अनामिका की चौका कविता की विस्तृत व्याख्या
अनामिका की कविता "चौका" एक गहरी सांकेतिकता और जीवन के मूलभूत सत्यों से जुड़ी हुई कविता है। यह कविता नारी के श्रम, सृजन और अस्तित्व की पहचान को उजागर करती है। रोटी बेलने की क्रिया के माध्यम से कवयित्री पृथ्वी, स्त्री, जीवन और श्रम के बीच एक गहरा संबंध स्थापित करती हैं।
१. स्त्री और श्रम का प्रतीकात्मक संबंध
कविता का पहला पंक्ति ही गहरी अर्थवत्ता लिए हुए है—
"मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।"
यहाँ रोटी बेलने की क्रिया केवल एक दैनिक कार्य नहीं, बल्कि सृजन का प्रतीक है। जिस प्रकार पृथ्वी अन्न उपजाती है, उसी तरह स्त्री अपने श्रम से जीवन को बनाए रखती है।
२. प्राकृतिक शक्तियों का समावेश
कवयित्री ने रोटी बेलने की तुलना प्राकृतिक शक्तियों से की है—
- "ज्वालामुखी बेलते हैं पहाड़।"
- "भूचाल बेलते हैं घर।"
- "सन्नाटे शब्द बेलते हैं, भाटे समुंदर।"
यहाँ ‘बेलना’ केवल शारीरिक श्रम की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि सृजन और विनाश दोनों का प्रतीक है। जिस प्रकार ज्वालामुखी और भूचाल धरती को नया रूप देते हैं, उसी तरह स्त्री भी अपने श्रम और संघर्ष से समाज को आकार देती है।
३. अस्तित्व की निरंतरता और आत्मसाक्षात्कार
कविता के अगले भाग में कवयित्री कहती हैं—
"रोज़ सुबह सूरज में
एक नया उचकुन लगाकर,
एक नई धाह फेंककर
मैं रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।"
यहाँ स्त्री का श्रम सूरज के प्रकाश के साथ जुड़ जाता है। हर दिन नया संघर्ष होता है, लेकिन हर सुबह एक नई ऊर्जा भी लाती है। यह स्त्री के अटूट धैर्य और निरंतरता का प्रतीक है।
४. पृथ्वी और स्त्री का गहरा संबंध
"पृथ्वी–जो खुद एक लोई है
सूरज के हाथों में
रख दी गई है, पूरी-की-पूरी ही सामने
कि लो, इसे बेलो, पकाओ,"
इस पंक्ति में कवयित्री ने पृथ्वी को रोटी की लोई की तरह दर्शाया है, जिसे सूरज के ताप में पकाया जाता है। यह प्रतीकात्मकता बहुत गहरी है—
- जैसे स्त्री समाज और परिवार के बीच खुद को ढालती रहती है,
- जैसे पृथ्वी ब्रह्मांड की अनगिनत शक्तियों के बीच अपने संतुलन को बनाए रखती है।
५. नारी का आत्मसंघर्ष और आत्मगठन
"और मैं
अपने ही वजूद की आँच के आगे
औचक हड़बड़ी में
खुद को ही सानती,
खुद को ही गूँधती हुई बार-बार"
यहाँ रोटी बनाने की प्रक्रिया को स्त्री के आत्मसंघर्ष और आत्मनिर्माण से जोड़ा गया है। स्त्री न केवल अपने परिवार को संभालती है, बल्कि वह खुद को भी नए सिरे से गढ़ती है, गूँधती है।
६. कविता का सार और संदेश
कविता का अंतिम भाव एक संतोष और गर्व से भरा हुआ है—
"ख़ुश हूँ कि रोटी बेलती हूँ जैसे पृथ्वी।"
यह कविता नारी के श्रम को महिमामंडित करती है, लेकिन साथ ही यह श्रम केवल एक यांत्रिक क्रिया नहीं, बल्कि सृजन की शक्ति का प्रतीक है। पृथ्वी की तरह ही स्त्री भी जीवन का पोषण करने वाली है, और इस भूमिका में उसे एक आत्मसंतोष भी प्राप्त होता है।
निष्कर्ष
"चौका" केवल एक घरेलू कार्य का चित्रण नहीं, बल्कि स्त्री के अस्तित्व, संघर्ष, और सृजनशीलता की गहन अभिव्यक्ति है। अनामिका ने साधारण क्रिया में असाधारण अर्थ भरकर स्त्री के श्रम को एक नई दृष्टि से प्रस्तुत किया है। यह कविता स्त्री के आत्मनिर्माण, उसके संघर्ष और उसके श्रम की गरिमा को रेखांकित करती है।
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