"दौड़" उपन्यास में वर्णित सामाजिक समस्याओं का निरूपण।
लेखिका: ममता कालिया
शैली: सामाजिक यथार्थ एवं मनोवैज्ञानिक उपन्यास
परिचय:
ममता कालिया का उपन्यास "दौड़" भारतीय समाज में मध्यवर्गीय परिवारों के संघर्ष, महत्वाकांक्षाओं और सामाजिक मूल्यों के टकराव को दर्शाता है। यह उपन्यास मुख्य रूप से युवाओं की महत्वाकांक्षा, प्रतियोगिता, नैतिक मूल्यों और पारिवारिक तनावों को उजागर करता है।
सारांश:
"दौड़" उपन्यास का केंद्र बिंदु एक युवा नायक का जीवन संघर्ष है, जो समाज में अपनी जगह बनाने के लिए लगातार एक अनवरत दौड़ में शामिल है।
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युवाओं की प्रतिस्पर्धा और महत्वाकांक्षा:
- उपन्यास का नायक एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार से आता है।
- वह अच्छी नौकरी, आर्थिक स्थिरता और सामाजिक प्रतिष्ठा पाने के लिए संघर्षरत है।
- जीवन में आगे बढ़ने की यह दौड़ उसे लगातार मानसिक और शारीरिक रूप से थकाती जाती है।
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मध्यवर्गीय समाज की वास्तविकता:
- परिवार, रिश्ते, समाज की अपेक्षाएँ और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के बीच संघर्ष दिखाया गया है।
- माता-पिता की उम्मीदें, आर्थिक सीमाएँ और सामाजिक प्रतिष्ठा का दबाव युवा पीढ़ी को तनाव में डालता है।
- उपन्यास इस बात को दर्शाता है कि कैसे समाज में सफलता को केवल धन और प्रतिष्ठा से आंका जाता है।
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नैतिकता बनाम सफलता का द्वंद्व:
- नायक के सामने नैतिक मूल्यों और सफलता के बीच टकराव की स्थिति आती है।
- उसे तय करना होता है कि वह इमानदारी और सिद्धांतों पर चले या फिर शॉर्टकट अपनाकर तेज़ी से सफलता की दौड़ में आगे बढ़े।
- यह संघर्ष कई युवाओं की वास्तविकता को दर्शाता है, जो करियर, समाज और व्यक्तिगत संतोष के बीच संतुलन बनाने की कोशिश करते हैं।
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भागमभाग भरी ज़िंदगी का अंतहीन संघर्ष:
- उपन्यास का नाम "दौड़" प्रतीकात्मक है, जो यह दर्शाता है कि आधुनिक समाज में हर व्यक्ति किसी न किसी दौड़ में शामिल है।
- यह सिर्फ एक व्यक्ति की कहानी नहीं, बल्कि पूरे समाज की मानसिकता और उसके बदलते मूल्यों को चित्रित करता है।
मुख्य संदेश:
- जीवन की सफलता केवल दौड़ में सबसे आगे आने से नहीं मिलती, बल्कि संतुलित जीवन जीने में है।
- मध्यवर्गीय युवाओं पर सामाजिक और पारिवारिक दबाव बहुत अधिक होता है।
- प्रतिस्पर्धा के चलते नैतिकता और मूल्यों का क्षरण हो रहा है।
- व्यक्ति को सिर्फ बाहरी सफलता के बजाय आंतरिक शांति और आत्मसंतोष पर भी ध्यान देना चाहिए।
निष्कर्ष:
"दौड़" उपन्यास केवल एक युवा के संघर्ष की कहानी नहीं है, बल्कि यह आधुनिक समाज के जीवन की कठोर वास्तविकताओं का आईना है। इसमें प्रतियोगिता, सामाजिक अपेक्षाएँ, आर्थिक दबाव और आत्मसंघर्ष को बारीकी से दर्शाया गया है। लेखिका यह प्रश्न उठाती हैं कि क्या यह दौड़ वास्तव में हमें सुख और शांति देती है, या फिर यह सिर्फ एक अंतहीन भागमभाग बनकर रह जाती है?
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