग गया था। इसलिए उसने सोचा कि चाय पीकर आराम कर लिया जाए। बाद में संध्या समय में आरती करके वह जल्दी खाना खा लेगा। बराक-घाटी में संध्या भी बहुत जल्दी हो जाया करती है। इसी बीच न जाने कहा से एक साँप कमरे के कोने में से चला आया और शीतल पाटी पर लेटकर आराम कर रहे देवव्रत को डंस देता है। देवव्रत ठीक से न तो मिनती को पुकार पाता है न ही अपने माता-पिता को पुकार पाता है। वह वही पर दम तोड़ देता है। मिनती जब रसोई से वापस आती है तो उसका संसार उजड़ चुका था। वह देवव्रत की लाश के पास पछाड़ खा-खाकर रोने लगती है। देवव्रत के माता-पिता का भी हाल बुरा था। माँ लगभग अपने बेटे का नाम लेकर बेहोश हो जाती थी। पड़ोस के लोगों की मदद से देवव्रत के पार्थिव शरीर को उसी शीतल पाटी समेत लपेट कर श्मशान ले जाया जाता है तथा उसका अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। उसके बाद किसी प्रकार खबर पाकर देवव्रत के कुछ दूर के रिश्तेदार आते हैं और श्राद्ध तथा अन्य क्रियाकर्म सम्पन्न हो पाती है। मिनती के पिता को भी जब इसकी खबर मिलती है तो उनपर जैसे आकाश टूट पड़ा था। जिस बेटी को बड़े जतन से सजा-धजा कर सुहागिन भेजा था उसे विधवा के कपड़ों में कैसे देखते? माँ का भी रो-रोकर बुरा हाल था। वे उसे अपने यहाँ बुला लाने के लिए पति को भेजती है। जब मिनती के पिता श्राद्ध वाले दिन पहुँचते हैं तो पिता-पुत्री एक-दूसरे को देखकर रोने लगते हैं। मिनती के पिता भी बेटी को सफेद धोती में देख लगभग अचेत से होने लगते हैं। वे उसी दिन उसे अपने साथ ले जाने की कहते हैं लेकिन ससुराल वाले तब उसे नहीं छोड़ पाते हैं क्योंकि देवव्रत की जगह अब वही उनकी संतान थी। पड़ोस में रहने वाले बाबू शंकर रायचौधरी जी पंचायत के दफ्तर में काम करते थे जिनकी मदद से मिनती को देवव्रत की मृत्यु प्रमाण पत्र मिल जाता है जो कि कई अन्य जरूरी कामों के लिए जरूरी था।

 

            अब उसके तथा सास-ससुर के लिए मुश्किलें शुरु होती है। जवान विधवा बहू घर से बाहर क्या ही उसे काम के लिए भेजते, उन्हें रह-रह कर कई चिन्ताएँ सताती रहती। साथ ही वे भी बूढ़े हो चले थे तो उन्हें भी कोई काम मिले यह तो सवाल ही नहीं उठता था। मिनती को देखकर उन्हें रात-दिन अपने बेटे की याद सताती रहती थी। सास दिन-रात रोती ही रहती। मिनती उन्हें जब खाना देने जाती तो कई बार उस पर वे झल्ला उठती थी। पर अगले ही क्षण अपनी भूल तथा बहू की बेबसी समझकर उसे पास बुला लेती। मिनती अपनी सास को अपने हाथों से कौर खिलाने जाती तो सास उसे गले से लगाकर रोती रहती। मिनती भी अपनी सास से लिपटकर रोती। कुछ दिनों तक तो यह सिलसिला चला। लेकिन घर तो चलाना था ही। अतः मिनती के ससुर जी ने ही यजमानी का काम शुरु कर दिया। एक समय ससुर देवज्योति भट्टाचार्या जी अपने गाँव में अच्छे यजमानी ब्राह्मण हुआ करते थे। देवव्रत को भी उन्होंने ही हर प्रकार की पूजा तथा अनुष्ठानों की शिक्षा दी थी।

मिनती के ससुर जी बहुत बूढ़े हो चले थे। एक मात्र कुलदिपक के चले जाने से जैसे कुछ और ही अधिक दुखी भी रहने लगे थे। अपने गठिया रोग के चलते वे अक्सर लंगड़ा कर चला करते थे। चेहरे पर झुर्रीयों से अधिक दुख और निराशा की झलक आ गयी थी। थोड़ा बहुत भूलने की बिमारी ने भी घेर लिया था। लेकिन जीवन की इस डूबती नांव को किसी प्रकार वे बचाने में जुट गए। गाँव में ज्यादातर लोग इतने सम्पन्न तो न थे मगर छोटी-मोटी पूजा, अनुष्ठान इत्यादि में अब उन्हें ही बुला लिया करते थे। बदले में थोड़ी सी धन राशी के साथ ब्रह्म भुज्जी(चावल, दाल, आलू, तेल, नमक, चीनी इत्यादि जो कि एक डाली में सजाकर अपनी क्षमता अनुसार ब्राह्मण पुजारी को दिए जाने वाला दान) उन्हें मिल जाया करती थी। वे यही सब घर ले आया करते थे। इसी से अब उन तीनों का गुज़ारा चल जाता था। वही मिनती की सास ने मिनती से कह दिया था कि वह सफेद साड़ी पहनना छोड़ दे और मामूली रंग की साड़ियाँ पहना करे। सफेद साड़ी में उन्हें अपने बेटे की मृत्यु का दुख बार-बार सताता है। वे इस दुख को भुलाने की कोशिश में लगी थी।

 

एक दिन ऐसी घटना घटी की उन्हें न चाहते हुए भी मिनती को अपने घर से दूर उसके पिता के पास ही भेज देना पड़ा। हुआ ये कि मिनती गाँव के पास बह रही भांगा नदी में कुछ कपड़े धोने जाया करती थी। गाँव में जो पानी की सप्लाई थी वह केवल घण्टे भर के लिए आती थी। जिससे सिर्फ गांव वाले पीने का पानी ही ले जा सकते थे। मिनती जब कपड़े धो रही थी तो वहाँ रफीक नाम का मछुवारा उसके पास आकर के उसे छेड़ने लग जाता है। वह उसे अपने साथ चलने के लिए कहता है। रफीक उसे छेड़ते हुए कहता है कि वह उसे कई दिनों से घाट पर कपड़े धोते हुए और कभी-कभी नहाते हुए भी देखा करता था। मिनती अपना मान बचाने के लिए वही पर सारा सामान छोड़ घर की तरफ दौड़ पड़ती है। रफीक भी उसके पीछे-पीछे दौड़ता है लेकिन यह वाक्या गाँव वालों की आँखों में पड़ जाता है। मिनती का वह पीछा करना छोड़ तो देता है लेकिन वह धमकियाँ और गालियाँ देकर वहाँ से चला जाता है। इधर मिनती जब घर पहुँचती है तो पड़ोसी शंकर बाबू उसके सास-ससुर को इसकी खबर देते हैं। वे दोनों ही इस घटना से बहुत आहत हो जाते हैं। उसी दिन वे निर्णय ले लेते हैं। वृद्ध दम्पति मिनती को रात में खाने के समय बात करने के लिए बुलाते हैं। इधर मिनती इस घटना से काफी भयभीत हो गयी थी। वह लगातार डर के मारे कांपे जा रही थी। वह बार-बार इस घटना के बारे में सोच-सोच कर रोए जा रही थी। शंकर बाबू की पत्नी भी उस समय वहाँ उसके साथ थी। रसोई में रोते-रोते काम करता देख शंकर बाबू की पत्नी का भी जी दुख से भरने लगा था। उधर शंकर बाबू भी मिनती के सास-ससुर को दिलासा देने में लगे थे। जब मिनती को वे अपना निर्णय सुनाने के लिए बुलाते हैं तो वह उनके सामने बड़ी मुश्किल से जाती है। साथ में शंकर बाबू की पत्नी भी आती है। मिनती अपराधी की मुद्रा में जाकर अपनी सास के पैरों से लिपट जाती है और रोते हुए माफी मांगने लगती है। तब उसकी सास उसे उठाते हुए अपने पास बिठाती है। उसकी सास उससे कहती है—‘देखो माँ। हम जानते हैं कि तुमने कोई अपराध नहीं किया है। लेकिन अब हमने सोच लिया है कि तुम्हें अब अपने साथ नहीं रख पाएंगे।’ मिनती – ‘माँ अगर मैंने अपराध नहीं किया है तो फिर क्यों तुम मुझे अपने से अलग कर रही हो। आपसे अलग होकर मैं कैसे रहूँगी? एक आप ही तो हो जो उनसे जुड़े हुए थे। उनकी यादें और आप ही लोगों का सहारा है तभी तो मैं जी रही हूँ।’

 

सास—‘माँ रे, जिसके सहारे तुम इस घर में आयी थी, वह तो अब रहा नहीं और आज जो घटना हुई है उससे हम दोनों का मन बहुत विचलित हो गया है। पहले तुम हमारे देबु की अमानत थी, लेकिन उसके जाने के बाद अब तुम हमारी अमानत भी हो और सम्मान भी। तुम्हें कुछ हो गया तो तुम्हारे पिता को हम क्या मुँह दिखाएंगे? तुम्हारे पिता तो देबु के श्राद्ध के दिन ही तुम्हें लेकर चले जाना चाहते थे, लेकिन तुमसे हम इतना घुल-मिल गये थे कि हम तुम्हें भेज ही नहीं पाए, लेकिन लगता है कि वह हमारी भूल थी। अगर तुम्हें हम तभी भेज देते तो हमें भी ये दिन नहीं देखना पड़ता।’

 

मिनती – ‘माँ एक तरफ तुम कहती हो कि मेरा कोई अपराध नहीं है। वही दूसरी तरफ तुम ही कह रही हो कि मेरे यहाँ रहने के कारण ही ये घटना हुई है।’ मिनती के ससुर सास-बहू की बात देर से सुन रहे थे। तब उनसे न रहा गया और वे कहने लगे –‘ देख माँ इसमें तुम्हारा कोई अपराध नहीं है। परन्तु बात को समझो। तुम एक जवान लड़की हो। अभी-अभी विधवा हुई हो। आगे तुम्हारा लम्बा जीवन पड़ा है। अगर तुम अपने पिता के साथ उसी समय चली गयी होती तो फिर तुम अपने पिता के घर सुरक्षित रहती। हम तो आज है कल नहीं। हमारे पीछे तुम्हारा क्या होगा यही सोच कर ही हमने निर्णय लिया है कि तुम्हें तुम्हारे पिता के घर भेज दिया जाय। अगर तुम्हें कुछ हो गया तो हम तुम्हारे पिता को क्या मुँह दिखाएंगे। तुम हमारे बेटे की पत्नी हो और उसकी अमानत हो। तुम्हारे साथ कुछ गलत होगा तो हम अपने बेटे को ऊपर जाकर क्या कहेंगे।’

