कुल पेज दृश्य

शनिवार, 3 मई 2025

रांगा मामा से एक बातचीत

                                                 रांगा मामा का नाम सुनते ही मेरे ज़हन में हमारे सबसे प्यारे छोटे मामा जी की तस्वीर उभर आती है। मेरे रांगा मामा का पूरा नाम है श्री पिनाकपाणी चक्रवर्ती जिन्हें हम सभी जुनु मामा(घर का नाम) के नाम से भी जानते हैं। रांगा शब्द बांग्ला भाषा में परिवार के सबसे छोटे सदस्य को कहा जाता है। मंझली कद-काठी, बैसाखी के सहारे धीरे-धीरे मुस्कुराते हुए अपना और अपने संसार का भार उठाकर पोस्ट ऑफ़िस से घर की ओर लौटते हुए। हमारे रांगा मामा परिवार में नौ भाई-बहनों में सबसे छोटे भाई है। उनके बाद सबसे छोटी बहन है अपु मासी। मेरे मामा जी को पोलियो के कारण दाहीने पैर और कमर से नीचे तक लकवा मार गया था सो वे बैसाखी के सहारे चलते हैं। रांगा मामा का जन्म सन् 1961, 31 मार्च असम के बदरपुर जिले के श्रीगौरी ग्राम में हुआ। उनकी शादी मेरी बुआ जी की ननद अजंता चक्रवर्ती देवी से हुई जिन्हें हम सभी प्यार से इति मामी के नाम से पुकारते हैं। उनकी दो संताने है। अद्वितीया चक्रवर्ती तथा सौम्य चक्रवर्ती। रांगा मामा सन् 31 मार्च 2021  को पोस्ट ऑफिस की नौकरी से रिटायर हुए। अपनी शारीरिक अक्षमता के बावजूद भी वे सदैव हंसते-मुस्कुराते हुए तथा हम सभी भांजे-भांजियों पर प्यार लुटाते रहे। उनकी वाकपटुता तथा मज़ाकीया अंदाज़ सदैव ही हमारे लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। बचपन में जब कभी भी हम ननीहाल जाते थे तो उनसे चुटकुले सुनाने की मांग करते थे। फिर वे चुटकुले सुनाते जाते और हम सभी भाई-बहन हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते। अपने दिव्यांग शरीर की पीड़ा जैसे उनके मन में कभी घर ही नहीं कर पाई। हम उनसे जब भी मिलते वे सदैव ही हंसते-मुस्कुराते ही दिखते रहे हैं।

            रांगा मामा का पूरा जीवन एक आदर्श जीवन रहा है। ग्रामीण परिवेश जहाँ शहरी सुख-सुविधाएँ हमेशा उपलब्ध होना असंभव है वही उन्होंने प्रत्येक कठीन-से-कठीन परिस्थिति में भी तटस्थ रहकर अपने जीवन को जिया है। मामा जी से बातचीत को दौरान पता चला कि उनके दाहीने पैर में पोलियों ढाई साल की ही उम्र में हो गयी थी। उस घटना के बारे में मैंने पहले एक बार माँ से सुना था लेकिन पूरा विवरण मामा जी से ही सुना। बचपन में जब गाँव में बच्चे सुपारी के बड़े-बड़े खोल को नौका बनाकर उसमें बैठकर खीचते हुए खेलते हैं तो बड़ा ही आनन्द का माहौल बन जाता है। इस तरह का खेल एक दिन मामा, मौसी और माँ भी खेल रहे थे कि मामा जी अचानक खेल-खेल में गिर पड़े और उन्हें हल्कि चोट आ गयी। उस वक्त बात आयी-गयी हो गयी। लेकिन उसी रात मामा जी को बुखार आ गया। मामा जी इतने बीमार पड़े कि लगभग सात दिन तक उनका खाना-पीना तो जैसे बंद ही हो गया था। उन्हें उन दिनों मल-मूत्र त्यागने में भी कष्ट हो रहा था। हमारे नाना जी स्वर्गीय उपेन्द्र कुमार चक्रवर्ती तब डिगबोई में अपना होमियोपेथी का दवाखाना चलाते थे। वे स्वयं होमियोपेथी के चिकित्सक थे। उन्हें जब इस बात का पता चला तो उन्होंने तुरंत ही मामा जी के लिए दवा भेजी। लेकिन उस समय डिगबोई से बदरपुर तक के यातायात की व्यवस्था इतनी अच्छी नहीं थी, सो दवाई पहुँचने में करीब दो दिन का समय लग गया था। मामा जी को उस दवा से कुछ फायदा हुआ और सांतवे दिन उन्होंने थोड़ा मल-मूत्र त्यागा और अपने पैरों पर कुछ देर के लिए खड़े हो सके। घर वालों को लगा कि मामा जी स्वस्थ हो चले हैं। लेकिन जल्द ही घरवालों की यह आशा निराशा में बदल गयी। मामा जी अपने पैरों पर खड़े नहीं हो पा रहे थे। नाना जी की  दी हुई दवाई के साथ-साथ कई अन्य उपाय किये जाने लगे। यहाँ तक कि उन्हें अपने पैरों पर सीधे खड़े होने में मदद के लिए मिट्टी में गड्डा खोद कर उन्हें कमर तक गाड़ कर भी रखा गया। मगर उसका कुछ असर न हो सका। अंत में नाना जी उन्हें लेकर डिगबोई के ही एलोपेथी डॉक्टर के पास लेकर गए जहाँ उन्हें पता चला कि मामा जी को पोलियो हो गया है और ये रोग उनके पूरे शरीर में फैल सकता है। परन्तु भगवान की कृपा से मामा जी के पूरे शरीर में पोलियो नहीं फैला, केवल पैरों तक ही सीमित रह गया। उसके बाद उनके जीवन का संघर्ष शुरु हुआ।

            मामा जी से जब मेरी बात हुई तो उन्होंने मुझे बताया कि मेरी माता जी श्रीमति अनिता चक्रवर्ती जिन्हें वे प्यार से दीदीभाई बुलाते वही प्रतिदिन स्कूल लेकर जाया करती थी। उन्हीं की ही मुख्य भूमिका थी स्कूल और कॉलेज तक की पढ़ाई करने में। उनके अलावा बड़े मामाजी रांगा मामा को पढ़ाया करते थे। घर से स्कूल तक की दूरी लगभग एक किलोमिटर की थी। लेकिन आने-जाने का रास्ता नहीं था। गाँव की पगडंडी हो कर जाना पड़ता था। आज भी वह स्कूल मौजूद है। मैंने बचपन से लेकर अभी तक कई बार श्रीगौरी ग्राम की यात्रा की है। आज भी मुख्य राजमार्ग से गाँव को जोड़ती सड़क से जब मामा जी के घर जाती हूँ तो गांव का हाल जैसे 20 साल पहले था आज भी करीब-करीब वैसा ही है। टेढ़े-मेढ़े कच्चे रास्तें, कई घरों के किनारों से होकर, कई घरों के पीछे बने तालाब के किनारों से होकर, जगह-जगह जंगली घासों और बेलों से लदे ये रास्तें उनके घर तक जाती है। इन्हीं रास्तों को मामा जी ने अपने नित्य जीवन में पार करके स्कूल से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई पूरी की है।1976 में एच.एस एल.ली की परीक्षा पास की। उन दिनों स्कूल की पढ़ाई दसवीं तक ही सीमित होती थी। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने करीब 5 कि.मि. दूर बदरपुर के नवीनचन्द्र कॉलेज से प्री-यूनिवर्सिटी पास की। फिर आपने घर से छः-सात किलोमिटर दूर चतुष्पाती संस्कृत टूल से संस्कृत में शास्त्री उपाधि की परीक्षा पास करी। मामा जी ने मुझे यह भी बताया था कि बरसात के दिनों में ये रास्ते बहुत खतरनाक होते थे जिसका अनुभव मुझे भी बचपन से कई बार हो चुका है। विशेषकर गर्मियों के दिनों में साँप-बिच्छू के निकलने का भय होता तो रात को सियार के निकलने का भय रहता। मामा जी ने बताया कि इन्हीं रास्तों से होकर उन्होंने तथा उनके बाकि सभी भाई-बहनों ने स्कूल तथा कॉलेज की शिक्षा भी पूरी की एवं अपने जीवन में वे सफल हो सके। उनके लिए सफलता का मतलब था एक अच्छा मनुष्य बनना जिसके पास इतना विवेक अवश्य हो जिससे वह अपना जीवन तो संभाल ही पाए  साथ ही औरों का जीवन भी संभाल पाए। उन्होंने अपनी विचारधारा को सार्थक भी कर दिखाया। क्योंकि उनके दौर में एक साधारण ग्रामीण व्यक्ति जो कि विक्लांग हो उसके लिए सरकारी नौकरी करना तथा विवाह कर अपनी गृहस्थी बसाना एक कठीन कार्य ही नहीं लगभग असंभव ही समझा जाता था। विशेषकर विक्लांग पात्र को लोग अपनी कन्या देने में हिचकते थे। यदि कोई विशेष कन्यादाय ग्रस्त दरिद्र पिता हो तो ही उसके लिए कई विकल्पों में ये एक विकल्प रहता है। परन्तु मामा जी ने न केवल स्वयं को शिक्षित ही किया बल्कि उन्होंने पोस्ट ऑफिस में नौकरी भी पायी तथा प्रेम विवाह भी किया। मामा जी बहुत अच्छा भजन-कीर्तन करते हैं। तबला, मृदंग, हारमोनियम बजाने में काफी उस्ताद है। उनके पास संस्कृत एवं बांग्ला भाषा का जितना ज्ञान है शायद ही आज के दौर के किसी पढ़े-लिखे व्यक्ति के पास हो। भागवत् से लेकर संस्कृत के कई ग्रन्थों का उन्होंने गहन अध्ययन किया है। पूजा करने बैठते हैं तो उनके मुख से श्लोक इस प्रकार से निकलते हैं मानो सव्यं माँ सरस्वती बोल रही हो। शायद इसी कारण हमारी प्यारी मामीजी मामाजी को दिल दे बैठी और 9 फरवरी 1989 में दोनों ने विवाह कर लिया।

            विवाह के बाद जिम्मेदारी बड़ जाती है। उस समय नौकरी पाना इतना सहज नहीं था। पर उन्होंने होसला नहीं त्यागा और 1 मई 1992 को ग्रामीण डाक सेवा के तहत एक्सट्रा डिपार्टमेंटल पोस्ट ऑफिस में उन्हें अस्थायी नौकरी मिल गयी। धीरे-धीरे डिपार्टमेंटल परीक्षा पास करके स्थायी नौकरी पायी। फिर 31 मार्च 2021 को सब-पोस्ट मास्टर के पद से सेवा निवृत्त हुए। मामा जी कहते है कि उनकी नौकरी पाने में मेरे पिताजी का बहुत अवदान है।

