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रविवार, 1 सितंबर 2024

B.com 3rd Sem रामायतन Part 2

 राम सरूप तुम्हार वचन अगोचर बुद्धिपर।

अविगत अकथ अपार नेति-नेति निगम कह।।

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में श्रीराम के असल स्वरूप के बारे में मुनि कह रहे हैं कि उन्हें वेद भी अच्छी तरह से नहीं जान पाते हैं क्योंकि वे परम परमेश्वर है जिनका स्वरूप अव्यक्त है।

व्याख्या :- मुनि वाल्मीकि कहते हैं कि हे राम! आपका स्वरूप वाणी के अगोचर, बुद्धि से परे अव्यक्त, अकथनीय और अपार है। अर्थात् श्री राम आप परम पिता परमेश्वर हैं। आपका स्वरूप इतना विराट और भव्य है कि उसे वाणी द्वारा बांधा नहीं जा सकता। ब्रह्माण्ड जितना विशाल स्वरूप है। श्री राम के स्वरूप को बुद्धि भी सही ढंग से व्यक्त नहीं कर सकती। क्योंकि वे ही संपूर्ण ब्रह्माण्ड है, वे ही समस्त संसार है और स्वयं ही उसके निर्माता भी है। इसलिए श्री राम का स्वरूप अकथनीय (बोलकर समझाने लायक नहीं है) है और अपार (जिसका कोई पार या किनारा न हो) है। वेदों में भी आपके बारे में लिखते हुए बार-बार नेति-नेति (नहीं जानते या जाना जा सकता है) कहकर वर्णन किया गया है।

विशेष:- वास्तव में ये संपूर्ण ब्रह्माण्ड बहुत विशाल और विराट है। इसको चलाने वाले ईश्वर का स्वरूप तो इससे भी बड़ा और विशाल है। मनुष्य स्वयं अपनी आँखों से आकाश का एक टुकड़ा मात्र ही देख सकता है तो फिर स्वयं ईश्वर एक साधारण मनुष्य के नेत्रों में कैसे पूरे समा सकते हैं। इसी प्रकार श्री राम ईश्वर है तो उनके स्वरूप को कह देना किसी के लिए भी असंभव  ही है।

जगु पेख तुम्ह देखनिहारे। विधि हरि संभु नचावनिहारे।।

तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरू तुम्हहि को जाननिहारा।।

सोइ जानई जेहि देहु जनाई। जानक तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई।

तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहि भगत भगत उर चंदन।।

चिदानंदमय देह तुम्हारी। विगत विकार जान अधिकारी।।

नर तनु धरेहु संत सुर काजा। कहहु करहु जस प्राकृत राजा

प्रसंग :- प्रस्तुत प्रसंग में मुनि वाल्मीकि जी श्री राम से कह रहे हैं कि आपको त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शंकर भी पूजते हैं और आप उनको नचाने वाले हैं। इन पंक्तियों में मुनिजन श्री राम की महिमा का वर्णन कर रहे हैं।

व्याख्या :- वे कहते हैं कि हे राम! यह जगत् दृश्य है और आप उसको देखने वाले हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को भी नचाने वाले हैं। जब वे भी आपके मर्म को नहीं जानते, तब और कौन आपको जानने वाला है? वही आपको जानता है जिसे आप स्वयं अपने बारे में जा देते है अर्थात् अपने बारे में बता देते हैं।  और जो आपको एक बार जान जाता है वह जानते ही आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनंदन! हे भक्तों के हृदय को शीतल करने वाले चंदन! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं। आपकी देह चिदानन्दमय है। अर्थात् इस प्रकृति में मौजूद पंच महाभूतों द्वारा बनी हुई बंधनयुक्त और (उत्पत्ति-नाश, वृद्धि-क्षय) आदि जैसे विकारों से युक्त देह नहीं है। बल्कि आपकी देह दिव्य और बंधन एवं विकारों से मुक्त है। आपने देवता और संतों के कार्य के लिए दिव्य नर शरीर धारण किया है और प्राकृत(प्रकृति के तत्वों से निर्मित देह वाले साधारण) राजाओं की तरह से कहते और करते हैं। अर्थात् असाधारण होकर भी साधारण की भांति कार्य कर रहे हैं।