मिनती अपने ससुर की बात सुनकर चुप रह जाती है। वह कोई जवाब नहीं देती। परन्तु कुछ देर चुप रहकर बहुत विनत स्वर में कहती है –‘बाबा मैं अगर चली गयी तो आपकी सेवा कौन करेगा? आप घर से जब यजमानी के लिए जाएंगे तब पीछे माँ को कौन देखेगा? यदि मुझे इस गाँव से जाना ही है तो फिर मैं आप लोगों को अकेला नहीं छोड़ सकती। आप लोग भी मेरे साथ चलेंगे। नहीं तो मैं यही पर रहूंगी। जो होगा ईश्वर की मर्जी समझ कर रह लूंगी या फिर इस मुसीबत का सामना करूंगी।’ मिनती के कहने पर वे लोग थोड़ा चिन्तित होते हैं और फिर वे अपनी बहू के मायके में जाकर रहने की बात को मना कर देते हैं। मिनती के ससुर पुनः उसे समझाते हुए कहते हैं कि ‘देखो माँ हमसे ज्यादा तूम्हारे जीवन पर संकट है। हम दो बूढ़ा-बूढ़ी इस उमर में इस गाँव को छोड़ कर कही और बसने की सोच नहीं सकते। हमारे लिए ये संभव नहीं है। फिर बेटे की यादें भी जुड़ी है। अपने घर को छोड़ पराए घर में रहना वही मरना हमसे नहीं होगा। हम तो अब अंतिम समय तक यही रहेंगे। बहुत चिन्ता होती है तुम्हें तो शंकर बाबू तो है ही। तुम हमारे पीछे अपना जीवन क्यों नष्ट करती हो? तुम नए सिरे से अपना जीवन शुरु करो।’

मिनती अपने ससुर की बात सुनकर आश्चर्यचकित रह जाती है। वही शंकर बाबू तथा उनकी पत्नी भी। परन्तु वे भी समझ चुके थे कि इसी में मिनती की भलाई है। मिनती अंत में कुछ और नहीं कह पाती है तथा अपने पिता के घर वापस जाने के लिए तैयार हो जाती है। अगले ही दिन उसकी सास मिनती को उसके विवाह के समय मिले कपड़े तथा थोड़े से गहने एक बक्से में बांध कर देती है। मिनती अपनी सास से मिलती है तथा नम आँखों से उनके चरण स्पर्श करती है। भारी मन से अपने ससुर को भी प्रणाम करती है। शंकर बाबू ने इस बीच एक ऑटो रिक्शा वाले को बुला लिया था। शंकर बाबू के साथ वह रिक्शा में बैठ रवाना हो जाती है।

 

वे दोनों बदरपुर घाट पहुँचते हैं जहाँ से कुछ दूर उसके पिता का गाँव कालाडूमरा था। वे लोग घाट के किनारे से पैदल ही चलकर गाँव जाते हैं। रास्ते में मिनती शंकर बाबू से कहती है, ‘काकू, आप लोगों ने तो मुझे क्षण भर में पराया कर दिया, पर मैं आप लोगों को नहीं भूलूँगी। पिताजी और माँ का खयाल रखिएगा। वे लोग तो अब पूरी तरह से अकेले हो चुके हैं।’

 

शंकर बाबू – ‘माँ रे, तू चिन्ता मत कर। तू अपना जीवन देख संवार। जो कुछ भी हुआ वह तो विधाता का लिखा है। इसमें हम सब क्या कर सकते हैं। कहते हैं न जन्म, मृत्यु तथा विवाह तीन विधाता का करा होता है। मैं जानता हूँ तू दुखी है लेकिन अब ये ही नियती है।’

मिनती शंकर बाबू की बात सुनकर चुपचाप सोचने लगती है। इस बीच वे लोग घर पहुँच जाते हैं। मिनती को घर पहुँचाने पर शंकर बाबू को यथोचित आथित्य करके मिनती के पिता वापस भेज देते हैं। इसके बाद वे मिनती के साथ पूरा समय बिताते हैं। उसे दुखी होने का कोई अवसर नहीं देना चाहते थे। उसकी माँ भी उसे उसकी पसन्द का खाना बनाकर खिलाती है। उसका छोटा भाई तथा बहू भी मिनती को हमेशा किसी-न-किसी तरह कोई काम-काज या फिर बातों में उलझाये रखते ताकि उसे अपने ससुराल तथा देवव्रत की बातें याद न आने पाए। लेकिन मिनती को वे खोया-खोया देख वे भी दुखी हो जाया करते थे। उसे इस तरह देखकर पड़ोस की ही एक दादी ने सोचा कि मिनती के किसी काम में व्यस्त रखा जाए तो शायद उसे इतना सोचने का अवसर न मिले।ये दादी मिनती को बचपन से ही बहुत प्यार करती थी तथा अपनी पोती के समान ही मानती थी। वह आकर एक दिन मिनती से मिलती है तथा अपने साथ पाटी बुनने का प्रस्ताव रखती है। दादी उसे बताती है कि उसकी बनाई पाटी गाँव के साथ-साथ शहर वाले भी खरीद लेते हैं जिससे उनका गुज़ारा हो जाता है। मिनती को वह समझाती है कि उसे इस प्रकार दुखी होकर रहने के बजाए कोई काम में व्यस्त रहना चाहिए ताकि वह अपना सहारा खुद बन सके। मिनती दादी की बात सुनकर पहले तो मना करती है। परन्तु माता-पिता के बहुत समझाने पर वह उनके घर जाकर शीतल पाटी बुनने के लिए राज़ी हो जाती है। वह वहाँ दिन भर पाटी बुन लेती तथा कुछेक पाटी उसकी बिक भी गयी थी जिससे दादी खुश होकर उसे उसकी कमाई का हिस्सा दे देती थी। लेकिन मिनती पाटी बुनते समय अक्सर देवव्रत के साथ हुए हादसे को याद कर रोने लग जाती थी जिससे अब दादी भी परेशान हो चुकी थी। परन्तु वे धैर्य से काम ले रही थी। जानती थी कि मिनती के लिए ये सब इतना आसान नहीं है।

कुछ दिनों बाद उनके घर दूर की एक मासी आती है। ये मिनती की माँ की ममेरी बहन लगती थी। मगर बचपन में ये एक ही मोहल्ले में रहती थी सो दोनों में बहुत ही अच्छी दोस्ती थी। मासी जब मिनती को देखती है तो वे बहुत दुखी हो जाती है। विशेषकर मिनती का दिन भर उदासी और चुप्पी साधे घर के काम-काज करते रहना या फिर पाटी बुनना और शाम को खाना खाकर जब वह सोने जाती को मासी को उसकी सिसकियाँ सुनाई देती। ऐसे ही एक दिन जब मासी और मिनती की माँ घर के पीछे के बरामदे में बैठ कर कुछ कामों में लगी हुई थी। मासी सुपारी काट रही थी तो मिनती की माँ काथा सिलाई में लगी हुई थी तब मासी बात छेड़ती है –‘क्यों रे मनोरमा, तेरी बेटी क्या सारा जीवन ऐसे ही बिता देगी। उसके भविष्य का भी कुछ सोचा है। देख जवान लड़की है। रात-दिन इस तरह रो-रोकर गुजार रही है। अच्छा नहीं लगता। सुन अगर तुझे बुरा न लगे तो मैं एक दो जगह बात चलाऊ?’

 

मनोरमा को जैसे थोड़ा झटका सा लगा। वह बोली— नमिता दी, तुम तो जानती हो कि वह विधवा है। साल भर अपने पति के साथ तो रही है। ऐसे में उसका विवाह हो जाएगा क्या? फिर लड़की की मर्जी भी तो जाननी है। मैं भी जानती हूँ कि इस तरह उसका भविष्य तो नष्ट ही हो जाएगा।

 

नमिता—सुन, मैं एक लड़के को जानती हूँ। बड़ा ही अच्छा लड़का है। उसकी उम्र थोड़ी सी ज्यादा है, लेकिन अपनी मिनती उसके साथ सुखी रहेगी। मेरे ही घर के बगल में रहता है। उनकी माँ को गुज़रे बहुत समय हो गया है। पिता है। दोनों अच्छे ब्राह्मण हैं। कमाई हो जाती है। वह पुर्णिमा ताई याद है तुझे? उन्हीं के किसी दूर के रिश्तेदार लगते हैं। सुन, बात चला लेने में बुराई नहीं है।

 

मनोरमा—अच्छा लड़का है तो उसकी इतने दिनों से शादी क्यों नहीं हुई, दीदी?

 

नमिता—अरे गरीबी के चलते कहाँ हमारे यहाँ लड़के-लड़कियों की शादी समय पर हो पाती है। लड़के की माँ को सास का रोग हो गया था। उसी के इलाज में काफी पैसा खर्चा हो गया। फिर घर की हालत भी ठीक नहीं थी। वह तो भला हो हमारे निताई राय का। उन्हीं के घर में अब पुजारी लगा है। पिछली बैसाख को उन्होंने एक बड़ा सा दुर्गा मंदिर बनवाया था। उनकी कुल देवी है न। सो उन्हें कोई ब्राह्मण तो चाहिए था ही पूजा-पाठ के लिए तो इन्हें रख लिया। अब खाने-पीने की कोई कमी नहीं है। बस एक घरवाली की कमी है। वह पूरी हो जाए तो बस।

 

मनोरमा—क्या उन्होंने तुमसे कुछ कहा है क्या?

 

नमिता: अरे नहीं रे। वह तो लड़के का बाप मुझसे कह रहा था कि अब लड़की एक देख ली जाए। जब से उनकी पत्नी गुज़री है, दोनों बाप-बेटे बहुत मुश्किल में हैं। खाने की कमी नहीं है, लेकिन पुरुष मानुष के लिए तीनों समय खाना पकाकर खाना कोई आसान काम है क्या?

 

मनोरमा – सुनो। मैं तो बात नहीं करूंगी। उसे देख कर ही मेरा जी घबराने लगता है। बात करते डर लगता है। तुम ही बात करो। उसके पिता को भी तुम ही मनाना। जानते तो हो कि लाडली बेटी है।

 

नमिता—तू अगर चाहे तो मैं जमाई बाबू से बात कर लूंगी। पीछे हटना नहीं। मुझसे तो मिनती की ये हालत देखी नहीं जा सकती। बेचारी।

दो-तीन दिन में नमिता लड़के के बारे में सारी बातें अच्छी तरह से पता लगा लेती है। वह मिनती के पिता से इस बारे में बात करती है। इधर लड़के वालों को भी वही मिनती के बारे में बताती है। लड़के के पिता पहले तो मिनती के विधवा होने की बात से रिश्ते को मानने से इनकार कर देते हैं, लेकिन जब नमिता उन्हें मिनती के गुणों के बारे में बताती है तथा उन्हें समझाती है कि बड़ा उम्र का लड़का है, उसे अब दूसरी कोई कन्या नहीं मिलेगी, तो वे भी मान जाते हैं। दोनों पक्षों में बातों का सिलसिला शुरू होता है। इधर मिनती को इसकी खबर तक न थी। वह तो अपने दिवंगत पति की यादों को समेटे शीतल पाटी बुनने में लगी हुई थी।

