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मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

रंग जिन्दगी के...........

कैसे-कैसे रंग ज़िन्दगी के
आँखों में उतरते जाते है
कुछ रंग आखों को चमकाते है
कुछ तिरछे कर देते है
कुछ जुगनुओं की तरह
इधर-उधर पलकों को नचाते
कुछ विस्मय में डाल देते है
कुछ काजल धो देते है
तो कुछ सिर्फ थोड़ा गिला करते है
ज़िन्दगी के ये रंग आँखों में सदा रहते है
जब नहीं रहते तो अँधेरा कर देते है
मन में समाकर वो फिर सपना बनकर आँखों को जगाते रहते है
कैसे-कैसे करके ये रंग ज़िन्दगी के
आँखों में उतरते जाते है।

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

प्रतिभा राय की स्त्री चेतना।

प्रतिभा राय की स्त्री चेतना द्रौपदी के सन्दर्भ में ।



‘द्रौपदी’ प्रतिभा राय जी की औपन्यासिक कृति है। इस उपन्यास में लेखिका प्रतिभा राय जी ने महाभारत की नायिका द्रौपदी को आधुनिक संदर्भ में देखा है। इसकी मूल कथा वस्तु महर्षि वेदव्यास रचित महाभारत तथा उड़िया महाभारत है।
जब भी कोई रचनाकार किसी पौराणिक कथा को या पुराण को अपनी रचना के लिए चुनता है तो उसके सामने दोहरी समस्या आ जाती है। ये दोहरी समस्या है स्थापित सत्य की सुरक्षा तथा नयी चेतना की अभिव्यक्ति। इन दोनों बातों का ध्यान रखना रचनाकार के लिए आवश्यक होता है। परन्तु कभी-कभी अतिशय क्रान्तिकारी चेतना के चलते स्थापित सत्य को विध्वंस कर दिया जाता है। ‘द्रौपदी’ उपन्यास इसी प्रकार की रचना है जिसमें प्रतिभा राय जी ने द्रौपदी सम्बन्धी समस्त पारम्पारिक स्थापित सत्य को विध्वंस करते हुए नए आधुनिक दृष्टिकोण को स्थापित किया है। इसमें प्रतिभा राय जी ने द्रौपदी के सम्बन्ध में जो पाँच पति वरण करने के कारण जो लोगों के मन में उसके प्रति घृणा भावना तथा उसके लिए जो उपहास्पाद भाव है उसे मिटाते हुए उसके सतीत्व एवं महानता को नए आयाम देते हुए स्थापित किया है।
द्रौपदी महाभारत ही नहीं, भारतीय जीवन तथा संस्कृति का एक अत्यन्त विलक्षण और महत्त्वपूर्ण चरित्र है – परन्तु साहित्य ने अब तक उसे प्रायः छुआ नहीं था।........कृष्ण समर्पित तथा पांच पांडवों को ब्याही द्रौपदी का जीवन अनेक दिशाओं में विभक्त है, फिर भी उसका व्यक्तित्व बंटता नहीं, टूटता नहीं, वह एक ऐसी इकाई के रूप में निरन्तर जीती है जो तत्कालीन घटनाचक्र को अनेक विशिष्ट आयाम देने में समर्थ है।1 (भूमिका) प्रतिभा राय जी ने इस उपन्यास में द्रौपदी के जरिए नारी मन की वास्तविक पीड़ा, सुख-दुख और व्यक्तिगत अन्तर्सम्बन्धों की जटिलता आदि को गहराई से प्रस्तुत की है। इस उपन्यास में प्रतिभा राय जी ने स्वयं द्रौपदी के दृष्टि से महाभारत के पहले से चले आ रहे कौरव-पाण्डव के युद्ध तथा द्रौपदी के प्रति सभी के द्वारा किए गए अन्याय को, महाभारत के बाद पंच पाण्डवों तथा द्रौपदी के महाप्रस्थान तक की सम्पूर्ण कथा को दर्शाया है। प्रस्तुत उपन्यास में प्रतिभा राय जी ने द्रौपदी के जरिए अपनी स्त्री- चेतना को प्रस्तुत किया है।
