बुद्ध और नाचघर कविता हरिवंश राय बच्चन द्वारा लिखित है।
हरिवंश राय बच्चन उत्तर छायावाद काल के कवि थे। वे अपने समय के बहुत ही प्रसिद्ध
रचनाकार थे। उनकी रचना में सामाजिकता एवं जन कल्याण की भावना निहित थी। उनके
द्वारा लिखित कविता बुद्ध और नाचघर में उन्होंने बुद्ध के जीवन, दर्शन तथा
सिद्धान्त के बारे में बात की है। बुद्ध जिन्हें आधुनिक युग में एक अवतार तथा
भगवान के रूप में माना जाता है। जिनकी विचारधारा में सत्यता, त्याग तथा नश्वर
संसार के प्रति मोह माया छोड़कर ईश्वर की शरण में जाना, प्रेम आदि मुख्य है।
प्रस्तुत कविता में राजकुमार सिद्धार्थ से भगवान गौतम बुद्ध बनने की यात्रा के
बारे में बताया गया है।
कविता की शुरुआत में वे बुद्ध की शरण में जाने की बात कहते
हुए प्रारम्भ करते हैं। धर्म की शरण में, संघ की शरण में जाने की बात करते हैं।
वे आगे कहते हैं कि
हे बुद्ध भगवान जहाँ धन, वैभव, ऐश्वर्य का भंडार था। जहाँ तुम्हें पल-पल सुख
सुविधाएँ मिली हुई थी, जहाँ तुम्हारे मनोरंजन हेतु दासियाँ श्रृंगार किये रहती थी। जहाँ रूप, रस और यौवन
की सदैव सदा बहार थी। तुमने वहाँ जन्म लिया और वही पलकर बढ़े हुए, वही तुम्हारा
विकास हुआ। फिर कैसे तुममें अपने चारों ओर के संसार पर संदेह और अविश्वास जाग उठा।
अर्थात् राजकुमार सिद्धार्थ जिनका जन्म लुंबिनी नेपाल में हुआ था। वे राजा
शुद्धोधन के पुत्र थे। राजा शुद्धोधन ने राजकुमार सिद्धार्थ के लिए सभी प्रकार
की सुख सुविधा का बंदोबस्त कर रखा था। वे
बचपन से ही प्रतिभाशाली थे। उन्हें अस्त्र-शस्त्र तथा सभी प्रकार की शिक्षा-दीक्षा
मिली थी। उनका विवाह राजकुमारी यशोधरा से हुआ था। फिर अचानक एक घटना ने उनके जीवन
में परिवर्तन ला दिया जिससे वे मात्र 27 साल की आयु में अपनी पत्नी तथा नवजात शिशु
पुत्र राहुल को रातोरात त्यागकर एवं अपने राजपाट को त्यागकर वे संन्यास लेकर चले
गए।
कवि बच्चन सिद्धार्थ के जीवन में घटि उस घटना के बारे में
बताते हैं जिसने उन्हें संसार से विमुख कर दिया थे। वे कहते हैं कि अचानक एक दिन
हे बुद्ध भगवान तुमने उठा ही लिया उस सोने के घड़े का ढक्कन और पाया कि उसमें विष-रस
भरा है। अर्थात् भगवान बुद्ध जब राजकुमार थे तब उन्होंने एक दिन मनुष्य जीवन की उस यथार्थ को देखा जिससे उन्हें
समझ में आया कि यह जीवन दिखने में जितना सुन्दर है वास्तव में तो उसमें कितना विष
भरा पड़ा है। जो व्यक्ति जन्म के समय सुन्दर एवं कोमल दिखता है वही बुढ़ापे में
दुर्बल और क्षीण दिखता है। मनुष्य के शरीर के साथ-साथ उसका मन भी दुख-दर्द, विषाद,
मोह-माया, ईर्ष्या-द्वेष, काम, क्रोध से भरा रहता है। इसी कारण संसार भर में लोग
एक-दूसरे के लिए एक-दूसरे के साथ लड़ते-झगड़ते रहते हैं। जो जन्म लेता है उसकी
मृत्यु भी होती रहती है। इसलिए कवि ने मृत्युलोक के इस जीवन रूपी सोने के घड़े को
विष रस से भरा बताया है। वही वे आगे कहते हैं कि सिद्धार्थ अर्थात् बुद्ध को यह भी
पता चला की मनुष्य की जीवन जिसे दुल्हन की तरह सजाया संवारा गया है वह अंदर से एक
सड़ी गली लाश ही है। अर्थात् जैसे मनुष्य के तन का चमड़ा जिसे हम बाहर से खूब उसकी