एक दिन उसकी माँ ने समय देखकर दोपहर के खाना खाने के बाद सोते समय उससे पूछा तो मिनती ने पुनःविवाह से साफ-साफ मना कर दिया। मिनती की माँ को जिस बात का भय था इतने दिनों से वह होता देख उन्हें आशंका होने लगी कि कही लड़की के मना कर देने पर बात बिगड़ गयी तो जग हसाई हो जाएगी। वह मिनती को बहुत स्नेह के साथ समझाते हुए कहती है कि उसका पूरा जीवन इस प्रकार बर्बाद हो जाए तो सही न होगा। मिनती अपनी माँ की बात सुनकर पूछती है कि –‘माँ क्या ज़रूरी है कि एक स्त्री को किसी पुरुष का ही सहारा लेकर पूरा जीवन गुज़ारना होगा?’ तब मिनती की माँ उसे समझाती है कि ज़रूरी नहीं कि किसी पुरुष का सहारा लेकर वह जीवन बिताए। लेकिन किसी का सहारा बनना भी ज़रूरी होता है। उसके माँ के समझाने पर मिनती दुबारा कहती है कि ‘जब मैंने मेरे ससुर जी से भी यही कहा था कि वह उनका सहारा बनेगी तो उन्होंने तो मुझे ये कहा कि मैं अपना जीवन उनके पीछे क्यों बर्बाद करू। बल्कि वे अकेले किसी तरह अपना जीवन जी लेंगे। मुझे तो उन्होंने इसके लायक भी नहीं समझा।’ इतना कहकर मिनती रोने लगती है। तब माँ कहती है –‘देख तेरे ससुर जी अकेले नहीं है। उनकी पत्नी साथ है। यानी उनकी जीवन-साथी साथ में है। लेकिन तू सोच तेरे जीवन में कोई साथी है। जिसे तूने साथ फेरे लेकर वरा वह तो चला गया अकेला छोड़ कर। तेरा अब इस संसार में है ही कौन? देख मेरी बच्ची। इस प्रकार की जिद छोड़ दे। इतना लम्बा जीवन जीवन-साथी के बिना बहुत मुश्किल होगा। देख हमने जो लड़का देखा है वह भला-चंगा है। अकेला है। उसकी माँ नहीं है केवल पिता है। तेरे बारे में सब जानते हुए भी उन लोगों ने रिश्ते के लिए हामी भरी है। हमने बात भी कर ली है। कुछ दिनों में तुझे देखने आएंगे। तू मना मत कर। मेरी बात मान जा। तेरे पिता का मान रख ले बेटी। इस प्रकार अपना जीवन यू ही बर्बाद मत कर। शास्त्रों में भी विधवा विवाह का विधान है। तुझे याद है न तुलसी माता की कहानी। मान जा मेरी लाडली।’

 

मिनती अपने माँ के समझाने पर तैयार हो जाती है। तय दिन पर लड़का और लड़के का पिता उसे देखने आते हैं। फिर दोनों पक्षों में बात होती है तथा विवाह की तारीख पक्की कर दी जाती है। मिनती का पहला विवाह बैसाख माह में हुआ था लेकिन दूसरे विवाह के लिए जब दुबारा कुण्डली देखी जाती है तो सावन महीने की तिथि तय होती है। इस बीच मिनती के मन में कुछ उधेरबुन सी होने लगती है। वह देवव्रत के माता-पिता को किसी प्रकार भूल नहीं पाती है। वह अपने पिता से उनकी खबर लेने तथा उसके पुनः विवाह की बात भी बताने की सोचती है। उसके पिता बेटी की बात सुनकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं। लेकिन मिनती उन्हें अपना वास्ता देकर उन्हें अपने पहले ससुराल के गाँव खिरतुआ भेज देती है। मिनती के पिता जब गाँव जाते हैं और उसके ससुराल वालों से मिलते है। देवव्रत के माता-पिता मिनती के पिता से मिलकर बहुत आश्चर्यचकित होते हैं। उन्हें इस बात की आशा ही नहीं थी कि वे उन्हें इतने दिनों तक याद भी रखेंगे। देवव्रत के पिता को जब मिनती के दूसरे विवाह का पता चलता है तो वे सजल नेत्रों से मिनती के सौभाग्य की कामना करते हैं। वही उनकी पत्नी भी मिनती को शंख और सिन्दुर तथा आलता लाकर मिनती के पिता को देती हुई कहती है –‘हमारे भाग्य में होता तो हम बहू को हमेशा शंख-सिन्दुर से लदा हुआ देखते। लेकिन नियति के आगे किसका बस चलता है। खैर अच्छा ही हुआ उस अभागिन के लिए। भगवान उसे सुखी रखे। उसने यहाँ रहते हमारी जितनी सेवा की है उसी का पुण्य फल है।’ इतना कहते-कहते वह फूट-फूट कर रोने लगती है। देवव्रत के पिता उन्हें किसी प्रकार दिलासा देने लगते हैं।

मिनती के पिता को अपने पुराने समधियों की हालत देख बहुत दुख होने लगता है। वे चाहते हुए भी उनके लिए कुछ नहीं कर सकते थे। वृद्धावस्था में उन्हें देखने के लिए कोई नहीं था। लेकिन दोनों दम्पति का जीवट बड़ा ही सख्त था। वे बेटे के मृत्यु को पचा तो नहीं पा रहे थे लेकिन जितना जीवन वे विधाता से लेकर आए थे उसे तो जीना ही था सो बेटे की यादों के सहारे जी रहे थे। मिनती के पिता उनसे कुछ नहीं कह पाते हैं। वे रुधे हुए कण्ठ से उनसे विदा लेकर चले आते हैं। मिनती जब अपने पिता से उनके बारे में पूछती है तो वे कुछ ढंग से कह नहीं पाते। परन्तु मिनती सबकुछ समझ जाती है। वह रसोई में जाकर फूट-फूट कर रोने लगती है। काफी देर रो लेने के बाद अपने आँसुओं को पोछ कर वह कुछ देर सोचती है। वह अपने पिता के पास दुबारा जाकर थोड़ी विरक्ति के स्वर में पूछने लगती है –‘आप सब लोग मुझे मारने पर क्यों तुले हुए हैं? क्यों मेरा विवाह कराना चाहते हैं। उनके माता-पिता की हालत देखकर भी आप लोगों को कुछ तरस नहीं आता?’ तब मिनती के पिता उसे देवव्रत की माता जी के द्वारा दिया हुआ शंख, सिंदुर तथा आलता देकर कहते हैं कि –‘देख माँ तेरी सास ने ही तुझे आशीर्वाद देकर ये सब भेजा है। अब तो वे लोग भी चाहते हैं कि तू विवाह करके नए घर चली जाए। तुझे भले ही लग रहा हो कि तेरे साथ हम सब जोर जबरदस्ती कर रहे हैं लेकिन तू ही सोच हम माँ-बाप आज है कल नहीं। तेरे सास-ससुर भी अपने बेटे की मृत्यु से इतने दुखी और निराश हो चुके हैं कि वे कितने दिन और जीएंगे इसका भी कोई ठिकाना नहीं है। तेरा जीवन तो आगे पड़ा हुआ है। क्या तू नहीं चाहती कि तेरा भी एक संसार हो जहां तू निःशंक अपना जीवन बिता सके? हमारे बाद तू तेरे छोटे भाई पर बोझ बनकर रहना चाहती है?’ मिनती को एक समय के लिए जैसे बिजली सी चुभी। क्या वह अपने भाई पर बोझ है? वह कहती है –‘बाबा क्या छोटे ने आपसे कुछ कहा है?’ तब वे कहते हैं ‘देख उसने मुझसे कुछ कहा नहीं है। लेकिन मैं भी बाप हूँ। सब समझता हूँ। वह तुझे कुछ कहेंगे तो नहीं लेकिन उनका भी परिवार बड़ा हो रहा है। छोचे की बहू के गोद में बच्चा देखकर तुझे मन नहीं होगा कि काश तेरा भी घर होता, संतान होती तो तू भी कितनी सुखी होती। पुराने जमाने में विधवा बहने अपने पिता या भाई के घर ही आकर सारा जीवन रह जाती थी लेकिन तब का समय अलग था। सामाजिक नियम कानून व्यवस्थाएँ सब बहुत कठोर थे। परन्तु आज का समय बड़ा कठिन है। इसलिए तुझे समझा रहा हूँ। तेरे पर कोई जोर-जबरदस्ती भी नहीं करूंगा। लेकिन अब तुझे निर्णय लेना होगा। ’

मिनती अपने पिता की बात अंततः मान लेती है। तय तिथि पर उसका विवाह होता है। फिर वही चतुर्थ मंगल की घड़ी आती है। वह और उसका दूसरा पति सुधाकर शीतल पाटी को उलटा-पुलटा लपेटकर घर के अंदर प्रवेश कर रहे होते हैं। मिनती अपनी पहली शादी की बात को याद करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करते हुए गृह-प्रवेश करती है कि इस बार वह किसी भी प्रकार अपने जीवन में कोई अनहोनी नहीं होने देगी। वह उसी रात को अपने बिस्तर पर बिछायी हुई शीतल पाटी को लपेटकर कमरे की छत पर बने बांस के थाक (शेल्फ) पर रख देती है। ये देख उसका पति उससे पूछता है तो वह कोई जवाब नहीं देती है, बस कहती है कि उसे इसके बिना ही सोने की आदत करनी चाहिए।

बुधवार, 3 सितंबर 2025

BA 3rd Sem SEP Shabari notes

 

जी, श्री नरेश मेहता के खंडकाव्य 'शबरी' के प्रथम अध्याय 'त्रेता' के अगले दो पृष्ठों में दिए गए पद्यांशों की संदर्भ-प्रसंग सहित व्याख्या नीचे दी गई है। Page 14-15

पद्यांश 1

​"आम्र-कुञ्ज, गेहूँ-गंधों का उपजाऊ मैदान सुहाना,

ऋषियों के वे पावन आश्रम नदी-घाट के तीर्थ नाना।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के प्रथम अध्याय 'त्रेता' से ली गई हैं।
  • प्रसंग: इन पंक्तियों में कवि त्रेता युग के ग्रामीण और प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन करते हुए बताते हैं कि उस समय का जीवन कितना शांत और सुखी था।
  • व्याख्या: कवि कहते हैं कि उस युग में आम के बगीचे (आम्र-कुञ्ज) और गेहूँ की खुशबू से भरे हुए उपजाऊ मैदान अत्यंत सुंदर लगते थे। नदियों के तट पर ऋषियों के पवित्र आश्रम थे और कई घाट तीर्थस्थलों में बदल गए थे। यह दृश्य उस समय के आध्यात्मिक और प्राकृतिक जीवन की झलक देता है।

पद्यांश 2

​"आर्य बस्तियाँ फैल रही थीं, नगर-सभ्यता लेकर

वन्य-जातियाँ भी छिटपुट थीं, आदिमता को लेकर।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के प्रथम अध्याय 'त्रेता' से उद्धृत हैं।
  • प्रसंग: इस पद्यांश में कवि आर्यों की बस्तियों के फैलाव और इसके साथ ही वन में रहने वाली जातियों की स्थिति का वर्णन कर रहे हैं।
  • व्याख्या: कवि बताते हैं कि आर्यों की बस्तियाँ 'नगर-सभ्यता' के साथ लगातार फैल रही थीं। दूसरी ओर, वन्य-जातियाँ (आदिवासी) अभी भी 'आदिमता' (प्राचीन जीवन-शैली) के साथ जंगलों में बिखरी हुई थीं। यह पद्यांश उस समय के समाज में आर्यों और गैर-आर्यों के बीच के अंतर को दर्शाता है, जहाँ एक तरफ शहरीकरण हो रहा था और दूसरी तरफ प्राचीन जीवन-शैली कायम थी।

पद्यांश 3

​"उत्तर का मैदान आर्य था, कोल-किरात विंध्याचल,

द्रविड़ था दक्षिण का सारा प्रायद्वीप, अरुणाचल।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के 'त्रेता' अध्याय से ली गई हैं।
  • प्रसंग: कवि भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाली जातियों का भौगोलिक विवरण दे रहे हैं।
  • व्याख्या: कवि बताते हैं कि उत्तरी मैदानों में आर्य रहते थे, जबकि विंध्याचल के क्षेत्र में कोल और किरात जैसी जातियाँ निवास करती थीं। भारत का पूरा दक्षिण प्रायद्वीप 'द्रविड़' लोगों का था, और अरुणाचल (पूर्वी क्षेत्र) भी इन जातियों का निवास स्थान था। यह पद्यांश प्राचीन भारत की जातीय और भौगोलिक विविधता को स्पष्ट करता है।