प्रतिभा राय की स्त्री-चेतना द्रौपदी के संदर्भ में जो है उसको समझने के लिए हमें यह जान लेना आवश्यक है कि यह उपन्यास उन्होंने क्यों लिखा? वास्तव में प्रतिभा राय जी ने यह उपन्यास इसलिए लिखा था क्योंकि उनके किसी परिचित महिला की बहन जिसका नाम कृष्णा था जो अपने दुष्चरित शराबी पति के अत्याचार से पीड़ित हो अलग रह रही थी। उसने अपने आत्मीय जनों के कहने पर पुनर्विवाह किया। दूसरे विवाह के बाद वह सुखी थी। पर विडम्बना यह हुई कि उससे सहानुभूति रखने वालों ने ही कृष्णा के दुबारा विवाह करने के बाद कहते थे कि- वाह नाम ही जब कृष्णा है, दूसरा पति कर ही तो सुखी हो सकी। अरे, कभी कृष्णा ने पाँच पति वरण किये, फिर भी सन्तुष्ट न हो कर्ण एवं कृष्ण के प्रति अनुरक्त हुई।2 (पृ.सं. 262) इस बात पर प्रतिभा राय जी को दुख हुआ कि किस तरह लोग बिना मूल बात को जाने अपनी संस्कृति को अज्ञानवश निंदित करते रहते है। उनका इस बात पर कहना था कि – द्वापर की असामान्य विदुषी, भक्तिमती, शक्तिपूर्ण नारी कृष्णा के प्रति ऐसी विचार-शून्य बात मेरे दुख की जड़ में थी। यह किसी का व्यक्तिगत मत हो सकता है। पर हम कृष्णा को कितना जानते है? कितना ज्ञान है हमें महाभारत के महत्त्व और उस महान संस्कृति का? मूल संस्कृत या उसका भाषांतर, या सरला दास रचित उड़िया महाभारत को कितनों ने भली-भांति पढ़ा है? अंधे हाथी देखने बैठे हैं, उस तरह महाभारत की महान आख्यायिका खुद पढ़े बिना सुनी-सुनाई बात पर हम अपनी संस्कृति पर छींटाकशी कर बैठते हैं।3 (पृ.सं. 263)
सच ही है कि अँधों की तरह हम अपनी संस्कृति के सत्य को ही बिना जाने कुछ न कुछ कहते रहते है। इस उपन्यास को लिखते समय प्रतिभा राय जी ने यह बात ध्यान में रखा कि हमें हमारी संस्कृति, परम्परा तथा इस महाभारत के मूल बातों तथा रहस्यों को उजागर किया जाए जिससे की यह सिद्ध हो सके कि द्रौपदी सचमूच में ही महा सती स्त्री थी कुछ और नहीं। जो कुछ उसके जीवन में हुआ विशेषकर उसके विवाह के समय उससे वह कम आहत नहीं हुई थी। बल्कि अपने जीवन में घटे इस अस्वभाविक घटना ने उसे स्तभ्ध कर दिया था। वह भी उस काल में जब किसी स्त्री के लिए एक ही पति का विधान था। जहाँ स्त्री को अपने पति, चाहे जैसा भी हो, उसके अलावा किसी अन्य का ध्यान भी मन में लाना पाप है। वह काल जिसमें स्वयं नारी ने ही इस विधान को रचा और इसकी गरीमा बनाए रखने के लिए अपने प्राण की भी परवा न की हो। ऐसे काल में एक नारी को किसी स्वयंवर में जीत कर ले जाने के बाद उसे अपनी माँ के सामने एक उत्तम दुर्लभ वस्तु के रूप में प्रस्तुत करना तथा माँ के द्वारा उसे सभी भाईयों में बराबर-बराबर हिस्से बांट लेना उस नारी के प्रति अमानवीय एवं लज्जास्पद व्यवहार था।