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रविवार, 15 सितंबर 2024

अकाल दर्शन -- सुदामा पाण्डेय धूमिल कविता सारांश Part-1

 विस्तृत सारांश

 

सुदामा पाण्डेय धूमिल जी क्रान्तिकारी स्वभाव के व्यक्ति रहे हैं। उन्होंने अपने जीवन में बहुत संघर्ष किया है।  उत्तर प्रदेश के बनारस के एक गाँव खेवली में एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे धूमिल ने काफी कम उम्र में ही जीवन के कई प्रकार के संघर्षों का सामना किया है। उन्होंने किसानी तथा मजदूरी दोनों की है अतः उन्हें समाज में फैली भूख तथा गरीबी का वास्तविक अनुभव रहा है। अपने कड़े परिश्रम से वे लोहा ढोने के मजदूरी के काम से लेकर वे आई.आई.टी—वाराणसी में सरकारी नौकरी तक प्राप्त करते हैं। कई पारिवारिक कठिनाइयों तथा कई मुकदमों के कारण वे परेशान भी रहे। दरअसल धूमिल जी स्वतंत्र भारत के क्रुद्ध पीढ़ी के मोहभंग कवियों में से हैं। देश में फैली गरीबी और अराजकता के बीच राजनेताओं की चालाकियों पर वे अपनी कविताओं के माध्यम से कड़ा व्यंग्यात्मक प्रहार करते हैं।

प्रस्तुत कविता अकाल दर्शन में भी वे देश के निम्न मध्यमवर्ग परिवारों में गरीबी तथा भूखमरी, बेरोजगारी तथा लोगों का सबकुछ जानते समझते हुए भी भ्रष्ट नेताओं का साथ देने पर वे व्यंग्य कसते है। इस कविता की शुरुआत प्रश्नात्मक शैली में होती है। जिसमें वे पूछते हैं कि भूख कौन उपजाता है? अर्थात् किसके कारण भूख की उपज होती है समाज में। वह क्या कोई इरादा है किसी का जो तरह-तरह के बहाने बनाता है जैसे अनाज का कम पैदावार होना या फिर गोदाम में रखे अनाज में कीड़े लग जाने पर सड़ जाना या खराब हो जाना। या फिर जमाखोरी करने वाले उन व्यापारियों का जो कि अधिक लाभ कमाने के लिए ऐसा करते होंगे? वस्तुतः ये सब कुछ जो हो रहा होता है समाज में इसकी खबर शासकों के पास होती है। लेकिन वे जानते हुए भी अनजान बने रहने का ढोंग करते हैं। धूमिल उसी शासन व्यवस्था से प्रश्न करते हैं कि शासन गरीबी, भूखमरी तथा बेरोजगारी से परेशान लोगों के प्रति घृणा की भावना मन में भर कर अपनी आँखों में पट्टी क्यों बाँधे हुए है तथा इन लोगों के तुच्छ समझ कर घास-फूस के बाजार में छोड़ दिया है ताकि वे अनाज के बदले घास खाकर जिंदा रहे जैसे पशु रहते हैं।

वे शासन व्यवस्था की एक चालाक आदमी के रूप में सम्बोधित करते हुए प्रश्न कर रहे हैं जिस पर वह चालाक आदमी कोई उत्तर नहीं देता है। बल्कि वह गलियों तथा सड़कों पर, घरों में बाढ़ की तरह फैले बच्चों की तरफ इशारा करता है। अर्थात् देश की बढ़ती जनसंख्या की ओर इशारा करता है और व्यंग्यात्मक रूप से हंसने लगता है। क्योंकि जिस समय हमारे देश में भूखमरी की स्थिति पैदा हो गयी थी उन दिनों लोगों के घरों में अधिक बच्चे भी पैदा हो रहे थे। अधिक बच्चे पैदा होने से लोगों पर आर्थिक दबाव भी पड़ता था जिस कारण वे अपने परिवार का सही रूप से पालन पोषण नहीं कर पाते थे। वही बच्चों को अधिक भूख भी लगती है। यही कारण है कि शासन व्यवस्था का प्रतीक वह चालाक आदमी कवि को इस ओर इशारा करता है। तब कवि उसका प्रतिउत्तर देते हुए उसका हाथ पकड़ कर कहते हैं कि बच्चे तो हमारी बेरोजगारी के कारण पैदा हुए हैं। इस कारण यहाँ भूखमरी और बेरोजगारी ज्यादा हो गयी है। इस बात पर वह चालाक आदमी भी सहमत है। कवि कहते हैं कि वह चालाक आदमी सहमत है इसलिए हमारे भूख को शान्त करने के लिए हमे राशन भी देता है। लेकिन हमें भुलावा देने के लिए वह चालाक आदमी कहता है कि बच्चे हमें खुशियाँ देते हैं, हमारे जीवन में बसंत की बहार लाते हैं।