पद्यांश 4

​"यात्राएँ थीं कठिन, मार्ग भी सुगम नहीं थे,

लूट-पाट करते डाकू-दल फैले सभी कहीं थे।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ उसी खंडकाव्य से ली गई हैं।
  • प्रसंग: इस पद्यांश में कवि उस समय की यात्राओं की कठिनाइयों और असुरक्षा का वर्णन कर रहे हैं।
  • व्याख्या: कवि कहते हैं कि उस युग में यात्राएँ बहुत कठिन थीं, और रास्ते भी आसान नहीं थे। हर जगह डाकुओं के दल फैले हुए थे जो लूट-पाट करते थे। यह पंक्तियाँ उस समय की असुरक्षित और अव्यवस्थित स्थिति को दर्शाती हैं, जहाँ व्यापार और आवागमन आसान नहीं था।

पद्यांश 5

​"व्यापारी-गण सार्थ बनाकर सीमांतों तक जाते,

सिंधु तटों से माल लाद नौकाओं में ले जाते।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के प्रथम अध्याय 'त्रेता' से उद्धृत हैं।
  • प्रसंग: कवि यहाँ व्यापारियों की यात्राओं और व्यापारिक गतिविधियों का वर्णन कर रहे हैं।
  • व्याख्या: असुरक्षा के बावजूद, व्यापारी अपने समूह (सार्थ) बनाकर दूर-दूर की सीमाओं तक व्यापार करने जाते थे। वे सिंधु नदी के तटों से सामान नावों (नौकाओं) में भरकर ले जाते थे। यह पद्यांश बताता है कि व्यापार उस समय भी महत्वपूर्ण था, भले ही वह बहुत जोखिम भरा होता था।

पद्यांश 6

​"थे समाज में वर्ण, श्रेणियाँ अधिक नहीं थीं;

बनी संहिता आचारों की सामाजिकता अधिक नहीं थी।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ उसी खंडकाव्य से ली गई हैं।
  • प्रसंग: कवि इस पद्यांश में उस समय की सामाजिक व्यवस्था का वर्णन कर रहे हैं, जिसमें वर्ण व्यवस्था और नियमों की स्थिति बताई गई है।
  • व्याख्या: कवि बताते हैं कि समाज में वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) तो थे, लेकिन 'श्रेणियाँ' (कठोर सामाजिक वर्ग) ज्यादा नहीं बनी थीं। जीवन-शैली और नियमों (आचारों की संहिता) का कठोरता से पालन नहीं होता था, और सामाजिकता भी आज की तरह जटिल नहीं थी। यह दर्शाता है कि उस समय का समाज अपेक्षाकृत सरल और लचीला था।

पद्यांश 7

​"अभी सरल ही था समाज औ’ राजनीति भी क्रूर नहीं थी,

नगर-सभ्यता जैसा कहो, यह धन-धरनी से दूर नहीं थी।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के 'त्रेता' अध्याय से उद्धृत हैं।
  • प्रसंग: इस पद्यांश में कवि समाज की सादगी और राजनीति की प्रकृति का वर्णन कर रहे हैं।
  • व्याख्या: कवि कहते हैं कि उस समय का समाज सरल था और राजनीति भी अत्यधिक क्रूर नहीं थी। यह 'नगर-सभ्यता' उतनी भौतिकवादी नहीं थी, जैसा कि आज है। यह 'धन और धरनी' (भौतिक सुख और धरती से लगाव) से अधिक दूर नहीं थी। इसका अर्थ है कि लोग अपनी जड़ों से जुड़े हुए थे और धन-दौलत के पीछे भागने की प्रवृत्ति कम थी।

पद्यांश 8

​"धर्म और नैतिकता की तब नींव पड़ी जन-मन में,

थे ब्राह्मण सिरमौर, तपस्या के कारण सब जन में।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य से ली गई हैं।
  • प्रसंग: कवि धर्म और नैतिकता के महत्व को बताते हुए ब्राह्मणों की तत्कालीन सामाजिक स्थिति का उल्लेख कर रहे हैं।
  • व्याख्या: कवि कहते हैं कि उस समय धर्म और नैतिकता की नींव लोगों के मन में पड़ रही थी। समाज में ब्राह्मणों का स्थान सबसे ऊंचा (सिरमौर) था, क्योंकि वे अपनी तपस्या और ज्ञान के कारण सभी लोगों में सम्मान पाते थे। यह पद्यांश आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों के महत्व को दर्शाता है।

पद्यांश 9

​"रक्षक औ पालक क्षत्रिय थे, वैश्य बने व्यापारी,

श्रमिक शूद्र थे, थी समाज को यही व्यवस्था सारी।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य से उद्धृत हैं।
  • प्रसंग: इस पद्यांश में कवि उस समय की वर्ण-व्यवस्था और उसके कार्यों का स्पष्टीकरण दे रहे हैं।
  • व्याख्या: कवि बताते हैं कि उस समय के समाज में क्षत्रिय लोगों के रक्षक और पालक थे, वैश्य व्यापार का काम करते थे और शूद्र श्रमिक थे। यह पद्यांश उस समय की समाज व्यवस्था को दर्शा रहा है, जहाँ हर वर्ण का अपना विशिष्ट कार्य निर्धारित था।

पद्यांश 10

​"जिन्हें न थे स्वीकार धर्म-नैतिकता के बंधन

आर्य-जाति के होने पर भी राक्षस गण।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के प्रथम अध्याय 'त्रेता' से उद्धृत हैं।
  • प्रसंग: कवि उन लोगों का वर्णन कर रहे हैं जो तत्कालीन सामाजिक और नैतिक नियमों का पालन नहीं करते थे।
  • व्याख्या: कवि कहते हैं कि कुछ लोग ऐसे भी थे, जो 'आर्य जाति' के होते हुए भी धर्म और नैतिकता के नियमों को नहीं मानते थे। ऐसे लोगों को 'राक्षस गण' कहा जाता था। यह पद्यांश बताता है कि उस समय 'राक्षस' का अर्थ केवल राक्षस जाति नहीं था, बल्कि उन लोगों से था जो सामाजिक और नैतिक नियमों को तोड़ते थे।

पद्यांश 11

​"यज्ञों को विध्वंस, सताया करते आश्रम-वासी,

रक्त-मांस से दूषित कर जाते सब सत्यानाशी।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ उसी खंडकाव्य से ली गई हैं।
  • प्रसंग: इस पद्यांश में कवि 'राक्षस गणों' के क्रूर और विध्वंसक कार्यों का वर्णन कर रहे हैं।
  • व्याख्या: कवि कहते हैं कि ये 'राक्षस गण' यज्ञों को नष्ट कर देते थे और आश्रम में रहने वाले ऋषि-मुनियों को सताते थे। वे यज्ञ-स्थलों को रक्त और मांस से अपवित्र (दूषित) कर जाते थे, जिससे सब कुछ नष्ट हो जाता था। यह पद्यांश उस समय के समाज में फैले अधर्म और हिंसा को दर्शाता है।

पद्यांश 12

​"वन्य जातियाँ अब भी थीं आखेट आदि ही करतीं,

पशु-पक्षी-मछली पर अपना जीवन-यापन करतीं।"


  • संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य से उद्धृत हैं।
  • प्रसंग: कवि यहाँ जंगल में रहने वाली जातियों की जीवन-शैली का वर्णन कर रहे हैं।
  • व्याख्या: कवि कहते हैं कि वन्य जातियाँ (वनवासी) अभी भी शिकार (आखेट) करके ही अपना जीवन चलाती थीं। वे अपना जीवन-यापन पशु, पक्षी और मछली पर ही निर्भर रहकर करती थीं। यह पद्यांश शहरी और ग्रामीण समाज के विपरीत वनवासियों के प्राचीन और प्रकृति-निर्भर जीवन को दर्शाता है।

BA SEP 3rd sem Shabari notes

 श्री नरेश मेहता द्वारा रचित खंडकाव्य 'शबरी' के प्रथम अध्याय 'त्रेता' का पद्यांश-वार संदर्भ, प्रसंग और व्याख्या नीचे दी गई है।

पद्यांश 1

"त्रेता-युग की व्यथामयी यह कथा दीन नारी की,

राम-कथा से जुड़ कर पावन हुई, उसी शबरी की।"

संदर्भ: ये पंक्तियाँ आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध कवि नरेश मेहता द्वारा रचित खंडकाव्य 'शबरी' से ली गई हैं।

प्रसंग: कवि यहाँ खंडकाव्य की मुख्य पात्र शबरी का परिचय दे रहे हैं। वे बताते हैं कि शबरी का जीवन दुख और अभाव से भरा था, लेकिन भगवान राम की कथा से जुड़ने पर उनका जीवन पवित्र और पूज्यनीय हो गया। यह पंक्ति शबरी के चरित्र की महत्ता और उसकी भक्ति की शक्ति को दर्शाती है।

व्याख्या: कवि कहते हैं कि त्रेता युग में एक साधारण और दुखी महिला की कहानी, जो अपने जीवन में कष्ट झेल रही थी, राम के आगमन और उनकी कथा का हिस्सा बनने के कारण अत्यंत पावन हो गई। यह पद्यांश हमें बताता है कि शबरी की पहचान केवल एक "दीन नारी" के रूप में नहीं है, बल्कि एक ऐसी भक्त के रूप में है जिसकी कहानी राम से जुड़कर अमर हो गई।

पद्यांश 2

"बदल गया था सतयुग का सारा समाज त्रेता में,

वन-अरण्य को ग्राम-सभ्यता थी त्रेता में।"

संदर्भ: ये पंक्तियाँ 'शबरी' खंडकाव्य के प्रथम अध्याय 'त्रेता' से उद्धृत हैं।

प्रसंग: कवि यहाँ सतयुग और त्रेता युग के बीच हुए सामाजिक बदलावों को स्पष्ट कर रहे हैं।

व्याख्या: कवि बताते हैं कि त्रेता युग में आते-आते सतयुग के आदर्शों और सामाजिक व्यवस्था में बहुत बड़ा बदलाव आ गया था। जहाँ सतयुग में लोग प्रकृति और वनों के निकट रहते थे, वहीं त्रेता में शहरीकरण (ग्राम-सभ्यता) का उदय होने लगा था। यहाँ 'वन-अरण्य' का अर्थ है जंगल और 'ग्राम-सभ्यता' का अर्थ है गाँव और शहरी जीवन। यह पद्यांश यह दर्शाता है कि मनुष्य का जीवन अब प्रकृति से दूर और अधिक संगठित हो गया था।

पद्यांश 3

"काट वनों को लोगों ने खलिहान-खेत फैलाये,

जोड़ पथों से विकट दुरियाँ कस्बे-नगर बसाये।"

संदर्भ: ये पंक्तियाँ उसी खंडकाव्य से ली गई हैं।

प्रसंग: इस पद्यांश में कवि शहरीकरण की प्रक्रिया और उसके परिणामों का वर्णन कर रहे हैं।

व्याख्या: कवि कहते हैं कि त्रेता युग में लोगों ने अपनी ज़रूरतों के लिए जंगलों को काटना शुरू कर दिया था ताकि वे वहाँ खेत और खलिहान बना सकें। इसके साथ ही, उन्होंने कठिन रास्तों को जोड़कर नए कस्बे और नगर बसाए। यह विकास मानव की जीवनशैली को और जटिल बना रहा था, जिससे प्रकृति से उसका संबंध दूर हो रहा था। यह पद्यांश मनुष्य द्वारा प्रकृति में किए गए बदलावों को दर्शाता है।