             

            मामा जी को मैंने बचपन से ही देखा है कि उनका जीवन सदैव प्रेरणा दायक रहा है। यही कारण है कि हम सभी भांजे-भांजियाँ उनसे बहुत प्यार करते थे। वे भी हम तीनों भाई-बहनों से बहुत प्यार करते थे। परन्तु मेरे माता-पिता के साथ तो उनका विशेष लगाव था। मामा जी ने ही मुझे बताया था कि पिताजी ने उन्हें अपने पैरों पर सीधे खड़े होकर चलने के लिए उनके पैरों के लिए केलिपर्स लगवाकर दिया था। उस समय मेरे पिताजी मणिपुर इम्फाल में असम रायफल्स में तैनात थे। मणिपुर के रिज़नल इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस का ही एक रिहैबिलिटेशन विभाग था जो कि दिव्यांग लोगों को सक्षम करने के लिए उन्हें उनके ज़रूरत के मुताबिक चीजें उपलब्ध कराया करता था। मेरे पिताजी उन्हें अपने साथ इम्फाल ले गए और वहाँ उन्होंने उनको केलिपर्स लगवा कर दिया। वैसे तो मामा जी केलिपर्स पाकर बहुत खुश भी हुए थे क्योंकि अब बिना किसी सहारे के वे चल फिर सकते थे। लेकिन जल्द ही उन्हें केलिपर्स निकालने पड़े। क्योंकि गाँव की सड़क जो काफी कच्ची और बरसात के दिनों में कीचड़ और दलदल से भर जाया करती थी उन रास्तों में उनके लिए चलना-फिरना मुश्किल था। परन्तु उन्होंने अपने इरादों को इन मुश्किलों के सामने झुकने नहीं दिया।

            मामा जी के जीवन की कुछ दिलचस्प बातें जो उन्होंने मुझे फोन पर लिए गए साक्षात्कार के समय बताए। हालांकि ये साक्षात्कार हमने हमारी मातृभाषा सिलेटी बांग्ला में ही की। उसी का अनूदित रूप यहाँ पर रख रही हूँ।

1.सवाल --मेरा सबसे पहला सवाल उनसे यही था -मामा आपके जीवन में वह कौनसी प्रेरणा थी जिसने आपको इतनी शक्ति प्रदान की और आप हमेशा हंसते-मुस्कुराते रहते हैं?

जवाब- (मामा जी) – मैं ये जानता था कि मुझे ये करना ही है। मैं हार नहीं मान सकता था। मुझे अपने पैरों पर खड़ा ही होना था। हमारे एक काका थे। यानी की तुम्हारे दादु के छोटे भाई। उनका नाम था श्री किरणमय चक्रवर्ती। उनका एक हाथ और एक पैर नहीं था। अंग्रेजों के जमाने में उन्होंने मैट्रीक पास किया था। बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। उन्हीं से मैंने प्रेरणा ली थी।

2. सवाल-- मामा दादु के हाथ और पैर दोनों क्या दुर्घटना के कारण गए थे या कोई अन्य कारण था?

जवाब – उन्हें बचपन में टाईपॉइड हो गया था। इस वजह से उनका एक पैर खराब हो चुका था। बाद में एक दुर्घटना में हाथ भी कट गया था। वे एक ही हाथ और एक ही पैर से काम चलाते थे।

3. सवाल – मामा उनके बारे में थोड़ा और विस्तार में बताइए।

जवाब – तुम्हारे छोटे दादु बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। वे इतने तेज़ बुद्धि के थे कि लोग उनके आगे हार मान लेते थे। एक बार उनके स्कूल में एक प्रतियोगिता आयोजित हुई थी। प्रतियोगिता की शर्त थी कि एक तस्वीर को देख कर कविता लिखनी है। तस्वीर में एक तालाब में हंस, बैल और रखवाला बाँसुरी बजा रहा था, वही दूर सूरज डूब रहा था। सभी ने अपनी तरफ से कोशिश करके अच्छी से अच्छी कविता लिखी। मगर सबकी कविता उस तस्वीर से पूरी तरह से मेल नहीं खा रही थी। परन्तु उन्होंने महज तीन पंक्तियों में तस्वीर से मेल खाती कविता लिख डाली। वह कविता ऐसी थी –

            सरोबरे हंसमिथून अस्ताचले रवि,

            राखाल छेले बाजाय बांशि

            के एकेछे छवि? ( अर्थ -- सरोवर में हंस और बैल दोनों है, रवि अस्त होने वाला है वही गाय चराने वाला लड़का बाँसुरी बजा रहा है। ऐसा चित्र किसने बनाया है।)

4.सवाल-- मामा दादु तो कमाल है। वे इतनी अच्छी कविताएँ लिखते थे। शायद मुझे इसीलिए कविता लिखने की प्रेरणा विरासत में मिली है। मामा उनके बारे में कोई और बाते हों तो बताए जो आपके लिए प्रेरणा दायक रही हो।

जवाब – वे स्कूल मास्टर रहे हैं। उन्होंने हमेशा ही गाँव के गरीब तथा असहाय छात्रों की बहुत मदद की है। उन्होंने  तो अपने जैसे विक्लांग लोगों पर कविता भी लिखी थी। यही कविता मेरे लिए प्रेरणा दायक बनी।

कविता ऐसी है

आमि खंज, आमि खंज,आमि खंज,

खूड़ाईया चलि उड़ाईया धूलि,

घुरिया बेड़ाई गंज।

नगर हईते पल्ली, डिगबय हईते दिल्ली,

कत अलि-गलि, कत भिड़ ठेली

पार हई कत कूंज।

आमार गानेर शुनिया शूर,

केउ बा हाशिया खून,

केउ बा रागिया आगून।

कत हाँशि, कत विद्रूप

उठे आमारे करिया केन्द्र।

 

5. सवाल -- मामा ये कविता सुनकर तो ऐसा ही लगता है जैसे विक्लांग लोगों के प्रति दूसरों के मन में कुछ खास जगह नहीं है। फायदे के न हो तो लोग अच्छे खासे व्यक्ति का साथ छोड़ देते हैं।

 जवाब – हाँ लोग ऐसा करते हैं। लेकिन काका की इस कविता ने मुझे इतनी प्रेरणा दी कि भले ही मुझे कोई चाहे न चाहे पर अपने लिए तो जीना ही पड़ेगा। अपने लिए तो करना ही पड़ेगा।

6. सवाल -- मामा आपके साथ कभी ऐसा हुआ है जहाँ आपको लगा हो कि अन्याय हुआ है आपके साथ या आपके दोस्त स्कूल में या कॉलेज में मजाक उड़ाते हो?

जवाब – नहीं मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ। मुझे ज्यादातर लोग प्यार करते थे। मेरे स्कूल के दोस्त मेरे शिक्षक सभी। घर में भी जितना प्यार मिला है उतना ही बाहर में भी प्यार मिला है।

7. सवाल --  मामा स्कूल में जब लड़के खेलते थे तो तब आपको बुरा नहीं लगता था कि काश आप भी खेल पाते तो कितना अच्छा होता?

जवाब –देखो ये बात यदि मैं अस्वीकार कर दू तो मैं झूठा बन जाऊँगा। हाँ मुझे भी बुरा लगता था जब मैं अपने दूसरे दोस्तों को खेलते हुए देखता था। वे लोग मुझे ग्राउंड के एक साइड बिठाकर रखते थे और कहते थे कि हम खेलते हैं तू देख। तब मुझे जरूर लगता था कि काश में भी जाकर उनके साथ खेलू। मुझे जीवन से वैसे तो कोई शिकायत नहीं थी मगर कभी-कभी जरूर लगता था कि काश में भी दूसरों की तरह चल-फिर सकता तो कितना अच्छा था।

8. सवाल--  मामा आपको जब पहली बार केलिपर्स लगवाकर दिया गया था तो कब तक उपयोग किया था?

जवाब – केलिपर्स मैंने शायद 1982-83 में लगवाया था और चार से पाँच साल तक इस्तेमाल किया था।

9. सवाल -- मामा पिताजी ने मुझे बताया कि केलिपर्स लगाने के बाद आप सीधे होकर चल पाते थे, लेकिन श्रीगौरी के रास्ते खराब होने के कारण आपको निकाल देने पड़े, क्योंकि केलिपर्स आपकी उतनी मदद नहीं कर पाए?

 जवाब – हाँ श्रीगौरी के रास्तों में केलिपर्स लेकर चलना मुश्किल था इसलिए निकाल देना पड़ा।

10. सवाल-- मामा केलिपर्स लगाने के बाद आपको कैसा लगा था जब आप सीधे खड़े होने पा रहे थे?

जवाब – अपूर्व। इम्फाल में पहली बार तुझे ही गोद में लिया था खड़े होकर। मैं तो कभी भी सीधे खड़ा नहीं हो पाता था। किसी भी बच्चे को अपने गोद में नहीं ले पाया था। केलिपर्स लगाने के बाद तुझे ही पहली बार गोद में उठा पाया था। और तुझे ही गोद में लेकर फोटो भी खिंचवाई थी। लेकिन हमारे घर में एक बार चोरी हो गयी थी उसी के बाद से ये फोटों आज तक नहीं मिली।

11. सवाल-- केलिपर्स जब आपको बाध्य होकर खोलना पड़ा तो काफी दुख हुआ होगा कि दुबारा अब झुककर लाठी के सहारे चलना पड़ेगा।

 जवाब – हाँ दुख तो हुआ था। मैं तब स्कूल जाता था। रेल लाइन के किनारे से चलकर जाना पड़ता था और केलिपर्स के कारण मुझे असुविधा होती थी। हाँ ठंड के दिनों में कोई असुविधा नहीं होती थी। रास्ता भी ठीक रहता था। लेकिन वर्षा के दिनों में हमारी गली का जो रस्ता था उसमें काफी कीचड़ हो जाया करता था। और केलिपर्स में तो जुता लगा होता था। अगर कीचड़ में ये खराब हो जाता तो ये इम्फाल के अलावा कही उपलब्ध नहीं होता था, इसलिए इसे खोलकर रख दिया था।

12. सवाल --  मामा आप अपने ऑफिस के कुछ अनुभव के बार में बताई। जब आपने पहली बार पोस्ट ऑफिस ज्वान करी तो अक्सर कुछ लोगों का रवैया रहता है कि ये तो दिव्यांग है, ये क्या काम कर सकेगा। कभी आपके दफ्तर के किसी भी सहयोगी ने आपकी कार्य-क्षमता पर संदेह प्रकट किया हो?

