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बुधवार, 11 सितंबर 2024

समर शेष है कविता संदर्भ प्रसंग व्याख्या

 

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?

तू रानी बन गयी, वेदना जनता क्यों सहती है?

सब के भाग दबा रक्खे हैं, किसने अपने कर में?

उतरी थी जो विभा हुई बन्दिनी बता, किस घर में?

समर शेष है, यह प्रकाश बन्दीगृह से छूटेगा।

और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा।

 

संदर्भ:- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारे पाठ्य पुस्तक कवितांजलि में संकलित कविता समर शेष है से ली गयी है। इस कविता के रचैता रामधारी सिंह दिनकर जी है।

 

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि दिनकर जी देश की राजधानी दिल्ली में बैठी तत्कालीन सत्ताधारी लोगों एवं शासन पर निशाना साधते हुए प्रश्न पूछ रहे हैं कि खुद तो देश की राजधानी बन गयी दिल्ली लेकिन बाकि देश के लोगों के लिए तो अभी भी स्वराज आया ही नहीं है। सारे सत्ताधारी नेता अपने घरों तक तो स्वराज ले आये हैं लेकिन बाकि देश तो अभी भी अराजकता और व्यवस्थाहीन परिस्थिति के अधीन बना हुआ है।

 

व्याख्या:- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि दिनकर जी स्वराज कहा अटक कर रह गया इस प्रश्न का सीधा उत्तर वह दिल्ली से ही चाह रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि देश के आजादी के बाद जो पहली सरकार बनी वह दिल्ली में ही बनी थी। आजादी के आन्दोलन के समय जो नेतागण थे उन्होंने देश की जनता को अपना स्वराज दिलाने का वादा करके आन्दोलन में शामिल तो कर लिया लेकिन आजादी के सात साल बाद भी देश की जनता का हाल ज्यु का त्यों बना हुआ था। उस समय जो भी जनता के चुने नायक बने उन्होंने देश की जनता के लिए कोई भी विशेष उन्नति वाला काम नहीं किया। वही दिल्ली ही उस समय सब प्रकार से केन्द्र बनी हुई थी। अतः कवि व्यंग्यात्मक शैली में दिल्ली को रानी कहकर संबोधित किया और पूछने लगे की तू रानी बन चुकी है, तू भारतीय है फिर भी देश की जनता क्यों वेदना सहन कर रही है। अर्थात् ब्रिटिश शासन काल में तो विदेशी शासक थे तब लोगों पर अत्याचार की बात तो समझ में आती है। इसीलिए जनता ने आन्दोलन किया लेकिन अब तो देश के शासक भारतीय ही है फिर भी देश की जनता दुखी क्यों है? वे आगे पूछते हैं कि देश के लिए जो कुछ भी साधन तथा विकास के लिए धन, अर्थ, बल इत्यादि थे उसका अधिकांश भाग भ्रष्ट नेताओं ने अपने नाम कर लिया है। देश की जनता का भाग्य किसी एक ने अपने हाथों में कर लिया है। वह कौन है कवि पूछ रहे हैं। वे यह भी पूछते हैं की स्वराज की किरण जो इस देश की भूमि पर उतरी थी वह अब किसके घर में जाकर छुप गयी है? वे हिन्दुस्तान के लोगों का आहवान करते हुए एवं सत्ताधारी भ्रष्ट नेताओं को चेतावनी देते हुए कहते हैं कि हमारा समर अर्थात् युद्ध अभी बाकि है। एक दिन यह स्वराज रूपी प्रकाश बन्दीगृह से छूटेगा और अगर यह नहीं छूटा तो है पापिनि तुझ पर महावज्र टूटेगा। अर्थात् देश की जनता विद्रोह कर सकती है। किसी भी देश के लिए तब यह एक भयानक स्थिति होती है जब जनता विद्रोह कर देती है तो।

 

समर शेष है, इस स्वराज्य को सत्य बनाना होगा।

जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा।

धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं,

गंगा का पथ रोक, इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं,

कह दो उनसे, झुके अगर तो जग में यश पायेंगे,

अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों – से बह जायेंगे।

 

प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि दिनकर जी भ्रष्ट सत्ताधारी नेताओं को चेतावनी दे रहे हैं कि यदि उन्होंने देश के विकास की गंगा को रोका तो देश की जनता युद्ध करेगी और वे सारे नेता चाहे इन्द्र के हाथी ऐरावत जितने ही ताकतवर क्यों न हो वे पत्तों की भांति बह जाएंगे।