पद्यांश 4

"जन्म ले रहे थे समाज में राज्य और कुछ जनपद,

सभी सभ्यताएँ पनपी हैं मैदानों, नदियों तट।"

संदर्भ: ये पंक्तियाँ श्री नरेश मेहता द्वारा रचित खंडकाव्य 'शबरी' के प्रथम अध्याय 'त्रेता' से ली गई हैं।

प्रसंग: इस पद्यांश में कवि समाज में हो रहे राजनैतिक और भौगोलिक बदलावों का वर्णन कर रहे हैं। वे बता रहे हैं कि किस तरह छोटे-छोटे समुदाय संगठित होकर राज्यों और जनपदों में बदल रहे थे और ये सभ्यताएं कहाँ विकसित हुईं।

व्याख्या: कवि कहते हैं कि त्रेता युग में समाज की संरचना बदल रही थी। अब लोग छोटे समूहों में रहने की बजाय संगठित होकर राज्यों और जनपदों (राज्यों के छोटे हिस्से) का निर्माण कर रहे थे। इसके साथ ही, कवि एक महत्वपूर्ण भौगोलिक तथ्य को भी दर्शाते हैं कि दुनिया की जितनी भी महान सभ्यताएं हैं, उन सबका विकास हमेशा उपजाऊ मैदानों और नदियों के किनारे हुआ है। नदियाँ जीवन का आधार थीं और उन्होंने मानव बस्तियों को विकसित होने का अवसर दिया। यह पद्यांश हमें बताता है कि मानव सभ्यता का विकास हमेशा प्रकृति, खासकर नदियों के साथ जुड़ा हुआ रहा है।


पद्यांश 5

"विन्ध्य-हिमालय के बीच अगर गंगा न होती,

क्या होता यह देश और संस्कृति क्या होती।"

संदर्भ: ये पंक्तियाँ खंडकाव्य के प्रथम अध्याय के अंतिम अंश हैं।

प्रसंग: कवि यहाँ भारत की भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान में गंगा और हिमालय के महत्व को रेखांकित करते हैं।

व्याख्या: कवि एक प्रश्न के माध्यम से कहते हैं कि यदि विंध्य पर्वत (दक्षिण भारत) और हिमालय पर्वत (उत्तर भारत) के बीच गंगा नदी न बहती, तो क्या भारत का भौगोलिक और सांस्कृतिक स्वरूप वैसा ही होता जैसा आज है? यह पद्यांश दर्शाता है कि गंगा और हिमालय केवल प्राकृतिक संरचनाएँ नहीं हैं, बल्कि वे भारतीय सभ्यता और संस्कृति की पहचान हैं। वे जीवन, आध्यात्म और इतिहास के प्रतीक बन गए


शनिवार, 23 अगस्त 2025

BBA SEP 3rd sem Taj Mahal ka tender notes


एक शब्द में लघु प्रश्नोत्तर (One-word Short Answer Questions)

दरबारी किसके सामने घुटने टेकने की बात करता है?

शाहजहाँ

गुप्ताजी कौन सी नदी के किनारे के जमीन बेचने की बात करता है?

यमुना

गुप्ताजी के अनुसार सरकारी काम में कितना समय लगता है?

एक साल

गुप्ताजी के काम में किसने रुकावट डाली?

नेता-1

नेताजी किस संगठन के अध्यक्ष थे?

यमुना बचाओ आन्दोलन

ताजमहल के निर्माण के लिए कौन सी जमीन खरीदी गई थी?

यमुना किनारे की

सुधीर कौन सी फाइल की बात कर रहा था?

बाबू की फाइल

सन्दर्भ-प्रसंग-व्याख्या (Context-Reference-Explanation)

1. "जब भी कोई जमुना के किनारे पर अतिक्रमण करने की चेष्टा करता है तो मैं और मेरे बहादुर साथी वहीं जाकर लेट जाते हैं और लेटो आन्दोलन शुरू कर देते हैं।"

संदर्भ: यह संवाद 'नेता-1' का है, जो खुद को 'यमुना बचाओ आन्दोलन' का अध्यक्ष बताता है। वह गुप्ताजी को ताजमहल बनाने के लिए खरीदी गई जमीन पर निर्माण न करने की धमकी दे रहा है।

प्रसंग: जब गुप्ताजी नेताजी से पूछते हैं कि आप कौन हैं और क्यों उन्हें ताजमहल बनाने से रोक रहे हैं, तब नेताजी इस आन्दोलन के बारे में बताते हैं। वह यह स्पष्ट करते हैं कि वे किसी भी निर्माण को रोकने के लिए 'लेटो आन्दोलन' शुरू कर देते हैं।

व्याख्या: इस संवाद के माध्यम से नाटककार ने विरोध प्रदर्शन के तरीकों पर व्यंग्य किया है। 'लेटो आन्दोलन' का जिक्र करके यह दर्शाया गया है कि कैसे सामाजिक कार्य या आन्दोलन भी स्वार्थपूर्ण राजनीतिक चालों का हिस्सा बन जाते हैं। यह संवाद भ्रष्टाचार, और नेताओं द्वारा लोगों को गुमराह करने की प्रवृत्ति पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी करता है।

2. "हमें लगता है कि हमारे पूर्वजों ने जो इमारतें उठाई हैं, वे ही काफी हैं। अब हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि हम उन इमारतों की ज़िआदा से ज़िआदा हिफाज़त करें।"

संदर्भ: यह संवाद 'नेता-2' का है, जो गुप्ताजी के पास एक और निर्माण परियोजना के सिलसिले में आता है। वह गुप्ताजी के नए प्रोजेक्ट का विरोध कर रहा है।

प्रसंग: जब गुप्ताजी नेता-2 को यमुना किनारे पर एक और 'जिलसिसा' नाम की इमारत बनाने की योजना बताते हैं, तब नेता-2 इस योजना का विरोध करता है।

व्याख्या: इस संवाद में नाटककार ने उन स्वार्थी लोगों पर कटाक्ष किया है जो प्रगति और विकास के नाम पर केवल अपने हित साधते हैं। नेता-2 संरक्षण और विरासत की बात कर रहा है, लेकिन उसका मकसद भी व्यक्तिगत लाभ लेना ही है। यह नाटक में व्याप्त भ्रष्टाचार और दोहरे मापदंडों को दर्शाता है, जहाँ नेता अपनी बात को सही ठहराने के लिए सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत का सहारा लेते हैं।

टिप्पणी (Short Notes)

सरकारी कार्यप्रणाली पर व्यंग्य: नाटक में गुप्ताजी और शाहजहाँ के बीच के संवाद से यह स्पष्ट होता है कि सरकारी काम में अत्यधिक देरी और भ्रष्टाचार होता है। शाहजहाँ को 22 साल लगे ताजमहल बनवाने में, लेकिन गुप्ताजी को केवल फाइल पास करवाने में ही एक साल लग गया। गुप्ताजी का यह कहना, "कैसा अँधेर मचा हुआ है। बादशाह के खुद सैंक्शन करने के बाद भी एक साल लगा गया?" सरकारी दफ्तरों की धीमी और भ्रष्ट कार्यप्रणाली पर गहरा कटाक्ष करता है।

भ्रष्टाचार और स्वार्थपरता: इन पृष्ठों में कई पात्रों (गुप्ताजी, नेता-1, नेता-2) के माध्यम से भ्रष्टाचार को दिखाया गया है। जहाँ गुप्ताजी को अपना काम करवाने के लिए पैसे देने पड़ रहे हैं, वहीं नेता-1 और नेता-2 जैसे पात्र विरोध प्रदर्शन का नाटक करके अपने निजी स्वार्थ सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। 'यमुना बचाओ आन्दोलन' जैसे नेक कार्य का इस्तेमाल भी व्यक्तिगत लाभ के लिए किया जा रहा है, जो समाज में फैले भ्रष्टाचार की कड़वी सच्चाई को उजागर करता है।

नेता और जनता: नाटक में 'नेता-1' का संवाद, "मैं हूँ धरूलाल, मैं जमुना बचाओ आन्दोलन का अध्यक्ष हूँ और मैंने जमुना नदी को बचाने के लिए लेटो आन्दोलन शुरू करा हुआ है।" और 'नेता-2' का संवाद, "यह जनता ही है जिसे कभी किश्तों को चैन से बैठने नहीं देती।" नेताओं और जनता के बीच के संबंधों पर व्यंग्य करता है। यहाँ नेता खुद को जनता का सेवक बताते हैं, लेकिन वास्तव में वे अपने हितों के लिए जनता का शोषण करते हैं। यह दर्शाता है कि नेताओं को जनता की वास्तविक ज़रूरतों की परवाह नहीं होती, बल्कि वे सिर्फ उन्हें अपने राजनीतिक मोहरे के रूप में इस्तेमाल करते हैं।

शुक्रवार, 22 अगस्त 2025

BBA SEP Tajmahal ka Tender notes

 ताजमहल का टेंडर: लघु प्रश्नोत्तर और व्याख्या नोट्स

यह नाटक अजय शुक्ला द्वारा लिखित 'ताजमहल का टेंडर' का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जहाँ हास्य और व्यंग्य के माध्यम से भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और काम में देरी की समस्या को उजागर किया गया है। notes from page no 22-29

एक शब्द/संक्षिप्त उत्तर वाले प्रश्नोत्तर

प्रश्न: शाहजहाँ के हुक्म का इंतज़ार कौन कर रहा था?

उत्तर: गुप्तजी।

प्रश्न: गुप्तजी ने शाहजहाँ को किसका नक्शा दिखाया?

उत्तर: ताज महल कंस्ट्रक्शन कारपोरेशन के ऑफिस बिल्डिंग का।

प्रश्न: गुप्तजी के अनुसार, कारपोरेशन की बिल्डिंग कितने साल में तैयार हो गई?

उत्तर: दो साल में।

प्रश्न: भड़याजी के चाचा की ज़मीन कहाँ पर है?

उत्तर: जमुना किनारे।

प्रश्न: गुप्तजी ने ताज महल बनाने के लिए कितना बड़ा प्लॉट मांगा?

उत्तर: 15-20 एकड़।

प्रश्न: शाहजहाँ ने मुमताज का मकबरा बनाने की बात की तो गुप्तजी ने उसे क्या बताया?

उत्तर: एक बड़ा प्रोजेक्ट।

प्रश्न: भड़याजी किसे चेयरमैन बनाना चाहते हैं?

उत्तर: गुप्तजी को।

प्रश्न: सिंगल टेंडर पर काम किसको मिला है?

उत्तर: गुप्तजी को।

प्रश्न: फण्ड रिलीज़ होने के लिए गुप्तजी को किस चीज का इंतज़ार था?