यह व्यवहार भी किसने किया स्वयं युधिष्ठिर ने जो उस समय द्रौपदी के पति के सबसे बड़े भाई थे। स्वयं युधिष्ठिर जिसे पूरा संसार धर्मराज के नाम से अभिहित करता है क्या उनका द्रौपदी को इस प्रकार से अपनी माँ के सामने सम्बोधित करना उचित था। यह तो सबसे बड़े दुख की बात है कि धर्म के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति ही स्वयं द्रौपदी के रूप लावण्य के देख कर उसे उचित सम्मान न देते हुए केवल वस्तु बनाकर प्रस्तुत कर रहा है जो कि एक अन्याय है। जिस नारी के साथ यह अन्याय हुआ वह और कोई नहीं द्रौपदी थी जो यज्ञ से उत्पन्न हुई थी एक अत्यन्त तेजस्विनी नारी थी। जिसकी सुन्दरता की कोई परिभाषा नहीं थी। जो इतनी विदुषी, भक्तिमती, शक्तिपूर्ण, शीलवती नारी थी। जिसके साथ सबसे प्रथम अन्याय पाण्डवों ने किया था। यह अन्याय पाण्डवों द्वारा अनजाने में हुआ या विधी का यह विधान था इस पर कोई भी विचार नहीं किया जा सकता। परन्तु इसमें आहत द्रौपदी ही हुई ।फिर भी इतिहास के इस विशेष सत्य को जाने बगेर या जानकर भी अनजाने बनकर आज भी समाज द्रौपदी के प्रति विचार-शून्य बातें करता है। उसे तरह-तरह से अपमानित किया जाता है। उसके पाँच-पाण्डवों के साथ हुए विवाह को हास्यास्पद तरीके से देखा-दिखाया जाता है और उन सबके जीवन पर व्यंग्य किया जाता है। प्रतिभा राय जी ने इन्हीं बातों का ध्यान रखकर द्रौपदी उपन्यास की रचना की है।
प्रतिभा राय जी की स्त्री चेतना कितनी प्रबल और स्वस्थ है यह इस बात से पता चलता है कि उन्होंने स्वयं को द्रौपदी की भांति भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित कर दिया और स्वयं को पूरी तरह से द्रौपदी के स्थान पर ला खड़ा किया। उन्होंने द्रौपदी को अपने में आत्मसात कर द्रौपदी के सम्पूर्ण जीवन के घटना चक्र तथा उसकी मानसिक पीड़ा, दुख-सुख आदि का वर्णन किया।
उपन्यास के प्रारम्भ में ही प्रतिभा राय जी ने द्रौपदी के मन की व्यथा को प्रस्तुत किया। पाण्डवों के महाप्रस्थान के समय जब सभी हिमालय के रास्ते स्वर्ग जा रहे थे तब अचानक द्रौपदी का पाव फिसल जाता है और वह गिर जाती है। तब भीम उसकी सहायता के लिए आगे आता है पर युधिष्ठिर उसे द्रौपदी की सहायता करने से मना कर देता है। तब द्रौपदी सोचती है कि --- कितना झूठ है यह पति-पत्नी का सम्बन्ध!स्नेह, प्रेम,त्याग और उत्सर्ग! अपने कर्म अगर आदमी स्वयं भोगता है, तो पिर युधिष्ठिर के धर्म की रक्षा के लिए पाँच पतियों के चरणों में अर्पित होकर सारी दुनिया का उपहास, व्यंग-विद्रुप और निंदा-अपवाद ढोती क्यों फिरी?4 (पृ.