 

व्याख्या :- कवि कहते हैं कि यह देश जिसका है उसका अपना राज्य जब तक नहीं हो जाता तब तक स्वराज्य को सत्य नहीं माना जाएगा। स्वराज्य को सत्य बनाने के लिए देश की आम जनता को ताकत देनी होगी। उसे न्याय दिलाना होगा। उसकी तकलीफे दूर करनी होगी। इसके लिए लड़ाई लड़ते रहने की आवश्यकता है। यह स्वराज्य यह न्याय जिसका है उस तक पहुँचाना ही होगा। वही वे आगे प्राकृत्तिक बिम्बों का प्रयोग करते हुए वे भ्रष्ट नेता गण, शोषक प्रवृत्ति वाले नेता गणों को कहते हैं कि देश के विकास की गंगा रूपी नदी के आगे ये पहाड़ की तरह ये भ्रष्ट नेता गण जो खड़े हैं, विकास का रास्ता रोक कर हाथी के समान अड़ हुए है उनसे वे कहना चाहते हैं कि यदि वे जनता के विकास तथा उन्नति के लिए काम करते हैं तो उनकी प्रशंसा होगी। लोग उन्हें वास्तव में मान देंगे। वरना जिस प्रकार नदि कुपित होती है और उसमें बाढ़ आती है तो सब कुछ बह जाता है यहाँ तक कि हाथी जैसा शक्तिशाली वन्य पशु भी उसकी धारा में बह जाता है जैसे कोई हलका पत्ता हो उसी प्रकार यदि जनता ने अपनी लड़ाई लड़नी शुरु कर दी तो वे भी बह जाएंगे। यहाँ कवि एक तरफ देश की जनता को युद्ध के लिए बार-बार आहवान कर रहे हैं वही भ्रष्ट नेताओं को भी चेतावनी दे रहे हैं।

 

 

समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो,

शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।

पथरीली, ऊँची जमीन है, तो उसको तोड़ेंगे,

समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे।

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर।

खंड-खंड हो गिरे विषमता की काली जंजीर।

 

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियों में दिनकर जी की समतामूलक शोच प्रकट हो रही है। वे देश की जनता को सामाजिक विषमता को समाप्त करने तक युद्ध करते रहने के लिए कह रहे हैं।

 

व्याख्या :- कवि कह रहे हैं कि हमारा युद्ध अभी भी बाकि है। जनता की इस गंगा का खुल कर लहराने दो अर्थात् देश की जनता को आगे आने तथा उन्हें देश के विकास के लिए काम करने देने का मौका देना चाहिए। उन्हें अधिकार मिलना चाहिए ताकि वे सुखी रहे साथ ही देश के लिए वे काम कर सके अच्छे से। वे कह रहे हैं कि समाज में जो ऊँच-नीच का भेदभाव है उसे मिटाना जरूरी है। उसके लिए अगर समाज में बदलाव लाना है तो शिखरों और मुकुट रूपी समाज के ठेकेदारों को हटाना होगा। अर्थात् हमारे देश की आजादी के बाद भी कई समय तक जमींदारी तथा राजशाही व्यवस्था कायम थी। इसके चलते लोगों को कई प्रकार की कठिनाइयों तथा अन्याय का सामना करना पड़ता था। इसी कारण कवि कहते हैं कि ये जमींदार, छोटी-बड़ी रियासतो को राजा-महाराजाओं को अब अपने मुकुट तथा सत्ता त्यागनी होगी तथा देश के विकास के लिए आम जनता के रूप में काम करना होगा। तभी समाज में समतामूलक व्यवस्था कायम हो सकेगी। वे कह रहे है कि जिस प्रकरा खेती के लिए हम पथरीली, ऊँची-नीची जमीन को खोद कर काट कर उसे समतल बनाते हैं उसी प्रकार समाज में जो ऊँच-नीच, अमीर-गरीब तथा जातिवाद के कारण जो विषमता छायी हुई है उसे दूर करना ही होगा। उसके लिए लगातार लड़ाई लड़नी ही होगी। जब तक समानतावाद स्थापित नहीं हो जाता हम युद्ध भूमि नहीं छोड़ेगे। हम लगातार समतामूलक सोच रूप ज्योति के तीर समाज में बरसाते रहेंगे तथा इस विषमता रूपी काली जंजीर को तोड़कर ही रहेंगे। समाज से सारा भेद-भाव मिटा कर ही रहेंगे।

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