उत्तर: लैंड एक्वायर।

सप्रसंग व्याख्या

1. संदर्भ एवं प्रसंग:

संदर्भ: यह पंक्तियाँ अजय शुक्ला द्वारा लिखित नाटक 'ताजमहल का टेंडर' से ली गई हैं।

प्रसंग: इन पंक्तियों में गुप्तजी, शाहजहाँ को यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि जिस नक्शे को वह मुमताज का मकबरा समझ रहे हैं, वह असल में उनके सपनों को पूरा करने के लिए 'ताज महल कंस्ट्रक्शन कारपोरेशन' के ऑफिस बिल्डिंग का नक्शा है। यह वार्तालाप उस व्यंग्यात्मक स्थिति को दर्शाती है जहाँ एक ऐतिहासिक परियोजना (ताजमहल) को भी आधुनिक नौकरशाही और भ्रष्टाचार की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ रहा है।

व्याख्या: गुप्तजी, जो एक आधुनिक ठेकेदार के रूप में प्रस्तुत हैं, शाहजहाँ को यह समझाते हैं कि ताज महल का निर्माण शुरू करने से पहले एक प्रॉपर ऑफिस बनाना ज़रूरी है, जहाँ से सारे काम को मैनेज किया जा सके। वे तर्क देते हैं कि प्रोजेक्ट के लिए बहुत सारा स्टाफ आ गया है और उन सभी को काम करने के लिए एक जगह चाहिए। यह बात सुनते ही शाहजहाँ आश्चर्यचकित हो जाते हैं क्योंकि उनके लिए ताज महल सीधे मुमताज का मकबरा बनाने का काम था, जबकि गुप्तजी ने उसे एक कॉर्पोरेट परियोजना में बदल दिया है। यह संवाद आधुनिक युग की उस सोच पर व्यंग्य करता है जहाँ किसी भी बड़े काम को शुरू करने से पहले अनावश्यक प्रक्रियाएँ और औपचारिकताएँ होती हैं। यह हास्य उत्पन्न करता है और दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर करता है कि कैसे समय के साथ काम करने के तरीके बदल गए हैं और कैसे लालफीताशाही (Red Tape) और कागजी काम असली काम को पीछे छोड़ देते हैं।

2. संदर्भ एवं प्रसंग:

संदर्भ: यह पंक्तियाँ अजय शुक्ला द्वारा लिखित नाटक 'ताजमहल का टेंडर' से ली गई हैं।

प्रसंग: इन पंक्तियों में शाहजहाँ और गुप्तजी के बीच जमीन अधिग्रहण (Land Acquisition) को लेकर बहस हो रही है। शाहजहाँ चाहते हैं कि काम तुरंत शुरू हो, जबकि गुप्तजी जमीन अधिग्रहण की जटिलताओं को समझा रहे हैं।

व्याख्या: शाहजहाँ गुस्से में गुप्तजी से पूछते हैं कि अगर सारा स्टाफ दिन-रात काम कर रहा है तो फिर भी काम क्यों रुका हुआ है। इस पर गुप्तजी, जो कि आज के भ्रष्ट तंत्र का प्रतीक हैं, जवाब देते हैं कि काम में कोई कमी नहीं है, लेकिन जमीन का 'लैंड एक्वायर' अभी बाकी है। वह बताते हैं कि जमीन के मालिकों से मोलभाव चल रहा है और जब तक फंड्स रिलीज नहीं होंगे, तब तक जमीन नहीं खरीदी जा सकती। यह संवाद सरकारी परियोजनाओं में होने वाली देरी और भ्रष्टाचार की पोल खोलता है। इसमें दिखाया गया है कि कैसे एक काम को शुरू करने से पहले ही कई रुकावटें आ जाती हैं, जैसे जमीन अधिग्रहण में देरी, फंड्स के लिए लालच और कागजी कार्यवाही की जटिलता। शाहजहाँ की बेचैनी और गुप्तजी का शांत, व्यवसायिक रवैया इस बात पर व्यंग्य करता है कि कैसे एक राजा का हुक्म भी आधुनिक सरकारी प्रक्रिया के सामने बेअसर हो जाता है। यह हास्य और व्यंग्य का एक उत्कृष्ट उदाहरण है जो दर्शाता है कि कैसे काम की गुणवत्ता से ज़्यादा प्रक्रियाओं को महत्व दिया जाता है।


सप्रसंग व्याख्या extra notes 

1. संदर्भ एवं प्रसंग:

संदर्भ: यह पंक्तियाँ अजय शुक्ला द्वारा लिखित व्यंग्यात्मक नाटक 'ताजमहल का टेंडर' से ली गई हैं।

प्रसंग: इन पंक्तियों में, भड़याजी, जो कि कमीशन और दलाली के प्रतीक हैं, गुप्तजी को एक प्रोजेक्ट दिलाने की बात कर रहे हैं। उनका मानना है कि यदि कोई बड़ा प्रोजेक्ट मिल जाए तो उन्हें भी नीचे से कुछ कमाई करने का मौका मिलेगा। यह संवाद दिखाता है कि कैसे निजी स्वार्थ सरकारी और निजी परियोजनाओं को प्रभावित करते हैं।

व्याख्या: भड़याजी, जो एक ठेकेदार या दलाल की भूमिका में हैं, गुप्तजी से सीधे-सीधे पूछते हैं कि क्या वह कोई बड़ा कॉन्ट्रैक्ट दिलवा सकते हैं ताकि उन्हें भी कुछ "अंधेर" (अवैध कमाई) करने का मौका मिले। यहाँ "अंधेर" शब्द का प्रयोग बहुत व्यंग्यात्मक है, क्योंकि यह सीधे तौर पर भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी को दर्शाता है। भड़याजी का यह कहना कि "बताइए सब सबसे खाली बैठे हैं," यह दर्शाता है कि भ्रष्टाचार करने वाले लोग हमेशा मौके की तलाश में रहते हैं और उन्हें काम का नहीं, बल्कि कमाई का इंतज़ार होता है। यह संवाद इस बात पर कटाक्ष करता है कि कैसे बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स सिर्फ़ विकास के लिए नहीं, बल्कि भ्रष्ट अधिकारियों और ठेकेदारों की जेबें भरने का साधन बन जाते हैं। यह दिखाता है कि कैसे पूरी व्यवस्था एक-दूसरे से जुड़ी हुई है और हर कोई अपने हिस्से की "मलाई" चाहता है।

2. संदर्भ एवं प्रसंग:

संदर्भ: यह पंक्तियाँ 'ताजमहल का टेंडर' नाटक से ली गई हैं, जहाँ हास्य और व्यंग्य का सुंदर मिश्रण है।

प्रसंग: यहाँ गुप्तजी और भड़याजी के बीच ज़मीन खरीदने की बातचीत हो रही है। भड़याजी गुप्तजी को यमुना किनारे अपने चाचा की ज़मीन खरीदने का सुझाव देते हैं और कहते हैं कि वह काफी अच्छी सेवा करेंगे।

व्याख्या: गुप्तजी, ताज महल बनाने के लिए ज़मीन की तलाश में हैं, और भड़याजी उन्हें अपने चाचा की ज़मीन का सुझाव देते हैं, जो कि यमुना किनारे है। भड़याजी का यह कहना कि "अगर गुप्ता साहब इस प्रोजेक्ट के लिए उस जमीन को खरीद लें तो चाचाजी काफी अच्छी सेवा करेंगे," एक गहरा व्यंग्य है। यहाँ "अच्छी सेवा" का मतलब सिर्फ़ ज़मीन बेचना नहीं है, बल्कि उस ज़मीन के बदले में मिलने वाले कमीशन या मुनाफे से है। भड़याजी अपने चाचा की ज़मीन की तारीफ भी करते हैं, जैसे कि वह बहुत नरम और दलदल-सी है, जिस पर कोई बड़ी इमारत नहीं बन सकती। यह बात दिखाता है कि वे एक बेकार ज़मीन को एक बड़े प्रोजेक्ट के नाम पर बेचकर मुनाफा कमाना चाहते हैं। यह संवाद इस बात पर कटाक्ष करता है कि कैसे भ्रष्टाचार में सिर्फ़ बड़े अधिकारी ही नहीं, बल्कि आम लोग भी शामिल हो जाते हैं। यह दिखाता है कि कैसे निजी रिश्ते और पारिवारिक संबंध भी भ्रष्टाचार के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।

टिप्पणी (6 अंक के लिए)

ताजमहल का टेंडर: नाटक में भ्रष्टाचार और लालफीताशाही (Red-Tapism) का चित्रण।

अजय शुक्ला द्वारा लिखित नाटक 'ताजमहल का टेंडर' अपने व्यंग्यात्मक और हास्यपूर्ण अंदाज़ में भारतीय नौकरशाही और भ्रष्टाचार की जटिलता को उजागर करता है। नाटक का मुख्य विषय यह है कि यदि आज के समय में ताजमहल जैसा कोई ऐतिहासिक स्मारक बनाना हो, तो उसे किन-किन समस्याओं और प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ेगा। यह नाटक आधुनिक युग के प्रशासनिक तंत्र पर एक तीखा प्रहार है।

नाटक में भ्रष्टाचार को कई स्तरों पर दिखाया गया है। जहाँ एक ओर गुप्तजी जैसे ठेकेदार हैं, जो प्रोजेक्ट को मुनाफे का धंधा मानते हैं और ज़मीन खरीदने, डिज़ाइन बनवाने और टेंडर निकालने में सिर्फ़ अपनी जेब भरने का मौका देखते हैं, वहीं दूसरी ओर भड़याजी जैसे दलाल हैं, जो कमीशन के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। नाटक में दिखाया गया है कि कैसे एक ऐतिहासिक और कलात्मक काम भी आधुनिक बाज़ार और लालच की भेंट चढ़ जाता है।

लालफीताशाही (Red-Tapism) इस नाटक का दूसरा प्रमुख पहलू है। नाटक में यह दिखाया गया है कि कैसे एक काम को शुरू करने से पहले ही कई अनावश्यक प्रक्रियाओं में फँसा दिया जाता है। शाहजहाँ, जो एक राजा हैं, सीधे काम शुरू करवाना चाहते हैं, लेकिन गुप्तजी उन्हें टेंडर, एस्टीमेट, ऑफिस बिल्डिंग के नक्शे, स्टाफ, और लैंड एक्विजिशन जैसी औपचारिकताओं में उलझा देते हैं। यह दिखाता है कि कैसे सरकारी दफ्तरों में कागज़ी कार्यवाही को असली काम से ज़्यादा महत्व दिया जाता है। नतीजा यह होता है कि काम कभी शुरू ही नहीं हो पाता। शाहजहाँ की बेचैनी और गुप्तजी का तर्क यह दर्शाता है कि काम की गति और गुणवत्ता से ज़्यादा नियमों और प्रक्रियाओं का पालन महत्वपूर्ण हो गया है, चाहे वे कितने ही हास्यास्पद और निरर्थक क्यों न हों।

कुल मिलाकर, 'ताजमहल का टेंडर' सिर्फ़ एक मनोरंजक नाटक नहीं है, बल्कि यह एक आईना है जो हमारे समाज और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार और लालफीताशाही की कड़वी सच्चाई को हास्य के माध्यम से दिखाता है। यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हमारी व्यवस्था इतनी जटिल हो गई है कि कोई भी महान कार्य बिना पैसे और पावर के संभव नहीं है।

गुरुवार, 21 अगस्त 2025

B.com 1st sem SEP Hariya kaha notes

 हरिया काका रेखाचित्र पर आधारित प्रश्नोत्तर और नोट्स


हरिया काका कौन थे?

उत्तर: नौकर

हरिया काका किस लेखक के घर में 40 साल से थे?

उत्तर: बाबूजी

लेखक के बच्चों का क्या नाम था?

उत्तर: विनी और पावस

हरिया काका बच्चों के लिए क्या लेकर आए थे?

उत्तर: उपहार (गुलदस्ता)

हरिया काका किस चीज़ की अच्छी जानकारी रखते थे?

उत्तर: फल-सब्जियों

बच्चों ने हरिया काका को किस खेल के खिलाड़ी के रूप में देखा?

