ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो।
किसने कहा, युद्ध की वेला गई, शान्ति से बोलो।
किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्नि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुसुम से, कुंकुम से, केशर से?
कुंकुम लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।
प्रसंग:- उन्होंने यह कविता देश की जनता में सोई हुई आत्मसम्मान और वीरता की भावना
को जाग्रत करने के उद्देश्य से लिखी है। उक्त पंक्तियों में दिनकर जी लोगों से कह
रहे हैं कि जब हिन्दुस्थान की जनता भूख से तड़प रही है तो हमें किसी प्रकार के उत्सव
नहीं मनाना चाहिए न ही शान्ति से बैठे रहना चाहिए।
व्याख्या :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि प्रश्न के
माध्यम से लोगों से पूछ रहे हैं कि किसने कहा कि धनुष की डोरी ढीली कर दो और तरकस
का कस खोल देने के लिए? किसने कहा कि युद्ध की बेला चली गयी और
अब शान्ति की बेला है तो शान्ति से ही बातचीत करनी चाहिए? हे
हिन्दुस्थान के लोगों किसने तुमसे कह दिया कि शत्रुओं के हृदय को अग्नि वाण से मत चीरों।
वस्तुतः इन प्रश्नों के माध्यम से कवि यह जताना चाहते हैं कि भले ही भारत
अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हो चुका है, भले ही संसार भर में द्वितीय विश्व युद्ध
भी शान्त हो चुका है लेकिन भारत के लिए तो युद्ध अभी शान्त नहीं हुआ है क्योंकि
अभी भी भारत गरीबी, भूखमरी तथा आर्थिक तंगी से गुजर रहा है। वर्षों से भारत को लूटे
जाने के कारण उसकी आज यह दुर्दशा हुई है।
वे आगे भी प्रश्न ही करते हुए पूछ रहे हैं कि किसने कहा कि तुम अपने राज
भवन को फूलें से, कुंकुम तथा केशर से सजाओं? किसके माथे पर
कुंकुम लेपू और किसको कोमल संगीत सुनाऊ जबकि आँखों के आगे तो भूखा हिन्दुस्थान
तड़प रहा है। हम इस बात को बंगाल के अकाल से भी जोड़ सकते हैं तथा भारत में हरित
क्रान्ति से पहले की दशा से भी जोड़ सकते हैं। क्योंकि जब तक भारत की सारी जनता भर
पेट भोजन पाने के लायक न हो जाय कवि को नहीं लगता कि उसे किसी प्रकार का उत्सव से
या शान्ति पर्व मनाने की आवश्यकता है।
विशेष :- वास्तव में कवि दिनकर भारत के लोगों को याद
दिलाना चाहते हैं कि भारत प्राचीन काल में सोने की चिड़िया कहलाता था। लेकिन
मुगलों, तुर्कों तथा अंग्रेजों के शासन काल में हुई लूट के कारण उसकी क्या दुर्दशा
हो चुकी है। वही देश के नेता गण भी भारत की आजादी के बाद से अपनी राजनैतिक रोटी ही
सेकने में व्यस्त है जबकि देश की जनता त्रस्त हो रही है।
फूलों की रंगीन
लहर पर ओ उतारने वाले।
ओर रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है।
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अँधियाला है।
मखमल के परदों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा आज भी मरघट सा संसार ।
संदर्भ:- प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक कवितांजलि से ली गयी है।
इस कविता के रचैता कवि रामधारी सिंह दिनकर जी है।
व्याख्या :- कवि दिनकर जी कहते हैं कि हे दिल्लीवालों फूलों
से भरे रंगीन रास्तों पर चलने वालों, रेशमी नगर के वासियों, छवि के मतवालों क्या
तुम्हें पता नहीं कि पूरे देश की जनता दुख और संताप, भूखमरी, आर्थित तंगी आदि का
विष पी कर जीवन गुजार रही है?
क्या तुम्हें स्पष्ट रूप से दिख नहीं रहा कि दिल्ली में मौज मस्ती है, चकाचौंध भरी
रोशनी है, लेकिन पूरे देश में अंधेरा ही अंधेरा छाया हुआ है?
तुम्हारे मखमल के परदों के बाहर, खुशबुदार फूलों के बागीचे के उस पार पूरे देश में
आज भी मरघट अर्थात् श्मशान जैसी बदबू तथा उदासी छायी हुई है। अर्थात् जब देश आजाद
हुआ उस वक्त देश के सारे राजनेता तथा दिल्ली वासी तो दिल्ली की चकाचौंध को ही देश
की उन्नति समझे बैठे थे। वही पूरे भारत में बिजली, पानी, अन्न तथा रहने के लिए
साधारण घर इत्यादि किसी भी चीज की व्यवस्था नहीं थी। लोग तरह-तरह के दुख से दुखी
एवं त्रस्त थे परन्तु इस बात का थोड़ा सा भी अंदाजा दिल्ली वालों के नहीं था या
फिर वे जानबूझ कर अनजान बने हुए थे।
वह संसार जहाँ पर पहुँची अब तक नहीं किरण है,
जहाँ क्षितिज है शून्य अभी तक अंबर तिमिर वरण है
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्तःस्थल हिलता है
माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है
पूछ रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज
सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज?
प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियों कवि कह रहे हैं कि देश को आजाद हुए सात साल हो चुके
हैं लेकिन अभी भी देश की हालत वैसी की वैसी ही है। जिस स्वराज की आशा की थी वह अभी
तक आया ही नहीं है।
व्याख्या :- कवि कहते है कि वह संसार जहाँ पर अभी तक स्वराज
की किरण नहीं पहुँची है अर्थात् दिल्ली के अलावा पूरे देश में, ग्रामीण क्षेत्रों,
छोटे शहरों कही पर भी स्वराज की किरण नहीं पहुँची है। वहाँ अभी भी क्षितिज शून्य
पर है तथा वहाँ का आसमान अभी तक अंधेरे से भरा हुआ है। वहाँ का दृश्य आज भी देख कर
कवि का अन्तःस्थल अर्थात् मन का भीतरी हिस्सा भी हिल जाता है। क्योंकि आज भी उन
अंधेरे स्थानों पर रह रहे लोगों की दुर्दशा कुछ ऐसी है कि उसे बताया ही नहीं जा
सकता । माँ को अपना तन ढकने के लिए कपड़े तथा शिशु के पीने के लिए माँ का दूध तक
नहीं मिल पाता है। भूखे शिशु के देखकर कवि का हृदय द्रवित हो जाता है। कवि उन तमाम
जनता के माध्यम से पूछ रहे हैं कि अकाज अर्थात् सरकारी काम-काज न होते हुए देखकर
सभी जनता चकित हो कर पूछ रही है कि सात वर्ष हो गए भारत को आजाद हुए, जिस स्वराज का
सपना दिखाकर उन्हें आजादी की लड़ाई में शामिल किया गया आज वह स्वराज कहा अटक गया
है। आज तक वह स्वराज क्यों नहीं आया है?
विशेष :- कवि ने दिल्ली में बैठे नेताओं के आलस, ढीली राजनीति तथा सरकारी काम-काम में हो रही लापरवाही तथा देरी पर प्रश्न उठाया है।
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