विशेष :- वास्तव में श्री राम के उपरोक्त गुणों से यह विधित होता है कि वे ईश्वर होकर भी धरती पर अवतरित होकर मर्यादा का पालन करते हुए लोक कल्याण हेतु काम कर रहे हैं। इसके लिए उन्होंने स्वयं ही प्रकृति एवं समाज के मर्यादा के अनुकूल होकर वे काम कर रहे हैं। वे असल में मानव समाज को यह शिक्षा देना चाहते हैं कि मनुष्य को सदैव प्रकृति और समाज की मर्यादा का पालन करना चाहिए।

राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे।।

तुम्ह जो कहहु करहु सबु साँचा।। जस काछिअ तस चाहिअ नाचा।।

पूँछहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ। जहँ न होह तहँ देह कहि तुम्हहिं देखावौं ठाउँ।।

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में राम के चरित्र के बारे में बताया जा रहा है। वही राम को परोक्ष रूप में घट-घट वासी भी बताया जा रहा है।

व्याख्या :-  हे राम! आपके चरित्रों को देख और सुनकर मूर्ख लोग तो मोह को प्राप्त होते हैं और ज्ञानीजन सुखी होते हैं। आप जो कुछ कहते, करते हैं, वह सब सत्य (उचित) ही है, क्योंकि जैसा स्वाँग भरे वैसा ही नाचना भी तो चाहिए अर्थात् इस समय आप मानव अवतार में हैं, अतः मनुष्योचित व्यवहार करना ही ठीक है। आगे मुनि श्री राम से कहते हैं कि हे राम आपने मुझसे पूछा कि मैं कहा रहूँ? परन्तु मैं यह पूछते सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हो, वह स्थान बता दीजिए। तब मैं आपके रहने के लिए स्थान दिखाऊँ। अर्थात् श्री राम इस समय मानव अवतार में हैं और मुनि वाल्मीकि से अपने रहने का स्थान पूछ रहे हैं। वही वाल्मीकि जी कहते हैं कि आप मुझसे पूछ रहे हैं कि आप कहा रहे बल्कि आप ही मुझे बताइए कि आप कहा नहीं है। अर्थात् हे राम आप तो संसार के हर कण-कण में वास करते हैं। फिर आप ही बता दीजिए कि जहाँ आप नहीं रहते हैं तो मैं आपसे कहूँगा कि आपको कहा रहना चाहिए।


काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।

जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया।।

सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी।।

कहहिं सत्य प्रिय वचन विचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी।।

तुम्हहिं छांड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहुं तिन्ह के मन माहीं।।


प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में मुनि वाल्मीकि श्री राम को रहने के लिए उचित स्थान के बारे में बता रहे हैं।

व्याख्या :- वे कहते हैं कि हे राम जिनके मन में  काम, क्रोध, मोह, मद, अभिमान जैसे छः शत्रु नहीं है, न ही लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है, न कपट या दंभ या माया है आप ऐसे विकार रहित पवित्र व्यक्ति के हृदय में निवास कीजिए। अर्थात् श्री राम ऐसे व्यक्ति के हृदय में ही रह सकते हैं जो कि इन सांसारिक विकारों और विचारों से मुक्त रहता हो जिसका हृदय पवित्र हो। क्योंकि काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या -द्वेष आदि से भरे हृदय में भक्ति और प्रेम कभी नहीं उत्पन्न हो सकता है और जहांँ भक्ति और प्रेम न हो वहाँ भगवान कभी भी वास नहीं करते हैं। वे आगे कहते हैं कि जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले लोग हैं, जिन्हें दुख और सुख तथा प्रशंसा और गाली समान है, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते-सोते आपकी ही शरण में रहते हैं आप उनके यहाँ रहिए। अर्थात् अच्छे व्यक्ति जो हर प्रकार के बंधनों से मुक्त होकर दूसरों का भला करते हैं तथा दूसरों के हित का ही सोचते हैं ऐसे व्यक्ति के पास ईश्वर हमेशा साथ रहते हैं। मुनि वाल्मीकि कहते हैं कि हे राम आप ऐसे व्यक्ति के मन में ही वास करें जो आपको छोड़कर जिसके पास दूसरा कोई गति या आश्रय नहीं है। क्योंकि ऐसे व्यक्ति आपका मर्म अच्छी तरह से जानता है। वह आपको कभी भी नहीं त्यागेगा। सदा आपको अपने मन में धारण किये ही रहेगा।


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