उत्तर: क्रिकेट

हरिया काका ने किसे तोहफ़ा दिया था?

उत्तर: बहुरानी

हरिया काका के लिए लेखक के परिवार के सदस्य क्या थे?

उत्तर: अपने

बच्चों को हरिया काका के साथ खेलना क्यों पसंद था?

उत्तर: दोस्त

जन्मदिन किसका था?

उत्तर: विनी और पावस

हरिया काका बच्चों को क्या देकर आशीर्वाद देते थे?

उत्तर: लड्डू

बहुरानी ने हरिया काका से क्या छुपाया था?

उत्तर: गुलदस्ता

हरिया काका किस तरह के व्यक्ति थे?

उत्तर: ईमानदार

हरिया काका बच्चों को क्या खाने को देते थे?

उत्तर: टॉफी

बच्चों ने हरिया काका का नाम क्या रखा था?

उत्तर: हीरो

संदर्भ सहित व्याख्या वाले नोट्स


1. हरिया काका का व्यक्तित्व


संदर्भ: "हरिया काका ने पिछले 40 सालों से इस घर का नमक खाया है।"


व्याख्या: हरिया काका एक अत्यंत ईमानदार, वफ़ादार और परिवार के प्रति समर्पित व्यक्ति थे। वह केवल नौकर नहीं, बल्कि परिवार के सदस्य बन गए थे। लेखक ने उन्हें 'हीरो' जैसा बताया है, जिनसे बच्चे प्रेरणा लेते थे। वे सादा जीवन जीने वाले और बच्चों से बेहद प्यार करने वाले थे।


2. परिवार से हरिया काका का रिश्ता


संदर्भ: "बाबूजी, मौजी, बहुरानी और नन्हें-मुन्ने बच्चों तक का सुख-दुःख सब उनका है।"


व्याख्या: इस घर में हरिया काका का रिश्ता केवल काम तक सीमित नहीं था। वे हर सदस्य के जीवन से गहराई से जुड़े थे, चाहे वह बाबूजी हों या बच्चे। वे सभी की जरूरतों का ख्याल रखते थे, खासकर बच्चों के प्रति उनका स्नेह बहुत गहरा था। यह रिश्ता प्रेम और सम्मान पर आधारित था, न कि मालिक-नौकर के रिश्ते पर।


3. बच्चों के साथ हरिया काका का संबंध


संदर्भ: "विनी और पावस के लिए तो वह बहु खिलौना भी है, तो सीख देने वाले गुरु भी। माँ-बाप, दोस्त, सब कुछ है उन दोनों बच्चों के लिए।"


व्याख्या: बच्चों के लिए हरिया काका केवल काम करने वाले व्यक्ति नहीं थे, बल्कि उनके दोस्त, गुरु और खिलौना सब थे। वे बच्चों के साथ खेलते थे, उन्हें सही-गलत की सीख देते थे और उनकी हर शरारत में शामिल होते थे। यह अंश उनके और बच्चों के बीच के प्यारे और अटूट रिश्ते को दर्शाता है।

4. हरिया काका का प्रभाव


संदर्भ: "बहुरानी और मौजी उस शिक्षा-दीक्षा रहित पर पढ़े-लिखे को भी मात देने वाले बुद्धिमान, समझदार हरिया काका का मुँह ताकती रही।"


व्याख्या: हरिया काका भले ही औपचारिक रूप से शिक्षित नहीं थे, लेकिन उनका जीवन का अनुभव और समझ बहुत गहरी थी। वे अपनी बुद्धिमानी और समझदारी से पढ़े-लिखे लोगों को भी प्रभावित करते थे। यह दर्शाता है कि ज्ञान केवल किताबों से नहीं मिलता, बल्कि जीवन के अनुभवों से भी आता है।



संदर्भ-प्रसंग-व्याख्या नोट्स


अंश 1: "और और दो मोमबत्तियों की फूँक मारी और दो मोमबत्तियों की 'लौ' की सफ़ाई से दिप-दिपाए छोड़, अपने नन्हें हाथों से रिबिन और गोटे से सजी छुरी से केक काट कर, स्वयं ज़ोर-ज़ोर से ताली बजाना शुरु कर दिया।"


संदर्भ: यह अंश रेखाचित्र के उस हिस्से से लिया गया है जहाँ विनी और पावस अपना जन्मदिन मना रहे हैं।


प्रसंग: लेखक बच्चों की मासूमियत और उनकी खुशी को दर्शा रहे हैं, जब वे जन्मदिन का केक काट रहे हैं। यहाँ बताया गया है कि कैसे बच्चे अपने ही अंदाज़ में जश्न मना रहे हैं, खुद ही ताली बजाकर अपनी खुशी का इजहार कर रहे हैं।


व्याख्या: इस पंक्ति में बच्चों की निश्छल और स्वाभाविक खुशी का वर्णन है। वे किसी के ताली बजाने का इंतजार नहीं कर रहे, बल्कि अपनी खुशी में इतने मगन हैं कि खुद ही ताली बजाकर जश्न मना रहे हैं। यह दृश्य उनकी मासूमियत और उल्लास को खूबसूरती से बयां करता है, जहाँ जश्न मनाने के लिए उन्हें बाहरी अनुमोदन की ज़रूरत नहीं है।


अंश 2: "हरिया काका ने पिछले 40 सालों से इस घर का नमक खाया है। जब वे बिजनौर आए, तो इस घर में साहब ने उन्हें 'भय्याजी' को गोदी खिलाने और घर के साह-साँधे को देखने के लिए रखा था, तब उनकी उम्र 15-16 साल रही होगी।"


संदर्भ: यह अंश हरिया काका के परिचय और उनके इस परिवार से पुराने संबंध को दर्शाता है।


प्रसंग: लेखक हरिया काका के इस घर से गहरे जुड़ाव के बारे में बता रहे हैं, जो केवल एक नौकर का नहीं, बल्कि परिवार के सदस्य का है। यह उनके लंबे समय से चले आ रहे विश्वास और वफ़ादारी को उजागर करता है।


व्याख्या: यहाँ 'नमक खाया' मुहावरे का प्रयोग हरिया काका की वफ़ादारी और समर्पण को दिखाने के लिए किया गया है। वे लगभग पूरी ज़िंदगी इस परिवार के साथ रहे हैं, उनकी पीढ़ियों को बड़ा होते देखा है और परिवार के हर सुख-दुःख में शामिल रहे हैं। यह अंश बताता है कि हरिया काका का रिश्ता केवल नौकरी का नहीं, बल्कि एक गहरे और आत्मीय संबंध का है।


अंश 3: "पावस ने ज़िद किया कि वह रिबिन भी अपने आप ही खोलेगा। उसने दोस्तों का ध्यान अपने पर केंद्रित करने के लिए ख़ूब आराम से रिबिन खोला। फिर चारों ओर सब पर नज़र घुमाई।"


संदर्भ: यह अंश बच्चों के जन्मदिन समारोह के दौरान पावस के व्यवहार को दर्शाता है।


प्रसंग: यहाँ लेखक पावस के व्यवहार का वर्णन कर रहे हैं, जो अपने दोस्तों के सामने अपने उपहार को एक खास अंदाज़ में खोलना चाहता है, ताकि सभी का ध्यान उसकी तरफ जाए।


व्याख्या: यह अंश एक बच्चे के स्वभाव को दर्शाता है, जहाँ वह अपने दोस्तों के बीच महत्व और प्रशंसा पाने की इच्छा रखता है। पावस का धीरे-धीरे रिबिन खोलना और फिर चारों ओर देखना यह दिखाता है कि वह इस पल को यादगार बनाना चाहता है और चाहता है कि उसके दोस्त उसकी खुशी को देखें। यह बच्चों की स्वाभाविक आत्म-केंद्रित प्रवृत्ति का एक प्यारा उदाहरण है।


अंश 4: "बहुरानी और मौजी उस शिक्षा-दीक्षा रहित पर पढ़े-लिखे को भी मात देने वाले बुद्धिमान, समझदार हरिया काका का मुँह ताकती रही।"


संदर्भ: यह पंक्ति हरिया काका की बुद्धिमत्ता और समझदारी को दर्शाती है, जो उनकी औपचारिक शिक्षा की कमी को छिपा देती है।


प्रसंग: यहाँ हरिया काका की व्यावहारिक बुद्धि की प्रशंसा की गई है, जो पढ़े-लिखे लोगों की बुद्धि से भी कहीं अधिक है।


व्याख्या: इस अंश में लेखक यह बताना चाहते हैं कि सच्ची समझ और बुद्धिमत्ता केवल स्कूल या कॉलेज की डिग्री से नहीं आती, बल्कि जीवन के अनुभवों से आती है। हरिया काका ने भले ही किताबी ज्ञान न लिया हो, पर जीवन को गहराई से समझा है, जिसकी वजह से वे अपने व्यवहार और फैसलों से बहुरानी और मौजी जैसे लोगों को भी अचंभित कर देते हैं। यह हरिया काका के सहज ज्ञान और उनकी मज़बूत नैतिक सोच को उजागर करता है।


Part 2



अंश 1: "सुबह-सुबह आँखें खुली तो तो आमों के दर्शन देगी। सबेरा हुआ तो लोग ये नहीं देखते हैं कि हरिया काका तड़के चार बजे से लगकर आम और कटहल तोलने में जो लगे थे।"


संदर्भ: यह अंश हरिया काका के आम और कटहल बेचने के एक दिन का वर्णन करता है।


प्रसंग: यहाँ हरिया काका के समर्पण और काम के प्रति उनकी लगन को दर्शाया गया है। लोग केवल सुबह बाज़ार में फल देखते हैं, लेकिन उसके पीछे हरिया काका की कड़ी मेहनत और जल्दी उठकर काम करने की बात को नहीं समझते।


व्याख्या: यह पंक्ति हरिया काका की कर्मठता और ईमानदारी को उजागर करती है। वे बिना किसी शिकायत के अपनी जिम्मेदारी को निभाते हैं। यह समाज के उस पहलू पर भी प्रकाश डालता है, जहाँ लोग परिणाम तो देखते हैं, लेकिन उसके पीछे की मेहनत और संघर्ष को अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। हरिया काका की मेहनत ही उन्हें एक साधारण नौकर से परिवार का महत्वपूर्ण सदस्य बनाती है।


अंश 2: "हरिया काका तू तो कभी बीमार नहीं पड़ते थे। पर कभी एक-दो बार बुखार-खाँसी ने उन पर हमला कर दिया।"


संदर्भ: यह अंश हरिया काका के बीमार पड़ने और उनके परिवार की चिंता को दिखाता है।


प्रसंग: हरिया काका हमेशा स्वस्थ और मजबूत दिखते थे, लेकिन जब वे बीमार पड़ते हैं, तो उनकी सेहत पर परिवार के लोग चिंता व्यक्त करते हैं। यह प्रसंग उनके प्रति परिवार के प्यार और जुड़ाव को दर्शाता है।


व्याख्या: इस पंक्ति से यह स्पष्ट होता है कि हरिया काका सिर्फ काम करने वाले व्यक्ति नहीं थे, बल्कि परिवार का एक अभिन्न अंग थे। जब उन्हें बुखार आता है, तो परिवार के सदस्यों की चिंता यह बताती है कि वे उन्हें कितना महत्व देते हैं। 'अंदरक और तुलसी की चाय पीकर' वे ठीक हो जाते हैं, यह उनकी सादगी और प्राकृतिक उपचारों में उनके विश्वास को भी दर्शाता है।