सं.8) यह प्रश्न द्रौपदी का नहीं बल्कि आज तक पति के कारण दुख भोगती आयी उस प्रत्येक नारी का है जिसमें पति ने कुछ कर्म किया पर लांछन पत्नी पर लगा। द्रौपदी पाँच पाण्डवों की पत्नी थी। पाँचों में युधिष्ठिर सबसे बड़े थे, अपने जुआ खेलने की आदत में तो वह अपना राज्य गंवा बैठे, परन्तु क्या अधिकार था युधिष्ठिर को द्रौपदी को जुए में दाव पर लगाने का। पत्नी कोई राज्य या सम्पत्ति तो नहीं जिसे जैसे चाहे कोई इस्तेमाल करे। परन्तु यही बात यह पुरूष समाज नहीं समझ सका, न ही युधिष्ठिर और कर बैठता है अपनी पत्नी का अपमान। द्रौपदी को कौरव सभा में अपमानित किया दोनों ने ही। वास्तव में देखा जाए तो युधिष्ठिर ने कभी भी द्रौपदी को स्त्री के रूप में नहीं देखा, देखा तो सिर्फ वस्तु के रूप में। विवाह के प्रथम रात्री में वह द्रौपदी से कहते हैं पुरूष की प्रकृति से तुम परिचित नहीं। अपने प्रिय पदार्थ पर किसी अन्य का अधिकार वह सह नहीं सकता। तुम तो वैसे ही पाँचों की प्रियतमा हो। हम में से कोई तुम्हें पल भर भी अपने निकट से अंतर करना नहीं चाहेगा। किसी को ज़रा-सी भी उपेक्षा सहन नहीं होगी। तब अवस्था क्या होगी? ( पृ.सं. 52)5 । यह बात युधिष्ठिर ने द्रौपदी से तब कही जब द्रौपदी ने सबके कहने पर पँच-पति वरण कर युधिष्ठिर से विवाह किया और उससे कहा कि वह उनकी बात मानेगी और सब कुछ ठीक होगा क्योंकि बाकि सभी भाई जो उसके पति होंगे वह सब युधिष्ठिर के आज्ञा का पालन करेंगे। यब युधिष्ठिर अपने भाईयों का स्वभाव जानते थे और द्रौपदी की दुविधा को भी समझते थे तो उन्होंने ऐसा किया ही क्यों, क्यों उन्होंने द्रौपदी को इस प्रकार के अस्वभाविक रिश्ते में जकड़ा। फिर भी युधिष्ठिर की तुच्छ सोच को देखो वह तब भी द्रौपदी को पदार्थ या वस्तु ही बता रहे है। जबकि द्रौपदी एक मनुष्य है जीवित हाड़-मांस की जिसमें चेतना है, भावना है। वह कोई वस्तु कैसे हो सकती है। प्रतिभा राय जी ने न केवल द्रौपदी के इस दुख को ही उजागर किया है बल्कि द्रौपदी को संसार की पंच सती नारी में स्थान देने पर द्रौपदी के मन से निकले दुख और व्यंग्य को भी उजागर किया है। यह इसलिए क्योंकि भले ही वह पंच सतियों में से एक है पर फिर भी संसार उसका उपहास करता न की आदर। इसी कारण वह यह कहते हुए दुखी हो जाती है कि—कहते है मेरा नाम पंच सती में गिना जाएगा। उसे देख कलियुग के नर-नारी विद्रुप कर हँसेंगे। कहेंगे पंचपति वरण कर द्रौपदी अगर सती हो सकी, तो फिर एक पतिव्रतपालन की क्या आवश्यकता? बहुपति वरण कर वे कलियुग में सती क्यों नहीं होंगी? यौन विकारग्रस्त कलियुग के उच्छृंखल नर-नारियों के बीच द्रौपदी होगी व्यंग्य-परिहास का उपादान। पांच पतियों की पत्नी द्रौपदी को सतीत्व के लिए तिल-तिल जलना पड़ा होगा, इसे ये लोग भला कैसे समझेंगे? तब तो हस्तिनापुर की नायिका द्रौपदी एक निंदित आत्मा, कलंक भरी कहानी की नायिका बन जायेगी।6 (पृ.सं. 8) यह बात सच भी हुई। कलयुग में आज द्रौपदी उपहास की पात्र बन गयी है।
