कवि आगे कहते हैं कि जब भी वे देश के अत्याचारी भ्रष्टाचारी शासन व्यवस्था तथा राशन में मिलने वाले सस्ते और घटिया किस्म के आटे-चावल आदी की बात करते हैं तो लोग उन्हें रोक देते हैं। वे लोगों को जागरुक करना चाहते हैं तो उन्हें रोका जाता है। अक्सर लोग उन्हें अपराध के असली कारण भूख और बेरोजगारी पर चर्चा करने या आवाज़ उठाने से मना कर देते हैं। कवि के अनुसार देश में अब जंगल राज फैल चुका है।देश की जनता का आधा शरीर इस जंगल राज में घूम रहे भ्रष्ट शासन व्यवस्था के भेड़ियों ने खा लिया है। यहाँ भेड़िया भ्रष्ट नेता तथा जनप्रतिनिधि है जिसे जनता ने कभी विश्वास के साथ चुना था। लेकिन जनता भी खूब है वह इस जंगल राज में सुखी नहीं है फिर भी वे इस जंगल की तथा जंगल राज की सराहना कर रहे हैं। वे कहते हैं कि भारतवर्ष नदियों का देश हैं। नदियों पर भी तो राजनीति हो रही हैं। तत्कालीन भ्रष्ट नेताओं ने नदियों के पानी पर भी राजनीति करने से नहीं चूके और देश की जनता विशेषकर किसानों को जो कि नदियों के पानी पर ही निर्भर रहते थे उन्हें भी इसके लिए तरसा दिया। कवि कहते हैं कि बेशक यही खयाल देश की जनता के लिए हत्यारी साबित हुई की भारत नदियों का देश है। क्योंकि उन्हें तो पानी ने ही मारा है। अर्थात् या तो अतिरिक्त वर्षा के कारण नदियों का पानी खतरनाक तरीके से गाँव में घुस आता था या फिर नदियों पर बने बाँध को शहर को बचाने के लिए गाँवों की तरफ खोल दिया जाता था या फिर बाँध बनाकर नदियों का पानी जो कि गाँवों की तरफ बहता था उसे रोक दिया जाता था। जो भी होता था इससे ग्रामीण निवासियों को ही कष्ट होता था।
कवि का कहना है कि लोग असलियत नहीं समझते हैं। मुफ्त में जो
अनाज गरीबों को दिया जा रहा है उसके पीछे राजनेताओं की चालाकी और अलसी नीयत को नहीं
समझते हैं। यह अनाज यू ही मुफ्त में नहीं दिया जा रहा है। बल्कि इसी अनाज ने वे
राजनेता अपनी खुराक वसूल रहे हैं। वे इसी के दम पर लोगों को धर्म तथा जाति के आधार
पर बाँट कर हिन्दु-मुस्लिम की राजनीति करने में लगे हुए है। देश की जनता को दोनों
तरीके से बेवकूफ बनाकर राजनेता गण अपना काम निकाल रहे हैं। कवि जानते हैं कि यह सब
कुछ कैसे होता है। वे लोगों को समझाने की कोशिश करते हैं कि वह कौन सा प्रजातांत्रिक
नुस्खा है जिसे अपनाकर ये नेता लोग अपना काम निकाल रहे हैं। वे नारी सौन्दर्य को
यहाँ उदाहरण के रूप में बता रहे हैं कि जिस उम्र में उनकी माँ के चेहरे पर
झुर्रियाँ है उसी उम्र की पड़ोसी महिला के चेहरे पर उनके प्रेमिका के चेहरे का सा
लोच है। अर्थात् यहाँ समाज में रह रहे लोगों के बीच एक बहुत बड़ी असमानता की बात
कर रहे हैं। लोगों की गरीबी, कुपोषण, बिमारी, बेरोजगारी, भूख इत्यादि के कारण उनके
शरीर अब दुर्बल से हो चुके हैं। वही राजनेता लोग भ्रष्ट लोगों के पास सबकुछ है
जिससे कि उनके शरीर सबल है। साथ-ही-साथ कवि यहाँ इस ओर भी इशारा करते हैं कि भ्रष्ट राजनेताओं के कारण हमारा देश
जवानी में ही बूढ़ा हो चुका है। देश के भ्रष्ट नेताओं ने अपने देश को छोड़ कर पड़ोसी
दुश्मन मुल्कों की फ़िक्र अधिक की तथा उन्हें ही लाभ-पर-लाभ पहुँचाने में लगे रहे और
वे दुश्मन पड़ोसी मुल्क ताकवर होते गए। यहाँ अपने भारत देश की जनता भूख और
बेरोजगारी के साथ-साथ अपराध का दंश वहन कर रही है जिसके कारण देश आगे नहीं बढ़ पा
रहा था। कवि देखते हैं कि जनता चुपचाप सुन रही है सबकुछ। उनकी आँखों में विरक्ति
है, पछतावा है तथा संकोच भी है। मगर ये जनता कुछ कर नहीं सकती क्योंकि उन्हें लगता
है कि शासन ने उन्हें अपने से अलग कर दिया है। साथ ही साथ उन्हें जाति, धर्म तथा
भाषा आदि के नाम पर भी अलग-अलग करके बाँट दिया है इसी कारण उनमें अलगाव बोध जन्मा
है। अपने इसी बोध के कारण वे तटस्थ चुपचाप सबकुछ देखे जा रही है और पछता रही है यही
सोचकर कि उन्हें आजाद देश का सपना क्यों देखा। देश तो आजाद हुआ लेकिन उसके तीन
हिस्से हो गए। कितने असंख्य लोग मरे तथा कितनों ने अपने सम्पूर्ण परिवार को ही खो
दिया है। अपनी बदतर हालत को जानते हुए भी वे अपने अधिकारों की बात करने से डरते
हैं संकोच करते हैं।
कवि अंत
में यह कहते हैं कि मैं सोचता हूँ कि हमारे देश में एकता की भावना केवल भावना
मात्र है उसे तो अलियत में केवल तब ही प्रयोग किया जाता है जब देश पर युद्ध तथा
अकाल जैसी विपत्ती पड़ जाती है। अन्यथा देश की जनता सदैव एकजुट रहेगी तो भ्रष्ट
राजनेताओं का काम कैसे चलेगा। वे कहते हैं कि क्रान्ति नामक शब्द भी एक छोटी बच्चे
के हाथ का खिलौना है। जब चाहे देश के असहाय, गरीब, निराश लोगों को के हाथ में देकर
उसका खेल करा दो ताकि देखने वाले को लगे कि देश की जनता क्रान्ति कर रही है। जबकि
भ्रष्ट नेता गण लोगों के साथ एकता और क्रान्ति के नाम पर खेल खेल रहे हैं।
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