जवाब – ना, ऐसा किसी ने नहीं किया। कारण हमलोग, हमारे दादामाशय(नाना) भी पोस्टमास्टर थे। हमारी माँ (नानी) के पिताजी भी पोस्टमास्टर थे। मेरे मामा भी एसिस्टेंट पोस्टमास्टर जेनरल थे। उसके अलावा हमारे एक और चचेरे भाई थे वे पोस्टल इन्स्पेक्टर होकर रिटायर हुए थे। तो मेरे साथ कभी किसी ने कोई ऐसा व्यवहार नहीं किया। बल्कि सभी स्टाफ ने मुझे बहुत सपोर्ट किया। प्रथम-प्रथम बहुत डर लगता था। बहुत सारे पैसे होते थे जिन्हें मिलाना पड़ता था। तो डर लगता था कि शाम तक इन सबका ठीक से मिलान हो पाएगा की नहीं। फिर 99 को मैंने फिर से परीक्षा दी और पोस्ट मैन बन गया। तो डिपार्टमेंट वालों ने भी थोड़ी मर्सी दिखायी और मुझे गाँव के ही पोस्ट ऑफिस में पोस्टिंग कर दी। तो ये तो अपना ही गाँव है, अपने ही जाने-पहचाने लोग हैं। तो मैं खुद ही जा-जाकर अपनी ड्यूटी करता था। वहीं गाँव के लोगों ने भी मुझे काफी साथ दिया। कभी-कभार तो वह रास्ते से ही अपनी चिट्ठी ये कहकर ले जाया करते थे कि मुझे उनके घर तक आने की इतनी तकलीफ न करने की जरूरत नहीं है।

13.सवाल -- मामा आपको और किस तरह का साथ मिला जब आप पोस्ट मैन का काम करना शुरु किया?

 जवाब—मुझे किस तरह का सपोर्ट मिला जैसे मैं बैंक में चिट्ठी पहुँचाने जाया करता था। तो बैंक के मैनेजर ने मुझसे कह रखा था कि मैं केवल बाहर ही सूचना दे दु कि चिट्ठी आ गयी है। वे अपना पियोन भेजेंगे तथा रजिस्टर भेजेंगे जिसमें एंट्री वगैरा सब करवा दिया जाएगा।  वे लोग बाहर आकर चिट्ठी लेंगे। कभी में श्रीगौरी हॉस्पिटल जाया करता था चिट्ठी देने को तो वहाँ के डॉक्टर साहब ने कह रखा था कि मैं सिर्फ वहाँ जाऊंगा सामान लेकर और कुर्सी पर बैठूंगा। बाकि स्टाफ स्वयं आकर अस्पताल के लिए जो भी वस्तुएँ तथा चिट्ठी वगैरह आयी है वह लेकर जाएंगे। मुझे हर कमरे में चिट्ठी पहुँचाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। पियोन से ही वह सब चीजें लिवा लेंगे।

14.सवाल--   मामा आपको अपने दफ्तर के स्टाफ से तो अच्छा साथ मिला। सामाजिक रूप में आपका कैसा अनुभव रहा, विशेषकर आपके दैनिक आवागमन दफ्तर से घर, घर से दफ्तर। जहाँ तक मुझे याद है आप जब बदरपुर के पोस्ट ऑफिस में काम करते थे तो आप रोज बदरपुर से रेल पकड़कर रुपोशी बाड़ी रेलवे स्टेशन पर उतरते थे। कभी-कभी आप सिलचर वगैरह जाया करते थे तो आपको बस पकड़नी पड़ती थी। तो ऐसे में कभी आपको किसी प्रकार की दिक्कत का सामना करना पड़ा?

जवाब –बात दरअसल ये है कि पहले मेरा शरीर काफी अच्छा रहता था तो कभी भी मुझे बस या रेलगाड़ी में चढ़ने में उतनी असुविधा नहीं होती थी। बस में उठता तो मुझे कोई-न-कोई सीट दे ही देता था। वही मैं पोस्ट ऑफिस में काम करने से पहले दस साल तक एक स्कूल में काम कर चुका था। तो मेरी आदत लगभग हो चुकी थी।

15. सवाल -- मामा स्कूल के बारे में वहाँ की कुछ अनुभूतियाँ बताइए?

जवाब –ये एक वेंचर स्कूल था। 1982 में मैंने यहाँ काम करना शुरु किया था। इसका नाम था समवाय हाई-स्कूल। प्रायः समय जब भी स्कूल से घर लौटता तो कोई-न-कोई मेरे साथ काम करने वाले सहयोगी या फिर कोई छात्र या छात्रा मिल ही जाते थे। तो वे अक्सर मुझे गाड़ी में सीट दे दिया करते थे बैठने के लिए। मैं स्कूल में संस्कृत का अध्यापक था। परन्तु संस्कृत के विद्यार्थी न होने के कारण दूसरे विषय के छात्रों को पढ़ाना पड़ा। पहले-पहले छोटे बच्चे मुझसे बहुत डरते थे क्योंकि मैं अपनी दो लाठियों के सहारे कक्षा में जाता था। मगर मेरे साथ कभी किसी छात्र ने बुरा व्यवहार नहीं किया। वे सभी ग्रामीण छात्र थे और बहुत ही नम्र और भद्र स्वभाव के थे। तो वे मुझे अपने शिक्षक के रूप में बहुत सम्मान करते थे। इसलिए मुझे कभी किसी प्रकार की असुविधा महसूस ही नहीं हुई।

हिन्दी कहानी में दिव्यांग विमर्श

 


मनुष्य अपनी पंच ज्ञानेंद्रिय द्वारा इस दुनिया को पहचानता है और इनका संचालक है मस्तिष्क। प्रयोजन अनुसार मस्तिष्क बाकि अंग-प्रत्यंग को निर्देश देता है जिससे मनुष्य काम कर पाता है। यदि किसी कारणवश इन ज्ञानेंद्रियों में कोई  एक भी पूर्ण-रूप से विकसित नहीं हो पाता है या किसी दुर्घटना के कारण कोई ज्ञानेंद्रिय क्षतिग्रस्त हो जाए तब मनुष्य अपना काम करने में कठिनाई महसूस करता है। कभी-कभी सभी ज्ञानेंद्रियाँ सठीक होने के बावजूद कोई अंग-प्रत्यंग जैसे हाथ या पैर आदि में कोई त्रुटि हो या किसी दुर्घटना में  क्षतिग्रस्त हो जाए तब भी मनुष्य अपने काम करने में कठिनाई महसूस कर सकता है। ऐसे लोगों को ही हम दिव्यांग कहते हैं।इसी के साथ-साथ बुढ़ापा भी दिव्यांगता का पर्याय बनता जा रहा है जहाँ बढ़ती उम्र के साथ-साथ शरीर के अंग शिथिल ही नहीं काम करना भी बंद कर देते हैं। जैसे मोतियाँ बिंद, दाँतों के गिर जाने से तोतलाना, हाँथ-पैरों में गठिया को रोग से ठीक से काम न कर पाना या फिर कमर का अकड़ जाना, हाथ-पैरों का निरंतर काँपते रहना, कानों से सुनाई न देना इत्यादि।

हालांकि दिव्यांग शब्द हाल ही में व्यवहार होने लगा है। पहले ऐसे लोगों को फिज़िकली हैंडिकैप या विक्लांग ही कहा जाता था। इस शब्द का भी अपना एक इतिहास है। कहा जाता है कि 15-16वी शताब्दी में जब युद्ध में शारीरिक रूप से क्षतिग्रस्त सैनिक तथा अन्य लोग अपने जीवन जीने के लिए रास्तों में हाथ(अर्थात् हैंड) में टोपी(कैप) लेकर भीख मांगते थे। क्योंकि उस वक्त ऐसे लोगों को अन्य साधारण लोगों जैसे काम पर नहीं लिया जा सकता था क्योंकि वे सामान्य काम-काज करने में भी सक्षम नहीं थे या फिर उन्हें दूसरे लोग काम नहीं देते थे। इसलिए मजबूरी में इन्हें भीख ही मांगकर अपना गुज़ारा करना पड़ता था। जब ब्रिटेन के राजा हेनरी ने ये देखा तो समाज में ऐसे लोगों की दशा को समझते हुए उन्होंने इस प्रकार के भीक्षाटन को मान्यता प्रदान किया। तब से लोगों ने इन्हें हैंडिकैप नाम दिया और तब से ऐसे लोगों इसी नाम से ही पुकारा जाने लगा।

            एक बात जरूर है अगर किसी मनुष्य के अंग में विकलता या क्षति हो जाए तो उसका दूसरा अंग अधिक शक्तिशाली या अनुभूति संपन्न हो जाता है। जैसे अंधे व्यक्ति की आँखे न होने पर भी उसकी शरीर की त्वचा या हाथ की त्वचा अनुभूति प्रबल होती है जिससे कि वह बिना देखे ही समझ जाता है कि उसे किसने छुवा है। वही कोई बिना हाथ वाला व्यक्ति अपने पैरों से ही लिख सकता है अथवा अपना दूसरा काम कर सकता है। अतीत में जहाँ ऐसे शारीरिक या मानसिक अक्षमता वाले व्यक्तियों के लिए केवल करुणा ही प्राप्त होता था। ज्यादातर लोग ऐसे व्यक्तियों को बोझ के रूप में ही मानते थे। उन्हें किसी काम के उपयोगी न मानकर उन्हें काम नहीं देते थे। ऐसे में इन जैसे लोगों के लिए जीवन जीना कठीन था। परन्तु धीरे-धीरे समाज में लोगों की चिंता-धारा बदलने लगी और लोगों को इनमें भी काम काज करने की क्षमता दिखने लगी और ये भी देखा जाने लगा कि इनमें भी कुशलता का विकास सम्भव है और ये भी साधारण जीवन जी सकते हैं। वही 1980 के दशक में अमेरिका की डैमोक्रेटिक नेशनल कमीटी ने हैंडिकैप की जगह ‘डिफरेन्टली एबल्ड’ शब्द के इस्तेमाल पर जोर दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव अधिकार संघटन ने वर्ष 1992 की 3 दिसम्बर को ऐसे लोगों की कार्यक्षमता को जानते हुए पहली बार इंटरनेशनल डे ऑफ डिसएबिलिटि दिवस मनाने की घोषणा की जिसे आज प्रत्येक वर्ष लोग मनाते हैं। इसके अतिरिक्त इंटरनेशनल डे ऑफ ऑटिस्म 2 अप्रैल को मनाया जाने लगा, इंटर नेशनल डे ऑफ डीफ एण्ड डम्ब 23 सितम्बर को मनाया जाने लगा। उसी प्रकार इंटर नेशनल डे ऑफ ब्लाइंड जो कि अक्तूबर के दूसरे बृहस्पतिवार(second Thursday) को मनाया जाने लगा। इन दिनों के मनाये जाने का एक ही उद्देश्य था कि दिव्यांग व्यक्ति की कार्यक्षमता को पहचानना तथा विश्व को भी पहचान करवाना। दिसम्बर 2015 में हमारे भारत के प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी ने अपनी ‘मन की बात’ कार्यक्रम में इनके लिए दिव्यांग शब्द का व्यवहार किया।