देखभाल करते हैं, उत्तम वस्त्रों से सजाते हैं, उसे खूब सुन्दर रखने का प्रयास
करते हैं। वही चमड़ा जब हट जाता है तो अंदर केवल विभत्स मांस ही दिखायी देता है।
इसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी जिसे हम सुख-सुविधाओं और ऐश्वर्य से सजा कर रखने का
प्रयास करते हैं परन्तु वास्तव में देखा जाए तो इस जीवन में समस्याओं और संघर्ष के
अलावा कुछ नहीं है।
कवि आगे कहते हैं कि हे बुद्ध तुम यह सब देखकर अवाक् रह गए।
तुम हैरान हो गये कि क्यों इतना दुख-दर्द, इतनी पीड़ा होने के बाद भी मनुष्य ने
अपने आप को धोखे में रखा हुआ है। वह इस संसार को मोह-माया में फंस कर क्यों विष के
घूँट पीये जा रहा है जो कि बार-बार फूट-फूट कर निकल रहा है। उन्हें इस बात की हैरानी
है कि क्या मनुष्य के लिए यही सुख है यही साज है। ऐसा लगता है कि मनुष्य अपनी खाज खुजला
रहा है। अर्थात् जिस प्रकार खुजली की बिमारी में मरीज को अपनी खाज खुजाने में जिस
प्रकार का आनंद आता है उसी प्रकार मनुष्य इस संसार में लालच और मोह-माया की बिमारी
से ग्रसित होकर इतना दुख, कष्ट सहन करके भी दिखावे के लिए सुख-सुविधा जुटाने में
लगा है। उसकी अंतर्रात्मा चाहे कितनी भी दुखी हो वह लेकिन अपने इन्द्रियों के वश
में होकर वही कर रहा है जो कि उसकी इन्द्रियाँ चाहती है।
इस प्रकार जब सिद्धार्थ ने देखा कि संसार तो रोगी बना हुआ
है तो वह एक दिन घर से निकल गए और दूर देश, वनों, पर्वतों में घूमते रहे। इस संसार
को जो रोग लगा है उसका कारण जानने एवं उस रोज का चिकित्सा कैसे हो वह ढूँढने निकल
पड़ते हैं। उन्होंने बड़े-बड़े पंडितों से भी इस रोग का कारण और इलाज के बारे में
पूछा। मोटे-मोटे ग्रंथ पढ़े। उन्होंने जंगलों में तपस्या करते हुए अपना तन सुखाया,
साधना में मन को लगा दिया। फिर एक दिन उनकी साधना, उनका परिश्रम सफल हुआ, उनकी तपस्या
सफल होती है। प्रकाश का क्षण आता है और उन्हें निर्वाण प्राप्त होता है। उन्हें वह
दिव्य शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता है जिससे कि वे प्रबुद्ध हो जाते हैं।
कवि आगे कहते हैं कि जब सिद्धार्थ ज्ञान प्राप्त करने के
बाद बुद्ध बन जाते हैं तो वह संसार भर को उस रोग से दूर रखने के लिए एवं संसार के
दुख, कष्ट को दूर करने के लिए जगह-जगह उपदेश देना शुरु करते हैं। वे व्याख्यान
देना शुरु करते हैं। लोगों में उनके दिव्य सन्यासी वेश तथा उनकी ज्ञानवर्धक बातें
सुनकर लोग उन्हें घेरने लगते हैं। कवि कहते हैं कि इस संसार में व्यक्ति सदैव नहीं
बात सुनने को तत्पर रहता है। फिर चाहे वह किसी शैतान के मुख से निकली हो या भगवान
के मुख से। फिर बुद्ध तो अब ज्ञान प्राप्त करने के बाद लोगों की दृष्टि में भगवान
बन चुके थे।
कवि अंत में कहते हैं कि यह जीवन तो एक चुभते हुए तीर के समान
है। जो जब भी किसी शरीर को लगता है तो मन उस पीड़ा से छटपटाने लगता है, शरीर में
पीड़ा होती है और अंग-अंग तड़फड़ाने लगता है। यही असल सच्चाई है और क्या इसे सिद्ध
करने की जरूरत है? बुद्ध जब है
तो वह लोगों को इस कष्ट से दूर कर देंगे।
Well written
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