काव्यं लोकोत्तर निपुणं कवि-कर्म। -- काव्य प्रकाशः मम्मट, प्रथमोल्लास पृ.सं72
विस्तार
लोकोत्तर :- संसार से अलग, संसारिक ज्ञान से भिन्न। लोकोत्तर अवस्था वह अवस्था है जिसमें संसार का विस्मरण हो जाता है और जो भी हमारी कल्पना होती वह संसारिक नहीं होती है। हमें संसार का ज्ञान नहीं रहता है। कविता हमारी चेतना को लोकोत्तर चेतना से जोड़ती है। कविता हमें लोकोत्तर अनुभूति कराती है। जो कविता हमें लोकोत्तर चेतना से जोड़ती है उसे हम काव्य कहते है।
लोकोत्तर निपुणं :- इसका अर्थ है जिस कवि कर्म में हमारी चेतना को लोकोत्तर चेतना से जोड़ने की क्षमता हो उसे हम लोकोत्तर निपुणं कहते है। कवि दक्ष होते है इसलिए वे हमारे चेतना को लोकोत्तर में पहुँचा देते है और उसी दक्षता को हम लोकोत्तर निपुणं कहते है। जो कर्म हमारे भीतर की भावना, सौन्दर्य अंतर-दृष्टि को जगा दे उसे लोकोत्तर निपुणं कहते है।
काव्य कवि के द्वारा निर्मित वह रचना है जिसमें कवि अपने अनुभव, सौन्दर्य से बाह्य चेतना से हमें लोकोत्तर चेतना में पहुँचा देती है। लोकोत्तर चेतना बाहरी और आन्तरिक चेतना और सूक्षम अनुभव से जुड़ी होती है।
अपारे काव्य-संसारे कविरेव प्रजापतिः।
अर्थात् कवि रूपी असीम संसार में कवि ही ब्रह्मा होता है। रचनाकार होता है कवि। कवि के लिए संसार का कोई भी विषय काव्य का विषय हो सकता है। कवि किसी भी वस्तु को कोई भी रूप प्रदान कर सकता है। "जहाँ न जाय रवि, वहाँ जाय कवि।" कवि के संसार की कोई सीमा नहीं है।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः।
अर्थात् कवि मनीषी है, ज्ञानी है। मनीषा वह शक्ति है जो किसी वस्तु के मूल रूप को देख सकती है। मनीषा आंतरिक चेतना, आंतरिक ज्ञान है। अर्थात् कवि के पास आंतरिक चेतना और ज्ञान है। कवि के पास मन की आत्मा की आँखे है जिससे वह किसी वस्तु के बाहरी और आंतरिक स्वरूप को भी देख सकता है। कवि परिभू होता है। परिभू शब्द का अर्थ है जिसकी अनुभूति का क्षेत्र असीम हो वह संसार के किसी भी वस्तु को अपने अनुभव के क्षेत्र में ला सकता है। कवि की परीधी में पूरा संसार सिमट जाता है। कवि स्वयंभू है अर्थात् कवि स्वयं को कही भी प्रकट कर सकता है बिना किसी शक्ति के अर्थात् स्वयं प्रकट होना। जो अपने अनुभव किसी दूसरे पर निर्भर रहकर नहीं प्रकट करता है। कवि अपने अनुभव के लिए स्वयं ही कारण है। वैदिक साहित्य में कवि को द्रष्टा और ऋषि भी कहा गया है एवं एक माना गया है।
सहितस्य भावः साहित्यम्। -- आचार्य विश्वनाथ साहित्य दर्पण
सहित की भावना से पूर्ण, चेतना, विचार और अनुभव से युक्त रचना ही साहित्य अथवा काव्य है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार हित से पूर्ण चेतना, विचार और अनुभव ही साहित्य है। काव्य से मनुष्य की चेतना और मन विशाल रूप धारण कर सकती है। काव्य से मनुष्य के मन की संकीर्णता दूर हो जाती है। काव्य से मनुष्य का कल्याण होता है। अर्थात् उपरोक्त श्लोक का अर्थ है जो रचना कल्याण के भाव से पूर्ण हो वह काव्य है।
शब्दार्थों सहितं काव्यम्
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार जो रचना सुन्दर शब्द एवं सुन्दर शब्द के अर्थ के साथ हो वह काव्य है। इसलिए शब्द को काव्य का शरीर और अर्थ का आत्मा कहा गया है। आचार्य विश्वनाथ कहते है कि काव्य के लिए सुन्दर शब्द, अलंकार, रस, भावना, कला और अर्थ इन सभी तत्वों की आवश्यकता होती है।
वाक्यं रसात्मकं काव्यम्। -- आचार्य विश्वनाथ साहित्य दर्पण
अर्थात् रसात्मक कथन ही काव्य है। रसात्मक कथन का अर्थ होता है कि हम किसी दूसरे के सुख-दुख की अनुभूति स्वयं में कर सके और प्रत्येक वस्तु में सजीवता देख सके और वही अनुभूति और सजीवता का वर्णन कर सके, यही रसात्मक कथन कहलाता है।
जैसे (1) शुष्कं काष्ठं तिष्ठति अग्रे।
(2) अग्रे विलपति शुष्कं काष्ठम्।
वैसा कथन जिसमें रचनाकार की संवेदना, सौन्दर्य भाव बोलता है उसे रसात्मक कथन ही काव्य है। यहाँ पर आचार्य विश्वनाथ ने रस को काव्य का प्रमुख लक्षण बताया है। उनके अनुसार रस काव्य की आत्मा है।
काव्यं गाह्यमलंकारात् सौन्दर्यमलंकार। -- वामनः
आचार्य वामन के अनुसार काव्य अलंकार के कारण ग्रहण करने योग्य होता है क्योंकि अलंकार सुन्दर होते है। जिस शब्द से कथन में चमत्कार उत्पन्न हो वह अलंकार है। अलंकार से युक्त सौन्दर्य वाला कथन ही काव्य है।
तद्दोषौं शब्दार्थो सगुणावमलंकृती पुनः क्वापि। -- मम्मट
दोष, शब्द, अर्थ, गुण और अलंकार से युक्त रचना काव्य है।
निर्दोषा लक्षणवती सरीतिर्गुणो भूषिता
सालंकार रसानेका वृर्त्ति काव्यनाम भाक्। -- जयदेव
जो रचना निर्दोष हो, रचना में काव्य के लक्षण हो, रीति से विभूषित हो, अलंकार से युक्त हो, रसो से भरी पड़ी हो एवं जिसमें वृत्ति हो ऐसे गुणों वाली रचना को काव्य कहते है।
रमणीयार्थ प्रतिपादकः काव्यम्। -- मम्मट
जिस कथन में सौन्दर्य और अलंकार हो उसे काव्य कहते है।