पर प्रतिभा राय जी ने इस उपन्यास में एक प्रसंग में यह भी दिखाया कि जब द्रौपदी विवाह के पश्चात् प्रथम बार अपने गार्हस्थ जीवन का प्रारम्भ करती है तब उस कृष्ण-युधिष्ठिर की बात से ज्ञात होता है कि बहुपति वरण करना स्त्री के लिए लज्जा जनक बात है तो उसके अंदर से यज्ञ-अनल में संभूत याज्ञसेनी विद्रोह कर उठती है और सोचने लगती है कि देवलोक के विधान अनुसार एक पुरूष अनेक स्त्रियाँ ग्रहण कर सकता है पर स्त्री एक से अधिक पति वरण करने पर पापिनी कहलाएगी। साथी ही सबसे आश्यर्च की बात है कि यही बात जब उसके द्वारा तथा उसे परिवार द्वारा कही जा रही थी तब सभी ने इस बात को नहीं माना। जो युधिष्ठिर आज द्रौपदी के पाँच पति वरण करने को लेकर उसे पापिनी समझ रहा है तब स्वयं द्रौपदी के इस विवाह से इन्कार करने पर देवलोक एवं गन्धर्व लोक के उदाहरण देकर यह विवाह कर रहा था। तब उसने यह क्यों नहीं सोचा कि वह तो स्वयं ही एक स्त्री को एक पाप करने के लिए विवश कर रहा है। स्वयं एक धर्मात्मा होते हुए भी एक स्त्री से अधर्म करवा रहा है। द्रौपदी यह बात समझ गयी थी कि इस पुरूष प्रधान समाज के द्वारा बनाया गया नियम है तभी वह स्त्री-पुरूष में पाप-पूण्य का भेद इस प्रकार से करते है। जब चाहे अपनी सुविधा के अनुसार एवं अपने सुख के लिए पाप और पुण्य का निश्चित विधान बना डाला और स्त्रियों को तुच्छ वस्तु के समान मान कर उसका जैसे चाहे प्रयोग करते रहे। इस पुरूष प्रधान समाज ने स्त्री को कभी मनुष्य का दर्जा नहीं दिया। इस प्रसंग पर प्रतिभा राय जी के विचार द्रौपदी के जरिए इस प्रकार आते है—वास्तव में पंचपति वरण समग्र नारी जाति के लिए एक आहवान था। एक साथ अनेक पुरूष वरण कर भी किसी नारी के चरित्र की शुद्धता अमलिन रह सकती है, मानो यह प्रमाण करने का स्वर्ण अवसर है।7 (पृ.सं. 66) सत्य ही है कि द्रौपदी का चरित्र शुद्ध था। फिर यह कोई साधारण बात नहीं थी किसी स्त्री के लिए कि वह एक साथ बहुपति वरण कर वैवाहिक जीवन को निभा सके। द्रौपदी के चरित्र की शुद्धता इस बात से भी सिद्ध होती है कि कभी भी पंच-पाण्डवों में से किसी ने भी स्वयं द्रौपदी पर किसी भी प्रकार से संदेह नहीं किया न ही उसके किसी बात की अवहेलना की हो। सभी ने द्रौपदी को प्रेम ही किया है। वास्तव में एक स्त्री जब एक पुरूष के साथ रहती है तो स्वाभाविक रूप से उसके साथ कोई-न-कोई सम्बन्ध जोड़ती है। फिर वह चाहे पिता हो, भाई हो या पति। सबके साथ उसकी भावनाएं जुड़ी होती है तथा वह अपने हर रूप में पुरूष को संस्कारित ही करती है। पंच-पाण्डवों के बीच रहकर द्रौपदी ने पंच-पाण्डवों के लिए केन्द्रीय शक्ती के रूप में रही तभी पाण्डव महाभारत का युद्ध जीत पाए थे। केवल ईश्वर के साथ होने से ही नहीं बल्कि ये द्रौपदी का सतीत्व ही था कि पाँचों भाई सौ कौरवों पर विजय प्राप्त कर सके।