 सबसे बड़ी बात है कि कोई भी मनुष्य करुणा पात्र बनकर जीना नहीं चाहता है। वह स्वाभिमान के साथ ही जीना चाहता है। फिर दिव्यांग व्यक्ति क्यों पीछे रहे। उसमें भी स्वाभिमान है और वह उसी के साथ जीना चाहता है। परन्तु अपनी अक्षमता के कारण वह दूसरों की सहायता लेने के लिए बाध्य है। जब मानव अधिकार संघठन ने देखा कि यदि ऐसे लोगों को सही प्रकार की सहायता, सही परिस्थिति एवं मौके दिए जाए तो यें भी स्वाभाविक जीवन जी सकते हैं। प्राचीन काल की बात करें तो हमारे भारतीय समाज का इतिहास ऐसे लोगों से भरा पड़ा है। जैसे सूरदास जो की अन्धे थे परन्तु उन्होंने महान सूरसाहित्य की रचना की और भक्ति साहित्य में अपना नाम अमर कर दिया। उसी महर्षि च्यवन, महर्षि अष्टावक्र, दीर्घतमा, शुक्राचार्य आदि का योगदान आज भी हमारे भारतीय समाज के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। तो वही आज सुधाचन्द्रन जी का नाम लिया जा सकता है जिनके पैर न होने के बावजूद भी वह देश की जानी-मानी शास्त्रीय नृत्य-संगीत में अपने योगदान के लिए जानी जाती है। सबसे बड़ा उदाहरण तो हम स्टीफेन हॉकींस का दे सकते हैं जिन्होंने शारीरिक रूप से पूर्णतः अपंग होने के बावजूद भी विज्ञान की दुनिया को अपने कई महत्वपूर्ण आविष्कार दिए हैं तथा उसे समृद्ध बनाया है। इसी प्रकार दिव्यांग व्यक्तियों की क्षमता को पहचानते हुए वर्ष 1960 में इटली के रोम में  18 से 25 सितम्बर को ओलिम्पिक्स गेम्स की समाप्ति के बाद दिव्यांग व्यक्तियों के लिए खेल प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था जिसमें 23 देशों के 400 खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया था तथा सभी किसी-न-किसी प्रकार से शारीरिक रूप से अपाहिज थे।1 धीरे-धीरे ये खेल इतना प्रसिद्ध हो चला की अब इसका आयोजन पैरालिम्पिक्स नाम से किया जाने लगा है जिसमें प्रायः आज विश्व के सभी देश हिस्सा लेते हैं और वहाँ के दिव्यांग खिलाड़ी इसमें भाग लेते हैं। वर्तमान में भारत के भाविनाबेन पटेल जिन्होंने टेबल टेनिस में रजत पदक जीता है जो कि पोलियोग्रस्त हैं तो वही योगेश कथूनिया जिन्होंने भी डिस्कस थ्रो में रजत पदक जीता है वे लकवाग्रस्त हैं। ऐसे हमारे देश के कई उमदा खिलाड़ी है जिन्होंने दिव्यांग होने के बावजूद भी दुनिया में अपनी कुशला से अपना कीर्तिमान स्थापित किया है।

   भारतीय समाज में दिव्यांग लोगों की कैसी स्थिति है यह समझने के लिए हमें हमारे भारतीय समाज और उसमें बसे भारतीय परिवारों में झांकना पड़ेगा। आज जहाँ 2023 तक आते-आते  दिव्यांग व्यक्तियों के जीवन में बहुत बड़े बदलाव आए हैं। वे अब समाज की मुख्य धारा से जुड़कर भारत के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। परन्तु आज से लगभाग दो दशक पहले क्या दिव्यांग लोगों की स्थिति उतनी ही सशक्त थी ये एक प्रश्न है। क्योंकि दिव्यांग लोगों के प्रति हमारे समाज में लोगों की धारणा वास्तव में कितनी भ्रामक है यह इस बात से ही पता चलता है कि आज भी कई दिव्यांग लोग सड़कों पर भिक्षाटन करते नज़र आते हैं। एक समय इतना भी भयानक सा चला था जब अच्छे-अच्छे घरों के मासूम बच्चों को भिखारियों के गैंग अगवा कर ले जाते थे और उन्हें अपंग बनाकर भिक्षा करवा कर अपने इस आपराधिक धंधे को चलाया करते थे। क्योंकि भारतीय मानसिकता हमेशा ऐसे लोगों पर दया करना जानती थी मगर सच्ची संवेदना स्वरूप दिव्यांग को सशक्त बनाकर उसे अपने जीवन में सही मार्ग पर चलने में सहायक नहीं बन सकी थी। वही परिवार में दिव्यांग सदस्य अपनी सदस्यता के आधार पर ही परिवार में सम्मान और देखभाल के पात्र बनते हैं। बुजुर्ग है तो उन्हें देखभाल और सम्मान तब तक मिलता है जब तक बदले में वे कुछ देते रहे। वही बच्चों में यदि दिव्यांग लड़की है तो उसे ताने मिलते हैं, माता-पिता उसके विवाह के लिए चिंतित रहते हैं। लड़का है तो उसके विवाह एवं जीवन संगीनी के चरित्र पर संदेह की स्थिति रहती है, जीवन साथी दिव्यांग है तो वह कभी-कभी स्वयं कुण्ठा ग्रस्त नज़र आता है। हाँ कभी-कभी ऐसे परिवार भी मिलते हैं जहाँ दिव्यांग सदस्य से परिवार के लोग बेशर्त ही प्यार करते हैं और देखभाल करते हैं। कहा जा सकता है कि भारतीय समाज में दिव्यांग व्यक्तियों के प्रति लोगों का दृष्टिकोण मिला-जुला है।

2011 की जनगणना के सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में 121 करोड़ की आबादी में से 2.68 करोड़ व्यक्ति दिव्यांग है जो कुल जनसंख्या का 2.21 प्रतिशत है। दिव्यांग जनसंख्या में 56 प्रतिशत अर्थात् 1.5 करोड़ पुरष हैं और 44 प्रतिशत अर्थात् 1.18 करोड़ महिलाएँ हैं। 2  बच्चों की दिव्यांगता की रिपोर्ट इससे दयनीय है। ये दिव्यांगता कई कारणों से है। जिनमें मुख्य रूप से सड़क दुर्घटना, पोलियों, जन्म के समय की बीमारी इत्यादि शामिल है। परन्तु अब इस ग्राफ़ में शायद पिछले कुछ समय से कमी आयी है। क्योंकि आज़ादी के बाद से ही भारत सरकार ने दिव्यांग व्यक्तियों को भी समाज की मुख्य धारा में जोड़े रखने के लिए कई कार्यक्रम चलाए है। दिव्यांग व्यक्तियों को कृत्रिम अंग प्रदान करके, नेत्र दान योगदान, पल्स-पोलियो टीकाकरण, जन्म से पहले गर्भस्त शिशु की बीमारी का पता लगाने, दिव्यांग व्यक्तियों को शिक्षा, स्वास्थ तथा नौकरी में आरक्षण एवं विशेष सुविधा आदि की व्यवस्था की गयी है। इसके अलावा भी कई अन्य सरकारी योजनाएँ भी उनके लिए समय-समय पर केन्द्र सरकार, राज्य सरकार तथा गैर सरकारी संस्थानों द्वारा किया जा रहा है। इसका लाभ दिव्यांग लोगों को मिल रहा है एवं वे अब अन्य साधारण लोगों की भांति अपना जीवन-यापन कर रहे हैं।आज का दिव्यांग व्यक्ति केवल शरीर से अपंग है परन्तु मानसिक रूप से सशक्त होने के कारण वह समाज में अपने महत्वपूर्ण योगदान देने से पीछे नहीं है।

 परन्तु दिव्यांगों के प्रति समाज की सोच में दयनीयता का भाव कैसे आया। इसका कारण था पराधीन समाज। हमारा भारतवर्ष जब अरबों और ब्रिटिशों का कई वर्षों तक गुलाम रहा तो उस समय साधारण शारीरिक रूप से सक्षम व्यक्तियों का जीवन भी दयनीय स्थिति में चला गया था। ऐसे में दिव्यांग व्यक्तियों के जीवन में भी किस प्रकार के सुख की कल्पना की जा सकती थी क्योंकि किसी एक परिवार में दिव्यांग सदस्य होने से परिवार के अन्य लोगों के मन में उनके भविष्य को लेकर एक दुश्चिन्ता सताती रहती थी। इस बात को हम साहित्य के माध्यम से ही समझ सकते हैं। साथ ही यह भी समझ पाएंगे कि पराधीन भारत से लेकर आज़ाद भारत और विकसित भारत में दिव्यांग व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति में किस प्रकार परिवर्तन आया है।

हिन्दी कहानी में दिव्यांग पात्रों की अवधारणा प्रेमचन्द काल से ही चली आ रही है। प्रेमचन्द जी की कई कहानियों में दिव्यांग पात्रों की सामाजिक एवं पारिवारिक भूमिका देखने को मिलती है। वही उनके उनके समकालीन अन्य रचनाकारों की रचनाओं में भी दिव्यांग पात्र नज़र आते हैं जिनका कथानक में किसी-न-किसी प्रकार की भूमिका रही है। मुख्य भूमिका से लेकर गौण पात्र तक की भूमिका में नज़र आते रहे हैं। कभी-कभी प्रेरणा स्रोत के रूप में भी। इन्हीं के द्वारा समाज की कई कठोर सत्य को उजागर करने की कोशिश की जाती रही है। साथ-ही-साथ पाठकों के मन में ऐसे पात्रों के लिए न केवल संवेदना बल्कि सम्मान की भावना भी जगाने की कोशिश की गयी है। कुछ आधुनिक साहित्यकारों की रचनाओं में दिव्यांग पात्रों के नकारात्मक पक्ष को भी उजागर किया गया है। उपरोक्त सिद्धान्तों पर आधारित कई हिन्दी कहानियाँ है जिनमें हम दिव्यांग पात्रों के हर पहलू नज़र आते हैं जैसे प्रेमचन्द रचित पत्नी से पति, पंच-परमेश्वर, रांगेय राघव द्वारा रचित पंच परमेश्वर, अज्ञेय कृत खितीन बाबू, मालती जोशी कृत प्रतिदान, उमाकान्त खुबालकर द्वारा रचित एक था सुब्रतो। इन सभी कहानियों के द्वारा समाज में दिव्यांग व्यक्तियों की वास्तविक स्थिति को समझने में आसानी होगी। किस प्रकार हृदयहीन, विचारहीन समाज दिव्यांग व्यक्तियों के साथ अन्याय करता है उसका प्रमाण ये कहानियाँ है। वही यदि समाज में दिव्यांग व्यक्ति को किसी भी शारीरिक तथा मानसिक रूप से सशक्त व्यक्ति द्वारा थोड़ा सा भी अपनापन मिल जाए तो वह कैसे अपना प्रेम उनपर लुटाता है ये भी दर्शाया गया है।

