कविता सारांश:
प्रयागनारायण त्रिपाठी की कविता "समानांतर लकीरें" प्रेम, दूरी और समाज द्वारा बनाई गई सीमाओं की गहरी अभिव्यक्ति है। कवि अपने प्रिय को अब तक न छू पाने की व्यथा व्यक्त करता है, क्योंकि उनके बीच कई अदृश्य दीवारें हैं, जो यद्यपि झीनी और कोमल हैं, फिर भी अवरोध बनी हुई हैं।
इन दीवारों में से कुछ पहले ही गिर चुकी हैं—जैसे अपरिचय की दीवार, जो अब दृष्टि के मिलन से समाप्त हो चुकी है। लेकिन अन्य अवरोध अब भी शेष हैं, जैसे—
- कायरता – यह वह डर है जो आत्मा की वास्तविक चाह को पहचानने के बावजूद उससे भागने की राह खोजता है।
- संशय – पुरुष-मन की अस्थिरता, जो पीपल के पत्ते की तरह हिलती रहती है।
- भय – समाज क्या कहेगा, इस छोटी सोच का डर।
- पाप-बोध – सामाजिक और धार्मिक नियमों की ग्रंथियाँ, जो पुण्य और पाप के नाम पर प्रेम को बंधनों में जकड़ती हैं।
इन कारणों से प्रेम की पूर्णता नहीं हो पाती, और दोनों प्रेमी समानांतर लकीरों की तरह सदा साथ रहते हुए भी कभी मिल नहीं पाते। अंततः, कवि इस व्यथा को स्वीकार करते हुए कहता है कि यह दूरी और यह स्वप्न अनवरत चलते रहेंगे—जिस प्रकार समानांतर लकीरें कभी नहीं मिलतीं, वैसे ही यह प्रेम भी अनछुआ और अधूरा बना रहेगा।
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