प्रस्तुत उपन्यास में प्रतिभा राय जी ने द्रौपदी के जरिए ही अपनी स्त्री चेतना को व्यक्त नहीं किया है बल्कि उन्होंने स्त्रियों के बारे में भी लिखा जिन्हें परिस्थिति के आगे इतना विवश होना पड़ा कि अंत में एक स्त्री को अपने प्राण तक त्यागने पड़े और फिर अपने अपमान का बदला लेने के लिए वह शिखंडी के रूप में दुबारा जन्मी। धीवर कन्या मत्स्यगंधा तथा काशिराज की तीन कन्याओं अम्बा, अम्बिका तथा अम्बालिका की कथा को उजागर करते हुए यह स्पष्ट दर्शाया कि किस प्रकार महापुरूष के भी स्वार्थ तथा काम पिपासा के कारण उन स्त्रियों को लोकनिंदा तथा परिहास सहना पड़ा। राजकुमारी अम्बा को भीष्म के कारण प्राण त्यागने पड़े थे क्योंकि उन्होंने उसे अपने भाई विचित्रविर्य के लिए अपहृत किया था परन्तु बाद में उसके निवेदन पर छोड़ दिया था। तत्पश्चात् जब राजा शाल्व ने उसे अस्वीकार किया तो वह भीष्म के पास शरण मांगने गयी थी तो भीष्म ने भी अपनी प्रतिज्ञा के चलते उसे ठुकरा दिया था। जिस कारण उसे अपने प्राण त्यागने पड़े। इसी प्रकार मत्स्यगंधा के साथ मुनि पराशर ने बलात् उसे नौका में ग्रहण किया पर बाद में उसे सत्यवती में रूपांतरित कर दिया जो आगे जाकर कुरूवंश के राजा शांतनु की पत्नी बनी। परन्तु यह बात तब तक लोक में फैल चुकी थी जिस कारण वह जीवन भर लोक निन्दा सहती रही। इस बात को पाठक वर्ग के सामने लाने के पीछे प्रतिभा राय जी का उद्देश्य यह है कि आखिर पूरा संसार पुरूष के द्वारा स्त्री पर किए गए अत्याचारों या कुकर्मों के लिए स्त्री को क्यों कोसता है या उसे सहानुभूति की आढ़ में ताने क्यों देता है। क्या नारी कोमल है शक्तीहिन है इसलिए?
प्रतिभा राय जी नारी की शक्तीशालिनी एव धर्यशालिनी रूप के बारे में अपने विचार अपने उपन्यास के एक दुसरे प्रमुख पात्र ऋषि व्यास के द्वारा उपन्यास में प्रस्तुत करते हुए कहती है – नारी तो सर्वसहा धरित्री है। उनकी जैसी सहनशीलता पुरूष में कहाँ? अतः नारी के प्रति दोष-रोष सहज है। पुरूष के प्रति ऐसा दोष-रोष करने से पृथ्वी भर पर हिंसा री हिंसा चलती रहेगी। शायद तभी पुरूष की निंदा करने का साहस कोई नहीं करता।8 (पृ.सं. 67) पाप-पुण्य का विचार द्रौपदी के मन में हमेशा से उठता रहा है। वह जब भी अपने वंश की अन्य स्त्रियों राज माता सत्यवती, अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका, कुंती तथा माद्री के बारे में सोचती है तो उनके जीवन में घटित घटनाओं से वह आहत होती है। सबके जीवन में अस्वभाविक घटनाएं पुरूषों के द्वारा घटित हुई है। मुनि पराशर ने मत्स्यगंधा के रूप पर मोहित होकर उसका नौका में बलात्कार किया फिर अपनी तपस्या के बल से उसे सत्यवती में परिवर्तित भी कर दिया। इसके