प्रेमचन्द कृत कहानी पति से पत्नी पराधीन भारत, स्वतंत्रता संग्राम तथा कांग्रेस के आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखित है। इस कहानी का मूल सारांश कुछ इस प्रकार है कि कहानी के मुख्य पात्र मिस्टर दीनानाथ सेठ को विलायती चीज़ों तथा विलायती जीवन शैली बहुत पसंद थी। वही उनकी पत्नी गोदवरी बिलकुल विपरीत थी। उन्हें स्वदेशी जीवन और स्वदेशी वस्तुओं से बहुत प्रेम था। जिस कारण वे अक्सर ही दुखी रहा करती थी क्योंकि सेठ जी घर में किसी भी स्वदेशी वस्तु को देखते तो क्रोधित हो जाते थे। एक दिन उनके घर के सामने वाले मैदान में होली के दिन विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार हो रहा था। उनकी होली जलाई जा रही थी। तब दोनों पति-पत्नी में स्वदेशी और विदेशी पर मतभेद हो जाता है और सेठ जी अपनी पत्नी को कमरे में अकेला छोड़ चले जाते हैं। उसी समय उनके घर के सामने से एक अंधा भिखारी कुछ गीत गाते हुए गुज़रता है। गोदावरी उसे भिक्षा देने के लिए बक्सा खोलती है और बड़ी मुश्किल से उसे एक घिसा हुआ एक पैसे का सिक्का मिलता है। वह उस सिक्के को भिक्षा के रूप में देते हुए संकोच करती है। पर अंत में वही सिक्का देकर भिखारी को एक पैसे का चबैना खाने के लिए कह देती है। अगले दिन जब मिस्टर सेठ उसे मनाने हेतु गोदावरी को फ्लावर शो में ले जाना चाहते हैं तो वह उन्हें मना कर देती है और कांग्रेस के जलसे में शामिल हो जाती है। वहाँ सभी आन्दोलन के लिए चन्दा देते हैं। तभी वहाँ वही अन्धा भिखारी भी आता है और आकर वही घिसा हुए सिक्का दान में दे देता है। आन्दोलन के आयोजक उसे भिखारी की संपूर्ण कमाई के रूप में दिखाकर लोगों से उसका मूल्य मांगते हैं और निलामी करते हैं। इस प्रसंग से गोदावरी लज्जित भी होती है और अपनी भूल सुधारने के लिए वही सिक्का सबसे अधिक भाव चुकाकर खरीद लेती है। पूरे शहर में इसकी चर्चा होती है जिसके फलस्वरूप मिस्टर सेठ को अपने अंग्रेज साहब से अपमानित होना पड़ता है और उनकी नौकरी भी चली जाती है। घर आने पर मिस्टर सेठ गोदावरी से इस बात पर झगड़ा भी करते है परन्तु वह हार मान जाते हैं। अंत में गोदावरी उन्हें कांग्रेस में शामिल होने के लिए कहती है। इस कहानी में प्रेमचन्द ने दिव्यांग व्यक्ति के प्रति हृदयहीन समाज के रूप को कुछ इस प्रकार दिखाया है जब भिखारी गोदावरी से भोजन मांगता है ---

अंधा – माता जी कुछ खाने को दीजिए। आज दिन भर से कुछ नहीं खाया।

गोदावरी – दिन भर मांगता है, तब भी तुझे खाने के नहीं मिलता?

अंधा – क्या करूं माता, कोई खाने को नहीं देता।3

इस प्रसंग में देखा जा सकता है कि पराधीन भारत में दिव्यांग व्यक्तियों के साथा समाज किस प्रकार का अन्याय कर रहा था। माना कि उस समय भारत पराधीन होने के कारण कुछ व्यक्तियों को छोड़ आम मध्यम-वर्गीय भारतीय तथा निम्न मध्यम वर्गीय लोग आर्थिक रूप से इतने सशक्त नहीं थे। परन्तु एक भिखारी को एक समय का भोजन तो खाने के लिए दे ही सकते थे। केवल इतना ही नहीं वहाँ कहानी की पात्र गोदावरी भी चाहती तो अपने ही घर से उस भिखारी को खाने के लिए कुछ भी दे सकती थी। यही कारण है कि हमारे भारतवर्ष में आज भी कई लोग भूखमरी से इसीलिए मरते हैं। फिर दिव्यांग भिक्षुकों की दशा का दयनीय होना तो तय है ही। इसी प्रकार प्रेमचन्द जी ने अपनी एक और कहानी पंच-परमेश्वर में बूढ़ी मौसी जो कि अब बुढ़ापे के कारण उनका शरीर शिथिल पड़ने लगा था, कमर पूरी तरह से झुक गयी थी, उनपर अपने ही भांजे जुम्मन शेख द्वारा किए गए अत्याचारों को दर्शाया है। कहानी बड़ी सीधी सरल है। जुम्मन शेख और अलगु चौधरी दोनों बड़े पक्के मित्र होते हैं। दोनों की मित्रता इतनी गहरी होती है कि वे एक-दूसरे के खिलाफ कुछ भी बुरा नहीं सुन पाते हैं। जुम्मन शेख जब अपनी बूढ़ी मौसी को ठग कर उनकी सारी सम्पत्ति अपने नाम करवा लेता है तो वह पूरे गाँव से न्याय मांगती है। लेकिन जब उसे जब कोई मदद नहीं मिलती तो वह अलगू चौधरी के पास जाती है। वह उसे धर्म और न्याय का वास्ता देकर मदद करनी की गुहार करती है। निश्चित दिन पर पंचायत बैठती है तो जुम्मन खुद को बचाने के लिए पंचों में अलगू चौधरी का नाम सुझाता है। मगर जब अलगू चौधरी पंचों में शामिल होता है तो वह उचित न्याय करते हुए मौसी के पक्ष में फैसला सुनाता है। इससे जुम्मन शेख अलगू से नाराज़ हो जाता है। वही जब अलगू चौधरी का बैल समझू साहू के अत्यधिक अत्याचार से मर जाता है एवं समझू साहू अलगू चौधरी को बैल के पैसे देने से इंकार कर देता है तब दुबारा पंचायत बुलाई जाती है। तब जुम्मन शेख को भी मौका मिलता है अलगू चौधरी से बदला लेने का। मगर जब वह भी पंचों में शामिल होकर फैसला सुनाने वाला होता है तो उसकी भी अंतर-आत्मा उसे न्याय करने की ही प्रेरणा देती है। इधर अलगू चौधरी मन-ही-मन डरता है कि कही जुम्मन उससे बदला न ले लेकिन फैसला उसी है पक्ष में होता है। अंत में दोनों में सुलह हो जाती है। इस प्रकार कहानी का अंत हो जाता है। लेकिन प्रेमचन्द जी ने इस कहानी में वृद्ध एवं शारीरिक रूप से दुर्बल हो चुके सदस्य के साथ घर के लोगों का कठोर एवं हृदयहीन व्यवहार को बड़ी स्पष्टता से उजागर किया है। यथा – जुम्मन शेख़ की एक बूढ़ी खाला (मौसी) थी। उसके पास कुछ थोड़ी-सी मिलकियत थी; परन्तु उसके निकट संबंधियों में कोई न था। जुम्मन ने लम्बे-चौड़े वादे करके वह मिलकियत अपने नाम लिखवा ली थी। जब तक दानपत्र की रजिस्ट्री न हुई थी, तब तक खालाजान का ख़ूब आदर-सत्कार किया गया। उन्हें ख़ूब स्वादिष्ट पदार्थ खिलाये गए। हलवे-पुलाव की वर्षा-सी की गई; पर रजिस्ट्री की मोहर ने इन ख़ातिरदारियों पर भी मानो मुहर लगा दी। जुम्मन की पत्नी करीमन रोटियों के साथ कड़वी बातों के कुछ तेज़, तीखे सालन भी देने लगी। जुम्मन शेख़ भी निठुर हो गए। अब बेचारी खालाजान को प्रायः नित्य ही ऐसी बातें सुननी पड़ती थीं।4 ऐसे व्यवहार वास्तव में किसी भी विवेकशील व्यक्ति के लिए लज्जा की बात होगी। परन्तु स्वार्थी कठोर संसार अब लज्जा की परिभाषा को केवल अपने स्वार्थ के लिए समय-समय पर बदलता रहता है। इसी कहानी में बुढ़ी मौसी के कष्टों को भी प्रेमचन्द ने दर्शाया है। जब जुम्मन और उसकी पत्नी के अत्याचारों से तंग आकर वह पंचायत करने की धमकी देती है और मदद के लिए गाँव-गाँव जाती है। इसके बाद कई दिन तक बूढ़ी खाला हाथ में एक लकड़ी लिए आस-पास के गांवों में दौड़ती रहीं. कमर झुक कर कमान हो गई थी. एक-एक पग चलना दूभर था; मगर बात आ पड़ी थी. उसका निर्णय करना ज़रूरी था।बिरला ही कोई भला आदमी होगा, जिसके सामने बुढ़िया ने दुःख के आंसू न बहाए हां। किसी ने तो यों ही ऊपरी मन से हूं-हां करके टाल दिया, और किसी ने इस अन्याय पर ज़माने को गालियां दीं!।5  इस प्रसंग से पता चलता है कि लोग किस प्रकार दिखावा करना जानते हैं परन्तु वास्तव में किसी में सच्चा साहस ही नहीं होता कि एक असहाय की सहायता करे। यही हमारे समाज का वास्तविक हाल है और आज भी ऐसा ही चल रहा है। लोगों की उदासीनता के कारण ही समाज में दिन-ब-दिन ऐसी घटनाएँ घटित होती है जहाँ वृद्धों को अंत में विवश होकर सड़क किनारे या वृद्धाश्रम में आश्रय लेना पड़ता है। दिव्यांग व्यक्तियों के साथ भी यही होता है।

