मेरे भीतर का इन्सान
सागर के उन लहरों सी है
जो बार-बार सपनों के साहिल से टकराती है
टकराती है क्या
बल्कि ढँढती है उस अधुरे इन्सान को
जिससे मिलकर मुझसी अधुरी इन्सान पूरी हो सके
पूरी कर सके
वह सारी अधुरी ख़्वाहिशें जो मैंने और उसने
देखे थे रात-भर अपनी-अपनी आँखों से
अपने-अपने कमरे में
मेरे भीतर का इन्सान
कभी-कभी तो उन्मत्त लहर बनकर
तट को ही नहीं बल्कि वहा खड़ी हर चीज को भीगों देती है
फिर देखने की कोशिश करती है
कि किसका वह सच्चा रूप है जो समाने लायक है
इस मन के सागर में
बार-बार वह यही करती है
ढूँढती है उसे जिसे दे सके प्यार का अंमृत जल
विश्वास और साथ का अथाह संसार
थक जाती है फिर भी वह यही करती है
बार-बार सपनों के साहिल से टकराती है.............
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