बाद वह कुरूवंश में राजा शांतनु की पत्नी बनी। जो भी हो उनके साथ अन्याय हुआ जिसके दायी मुनि पराशर है पर उनको इस बात के लिए कोई दोषी नहीं ठहराता। शायद इसलिए कि वो अपने तपोबल से प्रतिवाद करने वाले को श्राप दे देते या कुछ कर देते। इसलिए निन्दा का पात्र चुना समाज ने सत्यवती को। अम्बा के साथ हुए अन्याय को सभी जानते है जिसमें प्रथम दोष भीष्म का है, दूसरा राजा शाल्व का जो कि उस पर बिना सोचे-समझे अविश्वास कर बैठते है। उसे अस्वीकार करते है। अम्बिका और अम्बालिका को भी अपने पति के बाद पर पुरूष से सम्बन्ध बनाना पड़ता है क्योंकि उनके वंश को उत्तरअधिकारी चाहिए नहीं तो सही गति न होगी। समाज नियोग को स्वीकृति देता है कहकर सत्यवती और अन्यों ने समझाया उन्हें। फिर भी देखों समाज की ही कारस्तानी, सबको ही अपने जीवन में उपहास निन्दा का पात्र बनना पड़ा। कुंती एवं माद्री तक न बची। फिर भी समाज इसी को आधार बनाकर पाप-पुण्य का विचार स्त्री के पक्ष में कुछ और पुरूष के पक्ष में कुछ देता है। तब द्रौपदी सोचती है कि पाप-पुण्य का विचार नारी-पुरूष के लिए समान होता तो सामाजिक अत्याचार में नारी जाति उत्पीड़ित नहीं होती।9(पृ.सं.69) देखा जाए तो सच ही है यह। प्राचीन काल की अनेक गाथाओं में हम देखते है कि किसी ऋषि की तपस्या भंग करने पर अप्सरा को बानरी बनने तक का श्राप मिला है वही किसी मुनि ने एक पवित्र कुमारी का शील हरण किया तो उन्हें किसी प्रकार का श्राप विधाता ने नहीं दिया। पति की बात न मानने पर या उसे न पहचानने पर उसे पत्थर बनने का श्राप दिया परन्तु पति ने ही जब उसे समाज के झुटे आक्षेपों को सुनकर अपनी पत्नी पर विश्वास न करके उसे वनवास दिया तो उस पति को किसी ने दण्ड नहीं दिया। सब वास्तव में पुरूष के जानवरों वाली प्रवृत्ति के कारण ही है। जिसमें पुरूष कभी अपनी गलती नहीं मानता और न ही कभी यह समाज मानता है।
इस बात से स्पष्ट सिद्ध होता है कि वास्तव में पुरूषों में इतनी सहनशीलता नहीं है। जबकि नारी में है तभी तो वह समाज के इतने कठोर नियमों का पालन कर सकती है। इससे ज्ञात होता है कि नारी पुरूष के मुकाबले अधिक महान एवं शशक्त है। परन्तु यह भी कोई बात नहीं हुई कि नारी में सहनशीलता है तो समाज उसकी सहनशीलता की बार-बार परीक्षा लेता रहे और उसकी सहनशीलता का परिहास करे। नारी के सहनशीलता की एक सीमा है। यदि यह सीमा पार हो गयी तो नारी अपना कोमल रूप छोड़कर प्रचण्ड रूप धर सकती है। क्या समाज इस बात को समझ नहीं पाता। आज भी नारी ही पर अत्याचार हो रहे है। आधुनिकिकरण के चलते समाज में जो बदलाव आए है उसके चलते नारी की स्थिति में परिवर्तन अवश्य आए है परन्तु फिर भी कही-न-कही किसी-न-किसी रूप में नारी के साथ अन्याय होता ही रहता है जो हम देखते भी है तो अनदेखा कर लेते है।