पराधीन भारत में दिव्यांग व्यक्तियों के जीवन के कष्टों को जहाँ प्रेमचन्द की उपरोक्त दोनों कहानियाँ अभिव्यक्ति प्रदान करती है वही रांगेय राघव द्वारा रचित कहानी पंच परमेश्वर जो कि प्रेमचन्द की कहानी से बिलकुल अलग और यथार्थ के धरातल पर लिखित है। इसमें न केवल दिव्यांग पात्र के मन की कुण्ठा को दर्शाया गया है बल्कि उसके खल चरित्र को भी दर्शाया गया है। हाँ ये कहानी एक ऐसे दिव्यांग चरित्र के बारे में है जो कि कहानी के क्लाईमेक्स तक आते-आते खल पात्र में बदल जाता है। कहानी दो सौतेले भाई कन्हाई और चंदा के बारे में हैं। दोनों एक ही पिता के बेटे हैं। कन्हाई की माँ को उसके पिता है छोड़ दिया था एवं अपनी भाभी से विवाह कर घर बसा लिया था। कन्हाई एक आँख से अंधा है। जब चंदा की माँ की मृत्यु हो जाती है तो दोनों भाई मिलकर उसका दाह संस्कार करते हैं। फिर कन्हाई के मन में चंदा के लिए दया जगती है। वह बहुत जतन करके चंदा का विवाह करता है। चंदा गरीब है इसलिए वह दूसरे गाँव में मिट्टी खोदने और दूसरे काम करके पैसा कमाता है। कन्हाई को पास पैसा है तथा अपनी सब्जी की दुकान भी है। साथ ही अपना गधा भी है जिसको वह किराय पर देकर पैसे कमाता है। एक दिन चंदा की पत्नी कन्हाई के घर के आंगन में नहा रही थी तभी कन्हाई वहाँ आकर उसे उस अवस्था में देख लेता है। उसके मन में चंदा की पत्नी फूलो का यौवन समा गया। जब वह फूलो को अपने घर जाते समय उसे दो ककड़ी खाने के लिए देता है तो फूलो उसे लेकर घर चली जाती है। चंदा उससे पूछने पर फूलो झूठ बोल देती है कि उसने कन्हाई की दुकान से खरीदे हैं। चंदा इस बात पर कन्हाई की आलोचना करता है। जिससे कन्हाई के मन में चंदा के प्रति द्वेष की भावना भर जाती है क्योंकि उसने चंदा की सहायता की उसका घर उसी ने ही बसा कर दिया था। वह फूलो के स्वभाव से भी दंग रह जाता है क्योंकि फूलो न तो कन्हाई को जेठ जैसा सम्मान देती थी न ही अपने पति का ध्यान रखती थी। वह केवल अपने स्वार्थ के बारे में ही सोचती थी। कन्हाई के मन में चंदा के प्रति ईर्ष्या का भाव जग चुका था और वह चंदा से बदला लेना चाहता था। वह फूलो को बहला फुसला कर अपने घर बिठा लेता है। जब चंदा शाम को मिट्टी लादने के काम से वापस घर आता है तो उसे फूलो कही दिखायी नहीं देती। वह सोचता है कि वह अपने माईके गयी हुई होगी लेकिन फूलो उसे वहा भी नहीं मिलती। वह दो दिन तक फूलो की खोज-खबर करता है। मगर जब उसे पड़ोसी से पता चलता है कि फूलो कन्हाई के घर है तो वह उसे लेने जाता है मगर फूलो उसके साथ वापस जाने के मना कर देती है। चंदा इस बात है बहुत नाराज होता है। चंदा और कन्हाई में फूलो को लेकर लड़ाई भी हो जाती है  और वह कन्हाई को पंचायत की धमकी देता है। मगर कन्हाई पंच चौधरी को नशे की रिश्वत देकर अपने अधिकार में फैसला करा लेता है। चंदा की गरीबी, वादा खिलाफी आदि बातों से वह पंचों को अपनी तरफ करवा लेता है और चंदा पर ही फूलो पर किए तथाकथित अत्याचार के बदले जुर्माना करवा लेता है।

इस कहानी में रांगेय जी ने कन्हाई की कुण्ठा और ईर्ष्या को साफ दर्शाने की कोशिश की है। यथा –"अपमान से कन्हाई का पुरुषत्व क्षण-भर को विषधर सांप की तरह बदला लेने की स्पर्धा से भर गया. क्यों है वह आज ऐसा कि बिरादरी में लोग उसके पास पैसा रहने पर भी उसकी इज़्ज़त नहीं करते? सब उसे देखकर हंसते हैं. और यह चन्दा! जो कुल दस-बारह आने लाता है, उसी में गिरस्ती चलाता है, उसको न्यौता भी है, बुलावा भी है, उसके गीत भी हैं...XXXXXक्योंकि वह बिजार नहीं है. उसके घर है, उसकी बात है, एक गिरस्त की बात, जिसमें दुनियादारी की समझ है. उसका कोई था ही नहीं जो उसका ब्याह कराता. जैसे वह तो आदमी ही न था. तभी भी सब अपने-अपने में लगे थे, आज भी वही.6 वही आगे कन्हाई हारकर लेट गया. किंतु वह क्यों अकेला रहे? चंदा को ऐसे सुख से रहने का ऐसा क्या हक है? जन्म हुआ तब से उसे कभी सुख-चैन न मिला. वह दूसरों के लिए कर-करके मरता गया और लोग-बाग अपना-अपना घर भरते गए. किसी ने यह भी नहीं पूछा कि भैया कन्हाई, तेरे भी कुछ सुख-दुख हैं? कोई नहीं. सब अपने-अपने मतलब के.7 यहाँ  कहानी में व्यक्त इन बातों स्पष्ट हो जाता है कि कैसे समाज में लोग एक-दूसरे का व्यवहार करते हैं। कैसे समाज तय करता है कि किस व्यक्ति के लिए क्या करना है जिससे लाभ हो। लाभ मिल जाने के बाद उस व्यक्ति को छोड़ दो, उसके सुख-दुख या आवश्यकताओं से जैसे समाज का कोई लेना देना ही नहीं है। कन्हाई के पास पैसा है। तो लोगों ने उसका भरपूर फैयदा उठाया। यहाँ तक कि चंदा ने भी उसका फायदा उठाया। जिस चंदा की उसने इतनी बड़ी विपत्ति में साथ दिया। उसका घर बसा कर दिया। मगर वही चंदा फूलो के झूठ पर विश्वास करके अपने बड़े भाई की आलोचना एवं उसके एक आँख खराब होने को लेकर ताना देता है। कन्हाई की यही कुण्ठा उसे अपने छोटे भाई की पत्नी के साथ, जिसे वह अपनी बहन, बेटी या बहू के रूप में देखना चाहिए था उसके साथ घर बसाने एवं चंदा से बदला लेने को विवश कर देता है। कहानी के अंत में आकर उसका खल चरित्र दिखने लगता है जब वह पंचायत के सामने चंदा द्वारा फूलो के पिता को किया वादा कि वह फूलो को जेवर देगा, मगर पूरा न हो सका। वह चंदा द्वारा फूलो पर किए गए अत्याचार एवं उसकी गरीबी, फूलो को भरपेट भोजन न दे पाने की असमर्थता आदि की बात कहके उलटे चंदा पर ही जुर्माना करवा देता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सभी दिव्यांग व्यक्ति लाचार या समाज की दया पर नहीं जीते। जिनके पास सामर्थ्य है वह अपने लिए कुछ भी कर सकता है। वही रांगेय जी ने यह दर्शाने की कोशिश की है कि समय के साथ व्यक्ति चरित्र में परिवर्तन आना स्वाभाविक है फिर चाहे वह कैसा भी हो। इतिहास भी गवाह है कि कैसे अंधे धृतराष्ट्र एवं अपंग शकुनी की स्वार्थपरता एवं कुशाग्र बुद्धि क्रमशः महाभारत के युद्ध का कारण बनती है। फिर तो ये साधारण ग्रामीण कन्हाई है।

अब आते है अज्ञेय कृत खितीन बाबू कहानी पर। ये कहानी एक ऐसे दिव्यांग व्यक्ति की कहानी है जिसके जीवन में बार-बार दुर्घनाग्रस्त होना एवं अपना एक-एक अंग खोते जाने पर भी जिंदादिली से जीना और हंसते-मुस्कुराते हुए दूसरों को प्रेरणा देती है। अज्ञेय जी ने यह कहानी सच्ची घटना पर लिखी है। जब उनकी पहली भेंट खितीन बाबू से उनके एक मित्र के वहाँ हुई तब खितीन बाबू की एक आँख नहीं थी और एक हाथ नहीं था। उसके बाद कई महीनों बाद वे खितीन बाबू से मिले। तो पता चला कि उनका एक पैर भी कटवाना पड़ा है। रेलगाड़ी से हुई दुर्घटना के कारण उनका एक पैर कट गया। अज्ञेय जी जब उनसे मिलते हैं तो खितीन बाबू हंसते हुए उनसे मिलते हैं। तब वे अज्ञेय जी को बताते हैं कि कैसे उन्होंने अपनी टांसिल तथा एपेंडिक्स भी कटवा लिए थे। इसके बाद फिर कई दिनों बाद वे दुबारा मिलते हैं तो खितीन बाबू की दूसरी बाँह भी कटी हुई थी। वे रिक्शे से गिर गये थे और कोहनी टूट गयी थी। घाव दूषित हो जाने के कारण दूसरा हाथ भी गंवाना पड़ा। वे काफी दिनों तक हस्पताल में पड़े रहे। किसी प्रकार वे बच गए थे। परन्तु खितीन बाबू में जोश की कोई कमी नहीं थी। बल्कि वे अपने मित्र की पत्नी से खाना बनवा रहे थे जिसका सारा तरीका वे बताए जा रहे थे। क्योंकि वे पाकविद्या के आचार्य थे। अज्ञेय जी को वह वहाँ भोजन-विलासी और शय्या-विलासी की कहानी भी सुनाते हैं। इसके बाद दुबारा मिलने पर खितीन बाबू की दूसरी टाँग भी कटी हुई थी। मगर खितीन बाबू अज्ञेय जी से मिलते ही बोल पड़ते हैं कि बचे रहने के लिए ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। फिर पाँचवी बार भी उनके साथ एक सड़क दुर्घटना में शरीर घायल हो जाता है। जो मोटर-ठेला उनसे टकराता है वह उनकी बाँह के ठूठ के ऊपर से चला जाता है। इस कारण उनका कन्धा भी शरीर से निकालना पड़ता है। मगर खितीन बाबू ये जान पाते हैं कि इसके बिना भी जिया जा सकता है। अपने शरीर के एक-एक अंग के इस प्रकार दुर्घटनाग्रस्त होकर चले जाने पर भी उनकी आत्मा की चमक उनके शरीर से गायब नहीं होती थी। परन्तु अंतिम बार की दुर्घटना में वे ज्यादा दिन तक नहीं बच सके। शरीर में विष फैल जाने के कारण उनकी मृत्यु हो जाती है। परन्तु वे हर बार दुर्घटनाओं से जिंदा बच आने के कारण अतीव उत्साह में रहते थे। यही कारण है कि अज्ञेय जी ने उनकी इस सच्ची घटना को कहानी का रूप देकर दर्शकों के सामने यह आदर्श रखने की चेष्टा की कि व्यक्ति का शरीर भले ही कष्ट पा जाता है। परन्तु जब तक आत्मा कष्ट नहीं पाती है व्यक्ति जीवन में सुखी रह सकता है तथा और को भी सुख से जीने की प्रेरणा दे सकता है। इस कहानी में अज्ञेय जी ने खितीन बाबू के जीवन्त व्यक्तित्व को कुछ इस प्रकार से दर्शाया है –"मैं अवाक् उन्हें देखता रहा। पर उनकी हँसी, सच्ची हँसी थी, और उनकी आँखों में जीवन का जो आनन्द चमक रहा था, उसमें कहीं अधूरेपन की पंगुता की झाई नहीं थी। उन्होंने शरीर के अवयवों के बारे में अपनी एक अद्भुत थ्योरी भी मुझे बताई थी; यह ठीक याद नहीं कि वह इसी दूसरी भेंट में या और किसी बार, लेकिन थ्योरी मुझे याद है, और उनका पूरा जीवन उसका प्रमाण रहा।8 वह थ्योरी यही थी कि अपने शरीर की पंगुता को अपने व्यक्तित्व में हावी नहीं होने देना। जो मिला है उसी में अपने आप को पूरी तरह से जीना। खितीन बाबू का पूरा जीवन इसी थ्योरी को प्रमाणित करता है। तो वही आगे वे खितीन बाबू के बारे में लिखते हैं कि –"उन्हें देखते हुए मुझे बचपन में आत्मा के सम्बन्ध में की गयी अपनी बहसें याद आ गयी। आत्मा है, तो शरीर में व्याप्त है, या किसी एक अंग में रहती है? अगर सारे शरीर में, तो, कोई अंग कट जाने पर क्या होता है? अपनी थ्योरी याद आ गयी, जिसमें इस पहेली को हल कर दिया गया था, कि जब कोई अंग कटता है, तो उसमें से आत्मा सिमट कर बाकी शरीर में आ जाती है, पंगु नहीं होती। यह थ्योरी कहाँ तक मान्य है, इस बहस में तो वैज्ञानिक पड़ें, पर उनको देखते हुए उनके बारे में जरूर इसकी सच्चाई मानो ज्वलन्त होकर सामने आ जाती थी, उनकी आत्मा न केवल पंगु नहीं थी, वरन् शरीर के अवयव जितने कम होते जाते थे, उसमें आत्मा की कान्ति मानो बढ़ती जाती थी मानो व्यर्थ से सिमट-सिमटरकर आत्मा बचे हुए शरीर में और घनी पुंजित होती जाती-सारे शरीर में भी नहीं, एक अकेली आँख में - प्रेतात्माओं से भरे हुए विशाल शून्य में निष्कम्प दिपते हुए एक आकाश-दीप के समान...9 यहाँ शरीर और आत्मा के सम्बन्ध को बताते हुए अज्ञेय जी ने खितीन बाबू के चरित्र के जरिए ये प्रमाणित किया है कि शरीर भले ही पंगु हो सकता है मगर आत्मा नहीं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि आज तक हमारे भारत में ही ऐसे कई दिव्यांग व्यक्ति है जिन्होंने अपने शरीर की पंगुता को अपने जीवन में हावी होने नहीं दिया। यहाँ तक की उन्होंने अपनी इस कमी के बावजूद भी विश्व में देश का नाम ऊँचा किया है। जैसे 2021 की पैराओलिम्पिक चैम्पियन में अवनी लेखरा का नाम लिया जा सकता है जिनके दोनों पैर तथा शरीर का निचला हिस्सा एक दुर्घटना में पैरालाइस्ड हो जाता है।