अंश 3: "वे बहुरानी, उस घर को, उसकी दीवारों को, उस आँगन को याद न करते हों और वे न मनाते हों कि हे प्रभु! अगले जनम में भी बड़े साहब और मौजी, उनके बच्चों और बच्चों के बच्चों की सेवा का मौका देना।"


संदर्भ: यह अंश हरिया काका के परिवार के प्रति अटूट प्रेम और समर्पण को दर्शाता है।


प्रसंग: हरिया काका ने अपनी पूरी जिंदगी इस परिवार की सेवा में लगा दी। वे अपनी आखिरी सांस तक इसी परिवार में रहना चाहते हैं और अगले जन्म में भी उन्हीं की सेवा करना चाहते हैं।


व्याख्या: यह पंक्ति हरिया काका की अभूतपूर्व वफ़ादारी और भक्ति को दिखाती है। उनके लिए यह घर सिर्फ एक काम करने की जगह नहीं, बल्कि उनका अपना संसार था। उनकी यह इच्छा दर्शाती है कि उनके लिए रिश्ता, सेवा और प्रेम किसी भी धन-दौलत से बढ़कर था। यह अंश हरिया काका के व्यक्तित्व की सबसे गहरी और भावुक परत को खोलता है।


हरिया काका का चरित्र-चित्रण


1. वफ़ादार और समर्पित: हरिया काका ने 40 साल से अधिक समय तक इस परिवार की सेवा की। वे परिवार के हर सदस्य के सुख-दुःख में शामिल होते थे। उनका यह कहना कि वे अगले जन्म में भी इसी परिवार की सेवा करना चाहते हैं, उनकी अटूट वफ़ादारी का सबसे बड़ा प्रमाण है।


2. मेहनती और कर्मठ: वे सुबह तड़के 4 बजे उठकर काम करते थे और कभी थकान महसूस नहीं करते थे। आम और कटहल की बिक्री का काम हो या घर के बाकी काम, वे हमेशा पूरी लगन से काम करते थे।


3. परिवार का अभिन्न अंग: हरिया काका केवल एक नौकर नहीं, बल्कि परिवार के सदस्य थे। बच्चे उन्हें 'हीरो' कहते थे और उनके साथ खेलना पसंद करते थे। परिवार के सदस्य उनकी सेहत की चिंता करते थे और वे भी पूरे परिवार को अपना मानते थे।


4. बुद्धिमान और अनुभवी: भले ही वे पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उनका जीवन का अनुभव और समझ बहुत गहरी थी। वे अपनी व्यावहारिक बुद्धिमत्ता से सभी को प्रभावित करते थे। मौजी और बहुरानी जैसी पढ़ी-लिखी महिलाएं भी उनकी बातों का सम्मान करती थीं।


5. बच्चों के प्रिय: हरिया काका बच्चों के लिए दोस्त, गुरु और खिलौना सब कुछ थे। वे बच्चों के साथ खेलते थे, उन्हें सही-गलत की सीख देते थे और उनकी हर छोटी-बड़ी खुशी में शामिल होते थे। वे बच्चों को लड्डू देकर आशीर्वाद देते थे, जिससे उनका रिश्ता और भी गहरा होता था।


6. स्वाभिमानी: हरिया काका को अपनी मेहनत और काम पर गर्व था। वे कभी भी किसी से मदद नहीं मांगते थे, बल्कि अपने काम को पूरी ईमानदारी से करते थे।

निष्कर्ष: हरिया काका एक साधारण व्यक्ति थे, लेकिन उनका व्यक्तित्व असाधारण था। वे वफ़ादारी, समर्पण, प्रेम और ईमानदारी के प्रतीक थे। उनका चरित्र हमें सिखाता है कि रिश्ते दिल से बनते हैं, औकात या पद से नहीं।



बुधवार, 20 अगस्त 2025

B.com SEP 1st semester Chapter 3 notes

 

डॉ. गीता गुप्त द्वारा लिखित निबंध "धरती बचेगी तभी हम बचेंगे" के आधार पर 20 एक शब्द वाले लघु प्रश्नोत्तर और संदर्भ सहित व्याख्या नीचे दिए गए हैं।

लघु प्रश्नोत्तर (एक शब्द में उत्तर)

  1. ​भारतीयों ने प्रकृति के संरक्षण में किसे महत्व दिया है? उत्तर: उपासना
  2. ​भारत में धरती पर जीवन का मुख्य आधार क्या माना गया है? उत्तर: पंचभूत
  3. ​मानव जीवन को सरल बनाने के लिए भारतीय संस्कृति में किसका महत्व बताया गया है? उत्तर: जीव-जंतु
  4. ​पंचभूत में कौन-कौन से तत्व शामिल हैं? उत्तर: पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश
  5. ​प्राचीन भारतीय परंपराओं में प्रकृति को किसके रूप में माना गया है? उत्तर: देवी-देवता
  6. ​पर्वत, पेड़ और नदियों को किस रूप में पूजा जाता है? उत्तर: देवी-देवता
  7. ​20वीं सदी में मानव ने विकास के लिए क्या अपनाया? उत्तर: पश्चिम का अंधानुकरण
  8. ​फलों और फूलों का मुख्य उद्देश्य क्या था? उत्तर: पर्यावरण को बचाना
  9. ​मानव ने विज्ञान की प्रगति को किस रूप में माना है? उत्तर: विकास
  10. ​आधुनिक सभ्यता में क्या सबसे अधिक हुआ है? उत्तर: प्राकृतिक संसाधनों का दोहन
  11. ​आधुनिक विकास का नाम क्या है? उत्तर: औद्योगीकरण
  12. ​2005 में दुनिया के सबसे संपन्न देश कौनसे थे? उत्तर: अमेरिका
  13. ​उपभोक्तावाद के कारण क्या बढ़ा है? उत्तर: तनाव, बीमारी
  14. ​2050 तक दुनिया की जनसंख्या कितनी हो सकती है? उत्तर: 23 अरब
  15. ​2008 में पर्यावरण को बचाने के लिए भारत ने कितने हेक्टेयर भूमि खाली करने की घोषणा की थी? उत्तर: 60 हजार
  16. ​पर्यावरण का प्रदूषण रोकने के लिए क्या आवश्यक है? उत्तर: सामूहिक प्रयास
  17. ​हमें प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कैसे करना चाहिए? उत्तर: सीमित
  18. ​हमें अपनी जीवनशैली को किसके अनुकूल बनाना चाहिए? उत्तर: प्रकृति
  19. ​अगर हम प्रकृति का सम्मान नहीं करेंगे तो क्या होगा? उत्तर: धरती बचेगी नहीं
  20. ​पर्यावरण को बचाने का अंतिम उपाय क्या है? उत्तर: स्वयं को बदलना

संदर्भ सहित व्याख्या

व्याख्या-1

संदर्भ: "जब यह बात है कि भारतीय अपनी प्राचीन परंपराओं को भूलने जा रहे हैं। जबकि पारंपरिक ढंग से हमारे पूर्वज प्रकृति की उपासना का मंत्र देते आए हैं। हमारे धार्मिक रीति-रिवाजों में प्रकृति के संरक्षण का संदेश समाहित है। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, पेड़, कलश, सूर्य, चंद्र आदि को पूजने और भगवान देने का अर्थ ही है कि हम उनसे बदला का भाव मानते हैं।"

व्याख्या:

लेखिका इस अनुच्छेद में बताती हैं कि आधुनिक समाज अपनी पुरानी भारतीय परंपराओं को भूलता जा रहा है, जहाँ प्रकृति की पूजा की जाती थी। हमारी संस्कृति में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, सूर्य, और चंद्रमा जैसे प्राकृतिक तत्वों को देवी-देवता मानकर पूजा जाता था। यह पूजा केवल एक धार्मिक रिवाज नहीं थी, बल्कि प्रकृति के प्रति सम्मान और कृतज्ञता व्यक्त करने का एक तरीका था। यह हमें सिखाता था कि हमें प्रकृति से केवल लेना ही नहीं, बल्कि उसे बचाना भी है। यह दृष्टिकोण आज के समय में बहुत महत्वपूर्ण है, जब हम बिना सोचे-समझे प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं।

व्याख्या-2

संदर्भ: "उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारी भाषा, पहनावे, जीवन-मूल्यों, नियमों एवं संस्कारों को जबरदस्ती नुकसान पहुंचाया है। इससे जीवन की आसानता से तनाव, बीमारी, कर्ज और मृत्यु के भय को बढ़ावा भी है।"

व्याख्या:

इस अंश में, लेखिका उपभोक्तावाद (consumerism) के नकारात्मक प्रभावों पर प्रकाश डालती हैं। वह बताती हैं कि कैसे पश्चिमी सभ्यता की देखा-देखी और नई चीजों के प्रति लालसा ने हमारे पारंपरिक जीवन मूल्यों, पहनावे और संस्कृति को बदल दिया है। यह उपभोक्तावादी संस्कृति हमें और अधिक खरीदने और उपभोग करने के लिए प्रेरित करती है, जिससे हमारे जीवन में अनावश्यक तनाव, बीमारियाँ, और वित्तीय समस्याएँ (जैसे कर्ज) बढ़ती हैं। इसका सीधा संबंध हमारे स्वास्थ्य और मानसिक शांति से है। इस प्रकार, लेखिका हमें याद दिलाती हैं कि असली खुशी और शांति हमारे पारंपरिक, प्रकृति-आधारित जीवनशैली में है, न कि वस्तुओं के पीछे भागने में।

व्याख्या-3

संदर्भ: "यह नितांत आवश्यक है कि वर्तमान परिस्थितियों में धरती की रक्षा का अपना धर्म समझा जाए और उसके नैसर्गिक सौंदर्य को बचाए रखने के अलावा उसे बंजर होने से भी बचाया जाए। जुलाई 2008 में प्रधानमंत्री द्वारा 60 लाख हेक्टेयर वनों की खाली बंजर भूमि पर पेड़ लगाने की घोषणा की गई थी, जिस पर 60 हजार करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान था। लेकिन यह सर्वविदित है कि कागजों पर ही इतने पेड़ लगाए जाते हैं। इसलिए यथार्थ के धरातल पर प्रकृति की दशा नहीं सुधरेगी जब तक निजी तौर पर ‘एक व्यक्ति : एक पेड़’ लगाने का नियम अपनाकर हम धरती को हरियाली-जंगल बनाने की चेष्टा करनी चाहिए।"

व्याख्या:

लेखिका यहाँ बताती हैं कि धरती को बचाने के लिए सरकारी घोषणाओं और बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स पर निर्भर रहना काफी नहीं है। वे एक उदाहरण देती हैं कि 2008 में भारत सरकार ने 60 लाख हेक्टेयर बंजर भूमि पर पेड़ लगाने की योजना बनाई थी, लेकिन ये योजनाएं अक्सर कागजों तक ही सीमित रहती हैं और वास्तविक रूप में लागू नहीं हो पातीं। इसलिए, वह जोर देती हैं कि पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी हम सभी की है। "एक व्यक्ति: एक पेड़" का नियम अपनाकर, हमें व्यक्तिगत स्तर पर पेड़ लगाने और प्रकृति की देखभाल करने का प्रयास करना चाहिए। उनका मानना है कि जब तक हर व्यक्ति इस काम को अपना कर्तव्य नहीं समझेगा, तब तक कोई भी बड़ी योजना सफल नहीं हो सकती। यह संदेश हमें बताता है कि धरती को बचाने की शुरुआत हम खुद से कर सकते हैं।