प्रतिभा राय जी ने द्रौपदी एवं अम्बा, मत्स्यगंधा आदि नारियों का प्रसंग उठाकर तथा उनके जीवन में हुए अस्वाभाविक घटना, उनके कष्ट, उनके साथ हुए अन्याय को तथा इन समस्थ प्रसंगों के साथ उठाए गए प्रश्नों को समाज के सामने इसलिए रखा है ताकि समाज एक बार तो आँखें खोलकर देखे कि उसने नारी के प्रति क्या-क्या अन्याय किया है और किस-किस रूप में किया है। परम्परा, संस्कृति के नाम पर बनाए गए नियमों में नारी का जीवन ही आहुति के रूप में चढ़ाया जा रहा है यह समाज एक बार देखे और समझे। आधुनिकिकरण ने भी नारी को ही विवश किया है अपने स्वरूप एवं स्वभाव को बदलने के लिए। फिर द्रौपदी के जीवन में जो कुछ भी हुआ उसके लिए द्रौपदी ही दोषी क्यों? पाँच-पति वरण करना कोई सम्मान का कार्य नहीं परन्तु अपनी माता समान सांस के आदेश का पालन करने के लिए अपना जीवन द्रौपदी ने स्वाहा कर दिया। फिर भी द्रौपदी को ही दोषी माना जाता है। परन्तु एक बार समाज यह भी तो सोचकर देखे कि जो कुछ द्रौपदी ने किया क्या वह उचित नहीं था? नहीं था तो समाज ने उसे विवश क्यों किया? विवश किया समाज ने फिर स्वयं अपनी भूल न मानते हुए उसे ही दोषी माना। प्रतिभा राय जी इन सब प्रश्नों का उत्तर समाज से चाहती है। फिर द्रौपदी पर जो यह आरोप लगाया जाता है कि पाँच पति होने के बाद भी द्रौपदी कृष्ण के प्रति अनुरक्त थी तो इस बात को प्रतिभा राय जी ने कृष्ण-द्रौपदी के बीच के सखा भाव तथा देहातीत प्रेम को दर्शाते हुए यह सिद्ध किया है कि द्रौपदी कृष्ण की परम् भक्त थी। दोनों के बीच ईश्वरीय प्रेम था जिसे समाज किसी अन्य दृ्ष्टि से देख रहा था। एक नारी का अपने जीवन में हुए इस प्रकार के घटनाक्रम के कारण जो उस पर बीती है क्या उसमें उचित नहीं कि वह ईश्वर की शरण ले तथा ईश्वर से प्रेम करने पर क्या पाप किया उसने।
इस प्रकार प्रतिभा राय जी के इस उपन्यास में हम पाते है कि नारी के प्रति जो समाज ने अन्याय किया है उससे वह कितनी आहत हुई है। अपनी संस्कृति, परम्परा तथा महाभारत की कथा के हर मूल बातों को और प्रसंगों को बिना जाने हम आज भी द्रौपदी का अपमान करने लगते है। जो कि न केवल उसका अपमान है बल्कि नारी जाति का अपमान करते है। क्योंकि आज तक द्रौपदी के जैसे ही कई घटनाएं हुई होंगी समाज में, कई अम्बाओं ने अपने प्राण त्यागे होंगे, कई मत्स्यगंधा को बलात् अपनाया गया होगा फिर भी उन्हीं को ही हम दोष देते रहते है। प्रतिभा राय जी का यह उपन्यास नारी चेतना को दर्शाने वाला एक सशक्त उपन्यास है। जिसमें समस्त नारी जाति को आहवान किया जा रहा है कि वह अपने प्रति हो रहे तरह-तरह प्रकार के अत्याचारों के प्रति अपनी आवाज उठाए और इस पुरूष प्रधान समाज को अपने उपर कोई भी आरोप लगाने का मौका न दे। यदि ऐसा हो भी तो आरोप के विरूद्ध, आरोप लगाने वाले के विरूद्ध संघर्ष करे।