इसी प्रकार हम एक और कहानी ले सकते हैं मालती जोशी की प्रतिदान ये कहानी हमें यथार्थ के धरातल पर ले जाकर समाज की ऐसी कड़वी सच्चाई को उजागर करती है जो कि हम पाठको को आत्म मंथन करने पर विवश कर देती है। साथ ही यह भी दर्शाती है कि वर्तमान समय में टी.वी पर सिनेमा या अन्य मनोरंजक कार्यक्रमों में दिखाए जाने वाले दिव्यांग पात्रों के मुकाबले साधारण सच्चे दिव्यांग पात्रों के जीवन और रहन-सहन में कितना अंतर है। कहाँ कोरी-कल्पना और कहाँ जीता-जागता इंसान। कहानी की पात्र संध्या जिसका विवाह श्रीधर से होने वाला है। श्रीधर संध्या को अपने अपाहिज भाई के बारे में बताता है। 15 साल की आयु में एक बस दुर्घटना में उसके दोनों पैर बेकार हो गए थे। दोनों भाई के पिता नहीं थे। विधवा माँ ने ही सारे कष्ट सहन करके उन दोनों को बड़ा किया था। संध्या के मन में अपनी सास और देवर के लिए श्रद्धा जगती है। श्रीधर और संध्या का विवाह उनके ताऊजी के घर होता है। लोकाचार के बाद जब संध्या पहली बार अपने ससुराल जाती है तो वहाँ उसका जोर-शोर से स्वागत होता है। उसे पता चलता है कि उसका देवर उद्धव इस विवाह से बहुत प्रसंन्न था एवं घर की सफेदी, बंदनवार, रतजगा आदि सब उसी ने करवाए थे। जब वे लोग घर पहुंचते हैं तो दोनों भाइयों का मिलन होता है फिर संध्या उद्धव से पहली बार मिलती है। उद्धव तो बड़े प्रेम से उसका हाथ पकड़ता है मगर जैसे ही संध्या उद्धव को देखती है तो वह उसे पूरी आंतरिकता के साथ स्वीकार नहीं कर पाती है। उसके मन की बात को उद्धव न जाने कैसे समझ जाता है और संध्या का हाथ छोड़ देता है। फिर संध्या को कई दिनों तक ग्लानी महसूस होती है लेकिन वह किसी से कुछ कह नहीं पाती है। फिर वे दोनों अपने घर वापस चले जाते हैं। दुबारा संध्या और श्रीधर अपनी पहली बेटी पम्मी के जन्म होने पर उसे माँ जी को मिलवाने आते हैं। पम्मी को पाकर संध्या की सास बहुत खुश हो जाती है और वह उसे बहुत दुलार करती है। संध्या भी अपनी सास और देवर को खुश करने की कोशिश करती है। एक दिन जब संध्या स्नान करने जाती है तो उसे सुनाई देता है कि उद्धव पम्मी को गोद में लेने के लिए अपनी माँ से कह रहा है। संध्या को यह बहुत बुरा लगता है कि उसकी अनुपस्थिति में उद्धव उसकी बच्ची को प्यार करना चाहता है जैसे कि वह चोरी कर रहा हो। फिर वह किसी तरह कपड़े पहनकर आती है और उद्धव की गोद से अपना बच्चा छीन लेती है। तभी वहाँ संध्या की सास भी आ जाती है। अपने बेटे के इस अपमान को वह समझ जाती है मगर वह संध्या से कुछ नहीं कहती। उसके बाद संध्या और श्रीधर दुबारा वहाँ से चले जाते हैं। वह संध्या की घर की अंतिम यात्रा थी। संध्या को इस बार अपनी गलती का एहसास होता है, वह उनकी गलतफहमियाँ भी दूर करना चाहती थी मगर उसे स्वयं पर विश्वास ही नहीं रह गया था। संध्या उद्धव को देखना चाहती थी मगर संकोच के कारण नहीं जा पाती थी, श्रीधर का ही केवल घर आना-जाना होता है। यहाँ तक कि उद्धव की मृत्यु के समय में भी संध्या उसे देखने नहीं जा सकी। अंत में श्रीधर अपनी माँ को अपने शहर वाले घर लेकर आता है। संध्या को दूसरा बच्चा होने वाला था। एक शाम उसे तेज़ दर्द महसूस होता है और वह श्रीधर के साथ निर्सिंग होम चली जाती है। संध्या को खयाल आता है कि जाने से पहले वह सास को बताकर नहीं आयी है जिससे उसे ग्लानी महसूस होती है। परन्तु उसकी सास पम्मी को लेकर निर्सिंग होम पहुँच जाती है। संध्या की तकलीफ को देखकर माँ जी बहुत परेशान हो जाती है और उसका हाथ थामें रहती है। संध्या को उस वक्त अपनी माँ तथा सास दोनों के जीवन की तकलीफे जन्म देने तथा अपनी ही एक संतान को खो देने की सारी बातें याद आने लगती है। अंत में संध्या को एक बेटा पैदा होता है। संध्या अपनी सास को कहती है कि ये उसका बेटा नहीं बल्कि उद्धव का पुनर्जन्म हुआ है। इस प्रकार कहानी के अंत में प्रतिदान शब्द सार्थक होता है।

इस कहानी में मालती जोशी जी ने ये दर्शाने की चेष्टा की है कि कैसे परिवार के लोगों में जब मन में किसी प्रकार का संदेह, संकोच या घृणा का भाव उत्पन्न हो जाता है तो परिवार के लोगों को ही इससे क्षति पहुँचती है। वही अतिरिक्त काल्पनिकता भी हमारे लिए क्षतिकारक हो सकता है क्योंकि इससे हम वास्तविकता के साथ सही मायने में नहीं जुड़ पाते हैं। संध्या ने केवल सिनेमा और उपन्यास में ही दिव्यांग पात्रों को देखा और समझा था। परन्तु दोनों में वास्तविकता का लेश मात्र भी नहीं होता है। सिनेमा मनोरंजन के लिए बनाई जाती है तो उसमें दिव्यांग पात्र हो या शारीरिक रूप से सशक्त पात्र हो दोनों को ही सजा-संवारकर दिखाना लाजमी है क्योंकि वह बाज़ार में इसी के बलबूते बिकता है। वहाँ लोग सिनेमा के पात्रों के चरित्र को कम उसके बाहरी साज-सज्जा को अधिक अपनाते हैं। वही उपन्यास के दिव्यांग पात्रों को साहित्यकार सजाते। साहित्यकार की संवेदनशील, काल्पनिक और आंतरिक आँखे होती है जो दिव्यांग पात्र के बाहर के शरीर को नहीं बल्कि अंतर की आत्मा को देखते हुए दिव्यांग पात्रों की रचना करता है। अतः ऐसे में सिनेमा और उपन्यास से आम पाठकों का मन भ्रमित सा ही रहता है। एक तरफ वह सिनेमा से बाहरी आवरण को अपनाता है तथा दूसरे से वह जिस आंतरिकता को अपना रहा है वह भी बाहरी ही होता है। परन्तु वास्तविक रूप में दिव्यांग पात्र ऐसे नहीं दिखते। इसी चीज को मालती जोशी ने अपनी कहानी में बहुत स्पष्ट रूप से दर्शाया है –  मेरी कल्पना का उद्धव यह नहीं था। मेरी कल्पना का उद्ध सिनेमा और उपन्यासों का मरीज था – लाख कष्टों के बावजूद जिसके चेहरे की कांति अक्षय रहती है, वेदना और यंत्रणा जिसे और आकर्षक बना देती हैं।...मेरे सामने जो उद्धव था, वह यथार्थ का उद्धव था। किशोरावस्था में ही अपंग हो जाने के कारण वह बुझ-सा गया था। अपनी विवशता की पीड़ा और कर्मण्यता का अहसास, अभावों में पले उसके कंकालप्राय चेहरे को और भी कठोर बना गया था। हृदय से न सही, पर उसे अपनी समस्त आंतरिकता के साथ मैं ग्रहण न कर सकी। अपनी कल्पना का यह विद्रुप मुझसे सहा नहीं गाय।10 वही जब उद्धव अपनी माँ से अनुरोध करता है कि वह पम्मी को गोद में लेकर प्यार करना चाहता है तो संध्या के मन के विचार कुछ इस प्रकार दर्शाया गया है— इस बार उसके स्वर में बला की आजिजी थी। शायद तभी तो माँजी से नहीं रहा गया होगा। उसका असीम दैन्य मुझे खल गया। मुझसे छिपाकर मेरी बच्ची को देखने का प्रस्ताव ऐसा ही कुस्तित लगा, जैसे मेरी अनुपस्थिति में किसी ने मेरे जेवरों का बक्स खोल लिया हो। उसके कंकालप्राय खुरदरे हाथों द्वारा पम्मी के शरीर के सहलाए जाने की कल्पना से मैं सिहर उठी। क्या पता उसने अपने घिनौने मुख से उसे चूम भी लिया हो।...पता नहीं कौन-सी बात मेरे मन में पड़ गई कि किसी तरह बेतरतीबी से साड़ी पहन मैंने दरवाजा खोल दिया और झटपट उसकी गोद से पम्मी को उठा लिया।11  इन्हीं बातों से स्पष्ट हो जाता है कि निम्न मध्यम परिवारों में दिव्यांग व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है तथा किस प्रकार का कष्ट भी उन्हें होता है। उद्धव के साथ किये गये इस प्रकार के व्यवहार न केवल असहनीय वरन लज्जा जनक है। हाँ सब व्यक्तियों में इतनी आत्मीयता नहीं हो सकती कि वे दिव्यांग व्यक्ति के साथ अच्छा व्यवहार करे परन्तु सामने से ही उसका अपमान कर देना वास्तव में हमारे ही व्यक्तित्व की कमी को दर्शाता है।