कवि आगे कहते हैं कि वह चालाक आदमी लेकिन यह भूल जाता है कि बंसत में प्रकृति की तरह हमारे यहाँ फूल-पत्ते नहीं बल्कि पेड़ों पर अपराध फूलते हैं। अर्थात् अधिक बाल बच्चे होने पर जनसंख्या का बढ़ना तथा बेरोजागारी और भूखमरी से लोगों का त्रस्त होकर अपराध की ओर अग्रसर होते हैं। जिसमें चोरी, डकैती, लूटमार तथा कई प्रकार के अपराध होते हैं जिससे की समाज फिर से त्राही-त्राही कर उठता है। कवि उस चालाक आदमी से इस समस्या का क्या निवारण है पूछना चाहते हैं मगर वह चालाक आदमी कवि के किसी भी बात का जवाब न देकर हँसता रहता है और अपना हाथ छुड़ाकर जनता का भला करने का दिखावा करते हुए वहाँ से चला जाता है।

कवि तब अपने आप को समझाने की चेष्ठा करते है कि तुम्हें जनता के बीच खाली हाथ जाने से क्यों झिझक हो रही है? तुम्हें तो किसी का सामना करना है? नहीं क्योंकि जनता की भलाई करने के लिए जो गया है यहाँ से उससे तुम्हें वास्तव में कुछ नहीं मिलने वाला। वही जनता भी स्वयं अपने प्रति जाग्रत नहीं है न ही वह इतनी सशक्त हुई है कि इन समस्याओं का सामना कर सके। बल्कि तुम वहाँ जाकर देखोगे कि सभी अँधेरे कुए में झाँक रहे होंगे और तुम्हें उनकी पीठ नज़र आ रही होगी। यहाँ अँधेरा कुआ कई अर्थों का प्रतीक है। गरीब. अशिक्षित, मेरुदंड हीन जनता को भी अँधेरा कुआ कहा जा सकता है तथा भ्रष्ट, चालाक, रिश्वतखोर, जमाखोर व्यापारी एवं राजनेता को भी। क्योंकि एक तरफ जनता अपनी परिस्थितियों से लड़ने और उससे उभर कर आने में असक्षम तथा वही भ्रष्ट समाज के ठेकेदारों द्वारा उनका शोषण यह सभी मिलकर समाज तथा राष्ट्र को अँधेरा कुआँ बना देते है जिसका कोई साफ-सुथरा निश्चित भविष्य नहीं दिखायी देता है।

कवि कहते हैं कि अब तो ऐसी हालत हो गयी है कि वे स्वयं को अपने ही सवालों से घिरा हुआ पाते हैं।  उन्हें आजादी और गाँधी के नाम से चल रहे उस मुहावरे का अर्थ भी समझ में आने लगा है जिसके नाम पर इतने दिनों से जनता को मूर्ख बनाया जा रहा है। यहाँ वे अप्रत्यक्ष रूप से नेहरु परिवार की तरफ इशारा करते हैं जो कि गाँधी के नाम पर वर्षों से जनता का मत प्राप्त करके अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेक रहा है। नेहरु परिवार का न तो गाँधी परिवार के साथ कोई सम्बन्ध था न है फिर भी वह गाँधी के नाम पर वोट मांग कर जनता को मूर्ख बना रही है। लेकिन जनता को यह समझ में नहीं आ रहा है तथा अपना वोट देने के बावजूद भी न तो उसकी भूख मिट रही है न ही उनके जीवन में कोई परिवर्तन आ रहा है। यहाँ वे इसे मौसम के रूप में सम्बोधित कर हैं।

कवि कहते हैं कि कहते हैं कि देश की जनता की कितनी दयनीय एवं विभत्स परिस्थिति हो गयी है कि वे पेड़ों से पत्ते और छाल खा कर जीने के लिए मजबूर हैं। अर्थात् जो कुछ भी मिले खाद्य-अखाद्य वे खा रहे हैं फिर भी वे इस व्यवस्था में परिवर्तन लाने की बात जनता को महसूस नहीं हो रही है। वे भूख से मर रहे हैं लेकिन अंधविश्वासी होकर दान-पून्य कर रहे हैं लेकिन उनमें जागृति नहीं आ रही है। वे नेहरू परिवार के तथाकथित राष्ट्रवादी नेताओं के बुलावे पर जुलूसों तथा जलसों में ईमानदारी से शामिल तो हो रहे हैं, हिस्सा ले रहे हैं लेकिन जनता में इतना भी साहस नहीं है कि वे अपने इन नेताओं से पूछ सके की इतने सालों की राजनीति के बावजूद भी क्यों देश की जनता भूखी है। बल्कि वे तो इस भूखमरी को सोहर की तरह गा रही है। वे धूप में खड़े होकर नेताओं के भाषण सुन रहे है वही धूप से उनके चहरे झुलस चुके हैं लेकिन उन चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं दिखायी दे रही है कि अगर हमारा वोट पाने के बावजूद भी हमारी भूखमरी नहीं मिटाते हो तो हम सरकार के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं। जनता अपनी परिस्थिति को स्वीकार किये हुए बैठी है तथा इतना कुछ होने पर भी न तो वह सच जानना चाहती है न ही कोई सबक लेने को तैयार है।

           

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