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शनिवार, 1 मार्च 2025

BBA 2nd sem SEP समानांतर लकीरें कविता व्याख्या

 

कविता: समानांतर लकीरें (प्रयागनारायण त्रिपाठी)

इस कविता में प्रेम, दूरी, सामाजिक बंधन, भय, और संशय जैसे तत्वों का गहरा चित्रण है। कवि ने प्रेम में आने वाली बाधाओं को "समानांतर लकीरों" के रूप में प्रस्तुत किया है, जो कभी मिलती नहीं हैं। यहाँ प्रत्येक पंक्ति की व्याख्या इस प्रकार है:


1. मैं अभी तक भी न छू पाया तुम्हें

  • यह प्रेमी की वेदना को दर्शाता है। वह अपने प्रिय से निकटता चाहते हुए भी उसे छू नहीं पाता, यानी उनके बीच कोई अदृश्य बाधा है।

**2. क्योंकि ढह पाईं नहीं

अब तक**

  • यह उन सामाजिक, मानसिक, और आत्मिक बाधाओं को इंगित करता है जो प्रेमी और प्रेमिका के बीच हैं।

**3-4. हमारे बीच की कुछ भीतियाँ—

यद्यपि बहुत झीनी**

  • "भीतियाँ" यानी दीवारें, जो उनके प्रेम में अवरोध बनी हुई हैं। ये बहुत पतली (झीनी) हैं, परंतु फिर भी टूट नहीं पाई हैं।

5. पवन-सी क्षीण।

  • यह दर्शाता है कि ये बाधाएँ बहुत हल्की और नाजुक हैं, जैसे हवा की एक हल्की परत, लेकिन फिर भी बनी हुई हैं।

6. अपरिचय की एक थी :

  • पहले अपरिचय (एक-दूसरे को न जानने) की दीवार थी, जो अब समाप्त हो गई है।

**7. वह ढह चुकी है—

कर चुकी है दृष्टि को छू दृष्टि**

  • अब वे एक-दूसरे को जान चुके हैं, एक-दूसरे की आँखों से आँखें मिला चुके हैं, यानी अब वे अजनबी नहीं रहे।

**8. परिचय ख़ूब :

पर अभी हैं और भी :**

  • प्रेमी और प्रेमिका एक-दूसरे से भली-भाँति परिचित हो चुके हैं, लेकिन अब भी कुछ और बाधाएँ शेष हैं।

**9-10. जैसे कि कायरता—

(कि आत्मा की अटल जो माँग,**

  • प्रेमिका (या प्रेमी) की कायरता एक बड़ी बाधा है। वह अपने हृदय की सच्ची भावना को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती।

**11-12. तुम बस खोजती रहती

उसी से भागने की राह)—**

  • प्रेमिका अपने भीतर के प्रेम को पहचानते हुए भी उससे बचने या भागने का रास्ता खोज रही है।

**13-14. और संशय

(यह कि पीपर-पात-सा**

  • संदेह (संशय) भी एक बाधा है। यह संशय शायद प्रेमी के मन की अस्थिरता को लेकर है।

**15-16. चल है पुरुष-मन)

और भय।**

  • पुरुष का मन पीपल के पत्ते की तरह चंचल होता है, यही संशय प्रेमिका के मन में भय पैदा करता है।

**17-18. (जग क्या कहेगा?

—क्षुद्र जग!)**

  • प्रेमिका समाज के डर से प्रेम को स्वीकार नहीं कर पाती। कवि इसे "क्षुद्र जग" कहकर इसकी संकीर्ण सोच की आलोचना करता है।

**19-20. और शायद पाप

(क्योंकि केवल**

  • प्रेमिका इस प्रेम को शायद 'पाप' मानती है, क्योंकि समाज ने प्रेम को नैतिक और धार्मिक नियमों के दायरे में बाँध रखा है।

**21-22. ग्रंथि-बंधन-दंभ ही है

पुण्य की ध्रुव माप!**

  • समाज ने पुण्य और पाप के जो मापदंड बनाए हैं, वे केवल ग्रंथियों (मानसिक उलझनों), बंधनों और दंभ (अहंकार) पर आधारित हैं।

23. जय हो! धन्य)।

  • यह एक व्यंग्यपूर्ण कथन है। कवि कहता है कि यदि यही पुण्य है, तो "जय हो"।

**24-25. तो यही हो,

ओ सती!**

  • प्रेमिका को "सती" कहकर कवि व्यंग्य करता है कि यदि वह प्रेम को स्वीकार करने के बजाय त्याग और संयम को अपनाने में ही पुण्य मानती है, तो यही सही।

**26-27. तो नहीं छू पाए तुमको,

ओ अछूती पुण्य!**

  • कवि कहता है कि अगर तुम इतनी पवित्र (अछूती) हो कि प्रेम को स्वीकार नहीं कर सकतीं, तो मैं तुम्हें कभी छू नहीं पाऊँगा।

**28-29. मेरे स्पर्श का अंगार;

तो सदा चलती रहो तुम**

  • प्रेमी का प्रेम तीव्र और जलता हुआ है, लेकिन यदि प्रेमिका इस प्रेम को नहीं स्वीकार सकती, तो वह अपनी राह पर चलती रहे।

**30-31. तो सदा चलते रहें ये स्वप्न

तो सदा चलता रहूँ मैं :**

  • प्रेम एक असंभव स्वप्न बनकर चलता रहेगा, और प्रेमी इसी अधूरे प्रेम के साथ जीवन में आगे बढ़ता रहेगा।

**32-34. ये समानांतर लकीरें तीन

(शायद चार)।**

  • "समानांतर लकीरें" प्रेमी और प्रेमिका के रिश्ते का प्रतीक हैं। वे एक-दूसरे के बहुत करीब होते हुए भी कभी मिल नहीं पाते।

कविता का सार

यह कविता प्रेम की उन बाधाओं को दर्शाती है जो समाज, भय, संशय, और आत्म-संकोच से उत्पन्न होती हैं। प्रेमी और प्रेमिका एक-दूसरे के करीब होते हुए भी समानांतर रेखाओं की तरह कभी मिल नहीं पाते। समाज की संकीर्ण सोच और व्यक्ति के मन में बसे संदेह प्रेम को अधूरा छोड़ देते हैं।