अब आते है उमाकान्त खुबालकर द्वारा रचित कहानी एक था सुब्रतो ये एक शरारती स्कूली बच्ची की कहानी है। सुब्रतो बहुत ही शरारती बच्चा था। उसकी शरारतों के कारण न केवल स्कूल के बच्चे परेशान रहते बल्कि, टीचर, प्रिंसिपल, चपरासी तक परेशान हो जाते। उसके माता-पिता भी उसकी शरारतों से डरते थे। क्लास के सहपाठी के बैग में मरी हुई छिपकली रखना, गली के कुत्तों को पीटना, मोहल्ले की लड़कियों को भूत बनकर डराना उसका नित्य कर्म था। परन्तु वह पढ़ाई में विशेष कर गणित और विज्ञान में बहुत तेज़ था। यही कारण था कि उससे कोई कुछ नहीं कह सकता था। एक दिन घर की बिजली चली गयी थी। उसके माता-पिता बाहर पड़ोसी से बात कर रहे थे। उधर बरामदे का स्विच बोर्ड खुला हुआ था। मौका पाकर सुब्रतो ने टार्च की दो सेल खोलकर स्विच बोर्ड की दो नंगी तारों से लगा देता है। इस वजह से सुब्रतो को करंट लग जाता है और उसके दोनों हाथ स्विच बोर्ड से लग जाते हैं। बड़ी मुश्किल से उसे छुड़ाया जाता है। वह हस्पताल में भर्ती होता है। वहाँ डॉक्टर उसके माता-पिता को सूचित करते हैं कि यदि उसके दोनों हाथ काटे नहीं गए तो उसकी जान बचाना मुश्किल होगा। सुब्रतो के दोनों हाथ ऑपरेशन करके काट दिए जाते हैं। इस घटना से सुब्रतो बहुत आहत होता है। वही उसके स्कूल के सभी मित्र एवं शिक्षकगण उससे मिलने आते हैं और शुभकामनाएं देते हैं। जल्द ही सुब्रतो अपने इस दुख पर कामयाबी पा लेता है। वह अपने पैरों की उंगलियों से लिखने की कोशिश करता है और कामयाब हो जाता है। लोग सुब्रतो की इस कामयाबी से चकित हो जाते हैं और उसे देखने आते हैं। काफी लम्बे समय बाद सुब्रतो दुबारा स्कूल जाना शुरु करता है। परन्तु स्कूल में सुब्रतो के जाते ही उसकी शांत, बुझी-बुझी प्रकृति देखकर रोने लग जाते हैं। परन्तु सुब्रतो जल्द ही इस परिस्थिति को अपनी एक और शरारत से काबू कर लेता है और सबको दुबारा हंसने पर मजबूर कर देता है। उसके टीचर उसे आकर उसे प्यार से सराहते हैं। वही उसके स्कूल प्रिंसिपल भी आकर उसे देखकर हंस रहे होते हैं। सभी बच्चे प्रिंसिपल से सुब्रतो को बेस्ट ब्वॉय ऑफ द स्कूल का खिताब दिए जाने की मांग करते हैं। प्रिंसिपल सबकी बात मान लेते हैं। सुब्रतो को तब ऐसा लगता है कि जैसे उसके हजारों हाथ हैं। वह निर्णय लेता है कि जीवन में वह कुछ बनकर रहेगा। कहानी के अंत में सुब्रतो जब घर जा रहा होता है तो गली के कुत्ते उस पर भौंकते हैं मगर सुब्रतो के पैरों की हरकत देखते ही वे शांत हो जाते हैं।

इस प्रकार ये छोटी सी कहानी हमें कई संदेश दे जाती है। एक तो यह कि जीवन में कब क्या होगा किसी को पता नहीं। कौनसी दुर्घटना हमारे जीवन को तहस-नहस कर सकती है, बदल सकती है इसका अंदाज़ा कभी नहीं किया जा सकता। दूसरा अपनी परिस्थिति को स्वीकार कर लेने से उसमें जीने की भी क्षमता विकसित हो जाती है। सुब्रतो के साथ जो भयानक दुर्घटना घटी उससे वह किसी प्रकार बच गया। परन्तु वह केवल एक छोटा सा बालक है। उसके आगे का बहुत बड़ा जीवन पड़ा हुआ है। परन्तु सुब्रतो अपनी इतनी बड़ी क्षति होने पर भी उससे हार नहीं मानता है और अपने पैरों से लिखने की कोशिश करते-करते कामयाबी पा लेता हैं। कहानीकार उमाकान्त खुबालकर जी ने सुब्रतो की इस कामयाबी को बहुत ही सीधे-साधे परन्तु सीधे दिल में उतरने लायक ढंग से पेश किया है – ऑपरेशन के बाद जब उसे होश आया और उसे अपने दोनों हाथ कटने की बात मालूम हुई, तो वह फूट-फूटकर रोया। उसे देखने के लिए पूरा स्कूल ही उमड़ पड़ा। अस्पताल का कमरा गुलदस्तों, शुभकामनाओं से भर गया। अखबारों ने सुब्रतो के बारे में खूब छापा। कुछ ही महीनों में सुब्रतो तंदरुस्त हो गया। उसके हाथ कट गए थे, अब वह घर में बैठकर पैरों की अंगुलियों से लिखने की कोशिश करने लगा। आखिरकार एक दिन उसे सफलता मिल गई। पैर की अंगुलियों से लिखने का करिश्मा देखने के लिए घर पर रोजाना भीड़ लगने लगी। उसे फिर से स्कूल भेजा गया।12

            निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि इन सभी कहानीकारों ने अपने-अपने समय, काल एवं परिस्थिति के अंतर्गत अपने समाज के आस-पास दिव्यांग व्यक्तियों को देखा, उन्हें जाना, समझा, पहचाना तथा अपनी कहानी में पात्र के रूप में रखा। किसी के लिए ये पात्र नायक रूप में रहे जैसे खितीन बाबू, कन्हाई, सुब्रतो। तो किसी के लिए ये मुख्य पात्र के साथ सहायक पात्र के रूप में रहे जैसे अंधा भिखारी, बूढ़ी खाला, उद्धव। किसी को इनकी दयनीयता दिखी तो किसी में खल चरित्र। परन्तु ये अवश्य कहा जा सकता है कि सभी पात्र जीवन्त है क्योंकि वास्तविक समाज से इनका पूरा लेना-देना है। वास्तविक समाज में दिव्यांग व्यक्ति बहुत मिलते हैं। हम दिव्यांग व्यक्ति को देखकर कदाचित उनके जीवन के कष्टों की कल्पना करके कुछ देर के लिए खेद प्रकट कर लेते हैं परन्तु बहुताया उन्हें हम अनदेखा या उपेक्षा करके चले जाते हैं। परन्तु इन्हीं लोगों में से कुछ ऐसे भी होते हैं जो जीवन की कई सीख तथा प्रेरणा समाज को दे जाते हैं। वही कुछ दिव्यांग अपनी परिस्थिति एवं अपनी कुण्ठा से ग्रसित होकर समाज के सामने अपना खराब पक्ष भी रखते हैं। परन्तु इनमें से किसी को भी अनदेखा करना हमारे समाज के लिए सही नहीं है। क्योंकि समाज तभी विकसित हो सकता है जब हम सभी को विकसित होने का अवसर दे, उन्हें समझे, उनकी दुविधाओं को दूर करें, उनकी मनःस्थिति को समझे और उन्हें अपने जीवन में आगे आने में मदद करें। अन्यथा यही लोग आगे चलकर समाज के लिए बोझ या फिर मुसीबत बन सकते हैं। क्योंकि  उपेक्षा से अक्सर आक्रोश जन्म ले सकता है।

 

 

संदर्भ

1.    https://www.paris2024.org/en/the-history-of-the-paralympic-games/#:

 

2.    http://www.ccdisabilities.nic.in

3.    https://bejodjoda.com/literature/stories/kahani-patni-se-pati-by-munshi-premchand/

4.    https://www.femina.in/hindi/sahitya/kahani/story-panch-parmeshwar-by-munshi-premchand-4693.html

5.    वही.

6.    https://www.femina.in/hindi/sahitya/kahani/panch-parmeshwar-by-rangey-raghav-5017-4.html

7.    वहीं

8.    https://www.hindikahani.hindi-kavita.com/KhitinBabuAgyeya.php

9.    वहीं

10. कथा संचय(कहानी संकलन) –संपादक डॉ आशा डी. शिरोलीकर, हिन्दी विभाग, माऊंट कार्मल कॉलेज द्वारा प्रकाशित, पृ,सं –58

11.  वही. पृ.,सं.—60

12.  एक था सुब्रतो(बाल एवं किशोर कहानियाँ) – लेखक- उमाकांत खुबालकर, राजेश प्रकाशन, दिल्ली, 2019, पृ.,सं. -- 16